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Monday, August 3, 2009
प्रेमचंद और प्रेमचंद की परंपरा में आदिवासी कहाँ हैं?
(झारखंड के प्रमुख संस्कृतिकर्मी पंकज का ये लेख ई-मेल से मिला है। कई पुराने मठो और मूर्तियों के विखंडन के इस दौर में पढ़िए पंकज को।)
2009 की 31 जुलाई के एक दिन बाद जब सारे हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद जयंती आयोजनों की थकावट दूर कर चुके होंगे, मैं अपना यह सवाल उनके सामने रखना चाहता हूँ कि प्रेमचंद और प्रेमचंद की परंपरा में आदिवासी समाज कहाँ हैंविनम्र निवेदन यह है कि इस सवाल को ‘आरोप’ नहीं माना जाए और न ही मैं असंदिग्ध रूप से भारत के प्रगतिशील साहित्यकारों में सर्वश्रेष्ठ प्रेमचंद को कठघरे में खड़ा करना चाह रहा हूँ। यह सिर्फ आदिवासी विषय पर सक्रिय एक विद्यार्थी की जिज्ञासा है।
वह इसलिए कि प्रेमचंद की रचनाएँ 1903 से 1936 तक के कालखण्ड में फैली हुई हैं और उन्होंने भारत की उत्पीड़ित जनता के शोषण व यथार्थ को 300 से अधिक कहानियों, एक दर्जन उपन्यासों तथा अनगिनत सामाजिक- राजनीतिक लेखों और समाचारों में समर्थ लेखकीय कौशल के साथ उद्घाटित किया है। वे साहित्य, पत्राकारिता और सांस्कृतिक आंदोलन के मोर्चों पर आजीवन युद्धरत रहे। सामंती और औपनिवेशिक गुलामी के विरूद्ध उन्होंने भारतीय प्रायद्वीप के एक बड़े क्षेत्रा की भाषा हिंदी-उर्दू में हमारा नेतृत्व किया और उनकी कालजयी रचनाएँ एवं विचार आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। परंतु, प्रेमचंद के संपूर्ण लेखन से गुजरने के बाद भी (शायद कुछ छूट भी गया हो) मेरी यह जिज्ञासा शांत नहीं हो पा रही है कि उनके साहित्य से आदिवासी दुनिया अदृश्य क्यों है? कम से कम उनके बहुचर्चित किसी कहानी, उपन्यास, नाटक या आलेख में तो नहीं ही है।
इस प्रेमचंद जयंती के कुछ दिन पहले मैंने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए कई मित्रों से बातचीत की। अनेक साहित्यकारों, आलोचकों और पाठकों से यह जानने की कोशिश की कि क्या सचमुच में प्रेमचंद के साहित्य में आदिवासी कहीं नहीं हैं? सबका उत्तर यही था ‘नहीं है’। कई लोग तो यह सवाल सुनकर ही बिगड़ उठे। तुम्हारा/आपका यह सवाल संकीर्णतावादी, गैर-वर्गीय, इलाकावादी और विखंडनवादी है। आम जन के इतने महान लेखक जिनकी कलम की रोशनी से आज भी भारतीय साहित्य (विशेषकर हिंदी) और समाज का मार्गदर्शन हो रहा है, उस पर अंगुली उठाना तुम्हारी/आपकी तुच्छता ही बताती है। लेखक, कलाकार, साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी को ऐसे संकीर्ण सोच से देखना कहीं से भी उचित नहीं है। कई लोगों ने कहा - प्रेमचंद तो हमेशा बनारस, इलाहाबाद आदि शहरों में ही ज्यादा रहे। शायद उन्हें आदिवासी समाज को देखने का मौका नहीं मिला होगा।
पहले किस्म के जवाब पर मुझे कुछ नहीं कहना है क्योंकि यह सर्वविदित है कि जब भी वंचित समाज और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ अपनी सांस्कृतिक अस्मिता और मुक्ति का सवाल उठाती हैं, उनका दमन इसी सोच के साथ किया जाता है। जो दूसरा जवाब है कि प्रेमचंद शहरों में ही रहे इसलिए वे आदिवासियों के बारे में नहीं जान पाए होंगे, उनको एक संवदेनशील सजग लेखक-पत्राकार के रूप में देखते हुए भी और उनके बनारस व इलाहाबाद में रहने पर भी सही नहीं मालूम होता है। औपनिवेशिक शासन के दिनों में समाचार-सूचना लेने-देने के पेशे से प्रतिबद्धता के साथ जुड़ा समाचार-पत्र का कोई संपादक और आंदोलनकारी पत्राकार कैसे आदिवासी विषय से अनभिज्ञ रह सकता है? वह भी 1900 में जब झारखंड के रांची जिला का दक्षिणी हिस्सा एक बड़े आदिवासी विद्रोह ‘उलगुलान’ से अंग्रेजी शासकों की नींद हराम किये हुए था। इतिहास प्रसिद्ध आदिवासी नायक बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ यह उलगुलान कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले उस समय के अंग्रेजी अखबारों की सुर्खियों में था। और यह भी कि 1899 में प्रेमचंद पहली बार आजीविका के लिए लमही से बाहर निकले थे।
18 रुपये प्रतिमाह पर उन्होंने शिक्षक की पहली नौकरी मिर्जापुर जिला के चुनार में की थी। एक मिशन स्कूल में। विंध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं के बीच बसा मिर्जापुर और चुनार प्राकृतिक रूप से आदिवासियों का स्वाभाविक इलाका है। वैसे भी, बनारस से लेकर इलाहाबाद तक विंध्याचल के जंगल-पहाड़ों का जो विस्तार है, उसमें अगरिया, भील, कोरवा, गोंड, कोल, चेरो आदि आदिवासी समुदायों का पारंपरिक निवास है। चुनार में प्रेमचंद ज्यादा समय तक नहीं रहे, परंतु बनारस से चुनार तक की यात्रा और चुनार के अल्प प्रवास में क्या उन्होंने आदिवासी समाज के बारे में कुछ भी नहीं देखा-सुना और जाना होगा? चुनार के बाद प्रेमचंद इलाहाबाद के नजदीक प्रतापगढ़ चले आए थे। जहां वे दो साल रहे। इलाहाबाद से प्रतापगढ़ तक का इलाका भी आदिवासी आबादी से विहीन नहीं है। फिर भी देश-दुनिया का साहित्य पढ़ने तथा पत्राकारिता में रहने का बावजूद उनके साहित्य में आदिवासी जीवन से कहीं मुठभेड़ नहीं होती है।
ध्यान देने की बात है कि बीसवीं सदी की शुरुआत में समाज, राजनीति और साहित्य में सक्रिय सभी लोगों ने दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के हितों की बात तो की, लेकिन किसी ने भी आदिवासियों के बारे में सोचने की जहमत नहीं उठायी। समाज सुधारक, लेखक और राजनीतिज्ञ, किसी ने भी उन लोगों की सुध लेने की आवश्यकता नहीं महसूस की, जिनकी बेदखली, लूट और नरसंहारों पर नये औद्योगिक भारत की नींव रखी जा रही थी। स्वतंत्राता के पहले भी और स्वतंत्राता के बाद भी। कोयला, लोहा, बाॅक्साइट, लकड़ी और अन्य सभी प्राकृतिक संसाधन जहां से आ रहे थे, इन संसाधनों के जो नैसर्गिक स्वामी थे, उनके साथ क्या हो रहा था यह जानने की कोशिश ही नहीं की गई। क्यों हमारी दृष्टि चार वर्णों तक ही संकुचित है। हमें अपनी ही तरह बलशाली दूसरे धर्म-संप्रदाय तो दिखते हैं, लेकिन वह प्रकृति पूजक एवं आदि धर्मानुयायी आदिवासी नहीं दिखता है। जिसकी आवश्यकताएं सबसे न्यूनतम है और जो सर्वाधिक भाषाओं व संस्कृतियों के बीच बिना किसी टकराव या रक्तरंजित साम्राज्यवादी खेल के आनंद से जीता है। चूंकि अपनी संख्या बल और रिहाइश के आधार पर दलित एवं अल्पसंख्यक समुदाय वोट की राजनीति को प्रभावित करते हैं, इसीलिए उनको अनदेखा नहीं किया जा सका। बाबा साहेब अम्बेडकर की उपस्थिति और दमदार दलित आंदोलनों के कारण भी शासक वर्ग को दलितों की बात सुननी पड़ी। यह अलग बात है कि आज तक व्यवहार में उसका क्या हश्र हुआ। पर हम सभी जानते हैं कि फूले, अम्बेडकर, राजा राम मोहन राय और गाँधी जी जैसे समाज सुधारकों और विचारकों ने दलित, अल्पसंख्यक एवं स्त्री मुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर समाज को आंदोलित किया। चाहे जिसकी जैसी भी जातीय-धार्मिक सीमा या राजनीतिक नीयत रही हो। पर सबने इन शोषित-वंचित समुदायों के लिए कुछ न कुछ कहा। कुछ न कुछ किया।
लेकिन आदिवासी समुदायों के बारे में एक लम्बी चुप्पी इतिहास से वर्तमान तक अजगर की तरह पसरा हुआ है। दुर्गम क्षेत्रों में अपने निवास स्थलों और नगरीय जीवन से अलगाव के कारण आदिवासी आज भी दलितों-अल्पसंख्यकों की तुलना में भारतीय राजनीति पर दवाब डालने की स्थिति में नहीं हैं, पर निःसंदेह वे भारतीय विकास की रीढ़ हैं। उनके संसाधनों पर कब्जा करके ही आधुनिक भारत का विकास संभव हो सका है।
सभी लोग यह स्वीकार करते हैं कि भारत में सबसे ज्यादा खोने और सबसे कम पाने वाला समाज आदिवासियों का ही है। इतिहास में मुक्ति की सबसे ज्यादा लड़ाईयां आदिवासी समुदायों ने ही लड़ी हैं। उन्होंने भारत के किसी भी समुदाय से सबसे ज्यादा त्याग और बलिदान किया है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट और दोहन के लिए वे औपनिवेशिक काल में भी मारे जा रहे थे और आज के स्वतंत्रा भारत में भी मारे जा रहे हैं। कोयलकारो, नेतरहाट, कलिंग नगर, सिंगूर, नंदीग्राम और लालगढ़ इक्कीसवीं सदी के सबसे नये आदिवासी मृत्यु क्षेत्र हैं। लेकिन उनकी चर्चा न तो भारत के मुख्यधारा के समाज में है, न इतिहास में है। हिंदी साहित्य में तो है ही नहीं। जो है वह ‘सॉरी’ बोलने लायक जितना भी नहीं है। यह आदिवासी जिज्ञासा प्रेमचंद से ज्यादा उन लोगों से है, जो अपने आपको उनकी परंपरा का वाहक बताते हैं। जो प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री, प्रेमचंद के साहित्य में दलित, प्रेमचंद के साहित्य में अल्पसंख्यक, प्रेमचंद के साहित्य में किसान आदि-आदि विषय सामने लाते हैं और उन्हें भारतीय समाज का सबसे प्रमुख प्रतिनिधि साहित्यकार घोषित करते हैं। प्रेमचंद से छूट गया आदिवासी आज भी उनकी परंपरा से क्यों बहिष्कृत है? प्रेमचंद की परंपरा के लोगों को ‘प्रेमचंद के साहित्य में आदिवासी’ भी लिखना चाहिए। आदिवासी भारत को बहिष्कृत कर कोई कैसे संपूर्ण भारतीय समाज का प्रतिनिधि कहला सकता है? अगर प्रेमचंद की परंपरा और आज के भारतीय साहित्य, समाज और राजनीति में आदिवासी समाज के लिए कोई स्थान नहीं है, फिर तो देश भर के आदिवासी इलाके जिन्हें पूरी तरह से माओवादियों या नक्सलियों के नियंत्राण में बताया जा रहा है, जहाँ पिछले तीन सौ वर्षों से आदिवासी अपने अस्तित्व- अधिकार की अंतिम निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं, वे आपके साहित्य, समाज और राजनीति को क्यों नहीं खारिज कर दें।
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A. K. Pankaj
Editor, Johar Sahiya
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5 comments:
आ बड़ी दिन बाद रिजेक्ट माल पर माल मिला है...मोहल्ला से अपील भी किये पर सुनवाई नहीं हुई..थक गए हैं क्या दिलीप जी..
प्रेमचंद ने जो लिखा है उसी पर बात हो सकती है जो उन्होंने नहीं लिखा उस पर उनके हवाले से बात करना बेमानी है। मुझे नहीं लगता प्रेमचंद आदीवासियों पर लिखने का एडवांस लेकर वादाखिलाफी कर गये होंगे। आपका यह सवाल इस लिये उठा है क्यूँकि अब साहित्य की मानवीय और सामाजिक प्रतिबद्धतायें नेपथ्य में पहुँचा दी गई हैं और उनका स्थान विचारधारा, राजनीति और हिस्सेदारी (आरक्षण) ने ले लिया है। कोई भी व्यक्ति सबकुछ नहीं लिख सकता, हाँ कोई भी !!
आदीवासियों पर जिनने लिखा है उनके हवाले से ही इस पर बात होना जायज है।
hey bhut accha ha
गंभीर सवाल.
{ Treasurer-T & S }
अश्विनी कुमार पंकजजी, इस देश में लेखक उन्हीं बातों पर गौर फरमाते हैं, जिन पर वे निश्चिंत रूप से लिख सकते हों। प्रेमचंद हिन्दी उर्दू के लेखक रहे हें और हिन्दी उर्दू पट्टी में जो देखा और समझा वह लिखा। आदिवासियों के जीवन संघर्ष को जानने के लिए उनके जीवन में सिर्फ झांकने ही नहीं उनमें रमने की भी आवश्यकता होती है। प्रेमचंद को छोड़ दीजिए, आज इलेक्ट्रोनिकी युग में भी लेखकों को आदिवासी जीवन संघर्ष कम ही उद्देलित करता है। एक आदिवासी होने और प्रिंट मीडिया से जुड़े होने के कारण अनेक लेखकों की संवेदनात्मक सोच को नजदीक से देखने का मौका मिला है, उसी के आधार पर लिखने की घृष्टता कर रहा हूँ। आदिवासी विषय पर लिखने के लिए आदिवासी जीवन जीना पड़ता है, जो आज की स्टैंडार्ड दुनिया में रह कर संभव नहीं है।
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