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Tuesday, January 25, 2011

दिसम्बर की बारिश

(हमारे एक Anonymous पाठक ने यह कविता एक पोस्ट पर कमेंट के तौर पर भेजी है। भूमिका में लिखा है- "मेरी कविता रिजेक्ट माल में प्रकाशित करने का कष्ट करें, कविता पूरी मौलिक एवं रिजेक्टेड है ..")

फिर वही बारीश
ठन्ड का अह्सास
कपकपाते हाथ,
देखता हुआ,
खेत की मेड पर
खडा रहा
धान के ढेर को
अध कटी फ़सल को
शायद इस साल भी
खाली हाथ ही रह जायेगा
मेहनत का फ़ल
साल भर
इन्तजार के बाद
खेत मे ही रह जायेगा
किस्मत
भाग्य
नसीब
सब यु ही रुठ जायेगा,
बारीश
..बरसात मे
जब बरसना था
नही बरसा
अब बरसा
तो मन
क्यो तरसा
...
फिर से इन्तजार
फिर वही उम्मीद
आने वाले साल की
जब फ़सल
बढिया होगी
उम्मीद
के सहारे
जीते लोग
इन्तजार मे
अगले बरस का

Monday, January 24, 2011

बंधुवर परेशान हैं!

निखिल आनंद

अब तक सियासी किस्सागोई और बहस का कारण बंधुवर बनते रहे हैं। लेकिन नवलेश की गिरफ्तारी के बाद इन दिनों बंधुवर ही खासे चर्चे में हैं। बंधुवर करना तो बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन ज्यादा बोले तो डरते हैं कि अगला नंबर उनका न हो। अब बंधुवर नौकरी बचाये की आंदोलन बचाये दुविधा में पड़े हैं। हालत ये है की अब तो राह चलते लोग मजाक उड़ाने लगे हैं कि जैसे पत्रकार न हुए कोई अपराध हो गया।

अब कुछ दिनों पहले की ही बात है बंधुवर हाईकोर्ट गये प्रतिक्रिया लेने कुछ वकीलों की। मामला था सुप्रीम कोर्ट ने बिहार की निचली अदालतों की कार्यप्रणाली सुधारने के बारे में टिप्पणी की थी। प्रतिक्रिया लेते उससे पहले ही वकीलों ने बंधुवर से पूछ लिया कि भाईजी का क्या हाल है। बंधुवर पहले तो समझे ही नहीं, तो वकील साहब ने कहा- अरे वही भाई आपके नवलेश भाई। देखिये खबर आपलोग बहुत छापते हैं। जरा संभल के रहियेगा की अगला नंबर आप ही का मत हो। दूसरे वकील साहब ने कहा की बंधुवर मणीपुर की खबर पता है न 30 दिसम्बर 2010 की एक संपादक की गिरफ्तारी हुई तो मणीपुर में अखबार ही नहीं छपा। बंधुवर को खबर का पता ही नहीं था तो भौचक रह गए। वकील साहब ने कहा की 'गुगल' पर जाकर खोजिये मिल जायेगा। बंधुवर फजीहत होते देख कहते हैं- ऐसा नहीं है जनाब, हमारे साथियों ने पूर्णिया और फतुहा में विरोध प्रदर्शन किया है। वकील साहब ने कटाक्ष किया- भाई बिहार की पत्रकारिता की धुरी पटना से हैंडल होती है।

ये तो गजब हो गया है कि पटना में नवलेश के मसले पर विरोध और सड़क पर उतरना तो दूर, कोई लिखने को भी तैयार नहीं है। लगता है कि आपलोग भी भोंपू बनते जा रहे हैं। बंधुवर ने वकीलों को लाख गणेश दत्तजी, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर इंमरजेन्सी आंदोलन में पत्रकारों का इतिहास- भूगोल बता डाले। लेकिन ये वकील भी पता नहीं किस जनम का बैर मिटा रहे थे। वकीलों ने फिर बंधुवर को धर- लपेटा की भाई! हमारे वकालत में छेद देखने आये हैं। अपने दुकान में देखिये, ये आपही लोग हैं जनाब जो छोटी कुर्सियों को सत्ता का केन्द्र बनाते हैं। सत्ता से गठजोड़ कर सदन पहुँचने की कला आपही लोग बेहतर जानते हैं। जान बचते न देख बंधुवर थोडा आदर्शवादी होकर कहते हैं- अब पहले वाली बात नहीं है, लोकतंत्र के सभी खम्बे नैतिकता के मसले पर सवालों के घेरे में हैं। वकील साहब गुस्साए- अब अपना छेद छुपाने के लिए सबको मत लपेटिये। मुखौटे के पीछे क्या है सब पता है l सत्ता की चाटुकारिता और चापलूसी से गावों में ठेकेदारी कराने के किस्से भी मशहूर हैं। और नीरा राडिया के बहाने तो दलाली में शामिल आपके मिडिया के मठाधिशो के चेहरे पहले ही बेनकाब हो चुके है ।

बाप-रे-बाप, जिंदगी में इतनी फजीहत किसी लंगोटिया दोस्त और खानदानी दुश्मन ने भी बंधुवर की नहीं की थी । वकीलों के व्यंग-बाण से घायल बंधुवर सोचने लगे की नवलेश के मसले पर वाकई सब चुप हैं। एक दिन बंधुवर ने जोश में अपने सहयोगियों को फोन किया की भाई ये तो गजब हो गया है। अब तो पत्रकारों पर भी शामत आ गई है। हमें कुछ करना चाहिये सो कल 2 बजे बैठक में आइयेगा। नवलेश के मसले पर आंदोलन खड़ा करना है। बंधुवर पहुँचे तो बैठक स्थल पर अकेले पहले आदमी थे। दो घंटे बैठे तो कुल जमा 4 लोग पहुँचे। अब बंधुवर ने थक कर कहा कि चलिये अपने बड़े श्रमजीवी बंधुओं से मुलाकात कर एक प्रेस रिलीज निकालते हैं। तब तक सी.बी.आई. इन्क्वारी की खबर आई तो बड़े बंधु ने फोन किया की बंधुवर अब तो खुशी मनाईये, आपकी बात मान ली गई है। बंधुवर ने पूछा कौन सी भईया । तो महोदय ने खुशी से उछलते हुए कहा बंधुवर नीतीशजी ने सी.बी.आई. इन्क्वारी की घोषणा कर दी है। अब तो आप खुश हैं न...अब तो प्रेस रिलीज निकालने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। फोन कट चुका था और बंधुवर हाथ में रिसीवर पकड़ कर झुनझुने की तरह हिला रहे थे।

(लेखक निखिल आनंद टीवी पत्रकार हैं. पटना के लोयोला स्कूल, डी.यू., जे.एन.यू. और आई.आई.एम.सी.में पढाई करने के उपरान्त ईटीवी, सहारा समय, जी न्‍यूज जैसे संस्‍थानों में 12 वर्षो तक कार्य अनुभव । सम्प्रति 'इंडिया न्‍यूज बिहार' के पॉलिटिकल एडिटर हैं. इनसे संपर्क nikhil.anand20@gmail के जरिए किया जा सकता है.)

Tuesday, January 11, 2011

विधायक की हत्या से जुड़े सवाल: कौन देगा जबाब

निखिल आनंद

विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या ने कड़ाके की ठंड में बिहार का राजनीतिक तापमान गरम कर दिया है l बिहार के एक सत्ताधारी गठबंधन के विधायक की हत्या हो जाए वो भी दिन के उजाले में ये घटना सुशासन में आम लोगो की सुरक्षा के सरकारी दावे पर उँगली उठाने के लिए काफी है। पुर्णिया के बी.जे.पी.विधायक राजकिशोर केसरी चौथी बार विधायक बने थे। रुपम पाठक नाम की एक एम.ए. पास शिक्षिका ने विधायक पर यौन शोषण के इल्जाम में विधायक केसरी की छुरामार कर हत्या कर दी। पुरूष वर्चस्व वाले समाज में वाकई ये आश्चर्य की बात है कि अब तक की परंपरा के अनुसार एक निरीह अकेली महिला के साथ पुरुष ज्यादती करता था । पर इस घटना में एक महिला ने एक जनप्रतिनिधि की यौन शोषण बदला लेने के लिए हत्या कर दी है। महिला ने विधायक की हत्या की इसकी जितनी निंदा की जाय कम है और कानून उसके किये की सजा भी अवश्य देगा । राजकिशोर केसरी पर लगाये आरोप सही थे या गलत ये भी जाँच का विषय है क्योंकि महिला के लगाये गए आरोप विधानसभा के सदस्य की गरिमा और मर्यादा के लिहाज़ से अत्यंत गंभीर हैं। लेकिन इस घटना से सहज ही समझ सकते हैं कि उक्त महिला के भीतर प्रतिशोध की ज्वाला किस कदर भड़की हुई थी। इस पूरी घटना ने एन.चन्द्रा की एक फिल्म - प्रतिघात- का वो अंतिम दृश्य आँखों के सामने घुमा दिया जिसमें फिल्म की हिरोइन ने अपने अत्याचार का प्रतिशोध लिया था। बिहार में किसी महिला का विधायक से बदला लेने की ये पहली घटना नही है। इसके पहले भी -योगेन्द्र सरदार- नाम के विधायकजी ने जब एक महिला को गलत काम के लिए बाध्य करने की कोशिश की तो उस साहसी महिला ने महोदय का गुप्त अंग काट लिया था।

पुर्णिया के बी.जे.पी. विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या से बी.जे.पी. जितनी दुखी है उससे ज्यादा कहीं सुशील कुमार मोदी को आघात पहुँचा है। यही कारण है कि केशरी की हत्या के बाद मोदीजी मिडिया के सामने अपने विधायक का चरित्र चित्रण करने में जुटे रहे। उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने मिडिया से कहा कि राजकिशोर केशरी इमानदार, कर्मठ, जुझारू नेता थे । वहीँ मोदीजी ने ये भी कहा की महिला ब्लैकमेलर थी यानी गलत थी, इशारा साफ़ था की चरित्रहीन है । एक जिम्मेदार पद पर बैठे नेता का बयान कई सवाल खड़ा करता है l पहली बात तो ये की किसी के चरित्र की कोई ठेकेदारी नहीं ले सकता है l सच क्या है वो जांच के विषय हैं, कई बिन्दुयों पर जांच होनी चाहिए - रूपम और राज किशोर केसरी के बीच क्या सम्बन्ध थे ? रूपम विधायक को ब्लैकमेल कर रही थी लेकिन क्यों ? क्या ये सच है की विधायक और उनके सहयोगी विपिन राय रूपम का ब्लैकमेलिंग कर यौन शोषण कर रहे थे ? क्या ये बात सच है की रूपम के बाद उसकी बेटी पर बुरी नज़र रखी जा रही थी ? अब जहाँ तक महिला के चरित्रहीन होने की बात है तो क़ानून ये कहता है की पत्नी के साथ पति का या किसी वेश्या के साथ किसी भी व्यक्ति का जबरदस्ती शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना- ये सभी बलात्कार की श्रेणी में आता है l

एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के आंकड़े के अनुसार जो 142 विधायक इस बार की विधानसभा में दागी है और इनमें 85 पर गंभीर आरोप हैं l ए.डी.आर. की इस लिस्ट में राजकिशोर केसरी भी शामिल थे और उनपर आई.पी.सी. की धारा- 323, 353, 307, 147, 148, 149, 308, 379, 504, 452 और 426 के तहत मामले दर्ज थे । राज्य के मुखिया नीतीश कुमार के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अभियान और क़ानून-व्यवस्था के दावे पर भी जनप्रतिनिधियों से जुड़े मामलों से बट्टा लग रहा है l सरकार बनने के डेढ़ महीने में ही बीमा भारती, हुलास पाण्डेय, सुनील पाण्डेय और अब राजकिशोर केसरी से जुड़े मामले सुर्खियाँ बन चुके है l नीतीश ज़ी की कोशिश भी है की सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता बरती जाय l इस सन्दर्भ में जनप्रतिनिधियों और उनके नजदीकियों से जुड़े मामले का स्पीडी ट्रायल भी एक विचारणीय मुद्दा है l

अफसोस की केसरीजी जनप्रतिनिधि थे और उनकी हत्या हो गई, लेकिन सरकार के सुशासन के दावे के बीच ये घटना सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलता है यानि जब जनप्रतिनिधि सुरक्षित नही है तो आम जनता की कौन पूछे। फिर ये नीतीश बाबू की सरकार बनने के बाद ये विधायकों के साथ हुआ दूसरा मामला है। इससे पहले बीमा भारती पर उनके क्रिमिनल पति अवधेश मंडल ने अपहरण कर अवैध कब्जे में लेकर जान से मारने की कोशिश की थी । फिर सवाल महिलाओं के खिलाफ राज्य में हो रहे उत्पीड़न और समय रहते न्याय न मिल पाने का का भी है। लेकिन बिहार की राजनीतिक सर्किल में सनसनीखेज और चर्चित सेक्स स्कैंडल की लिस्ट में श्वेत निशा उर्फ़ बाबी, चंपा विश्वास, शिल्पी-गौतम, रेशमा उर्फ़ काजल के बाद अब "रूपम पाठक- राजकिशोर केसरी" का भी नाम जुड़ गया है l इन सभी मामलों की परिणति क्या हुई ये किसी से छुपी हुई नहीं है और अभी तक केसरी हत्याकांड में जो प्रगति है उससे इस मामले के हश्र की तरफ एक इशारा मिल गया है l डी.आई.ज़ी ने कहा की हम हत्याकांड को केंद्र में रखकर पूरे मामले की जांच कर रहे है जबकि ये पूरा मामला सेक्स स्कैंडल का है जिसमें सही जांच की दिशा कुछ बड़े गिरेबान तक पहुँच सकते है l दूसरा की इस मामले का सबसे पहले खुलासा करने वाले 'Quisling' अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के संपादक नवलेश पाठक को पुलिस उनके घर से बिना नोटिस के घसीटते हुए अज्ञात जगह ले गयी है l फिलहाल पत्रकार बिरादरी ने चुप्पी साधी हुई है जो वाकई आश्चर्य का विषय है l इस घटना से एक बार फिर स्पष्ट है की जनप्रतिनिधियों के चाल- चरित्र- और चेहरे दागदार है या बहस का मुद्दा है l यही कारण है की सार्वजनिक लोगो की निजी जिंदगी में लोगो की खासी दिलचस्पी हमेशा से रही है पर कई बार जब बड़ी घटना होती है तो वो मिडिया की सुर्खिया भी बन जाता है l

रूपम के साथ क्या हुआ ये जाँच का विषय है। इस पूरी घटना पर सही- गलत का फैसला मोदीजी या मिडिया के कहने से नही होगा। इस पूरे मामले में उच्चस्तरीय जाँच ही दूध-का-दूध और पानी-का-पानी स्पष्ट करेगा। तब तक राजकिशोर केसरी या रूपम पाठक- दोनों में से किसी का भी चरित्र चित्रण, चरित्र हनन और महिमामंडन नहीं होना चाहिए। लेकिन पूर्णिया की गलियों में खामोश घूम रही जनता सब जानती है और फैसला क़ानून के हाथ में है, जिसके लिए वाकई इंतज़ार करना होगा। पूर्णिया से लेकर पटना के राजनीतिक गलियारे में इस पूरी घटना को लेकर अलग- अलग तरह की चर्चायें गरम हैं जिसे यहाँ कहना- सुनना फिलहाल ठीक नही।

Sunday, January 9, 2011

राडिया कांड और मीडिया: धंधा है और गंदा है
Radia and Media: What next?
दिलीप मंडल/Dilip Mandal

यह छवियों के विखंडन का दौर है। एक सिलसिला सा चल रहा है, इसलिए कोई मूर्ति गिरती है तो अब शोर कम होता है। इसके बावजूद, 2010 में भारतीय मीडिया की छवि जिस तरह खंडित हुई, उसने दुनिया और दुनिया के साथ सब कुछ खत्म होने की भविष्यवाणियां करने वालों को भी चौंकाया होगा। 2010 को भारतीय पत्रकारिता की छवि में आमूल बदलाव के वर्ष के रूप में याद किया जाएगा। देखते ही देखते ऐसा हुआ कि पत्रकार सम्मानित नहीं रहे। वह बहुत पुरानी बात तो नहीं है जब मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था। लेकिन आज कोई यह बात नहीं कह रहा है। कोई यह बात कह भी रहा है तो उसे पोंगापंथी करार दिया जा सकता है।

मीडिया का स्वरूप पिछले दो दशक में काफी बदल गया है। मीडिया देखते ही देखते चौथे खंभे की जगह, कुछ और बन गया। वह बाकी धंधों की तरह एक और धंधा बन गया। मीडिया को एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के साथ जोड़ दिया गया और पता चला कि भारत में यह उद्योग 58,700 करोड़ रुपए का है। अखबार और चैनल चलाने वाली कंपनियों का सालाना कारोबार देखते ही देखते हजारों करोड़ रुपए का हो गया। मुनाफा कमाना और मुनाफा बढ़ाना मीडिया उद्योग का मुख्य लक्ष्य बन गया। मीडिया को साल में विज्ञापनों के तौर पर साल में जितनी रकम मिलने लगी, वह कई राज्यों के सालाना बजट से ज्यादा है।

पर यह सब 2010 में नहीं हुआ। कुछ मीडिया विश्लेषक काफी समय से यह कहते रहे हैं कि भारतीय मीडिया का कॉरपोरेटीकरण हो गया है और अब उसमें यह क्षमता नहीं है कि वह लोककल्याणकारी भूमिका निभाए। भारत में उदारीकरण के साथ मीडिया के कॉरपोरेट बनने की प्रक्रिया तेज हो गई और अब यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। ट्रस्ट संचालित “द ट्रिब्यून” के अलावा देश का हर मीडिया समूह कॉरपोरेट नियंत्रण में है। पश्चिम के मीडिया के संदर्भ में चोमस्की, मैकचेस्नी, एडवर्ड एस हरमन, जेम्स करेन, मैक्वेल, पिल्गर और कई अन्य लोग यह बात कहते रहे हैं कि मीडिया अब कॉरपोरेट हो चुका है।

मीडिया का कारोबार बन जाना दर्शकों और पाठकों के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है, लेकिन जो लोग भी इस कारोबार के अंदर हैं या इस पर जिनकी नजर है, वे जानते हैं कि मीडिया की आंतरिक संरचना और उसका वास्तविक चेहरा कैसा है। लोकतंत्र में सकारात्मक भूमिका निभाने की अब मीडिया से उम्मीद भी नहीं है। चुनावों में मीडिया जनमत को प्रभावशाली शक्तियों और सत्ता के पक्ष में मोड़ने का काम करता है और इसके लिए वह पैसे भी वसूलता है। हाल के चुनावों में देखा गया कि अखबार और चैनल प्रचार सुनिश्चित करने के बदले में रेट कार्ड लेकर उम्मीदवारों और पार्टियों के बीच पहुंच गए और उसने खुलकर सौदे किए। मीडिया कवरेज के बदले कंपनियों से भी पैसे लेता है और नेताओं से भी। जब वह पैसे नहीं लेता है तो विज्ञापन लेता है। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार विज्ञापन के बदले पैसे नहीं लेते, बल्कि कंपनियों की हिस्सेदारी ले लेते हैं। इसे प्राइवेट ट्रिटी का नाम दिया गया है। मीडिया कई बार सस्ती जमीन और उपकरणों के आयात में ड्यूटी की छूट भी लेता है।

मीडिया हर तरह की कारोबारी आजादी चाहता है और किसी तरह का सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं निभाता, लेकिन 2008-09 की मंदी के समय वह खुद को लोकतंत्र की आवाज बताकर सरकार से राहत पैकेज लेता है। मंदी के नाम पर मीडिया को बढ़ी हुई दर पर सरकारी विज्ञापन मिले और अखबारी कागज के आयात में ड्यूटी में छूट भी मिली। लेकिन यह नई बात नहीं है। यह सब 2010 से पहले से चल रहा था।

2010 में एक नई बात हुई। इस साल भारतीय मीडिया का एक नया रूप लोगों ने देखा। वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की मालकिन नीरा राडिया दिल्ली की अकेली कॉरपोरेट दलाल या लॉबिइस्ट नहीं हैं। ऐसे कॉरपोरेट दलाल देश और देश की राजधानी में कई हैं। 2009 इनकम टैक्स विभाग ने नीरा राडिया के फोन टैप किए थे, जो लीक होकर बाहर आ गए। नीरा राडिया इन टेप में मंत्रियों, नेताओं, अफसरों और अपने कर्मचारियों के साथ ही मीडियाकर्मियों से भी बात करती सुनाई देती हैं।

इन टेप को दरअसल देश में राजनीतिशास्त्र, जनसंचार, अर्थशास्त्र, मैनेजमेंट, कानून आदि के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। इन विषयों को सैकड़ों किताबे पढ़कर जितना समझा सकता है, उससे ज्यादा ज्ञान राडिया के टेपों में है। मिसाल के तौर पर, राजनीतिशास्त्र की किताबें बताती हैं कि कैबिनेट का गठन प्रधानमंत्री करता है। संविधान में भी ऐसा ही लिखा है। लेकिन राडिया टेपों को सुनकर आप जान सकते हैं कि भारत में कैबिनेट के गठन में बड़े कॉरपोरेट समूहों की कितनी अहम भूमिका होती है। देश के ज्यादातर मंत्रियों, खासकर आर्थिक मंत्रालयों से जुड़े मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री नहीं, कंपनियां करती हैं। इसी तरह नौकरशाही भी किस तरह काम करती है, इसे समझने के लिए राडिया के टेपों को सुनना उपयोगी है। राडिया के टेप यह भी बताते हैं कि न्यायपालिका के फैसले हमेशा तर्क-वितर्क और सबूतों से तय नहीं होते। वे “फिक्स” भी होते हैं।

इसी तरह राडिया टेप ने मीडिया की आंतरिक संरचना और कार्यप्रणाली को खोलकर रख दिया है। भारत में पत्रकारिता के किसी भी स्कूल में मीडिया को इस तरह नहीं पढ़ाया जाता है। राडिया के टेप सुनकर देश के लोगों को पहली बार पता चला कि टीवी स्क्रीन पर नीति और नैतिकता की बात करने वाले असल जिंदगी में क्या-क्या करते हैं। राडिया टेप से यह पता चला कि अखबारों की हेडलाइंस हमेशा संपादक और संपादकीय विभाग के लोग तय नहीं करते। कोई नीरा राडिया भी है, जो बताती है कि देश की सबसे बड़ी खबर क्या है और उसे किस तरह लिखा जाना चाहिए। मीडिया में गेटकीपिंग सिद्धांत में पढ़ाया जाता है कि न्यूज रूम और संपादकीय विभाग में खबरों के गेटकीपर होते हैं। नीरा राडिया ने पूरे देश को और खास तौर पर पत्रकारिता के शिक्षकों और विद्यार्थियों को बताया कि सिलेबस बदलने की जरुरत है क्योंकि गेटकीपिंग का सच यह नहीं है। गेटकीपर कई बार न्यूजरूम से बाहर होते हैं। राडिया जैसे गेटकीपर कई बार खबरें छपने देते हैं और कई बार खबरें रोक लेते हैं। राडिया टेप सामने न आते तो शायद ही कभी पता चल पाता कि एक न्यूज चैनल - न्यूज एक्स में काम करने वाले पत्रकारों और अन्य कर्मियों के पैसे नीरा राडिया देती हैं।

राडिया टेप कांड में आप पाएंगे कि नीरा राडिया सिर्फ पत्रकारों से बात नहीं करती हैं। बातचीत के दौरान वे एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय का जिक्र करती हैं तो कभी टीवी18 समूह के राधव बहल और समीर मनचंदा का, तो कभी वे टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के मालिक विनीत जैन का। एक टेप में राडिया राजदीप सरदेसाई से यह कहती हैं कि वे मुकेश अंबानी समूह के एक प्रमुख व्यक्ति मनोज मोदी के साथ उनकी कंपनी के मालिक राघव बहल से मिलने नोएडा आ रही हैं। राजदीप भी उन्हें अपनी कंपनी के मैनेजमेंट से जुड़े एक व्यक्ति समीर मनचंदा से मिलने को कहते हैं। (आउटलुक की साइट पर आप इस बातचीत का ट्रांसस्क्रिप्ट पढ़ सकते हैं)। जाहिर है कॉरपोरेट दलाल मीडिया समूहों के मालिकों और प्रबंधन से सीधा संवाद भी रखते हैं। ऐसे में पत्रकारों को काम करने की कितनी स्वतंत्रता होगी, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है।

नीरा राडिया के टेप इस बात का प्रमाण हैं कि भारतीय मीडिया अब कॉरपोरेट के हाथों में न सिर्फ खेल रहा है बल्कि उसका हिस्सा बन चुका है। नीरा राडिया और ऐसे ही दलाल न सिर्फ यह बता रहे हैं कि क्या छपना है और क्या नहीं छापना है, बल्कि वे यह भी तय कर रहे हैं कि कौन सा रिपोर्टर कौन सी खबर लिखेगा। वे खबरों का नजरिया तक तय कर रहे हैं। वे खबरों का सौदा कर रहे हैं और बात नहीं मानने वालों को दंडित करने की धौंस दिखा रहे हैं। संपादक राडिया को बताते हैं कि किस खबर का कैसा कवरेज किया जा रहा है। राडिया संपादकों को बताती हैं कि किस नेता से क्या बात करनी है और संपादक ऐसा करने के बाद राडिया को इसकी सूचना देते हैं। वीर सांघवी जैसे बड़े माने जाने वाले पत्रकार अपने कॉलम में शब्दश: वही लिखते हैं, जो राडिया के साथ बातचीत में तय होता है।

कॉरपोरेट दलाल अपने काम के दौरान मीडिया में छपने और दिखाई जाने वाली सामग्री के प्रबंधन को जितना महत्व देते हैं, उससे इस बात का एहसास होता है कि मीडिया की ताकत कितनी जबर्दस्त है। मीडिया में एक हेडलाइन के गलत छपने या जरूरी मानी गई किसी खबर के कम महत्व के साथ छापे या दिखाए जाने को लेकर नीरा राडिया जिस तरह चिंतित और नाराज होती हैं, उससे मीडिया के महत्व को समझा जा सकता है।

वह पुरानी बात हो गई जब मीडिया में कुछ भी छपने से किसी को फर्क नहीं पड़ने की बात की जाती थी। दूरदर्शन पर दिखाए जाने वालसे कार्यक्रम “आज तक” के वर्ष 2000 में 24 घंटे के चैनल बनने के साथ ही टेलीविजन न्यूज चैनलों के क्षेत्र में एक बड़े विस्फोट की शुरुआत हुई। लगभग 10 साल बाद, 2010 में देश में 512 चैनलों को प्रसारण करने की इजाजत हासिल हैं। देश में 461 टीवी चैनलों से प्रसारण होता है जबकि 2008 में 389 चैनलों से ही प्रसारण होता था। इससे भारत में टीवी के विस्तार की रफ्तार का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश में टेलीविजन के लगभग 50 करोड़ दर्शक हैं, जबकि समाचार पत्रों के कुल पाठकों की संख्या 35 करोड़ है। पांच साल पहले देश के 50 फीसदी घरों में टेलीविजन देखा जाता था। 2010 में ऐसे घरों की संख्या 60 फीसदी तक पहुंच गई।

यानी अब देश की बहुत बड़ी आबादी मीडिया कवरेज के दायरे में है। मीडिया अब पहले की तरह निरीह और लाचार नहीं रहा, जब नेता उसका मजाक उड़ाया करते थे। अब वह देश की सबसे ताकतवार संस्थाओं में से एक बन गया है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व चेयरमैन जस्टिस पी बी सावंत के मुताबिक न्यायपालिका के बाद संभवत: यह समाज की सबसे ताकतवर संस्था है। जस्टिस सावंत की राय में मीडिया ताकतवर तो हो गया है लेकिन इसका संचालन पैसे वालों के हाथों में होने के कारण इसमें कई गड़बड़ियां भी हैं और इसकी कई सीमाएं भी हैं। उनका मानना है कि मीडिया के स्वामित्व की संरचना को देखते हुए इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि नीचे से लेकर ऊपर तक प्रशासन हमेशा आर्थिक रूप से ताकतवर के पक्ष में झुका होता है।

राडिया कांड मीडिया की ताकत और उसकी खामी दोनों को एक साथ दर्शाता है। ताकत इस बात की कि मीडिया जनमत बना सकता है, जनमत को बदल सकता है, लोगों के सोचने के एजेंडे तय करता है और खामी यह कि मीडिया पैसों के आगे किसी बात की परवाह नहीं करता। मीडिया को पैसे वाले पैसा कमाने के लिए और ताकत के लिए चलाते हैं। इसलिए इसके दुरुपयोग की संभावना इसकी संरचना और स्वामित्व के ढांचे में ही दर्ज है। राडिया कांड से यह जगजाहिर हो गया कि खासकर ऊंचे पदों पर मौजूद मीडियाकर्मी पैसे और प्रभाव के इस खेल में हिस्सेदार बन चुके हैं। पिछले 20 वर्षों में मीडियाकर्मियों के मालिक बनने की प्रक्रिया भी तेज हुई है। कुछ संपादक तो मालिक बन ही गए हैं। इसके अलावा भी मीडिया संस्थानों में मध्यम स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों तक को कंपनी के शेयर दिए जाते हैं। इस तरह उनकी प्रतिबद्धता को नए ढंग से परिभाषित कर दिया जाता है। पत्रकारों का ईमानदार या बेईमान होना अब उनकी निजी पसंद का ही मामला नहीं रहा। कोई पत्रकार अपनी मर्जी से ईमानदार नहीं रह सकता।

क्या उम्मीद की कोई किरण है?

ऐसे समय में जब मीडिया पर भरोसा करना आसान नहीं रहा (अमेरिकी मीडिया के बारे में एक ताजा सर्वे यह बताता है कि वहां 63 फीसदी पाठक और दर्शक यह मानते हैं कि मीडिया भरोसे के काबिल नहीं है ) तब लोग क्या करें? यह मुश्किल समय है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस दौर में नागरिक पत्रकारिता का एक नया चलन भी जोर पकड़ रहा है। हो सकता है कि मुख्यधारा की कॉरपोरेट पत्रकारिता इसके असर में खुद को बदलने के लिए मजबूर हो जाए (मेरी निजी राय में ऐसा संभव नहीं है)। नागरिक और वैकल्पिक पत्रकारिता ने राडिया कांड और विकिलीक्स के मामले में सबको चौंकाया है।

एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मीडिया-कॉरपोरेट और नेताओं के रिश्तों के बारे में अखबारों, पत्रिकाओं और चैनलों पर खबर आने से पहले ही राडिया कांड राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ चुका था। मास मीडिया को लेकर बहुचर्चित और प्रशंसित -एजेंडा सेटिंग थ्योरी- यह कहती है कि मीडिया किसी मुद्दे पर सोचने के तरीके पर हो सकता है कि निर्णायक असर न डाल पाए लेकिन किन मुद्दों पर सोचना है यह मीडिया काफी हद तक तय कर देता है। तो राडिया-मीडिया कांड में ऐसा कैसे हुआ कि मीडिया में कोई बात आए, उससे पहले ही वह बात लोकविमर्श में आ गई। नीरा राडिया के बारे में मुख्यधारा के मीडिया में पहला लिखा हुआ शब्द ओपन मैगजीन ने छापा। टीवी पर इस बारे में पहला कार्यक्रम इसके बाद सीएनबीसी पर हुआ, जिसे करण थापर ने एंकर किया। इसके बाद द हिंदू ने इस बारे में पहले संपादकीय पन्ने पर और बाद में समाचारों के पन्ने पर सामग्री छापी। आउटलुक ने इस बारे में कई ऐसे तथ्य सामने लाए जिनका ओपन ने भी खुलासा नहीं किया था। मेल टुडे और इंडियन एक्सप्रेस ने भी इस बारे में छापा। हिंदी मीडिया की बात करें तो दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में दो पेज की सामग्री छापी गई। एनडीटीवी ने बरखा दत्त को सफाई का मौका देने के लिए 47 मिनट का एक कार्यक्रम किया (एक घंटे का कार्यक्रम 13 मिनट पहले ही अचानक समेट दिया गया)। इससे पहले तक, जब मुख्यधारा के मीडिया में कोई भी राडिया-बरखा-वीर-चावला कांड को नहीं छाप/दिखा रहा था तो लोगों को इसकी खबर कैसे हो गई और यह मुद्दा चर्चा में कैसे आ गया?

यह संभव हुआ इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की सक्रियता की वजह से। जब कॉरपोरेट मीडिया राडिया कांड के बारे में कुछ भी नहीं बता रहा था तो लोग इंटरनेट पर पत्रकारिता कर रहे थे और इस कांड से जुडी सूचनाएं एक दूसरे तक पहुंचा रहे थे। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, यूट्यूब आदि मंचों पर यह पत्रकारिता हुई। यह पत्रकारिता उन लोगों ने की जिन्होंने शायद कभी भी पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं की थी, लेकिन जो किसी मसले को महत्वपूर्ण मान रहे थे और उससे जुड़ी सूचनाएं और लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। यह नागरिक पत्रकारिता है। इसमें कोई गेटकीपर नहीं होता।

नागरिक पत्रकारिता ने दरअसल पत्रकारिता की विधा को लोकतांत्रिक बनाया है। इसमें पढ़ने या देखना वाला यानी संचार सामग्री का उपभोक्ता, सक्रिय भूमिका निभाने लगता है। पत्रकारिता के तिलिस्म को तोड़ने में इसकी बड़ी भूमिका है। आज एक व्यक्ति बिना किसी पत्रकारीय प्रशिक्षण के, 10 रुपए खर्च करके साइबर कैफे में बैठकर या अपने घर से एक ब्लॉग लिख सकता है और दुनिया भर में पहुंच सकता है। या फिर वह फेसबुक पर अपनी बात कह सकता है और हजारों लोग उसे पढ़ सकते हैं। ट्विटर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिए आज अपनी बात पहुंचाना पहले की तुलना में काफी आसान हो गया है। जो बात मुख्यधारा में नहीं कही जा सकती, वह इन माध्यमों के जरिए कही जा सकती है। परंपरागत पत्रकारिता के भारी तामझाम और खर्च से अलग यह नई पत्रकारिता है।

पश्चिमी देशों में नई मीडिया की ताकत टेक्नोलॉजी के विस्तार की वजह से बहुत अधिक है। लेकिन भारत में भी इसकी ताकत बढ़ रही है। गूगल के अनुमान के मुताबिक, भारत में इस समय इंटरनेट के 10 करोड़ से ज्यादा उपभोक्ता है। चीन के 30 करोड़ और अमेरिका के 20.7 करोड़ की तुलना में यह संख्या छोटी जरूर है, लेकिन भारत इस समय इंटरनेट के सबसे तेजी से बढ़ते बाजारों में से एक है। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी (ट्राई) के दिसंबर 2010 में जारी किए गए आंकड़ों (ये आंकड़े सितंबर, 2010 तक के हैं) के मुताबिक तेज रफ्तार इंटरनेट यानी ब्रॉडबैंड के ग्राहकों की संख्या एक करोड़ को पार कर गई है। अगस्त से सितंबर के बीच एक महीने में देश में 2 लाख, 10 हजार नए ब्रॉडबैंड कनेक्शन लिए गए। इंटरनेट पर आने जाने वालों का लेखा-जोखा रखने वाली दुनिया की प्रमुख संस्था कॉमस्कोर ने 2009 में किए गए अध्ययन के आधार पर बताया कि भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में 44 फीसदी लोग समाचार साइट पर भी जाते हैं। 15 साल से ज्यादा उम्र के डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग अक्टूबर महीने में समाचारों की वेबसाइट पर गए। एक साल में यह संख्या 37 फीसदी बढ़ी है। सोशल नेटवर्किंग साइट की लोकप्रियता भी भारत में बढ़ी है। फेसबुक के यूजर की संख्या भारत में दो करोड़ को पार कर गई है।

इन आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इंटरनेट के फैलाव के मामले में भारत तेजी से दुनिया के विकसित देशों की ओर बढ़ रहा है। इसके आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि नागरिक पत्रकारिता का असर यहां भी बढ़ेगा। मुख्यधारा में जगह न मिलने वाले समाचारों को इन वैकल्पिक माध्यमों में जगह मिलेगी। मुख्यधारा के मीडिया से अलग रह गए समुदायों के लिए भी यह वैकल्पिक मंच बनेगा। ऐसा होने लगा है। यह सही है कि ऐसा पहले शहरी क्षेत्रों में होगा और कम आय वर्ग वाले शुरुआती दौर में इस पूरी प्रक्रिया से बाहर रहेंगे। इसके बावजूद संचार माध्यमों में लोकतंत्र मजबूत होगा। प्रेस और चैनल की तुलना में यह कम खर्चीला माध्यम है।

इस तरह के वैकल्पिक माध्यमों को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं। इस माध्यम की बढ़ती ताकत के साथ ही इंटरनेट पर कॉरपोरेट क्षेत्र का दखल भी बढ़ रहा है। ज्यादा संसाधनों के जरिए वे छोटे मंचों और नागरिक पत्रकारिता करने वालों की आवाज को दबाने की कोशिश करेंगे। प्रतिरोध को वे अपने दायरे में समेटने की कोशिश भी करेंगे। विकिलीक्स के मामले में दुनिया ने देखा कि लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों ने किस तरह सूचनाओं और सूचनाएं देने वालों का दमन करना चाहा। भारत में सरकार का चरित्र पश्चिम की सरकारों से ज्यादा अनुदार है और इंटरनेट पर पहरा बिठाने की कोशिश यहां भी होगी। इन उम्मीदों, चिंताओं और आशंकाओं को बीच ही मीडिया के संदर्भ में राडिया कांड को देखा और पढ़ा जाना चाहिए।
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