उदय जी,
एक बार आपसे मुलाकात में आपकी किसी कहानी की तारीफ की थी तो आपने कहा था- 'मैं मूलत: कवि हूं, मुझे कहानीकार मानना कुछ वैसा ही है कि कुम्हार कभी कपड़ा सिल दे और उसे दर्ज़ी समझ लिया जाए।'
मैं तो मूलत: आपकी कहानियों का मुरीद हूं, लेकिन आपकी कविताएं पढ़कर फैसला नहीं कर पाता कि आप कुम्हार बड़े हैं या दर्ज़ी।
December 6, 2007 8:55 PM
कुम्हार, दर्ज़ी, बढई, जुलाहा, मोची, लोहार, मेकेनिक (मिस्त्री),साफ़्ट्वेयर इन्जीनियर वगैरह सब के सब अपने-अपने माध्यम के कारीगर ही है। आप मुझे हिन्दी भाषा का एक गैर-ब्राह्मण, गैर-ठाकुर, गैर-कायस्थ, गैर-बनिया, गैर-दलित, गैर-मुसल्मान कारीगर ही समझिये- यानी 'लेखक'। साथ मे दिलीप मन्डल द्वारा भेजा गया 'स्टिन्ग आपरेशन' पढ लीजिये।
भाई, बहुत कठिन है किसी अग्यात-कुलशील कारीगर का 'देव-राजभाषा' हिन्दी का कवि, कथाकार, अध्यापक, पत्रकार या मीडियाकर्मी होना। हमारे जैसे वर्णाश्रम बहिस्क्रित लोग हिन्दी साहित्य के जे.जे.कोलोनी के कुम्हार या दर्जी या कारीगर ही है। गरीब-गुरबे और हाशिये के लोग ही यहा कपडा सिलाने आते है। जब एम.एन.सी. तक जातिवाद के 'राजरोग' से नही बची, तो क्या हिन्दी कविता, कहानी, अकदेमिकता, पत्रकारिता और विचारधाराये इससे बची रह सकती थी। असम्भव। यह सदियो पुरानी सच्चाई है।
जो इस जातिवाद के खिलाफ़ बोलेगा, वह या तो 'जातिवादी' ठहरा दिया जायेगा या 'साम्प्रदायिक'। ज़रा एक बार हिन्दी की कविता-कहानी ही नही, सभी अनुशासनो, चैनलो, अखबारो, सन्स्थानो, विभागो, लेखक सन्गठनो का स्टिन्ग आपरेशन कर के देखिये...आप पायेन्गे कि यहा हमारा कुछ भी होना कठिन है। इस देश और इस भाषा मे जन्म लिया है, तो जीवन तो गुज़ारना ही है। प्रार्थना और पीडा और शाप से भरा जीवन।
काश कभी इस देश की राजनीति और हमारी भाषा जातिवाद के इस कैन्सर से मुक्त हो!
शुभकामनाये !
1 comment:
आपकी पोस्ट पर नजर देर से गई। दंग हूं कि नौ परसेंट जीडीपी ग्रोथ का बाजा बजाते हुए आखिर कितना भदेस होने की तरफ यह समाज बढ़ रहा है!
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