ये शोध कोई नई बात नहीं कहता। इसे हम अपने आस-पास होता हुआ कहीं अधिक साफ-साफ देख रहे हैं। ये शोध इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में आस्था और आंख मूंदकर श्रेष्ठ की बात मान लेने की जो बात हमारे खून में है, उसका निषेध यहां दिख रहा है। ये शोध या ऐसे शोध कायदे से किसी भारतीय विश्वविद्यालय या शोध संस्थान को कराना चाहिए था। नीचे लिखी रिपोर्ट को पढ़ते समय ये ध्यान में रखें कि इसका विषय ही वैश्वीकरण के दौर में जाति, लिंग और स्कूलिंग च्वाइस है। वैश्वीकरण के बुरे असर को शोध के विषय में ही शामिल नहीं किया गया है, जबकि वैश्वीकरण का भारतीय प्रयोग बड़ी संख्या में लोगों के लिए तकलीफदेह साबित हो रहा है।
ब्राउन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री कैवन मुंशी और येल यूनिवर्सिटी के मार्क रोजेंविग ने पिछले दो दशक में मुंबई के दादर इलाके में 10 इंग्लिश मीडियम और 18 मराठी मीडियम सेकेंडरी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र और छात्राओं की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि, स्कूल के रिजल्ट, पासआउट होने के बाद उनके रोजगार के पैटर्न और उनकी स्कूलोत्तर सामाजिक जिंदगी का अध्य्यन किया। ये शोध द अमेरिकन इकॉनमिक रिव्यू में छपा है। हार्वर्ड यूनवर्सिटी की साइट से आप इस पीडीएफ फाइल को डाउनलोड करके पूरा शोध पढ़ सकते हैं। शोध 59 पेज में छपा है। भारतीय समाज में बदलाव के बारे में नजरिया बनाने में इस शोध से मदद मिलेगी।
शोधकर्ताओं को पासआउट छात्रों में शादी की 792 केस स्टडी मिली। उनमें से 11.8 फीसदी ने इंटरकास्ट मैरिज की। जबकि उनके माता पिताओं में से सिर्फ 3.6 फीसदी ने ही जाति तोड़कर शादी की थी। ये बदलाव मुंबई शहर में एक पीढ़ी में आ गया। महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि इंग्लिश स्कूल से पढ़कर निकलने वालों में 31.6 फीसदी ने इंटरकास्ट मैरिज की। जबकि मराठी स्कूल के पासआउट में इंटरकास्ट मैरिज का प्रतिशत 9.7 फीसदी है। इंग्लिश स्कूलों में पढ़ने वालों में से आधे से थोड़े ही कम यानी 41 फीसदी नौकरी के लिए महाराष्ट्र से बाहर चले गए। जबक मराठी स्कूलों में पढ़ने वालों में 11 फीसदी ही राज्य के बाहर नौकरी करते हैं। इंग्लिश स्कूल में पढ़ने वालों में ज्यादातर के हिस्से आए ह्वाइट कॉलर जॉब जबकि मेहनत मजदूरी के काम मराठी स्कूल के छात्रों को ज्यादातर मिले। इंग्लश स्कूल में पास परसेंटेज 90 फीसदी से ज्यादा रहा जबकि मराठी स्कूलों में 50 फीसदी से कुछ ही ज्यादा।
शोध का एक और महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि स्कूल से बेहतर शिक्षा प्राप्त करने में लड़कियों ने लड़कों को पीछे छोड़ दिया है। दादर के इलाके में ये पाया गया कि लड़कों को जल्द रोजगार में डाल देने की प्रवृत्ति है। इसका फायदा प्रकारांतर में लड़कियों को मिल रहा है। शोध का निष्कर्ष है कि इंग्लिश शिक्षा लोगों को परंपरागत पेशे से मुक्त कर रही है और साथ ही जाति के बंधन भी इसकी वजह से टूट रहे हैं। शोध की अंतिम पंक्ति है- आधुनिकीकरण की ताकतें उस व्यवस्था को आखिरकार तोड़ सकती हैं जो हजारों साल से जड़ जमाए हुए है।
इस बारे में मैं अपने शिक्षक बालमुकुंद के एक लेख आप तक पहुंचा रहा हूँ। बालमुकुंद जी मौजूदा समय में सबसे धारधार लेखन करने वालों में गिने जाते हैं। मीडिया पर उनके मार्गदर्शन में किए गए कई शोध बहुचर्चित रहे हैं। उनकी किताब शैलीपुस्तिका हिंदी पत्रकारिता की पहली स्टाइल बुक है। वो टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज में कोर्स डायरेक्टर रह चुके हैं। उनके पढ़ाए कई सौ छात्र विभिन्न पत्रकारिता संस्थानों में काम कर रहे हैं। लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। -दिलीप मंडल
2 comments:
किसी भी शोध में यदि कुछ मौलिक सिद्धान्तों की अनदेखी की जाय तो चौंकाने वाले निष्कर्ष
निकालना बायें हाँथ का खेल है।
इन तथाकथित शोध ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य की अवहेलना की है - मराठी स्कूल में प्रवेश लेने वाले और अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश लेने वालों की सामाजिक पृष्ठभूमि में प्रवेश लेते समय ही जमीन-आसमान का अन्तर होता है। इसलिये स्कूलोत्तर जीवन अलग-अलग होना अंग्रेजी या मराठी शिक्षा की देन कैसे मान ली जाय।
दूसरी बात, ९% और ११% में इतना अन्तर नहीं है कि इस शोध को महत्व दिया जा सके।
इस तथाकथित शोध को करने वाले विदेशी हैं। यदि वे भारतीय समाज के किसी आयाम से अनभिज्ञ हैं, तो इसमे आश्चर्य की बात नहीं है। किन्तु मुझे लगता है कि इन्होने जानबूझकर ये कुतर्कपूर्ण शोधपत्र रचा।
बहुत ही दिलचस्प लेख ! शोध के परिणाम तो हमारे अन्दाजे अनुकूल ही निकले, परन्तु ठोस होने के कारण इन्हें अधिक गम्भीरता से लिया जा सकता है । जो कुछ भी जातिवाद को खत्म करने में सहायता करे उसका स्वागत है ।
घुघूती बासूती
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