जैसा कि एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह ने अपने आखिरी बुलेटिन में कहा था कि ...”लेकिन जिंदगी तो चलती रहती है” और बकौल संवेदनशील कहे जाने वाले कवि अशोक वाजपेयी के, “मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता,” इस निर्मम-निष्ठुर समय में कुछ लोग एसपी को याद करना चाहते हैं।
एक आदमी जो मठ बनाने में यकीन नहीं करता था और अक्सर हमारे जैसे युवा पत्रकारों से कहता था कि जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ, वैसे एसपी की याद को लोग आखिर अब तक क्यों जिंदा रखने पर तुले हैं। एसपी कोई चेला मंडली नहीं छोड़ गए। कोई जाति या इलाकाई समूह एसपी के साथ जुड़ा नहीं रहा। उनकी रचनाओं का संकलन या संचयन प्रकाशित कराने वाला कोई नहीं है। ये सवाल तो पूछा ही जाएगा कि एसपी की रचनाओं का संग्रह क्यों नहीं छप पाया।
ये सवाल कई और सवालों की ऋंखला को जन्म देता है। ये असहज करने वाली बाते हैं। एसपी के लेख हिंदी और इंग्लिश में खूब छपे। नवभारत टाइम्स छोड़ने से लेकर टेलिग्राफ ज्वाइन करने के बीच उन्होंने मूल रूप से लिखकर जीवन यापन किया। वो इससे पहले और बाद भी लिखते रहे। इंडिया टुडे से लेकर बिजनेस स्टेंडर्ड में उनके कॉलम छपे। उनके सिंडिकेटेड लेख तो देश भर में छपे। सारा लेखन उपलब्ध है। कोई भी प्रकाशक ये सब छापना चाहेगा। लेकिन ये हो नहीं पाया है।
उनसे कमतर संपादकों की रचनाओं के संकलन देखते-देखते आ गए। बिके न बिके अलग बात है। लेकिन एसपी का लेखन अब भी संकलित रूप में सामने नहीं आ पाया है। ये अफसोस की बात है।
एसपी पिछले कुछ दशकों में हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े हीरो हैं। लोकप्रियता में उनके आसपास कोई नहीं पहुंच पाया है। लेकिन उनकी स्मृति में डाक टिकट नहीं आया। कई और लोगों के डॉक टिकट आ गए। उनकी स्मृति में कोई महत्वपूर्ण पुरस्कार नहीं है। टेक्स्ट बुक्स में उनका यथोचित उल्लेख नहीं है। उनकी रचनों का संकलन नहीं है। पत्रकारिता की अगली पीढ़ी तक ये बात पहुंचाने का कोई जरिया नहीं है कि एक शख्स ने किस तरह हिंदी पत्रकारिता को आधुनिक बनाने के लिए पायोनियरिंग काम किया। हिंदी टीवी पत्रकारिता की तो एक तरह से विधिवत शुरुआत ही एसपी से होती है। लेकिन क्या ये सब स्मृतियों में ही रहेगा या इसका कोई डॉक्यूमेंटेशन भी होगा।
जो समाज अपने नायकों का सम्मान नहीं करता, वो आगे भी नायकों के लिए तरसते रहने को अभिशप्त होता है। क्या हिंदी का समाज अपनी इस नियति से उबर पाएगा। या टांग खिंचाई और मूर्तियों का खंडन ही इसकी नियति है?
इन बातों पर विचार हम करें या न करें, लेकिन एसपी को याद तो कर ही सकते हैं। इसलिए शनिवार को शाम तीन बजे एसपी को याद करने की योजना कुछ लोगों ने बनाई है। स्थान है प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, रायसीना रोड, नई दिल्ली। आप सब आएं तो कुछ बात बने, कुछ बात बढ़े। वरना जिंदगी तो चलती ही रहती है...