-दिलीप मंडल
सही कह रहे हैं अजित वडनेरकर। बिहारी और पूरबिए होने के एहसास को दंभ में पतित होते देखना त्रासद है। ये मानने में शर्म क्यों भैया कि बिहार, पूर्वी और सेंट्रल यूपी, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वी मध्य प्रदेश, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश का एक हिस्सा देश के बाकी राज्यों की तुलना में पिछड़े हैं। क्या आपने सड़क पर भीख मांगते उन बच्चों को देखा है जिनके शरीर के कुछ अंग कम विकसित होते हैं। दरअसल भारत की असली तस्वीर कुछ ऐसी ही है। कुछ हिस्से मजबूत और कुछ हिस्से लकवाग्रस्त। लगवाग्रस्त हिस्से का इलाज होना चाहिए। लेकिन ये कैसा विद्रुप कि लकवे का शिकार अंग कह रहा है कि देखो मैं कैसा स्लिम-ट्रिम हूं। ज्ञान विज्ञान में लगभग एक हजार साल से तंद्रा में जी रहा अपना देश जब खुद को विश्वगुरू कहता है तो भी वैसा ही कारुणिक हास्य पैदा होता है।
- दक्षिण भारत के चार बड़े राज्यों की प्रति व्यक्ति औसत आमदनी है सालाना 25 हजार रुपए से ज्यादा। नेशनल एवरेज है 23 हजार रूपए। उत्तर प्रदेश की पर कैपिटा इनकम है 11 हजार रुपए और बिहार की है उत्तर प्रदेश का भी फिफ्टी परसेंट। इस बात पर तो अफसोस होना चाहिए, क्रोध आना चाहिए, इस असमानता को दूर करने के तरीकों पर बात होनी चाहिए लेकिन ऐसे बिहार और उत्तर प्रदेश पर अहंकार किस बात का। बिहार का टैलेंट है तो भी बिहार को कुछ भी नहीं दे रहा है। उत्तर प्रदेश का तथाकथित टेलेंट भी उत्तर प्रदेश के काम नहीं आ रहा है। और किस टेलेंट की बात कर रहे हैं आप। किताबें रटकर यूपीएससी पास होने की ओर तो इशारा नहीं है आपका! और यूपीएससी में फेल होने के बाद मीडिया में हाथ आजमाने वालों को महान टेलेंट वालों में तो नहीं गिन रहे हैं आप! ये सब मजबूरी है। रेड एफ एम का ऐड है न- करना पड़ता है। वैसी ही बात है।
कृपया इस दंभ और अहंकार से छुटकारा पाने की कोशिश कीजिए कि उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़ा टैलेंट है और इन प्रदेशों से ढेर सारे अफसर और पत्रकार और साहित्यकार पैदा हो रहे हैं। इन प्रदेशों में अपना काम करने का अवसर और परंपरा नहीं हैं, भूमि सुधार न होने के कारण खेती का विकास अवरुद्ध है, इसलिए नौकरी के पीछे देश भर में भागते हैं यहां के लोग। इसमें कोई गर्व की बात नहीं है। शर्म की बात भी नहीं है। कोई विदेशी-देशी पूंजी निवेश नहीं, नया रोजगार नहीं, लोग नौकरी न ढूंढें तो क्या करें। नौकरी के पीछे लाखों बिहारी और पूरबिए भागेंगे तो नौकरियों में वही तो ज्यादा दिखेंगे।
दरअसल देश के पिछड़े हुए प्रदेश विकसित इलाकों के लिए एक तरह के उपनिवेश बन गए हैं, आंतरिक उपनिवेश। जहां का सस्ता श्रम और कच्चा माल विकसित भारत की जरूरतें पूरी कर रहा है। इन प्रदेशों का पिछड़ापन कोई अपने आप पैदा हुई चीज नहीं है। न ही इसके लिए ये प्रदेश दोषी हैं। इन अन्याय की जड़े इतिहास में हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि चार दक्षिण भारतीय राज्यों तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक को मिलाकर कुल 22 करोड़ आबादी है और दसवीं योजना में इन राज्यों को मिलाकर 154 हजार करोड़ रुपए केंद्रीय सहायता के तौर पर मिले है। बिहार और उत्तर प्रदेश की सम्मिलित आबादी दक्षिण भारतीय राज्यों से ज्यादा यानी 25 करोड़ है और इन दो राज्यों को केंद्र से सिर्फ 80 हजार करोड़ रुपए की सहायता ही मिल रही है। ऐसा देश की राजनीति पर लंबे समय तक इन दो राज्यों के दबदबे के बावजूद हुआ है।
बिहार को लेकर या पूर्वी उत्तर प्रदेश को लेकर मुंबई और दिल्ली में जो नफरत कभी कभी कुछ लोगों में दिखती है वो इसलिए है क्योंकि वो इन लोगों को लेकर एक स्टीरियोटाइप धारणा के शिकार हैं। ये प्लेटफॉर्म सिड्रॉम भी है क्योंकि दिल्ली और मुबई तो हर लिहाज से प्रवासियों का शहर हैं। जो प्रवासी पहले आ गए और वो बाद में आने वाले प्रवासियों को हिकारत से देखते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि प्लेटफॉर्म का आदमी ट्रेन में घुसने के लिए - "भाई साहब जरा एडजस्ट कर लीजिए" की गुहार लगाता है, लेकिन जब वो खुद ट्रेन में सवार हो जाता है तो प्लेटफॉर्म वाले को कहता है - "अंदर जगह नहीं है।"
मुंबई और दिल्ली को बिहार की जरूरत है। बिहार यानी पिछड़े हुए प्रदेश। पिछड़ें प्रदेश वालों के श्रम से चलते हैं ये शहर। लेकिन बिहारियों की संख्या इन शहरों को भयभीत करती है। बिहारियों को लेकर जिस घृणा का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है, वो इस शायद इस भय से ही उपजा है। साथ ही बिहारियों की नई पीढ़ी अब इन शहरों में रिक्शा चलाने और दूध बेचने के अलावा भी बहुत कुछ करती दिखने लगी है। उन्होंने शहर के बाहर जो जमीनें खरीदी थीं, वो हिस्से शहर के बीच में गिने जाने लगे हैं। इस पर फिर कभी।
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2 comments:
बिलाग पर ई रोज-रोज रार-लफड़ा क बात-कुबात नीक नइखे लागत। कबौं नीक-नीक भी सोचल करा।
बिल्कुल व्यवहार वही एडजेस्ट करनेवाले मुसाफिर जैसा ही है. बड़ा मुद्दा है प्रवासी का स्वभाव ऐसा क्यों होता है?
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