प्रणव प्रियदर्शी
सहमति-असहमति अपनी जगह. इसमे दो राय नही कि अनुनाद सिंह ने अपनी बात प्रभावी अंदाज मे कही है. उनको बधाई.
मुझे लगता है उनकी इस प्रभावी प्रस्तुति के बाद अब इसमे किसी को संदेह नही रह गया होगा कि इतिहास मे, परम्पराओं मे और समकालीन समाज मे भी सब कुछ सहेज कर रखे जाने लायक नही होता. कुछ चीज़ें टूटने के लिए छोड़ देने लायक होती हैं तो कुछ सायास तोडे जाने लायक भी होती हैं.
इसीलिए बहस सिर्फ इसी बात पर केन्द्रित होनी चाहिए कि क्या तोडे जाने लायक है और क्या नही. आपका दृष्टिकोण बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप किस ज़मीन पर खडे होकर बहस कर रहे हैं. अगर बतौर हिन्दू या मुस्लिम चीजों को देखेंगे तो बहस का स्वरूप एक तरह का होगा, लेकिन अगर दलित के रूप मे सोचेंगे तो मुद्दों का स्वरूप बदल जायेगा.
इसी प्रकार लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि अन्य पहचानो पर आधारित दृष्टि समस्या को खास रूप दे देती है. इसीलिए शिवसेना को मुम्बई की सभी समस्याओं की जड़ मे परप्रान्तीय नज़र आते हैं, शहरों मे रोजगार के केन्द्र बनाते हुए गावों मे बेरोजगारी बढाने वाली नीति उसके लिए कोई मुद्दा नही बनती.
मुझे लगता है जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि से जुडी पहचान व्यक्ति की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि भोजन, रोजगार आदि से जुडे मुद्दे उसकी बुनियादी ज़रूरतों से वास्ता रखते हैं. पहले ये ज़रूरतें हैं, तब इंसान का अस्तित्व है और तभी हैं भावनाओं से जुडी उसकी अलग-अलग पहचानों का द्वंद्व.
इसीलिए भारत जैसे देश मे (वैसे यह बात आज की तारीख मे हर देश के लिए उपयुक्त है) राजनीति भी वही ज्यादा उपयोगी है जो बुनियादी ज़रूरतों से जुडे मुद्दों पर केन्द्रित हो और बहस भी वही.
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2 comments:
उचित और सार्थक चिंतन.
समर्थन करता हूँ आपकी बात का.
राजनीति भी वही ज्यादा उपयोगी है जो बुनियादी ज़रूरतों से जुडे मुद्दों पर केन्द्रित हो आपके विचारो से सहमत हूँ |
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