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Monday, December 3, 2007

पब्लिक टॉयलेट की सफाई करते पंडित जी की बात से मिहिरभोज को जातिवाद की बदबू आती है?

जाति संस्था पर बाजार और शहरीकरण के दबाव के बारे में लिखे मेरे लेख पर मिहिरभोज की टिप्पणी पढ़िए-
मिहिरभोज said...
कब हम मनुष्य को जातियों में बांटना बंद करेंगे,इस तरह के शोध परक लेख निश्चित ही जातिवाद की खाई को और मजबूत करेंगे

-क्या सचमुच! तो फिर ऐसे "शोधपरक" लेख न लिखे जाएं। अव्वल तो इस लेख में कोई शोध नहीं है। चंद ऑब्जर्वेशन हैं और समय की आहट को पहचानने की कोशिश की है। इस लेख में जिस निष्कर्षों के आसपास पहुंचने की कोशिश की गई है, उसके लिए निर्णायक ऐतिहासिक और समसामयिक साक्ष्य नहीं हैं। इस बारे में समाजशास्त्रीय शोधकार्य की काफी जरूरत है। ऐसे शोध हो भी रहे हैं। ऐसे शोध अलग अलग नतीजों तक पहुंच रहे हैं। कहीं तो जाति व्यवस्था के कमजोर पड़ने के संकेत दिख रहे हैं तो तो कहीं बदलाव के साथ जाति व्यवस्था एकाकार होकर अपने सारतत्व को बचा रही है तो कहीं जाति का बदलते समाज से सीधा टकराव हो रहा है।

मिसाल के तौर पर, एमएनसी कंपनियों में जॉब मार्केट और जाति-धर्म के रिश्तों पर दो अमेरिकी शोधकर्ताओं ने लंबा चौड़ा रिसर्च करके बताया है कि अगर आपके रेज्यूमे में मुस्लिम नाम है तो आपको इंटरव्यू या स्क्रीनिंग के लिए बुलाए जाने की संभावना हिंदू कैंडिडेट के मुकाबले 33 परसेंट के आसपास है। और दलित उपनाम होने से भी आपका चांस एक तिहाई घट जाता है। ये शोध आप संडे इंडियन पत्रिका (12 नवंबर से 18 नवंबर) के अंक की कवर स्टोरी- CORPORATE SOCIAL IRRESPONSIBILITY में पढ़ सकते हैं।

इस लेख के लिए शोधकर्ताओं ने एमएनसी कंपनियों में 4,808 एप्लिकेशन के सेट अलग अलग जाति और धर्मसूचक नामों के साथ भेजे और उसे मिले रिस्पांस के आधार पर नतीजे निकाले। ये सैंपल साइज कितना बड़ा है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि देश के लोगों की न्यूक्लयर डील पर क्या राय है इसे बताने के लिए 250 एसएमएस को पर्याप्त सैंपल साइज मानकर नतीजे निकाल लिए जाते हैं। ऐसे शोध आपको निर्णायक तौर पर ऐसे निष्कर्ष निकालने से रोकता है कि बाजार आएगा और बाजार छाएगा तो जाति मिट ही जाएगी।

बहरहाल इवोल्यूशन के बारे में एक थ्योरी ये रही है कि बंदर से आदमी बनने की प्रक्रिया में पूंछ तो झड़ गई लेकिन स्पाइन के अंत में उससे अवशेष रह गए। वैसे ही भारतीय संदर्भ में जाति का हाल है। और अभी तो पूंछ भी बाकी है। लेकिन समाज के बदलने की, यानी बंदर की पूंछ झड़कर उसके आदमी बनने की प्रक्रिया के लक्षण आपको नजर आ रहे होंगे। हो सकता है कि आप अपने आसपास के एविडेंस के आधार पर ये कहने की हालत में हो कि मुझे तो ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। अलग अलग राय की गुंजाइश ऐसे जटिल मामलों में हो ही सकती है। लेकिन मिहिरभोज जी, इसकी चर्चा करने से जातिवाद की खाई कैसे मजबूत होगी, ये समझ पाना मेरे लिए मुश्किल है।

बहरहाल, अक्टूबर महीने में जब मैं हंपी और बैंगलोर की घुमक्कड़ी कर रहा था तो हमें एक आईटी कंपनी में काम करने वाले ने बताया कि उनके यहां अरेंज्ड मैरिज अब कम ही होते हैं। ये एक बड़ा बदलाव है। कर्म और जाति का रिश्ता तो कमजोर हो ही रहा है (पंडित जी का पब्लिक टॉयलेट साफ करना और दलित का देश का राष्ट्रपति से लेकर चीफ जस्टिस और यूजीसी चेयरमैन बनना इसका प्रमाण माना जा सकता है), साथ ही शादी के मामले में रक्त शुद्धता की अवधारणा भी विरल हो गई तो वर्णाश्रम व्यवस्था का सार तत्व क्या बचेगा?

क्या जाति व्यवस्था इस बदलाव को झेल पाएगी। ये अनुत्तरित सवाल हैं। ठीक उसी तरह कि क्या सामंती उत्पादन संबंध के क्षीण होने, बाजार के सर्वव्यापी होने और शहरीकरण की प्रक्रिया के तेज होने के दौर में जन्मना कर्म विभाजन की वर्ण परंपरा इसी रूप में बच पाएगी? इस विषय पर तीखी बहस की गुंजाइश है। अगर आप जाति व्यवस्था में स्टेकहोल्डर नहीं हैं तो इस बहस से आपको भयभीत नहीं होना चाहिए। और अगर आप स्टेकहोल्डर हैं, तो भी आंखें खुली रखने में कोई बुराई नहीं है।
-दिलीप मंडल

3 comments:

ghughutibasuti said...

सब लोग सब तरह के काम कर रहे हैं यह तो खुशी की बात हैं । परन्तु और भी खुशी की बात तब होगी जब सफाई आदि का काम कुछ ऐसी सुविधाओं के साथ होगा कि वह काम किसी को हेय ना लगे । हवाई अड्डों व विदेशों में झाड़ू ,पोछा आदि भी बहुत सुविधाजनक हो रहे हैं । विदेशों में रह रहे लोग अपना काम खुद करते हैं , चाहे वह बगीचा हो, सफाई हो या कुछ भी । हम नेट पर एक पश्चिमी ट्रक चालक से पुस्तकें, दर्शन आदि पर बात कर सकते हैं, उसे अपना साइबर मित्र बना सकते हैं किन्तु किसी भारतीय ट्रक ड्राइवर से नहीं । इसका मुख्य कारण कुछ कामों को छोटा व कुछ को बड़ा मानना है । जब ये सब काम भी हमारे समाज में सम्मानित माने जाएँगे तो आधी समस्या तो स्वयं हल हो जाएगी ।
आज भी हममें से बहुत ऐसे हैं जिन्हें जाति से कोई विशेष मतलब नहीं है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि लगभग हम सब किसी ना किसी के लिए काम करते हैं, याने सर्विस, याने सेवा , वर्ण व्यवस्था के अनुसार लगभग हम सब शूद्र हैं ।
घुघूती बासूती

Bhupen said...

चूंकि जातिवादी अब पॉलिटिकली करेक्ट नहीं माने जाते, इसलिए जातिवाद के कीटाणुओं को साथ लेकर चलने वाले लोग सीधे-सीधे तो वर्ण व्यवस्था के पक्ष में कुछ नहीं कह पाते लेकिन उनके भीतर की सवर्ण मानसिकता हर वक़्त उबाल मार रही होती है. वो जातिवाद पर तार्किक बात करने और उसको ख़त्म करने के लिए रास्ता सुझाने वालों को भी जातिवादी की श्रेणी में रख देते हैं. तथाकिथत सामाजिक समरसता की बात करने वाले लोगों को इसी कटेगरी में रखा जा सकता है. मिहिरभोज भी अपनी प्रेरणा वहीं से तो नहीं लेते?

Satyendra PS said...

कुछ बदला है? जातिवाद? ब्राहमणवाद? -- पता नहीं

कुछ भी नहीं बदला है। हालात जस के तस हैं। जातिवाद भी उसी तरह है। पहले कुछ लोग करते थे, अब लगभग सभी करते हैं। गरीब हर जगह मारा जाता है। अपना हक मांगने वालों को नंगा किया जाता है। आरक्षण से रोजगार में कोई परिवतॆन नहीं आया है। अरे इस समय जितनी नौकरियां हैं, सभी अगर अनुसूचित जाति को दे दिया जाए तो भी वे बेरोजगार रह जाएंगे। आरक्षण लागू तो हो गया लेकिन लागू होने के बाद सभी संस्थान तो निजी हाथों में बिक चुके हैं। शिक्षा बिका, सार्वजनिक संस्थान बिके, बिजली विभाग भी आधा बिक गया है। जहां भी सरकारी आरक्षण लागू होता था, सब तो खत्म कर दिया गया है। तो कहां और किसका हक मारा जा रहा है? हां, बदलाव आया है। कुलबुलाहट बढ़ी है। सत्ता में दलितों की भागीदारी बढ़ी है। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की गई थी। उसके पहले तो कोई जातिवाद खत्म करने की बात शायद ही उठाता था। अब बिहार में सत्ता गई, यूपी में गई धीरे-धीरे दायरा बढ़ ही रहा है। तो स्वाभाविक है कि विकास की बात तो होगी ही। अब जाति के नाम पर वोट मांगना नाजायज होगा ही। विकास की बात की जाएगी। इस समय भी जातीय आधार पर स्थितियों का आंकलन करें तो कुछ खास नहीं बदला है। अभी तो यह दांडी वाले रास्ते पर भी नहीं बदला है, जहां ६१ साल के गांधी ७८ साल पहले, जातीय आधार पर भेदभाव खत्म करने की अपील कर आए थे। मधुकर जी ने भी दांडी मार्च किया। उसी रास्ते पर जिस पर गांधी चले थे। किताब लिखी- धुंधले पदचिन्ह। कुछ भी तो नहीं बदलाव नजर आता है। हां.. इतना फर्क जरूर पड़ा है। गांधी के बाद से लोग आवाज उठाने लगे हैं। चुपचाप नहीं सहते। कुछ अपना गांव-घर छोड़कर बाहर आते हैं। किसी तरह, जाति वगैरह छिपाते। प्राइवेट और सरकारी सेक्टर में काम करते हैं। ब्लागिंग भी करते हैं और सवर्णों सा अवर्णों को गरियाते हैं।स्थितियां तो जस की तस हैं, लेकिन पन्द्रह साल की उथल-पुथल ने लोगों को सोचने पर मजबूर जरूर किया है, लोगों में कुलबुलाहट जरूर है।

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