अनुनाद सिंह नाम के विचार को संबोधित मेरे लेख पर अनुनाद सिंह और कई लोग बात रख रहे हैं। उन्हें एक साथ पढ़िए। फैसला पढ़ने वालों पर छोड़ता हूं। -दिलीप मंडल
अनुनाद सिंह said...
दिलीप दा, आप अपने ही प्रथिस्थापनाओं और विचारों से लड़ते नजर आ रहे हैं। क्या हमारे बच्चों को दिखाने के लिये छूआछूत भी बचाकर रखी जानी चाहिये? आजकल आप जातिवाद को तोड़ने की मुहिम में लगे हुए हैं। मैं भी जातिवाद के कुछ गन्दे पहलुओं से घृणा करता हूँ। पर आपका लेख पढ़ने के बाद मेरे मन में शंका उठ रही है कि इसे समाप्त करके क्या हम अपने बच्चों को युगों-युगों से विद्यमान इस परम्परा को देखने से वंचित नहीं कर देंगे?
लेनिन की मृत्यु के बाद पीटर्सबर्ग का नाम बदलकर लेनिनग्रद क्यों कर दिया गया था? लेनिन के अनुयायियों को इतिहास की समझ नहीं थी क्या?
मैने एक रक्तवर्णी इतिहासकार की एक पुस्तक पढ़ी थी। आरम्भ ही वह कुछ इस 'सिद्धान्त' से करते हैं कि जब तक पुराना घर नहीं टूटेगा, नया घर कैसे बनेगा? क्या कामरेडों ने इस विचार का त्याग कर दिया है?
मेरा एक पुराना घर था, जर्जर हो गया था; कब गिर जाय इसका कोई ठिकाना नहीं था। मेरे पिताजी ने इसे गिरवाकर नया घर बनाया। मुझे उन्होने मेरे पुराने घर को देखने से वंचित कर दिया।
ये जो रोज-रोज "पूंजीवाद का नाश हो' का राग अलापा जाता है; क्या वह गलत नहीं है? हमारे बच्चों को पूंजीवाद को प्रत्यक्ष देखने का हक है या नहीं?
कारगिल में पाकिस्तानियों ने बंकर बना लिये थे। उन बंकरों को भी हमारे बच्चों को देखने का हक था। भारतीय सेना ने उन्हे तोड़कर बहुत गलत काम किया।
न्यूयार्क के वर्ड ट्रेड सेन्टर को भी देखने का हक था हमारे बच्चों को; लेकिन उसके पतन पर किसी भी रंग-वर्ण वाले कामरेड ने एक भी आंसू नहीं बहाया।
भारत में अंग्रेजों का साम्राज्य था; उसे भी बरकरार रखना चाहिये था। आजकल के बच्चे पूछ लेते हैं कि हमारे आने के पहले ही इसे क्यों हटा दिया गया।
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिन्दू नामक प्राणि विलुप्त हो रही है। राही को कभी उस पर भी आंसू बहाते हुए दिखाइये।
रही बात हिन्दुओं द्वारा जैनों, बौद्धों आदि पर अत्याचार की, तो आप को याद दिला दूं कि महात्मा बुद्ध हिन्दुओं के दसावतारों में से हैं। इस पर बहुत बड़ा लेख लिखा जा सकता है। लेकिन कई विषयों का घालमेल करने से मेरे इस टिप्पणी की दिशा ही नष्ट होने का भय है। अस्तु इतना ही।
Srijan Shilpi said...
"ऐतिहासिक अन्याय को कहां-कहां खत्म करेंगे? हिसाब तो आदिवासी भी, जैन भी, बौद्ध भी और दलित और दूसरी अवर्ण जातियां और सभी जाति और धर्म की औरतें भी मांग सकती हैं। दे पाएंगे हिसाब? सोच लीजिए।"
सही सवाल है, जिसका सही उत्तर देने की हिम्मत और अक्ल यदि किसी पास हो तो बताए।
लेकिन दिलीप जी, इतिहास में जो अन्याय होते रहे हैं, उनके कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे सामूहिक मानस में कई प्रकार की ग्रंथियां बनती गई हैं, जिन्हें सुलझाया जाना बहुत जरूरी है। दिक्कत यह है कि उन ग्रंथियों-गाँठों को सुलझाये जाने की बजाय उन्हें पहले से अधिक जटिल बनाया जा रहा है। सत्ता और वर्चस्व के खेल के कारण हमारे सामूहिक मानसकी विषाक्तता बढ़ती जा रही है।सहनशीलता, धैर्य, अहिंसा और शांति का निरंतर होता लोप हमारे समाज के भविष्य के लिए खतरे की घंटी है।
एक बार स्वामी विवेकानन्द भी मुगल काल में तोड़े गए देवी के मंदिर के खंडहर को देखकर उबल पड़े थे और कसमसाहट में उन्होंने मन-ही-मन कहा कि "यदि उस वक्त मैं रहा होता तो जान की बाजी लगाकर भी उस मंदिर को तोड़ने से बचाने का प्रयास करता।" रात में सपने में काली माँ ने आकर उनसे पूछा, "मैं तुम्हारी रक्षा करती हूँ या तुम मेरी रक्षा करते हो? क्या मैं अपनी रक्षा खुद करने में समर्थ नहीं हूँ?"
बाद में, स्वामी विवेकानन्द को समझ में आया और इस बात को उन्होंने कहा भी कि मुगलों और अंग्रेजों की पराधीनता का दौर भारत के भावी स्वर्णिम उत्थान के लिए एक अनिवार्य चरण था।
भारत ने पराधीनता के दौर में जो खोया है, उसकी भरपाई इक्कीसवीं सदी में वह कर लेगा। लेकिन पराधीनता के भयावह दौर से गुजरे बगैर सामाजिक न्याय की दिशा में हम शायद एक कदम आगे नहीं बढ़ पाते।
यह हमारी पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि हम पुराने जख्मों को भरने का काम करें और मिल-जुलकर देश को आगे बढ़ाएं। घाव कुरेदने से दर्द के अलावा और कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
vijayshankar said...
दिलीप जी,
इस टिप्पणी की आख़िरी पंक्तियों (...और अपने आस पास के बच्चों से भी पूछ लीजिए कि क्या वो देश के हजारों मंदिरों, मस्जिदों और दूसरे पूजा स्थलों को गिरा दिए जाने के पक्ष में है), में आपने थोड़ी ढिलाई बरती है. जिस सोच पर आपने टिप्पणी की है, वह बच्चों से उनका बचपन छीनकर अपनी-अपनी किस्म की नफ़रत के पाले में कर लेती है. उनका बहुत बड़ा गणित है भविष्य का. ...बच्चों से भी पूछेंगे तो कौन जाने क्या जवाब मिले. अपने हित के बिम्ब-प्रतीक विधान बचपन से भरने लगते हैं. अब तो इनकी ऐसी पूरी फसल तैयार है जो देश के कई महत्वपूर्ण ओहदों पर कब्जा कर चुकी है. इससे इनको अपना एजेंडा लागू करना आजकल कितना आसान हो चला है. देख लीजिये, कैसे-कैसे कुतर्क करने में माहिर लोग हैं ये.
संजय बेंगाणी said...
भारत धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं के कारण बना हुआ है, और इसे बनाए रखने की सारी जिम्मेदारी केवल हिन्दुओं पर डाल देना मुझ गेर-हिन्दु को गलत लगती है. यह सामुहिक जिम्मेदारी है.
हिन्दुओं के दर्द पर भी कविताएं लिखना और आँसू बहाना सिखीये.
1 comment:
मैं विजयशंकर जी से चाहूँगा कि वे 'कुतर्क' की अपनी परिभाषा पर थोड़ा और प्रकाश डालें और विशेष रूप से यह स्पष्ट करने की कृपा करें कि उनकी शब्दावली में क्या कुतर्क उन तर्कों को कहते हैं जो उनको निरुत्तर कर दें?
Post a Comment