(संदर्भः ‘हंस’ की सालाना गोष्ठी में विश्व रंजन को बुलाने की खबर पर अरुंधति रॉय का आने से इनकार...)
हंस पत्रिका की सालाना गोष्ठी में आई पी एस विश्वरंजन को वक्ता के तौर पर बुलाए जाने पर अरुंधती द्वारा विरोध में इस गोष्ठी में शामिल न होने से उपजे विवाद से हिंदी साहित्य और सरोकार की दुनिया में 'चंडूखाना' प्रवृत्ति बहुत ठीक से उजागर हो गयी है. एक ने कहा कि 'कौवा कान ले गया, और सब हो-हो कर दौड़ पड़े कौवे के पीछे!
लेकिन राजेंद्र यादव से मिलते ही पूरी परिस्थिति साफ़ हो गयी.
लगभग एक सप्ताह से चल रहे घनघोर सरोकारी समाज के एकतरफ़ा युद्ध में वैसे तो तभी दाल में काला नज़र आने लगा था जब मामले में स्वयंभू तरीके से पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों राजेंद्र यादव को उदधृत किये बिना ही सारा मामला तय किये दे रहे थे और सज़ा भी सुनाई जा चुकी थी. कुछ एक लोगों से बात हुई तो लगा कि राजेंद्र यादव जी को उनके इस फ़ैसले पर दोबारा विचार करने के लिए कहा जाए। वे यदि नहीं माने तो हमारी ओर से भी सक्रिय विरोध होगा. राजेंद्र जी से समय मांगा तो उन्होंने अगले दिन यानी रविवार 18 जुलाई शाम 5 बजे का समय दे दिया. तय समय पर हम सब (दिलीप मंडल, रजनीश, अरविन्द शेष, शीबा असलम फ़हमी और पूनम तुषामड़) वहां पहुंचे. अनीता भारती भी आना चाहती थीं पर दिल्ली से बाहर होने की वजह से उन्होंने संदेश भेजा कि मुझे भी अपने दल में शामिल समझिये.
जाते ही सबसे पहले हमने अपना अपना परिचय दिया और उन्हें बताया कि हम यहां उनके इस फ़ैसले पर पुनर्विचार का आग्रह करने आए हैं कि 'हंस' जैसे जनवादी मंच पर विश्वरंजन जैसे पुलिस वाले को सफाई का मौक़ा दिया जा रहा है. राजेन्द्र जी ने पूरी सहजता से कहा कि ऐसा फ़ैसला कभी लिया ही नहीं गया. हां, ‘हंस’ की गोष्ठी में तय विषय के संदर्भ में विश्व रंजन का नाम आया जरूर था. उनके मुताबिक ‘हंस' के दफ़्तर में वक्ताओं की सूची अभी परसों फाइनल की गयी.
लेकिन ब्लॉग पढ़ने वालों से लेकर अब बहुत सारे लोग जानते हैं कि ये विवाद पिछले एक हफ्ते से चल रहा था. हम सभी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे कि ब्लॉगों पर तो पक्ष और प्रतिपक्ष जिस अंदाज़ में भिड़े पड़े है उससे ये लग रहा है कि विश्वरंजन का आना तय है और अरुंधती ने इसी वजह से नहीं आने का फ़ैसला किया है.
राजेंद्र यादव से जब ‘मोहल्लालाइव’ और ‘जनतंत्र’ पर अविनाश और समरेंद्र के लेख के बारे में बताया कि वे आपके चेहरे और उस पर छाई उदासी से समझ गए कि इसका कारण विश्व रंजन विवाद है तो राजेंद्र जी बोले- "जिस दिन अविनाश और समरेन्द्र जी आए थे उसी दिन मैं अपने पेट के ऑपरेशन के टांके कटवा कर अस्पताल से सीधा दफ़्तर आया था. मुझे कुर्सी पर बैठने में असुविधा भी थी और दर्द भी महसूस हो रहा था, लेकिन एक हफ्ते से चूंकि दफ़्तर नहीं आ पाया था और अंक जाना था, तो मजबूरन आना पड़ा. (इसके अलावा भी उन्होंने कुछ स्वास्थ्य सम्बन्धी जटिलताएं बताईं जो ऑपरेशन के कारण बढ़ गयी थीं.) उस स्थिति में कोई कैसे तारोताज़ा और ऊर्जावान और सहज दिख सकता है?"
हम सभी असमंजस में थे कि अब बात क्या करें? इसके बाद राजेंद्र जी ने कहा कि विश्व रंजन को बुलाने की खबर पूरी तरह बेबुनियाद और झूठी है. लेकिन मुझे आप लोग ये बताइए कि किसी मसले पर अगर सभी एक ही तरह की बात करने वालों को बुलाया जाए तो बहस कैसे होगी? क्या वह महज कीर्तन बन कर नहीं रह जाएगा. एक लोकतांत्रिक तकाजा भी है या नहीं कि पक्ष-विपक्ष दोनों की बातें भी सुनी जाएं.
इस पर अरविन्द शेष और शीबा असलम दोनों ही बोल पड़े. अरविन्द शेष का कहना था कि लेकिन क्या हमारा यह लोकतंत्र सेलेक्टिव होगा. अगर हम विश्व रंजन को बुलाते हैं तो अटल बिहारी वाजपेयी, नरेंद्र मोदी या तोगड़िया को क्यों नहीं? क्या सिर्फ इसलिए विश्व रंजन से हत्याओं के औचित्य का भाषण सुना जाए क्योंकि वे कवि हैं? कल को अगर नरेंद्र मोदी अपनी कुछ सांप्रदायिकता विरोधी और बेहद मानवीय कविताएं या रचनाओं के साथ सामने आ जाएं तो क्या उन्हें भी स्वीकृति नहीं देना चाहिए? अटल बिहारी तो पहले ही कवि हैं.
शीबा का कहना था कि विश्व रंजन सही पात्र नहीं हैं. वो तो पूरी मशीनरी का सिर्फ एक पुर्ज़ा हैं, एक “कांट्रेक्ट-किलर” की तरह का. कल यदि माओवादी सत्ता में आ जाएं तो विश्व रंजन चिदंबरम समर्थकों पर भी बन्दूक तान सकते हैं. आप मंत्रालय के किसी सम्बंधित अधिकारी या बुद्धिजीवी माने जाने वाले चिदंबरम समर्थकों को क्यों नहीं बुलाते?
रजनीश ने कहा कि हम लोकतंत्र और विरोधी मतों को भी सुनने के नाम पर उन्हें बुलाना चाहते हैं। लेकिन सवाल है कि क्या हम वास्तविक लोकतंत्र में जी रहे हैं? क्या हमारा यह लोकतंत्र मैनुफक्चर्ड और मैनीपुलेटेड नहीं है? फिर आखिर हम किस लोकतंत्र के नाम पर विश्व रंजन को बुलाने की सोच रहे हैं?
दिलीप मंडल ने कहा कि लोकतंत्र और किसी का पक्ष सुनने के नाम पर क्या निठारी काण्ड के पंधेर और श्रीलंका से राजपक्षे को भी नहीं बुलाना चाहिए? उन्होंने जो किया, उसे सही ठहराने के लिए तो उनके पास भी तर्क होंगे? विकास के नाम पर जंगल की जमीन का उपयोग करने या आदिवासियों को उजाड़ने की वकालत करने वाले स्वामीनाथन अंकलेसरैया अय्यर जैसे कई आर्थिक सिद्धांतकार हैं जो माओवाद के विरोध के नाम पर तमाम तरह की हिंसा को सही ठहराते हैं; बहस के लिए उन्हें बुलाया जा सकता था.
कुल मिला कर, राजेंद्र जी की बातों से जो हम समझ पाए, वे इस प्रकार हैं-
Ø राजेंद्र यादव ने 'हंस' की सालाना गोष्ठी के लिए विश्व रंजन को बिल्कुल नहीं बुलाया. हां, इस विषय पर प्रतिपक्ष से कौन हो, पर विमर्श करते समय उनका नाम चर्चा में एक बार आया था.
Ø इस जलसे में किस-किस को बुलाया जाए यह तय होने से पहले ही विवाद खड़ा हो गया. 'हंस' के दफ़्तर में ऐसी चर्चाएं खुलेआम होती रहती हैं, और हर विषय और सुझाव पर एक खुले अंदाज़ में बात होती रहती है। हवा में हुई ऐसी ही एक बात को वहां मौजूद किसी व्यक्ति ने विवाद का रूप दे दिया.
Ø जिस समय ब्लॉग की दुनिया में ये विवाद चरम पर था, और पक्ष-प्रतिपक्ष एक दूसरे से भिड़े हुए थे, उस समय तक ख़ुद 'हंस' में ये तय नहीं हो पाया था कि किसे बुलाया जाए और किसे नहीं.
Ø अरुंधती ने 'हंस' के जलसे में न जाने का फ़ैसला सार्वजनिक करने से पहले राजेंद्र यादव से किसी तरह की पुष्टि नहीं की. अगर उन्होंने ये फ़ैसला करने से पहले राजेंद्र यादव से एक बार बात कर ली होती या यह पता लगा लिया होता कि क्या विश्वरंजन को भी बुलाया गया है, तो उनका भ्रम तभी दूर हो जाता.
Ø इस संवादहीनता ने दो जनपक्षधर व्यक्तित्वों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा की. अरुंधती और राजेंद्र यादव की जनपक्षधरता असंदिग्ध रही है. भ्रम की ये स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है.
Ø अरुंधति राय का जो कद है और जो विश्वसनीयता है, उसमें उन्हें सुनी-सुनाई बातों के आधार पर इस तरह का कोई फैसला सार्वजनिक करने से बचना चाहिए।
Ø राजेंद्र यादव का कहना है कि वे अब भी चाहते हैं कि अरुंधती इस कार्यक्रम में शामिल हों. उनका स्वागत है.
(पूनम तुषामड़, शीबा असलम फ़हमी, रजनीश, दिलीप मंडल और अरविन्द शेष )