Custom Search
Tuesday, July 5, 2011
एस पी सिंह की रचनाओं का पहला संकलन
(पत्रकारिता का महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन छप कर आ चुकी है। एस पी सिंह की 14वीं बरसी पर पुस्तक छप कर आई और इस अवसर पर एक विशेष आयोजन में इसे लाया गया। इसे रजकमल से ही खरीदा जा सकता है। ऑनलाइन खरीदने के लिए थोड़ा़-सा इंतजार करना पड़ेगा।
आगे... आप भी पुस्तक पढ़ें और अपनी टिप्पणी दें, आभारी रहूंगी।)
“तो ये थी खबरें आजतक, इंतजार कीजिए कल तक।”
एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह के कई परिचयों में यह भी एक परिचय था। दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रम आज तक के संपादक रहते हुए एसपी सिंह सरकारी सेंसरशिप के बावजूद जितना यथार्थ बताते रहे, उतना फिर कभी किसी संपादक ने टीवी के परदे पर नहीं बताया।
एसपी आज तक के एंकर-संपादक ही नहीं थे। अपने दमखम के लिए याद की जाने वाली रविवार पत्रिका के पीछे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह की ही दृष्टि थी। दिनमान की विचार पत्रकारिता को रविवार ने खोजी पत्रकारिता और स्पॉट रिपोर्टिंग से नया विस्तार दिया। राजनीतिक-सामाजिक हलचलों के असर का सटीक अंदाज़ा लगाना और सरल, समझ में आने वाली भाषा में साफगोई से उसका खुलासा करके सामने रख देना उनकी पत्रकारिता का स्टाइल था। एक पूरे दौर में पाखंड और आडंबर से आगे की पत्रकारिता एसपी के नेतृत्व में ही साकार हो रही थी।
शायद इसी वजह से उन्हें अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली और कहा जा सकता है कि एसपी सिंह पत्रकारिता के पहले और आखिरी सुपरस्टार थे। यह बात दावे के साथ इसलिए कही जा सकती है क्योंकि अब का दौर महानायकों का नहीं, बौने नायकों और तथाकथित नायकों का है।
एसपी जब जब संपादक रहे, उन्होंने कम लिखा। वैसे समय में पूरी पत्रिका, पूरा समाचार पत्र, पूरा टीवी कार्यक्रम उनकी जुबान बोलता था। लेकिन उन्होंने जब लिखा तो खूब लिखा, समाज और राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए लिखा।
जन पक्षधरता एसपी सिंह के लेखन की केंद्रीय विषयवस्तु है, जिससे वे न कभी बाएं हटे, न दाएं। इस मामले में उनके लेखन में जबर्दस्त निरंतरता है। एसपी सिंह अपने लेखन से सांप्रदायिक, पोंगापंथी, जातिवादी और अभिजन शक्तियों को लगातार असहज करते रहे। बारीक राजनीतिक समझ और आगे की सोच रखने वाले इस खांटी पत्रकार का लेखन आज भी सामयिक है।
महानायक पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह की रचनाओं का यह पहला संचयन बाजार में आ गया है। इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है। पेपर बैक में पृष्ठ संख्या है- 460 और कीमत है-250 रुपए।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Custom Search
8 comments:
एसपी सिंह को तमाम दावों और तथ्यों से बेहतरीन पत्रकार घोषित करने के बावजूद एक दुविधा है. एसपी सिंह और प्रभाष जोशी ऐसे संपादक/पत्रकारों में से रहे हैं जिनके दौर से ही पत्रकारों को ठेके पर रखने की प्रथा शुरू हुयी. ब्राहमण, पोंगापंथी और सामंतवादी प्रभाष जोशी से तो नहीं लेकिन समाज की तमाम बुराइयों पर बेलौस लिखने वाले और पत्रकारिता में तथाकथित खोजी और स्पॉट रिपोर्टिंग की शुरुआत करने के साथ उसे नए आयाम देने वाले एसपी सिंह ने इसके खिलाफ कभी कुछ क्यूँ नहीं किया...
एस पी ने दो अलग-अलग इंटरव्यू में दो संबंधित सवालों के जो जवाब दिए, उनके हिस्से इधर दे रही हूं। उम्मीद है उनमें आपको कोई जवाब ढ़ूंढने का रास्ता मिले-
"क्रांति के लिए निकालना चाहते हैं तो क्रांति का अखबार निकालिए। लेकिन अपने क्रांतिकारी ढंग से उसकी पूंजी जुटाएं। लेकिन आप कोशिश करें कि नहीं, हमारा अखबार तो सेठ निकालें, सारे खर्चे सेठ बर्दाश्त करें और उसमें बैठकर क्रांति मैं करूं तो मैं समझता हूं कि यह अनुचित मांग है।"
"आप अपने मुहल्ले के गुंडे से खुलकर लड़ पाती हैं?
वहीं नुक्कड़ पर उनका अखाड़ा है, वहीं से वे फब्तियां कसते हैं, दंड पेलते हैं, आप में
क्या हिम्मत है कि उनको मना करें? तो ये (विज्ञापनदाता) हमारे मुहल्ले के गुंडे हैं।
आपको अपनी प्राथमिकताएं तय करनी पड़ती हैं। आप लड़ने बैठें भी तो यह तो
नहीं है कि दसों से एक साथ लड़ने बैठ जाएंगे। नौ से लड़िए, सात से लड़िए, दसों से
एक साथ लड़ने बैठे तो पिटकर घर बैठ जाएंगे। जैसी आपकी सामर्थ्र्य है उतना ही
लड़िए।
"
हे हे हे, इसका मतलब मज़दूरों को अपना मज़बूत संगठन खड़ा करने, अपनी मांगें मनवाने, श्रम का उचित मूल्य लेने के लिए पहले एक कारखाना खोलना होगा. इसके बाद इसमें तमाम शोषित मज़दूरों की भर्ती करनी होगी. इसमें बना हुआ माल खपाने का भी उन्हें खुद से इंतजाम करना होगा. जो एसा नहीं कर पायेगा उसे मालिकों या उनके ठेकेदारों के खिलाफ बोलने का कोई हक़ नहीं है. कहीं एसपी ये भी तो नहीं कहते थे कि क्रांति के लिए दूसरा जन्म लेना होगा, दूसरे का घर ढूंढना होगा और दूसरे कारखाने का शिकार करना होगा. क्या क्रांति कभी सरल-समतल रास्तों पर चलकर और पूंजीपतियों से दोस्ती गांठकर मिली है...
@Bharats- तो आपका क्या विचार है क्रांति के बारे में? आप कैसे कर रहे हैं? अगर इतने लोगों की ताकत है आपके पास कि कुछ मिलकर कर पाएं, तब तो जरूर कर सकते हैं, वरना मोहल्ले के गुंडों से अकेले लड़े हैं कभी? अपने अनुभव शेयर कीजिएगा।
फिलहाल मैं मूर्तियाँ तोड़ रहा हूँ और घर के गुंडों से लड़ रहा हूँ...लगातार लड़ रहा हूँ!
घर के गुंडों से लड़ रहे हैं, तब तो शुभकामनाएं दूंगी कि पहले अपना घर संभाल लें, फिर बाहर निकलें, देखें।
एसपी पर हो रही बात मुझ पर केन्द्रित हो गाई है तो जानिए, मैं शुभ-अशुभ, नैतिक-अनैतिक जैसी कई कामनाओं के बाहर विचरने वाला जीव हूँ. बावजूद इसके शुक्रिया ! हाँ, मैं घर जैसी और भी कई चीजों के संभलने का नहीं बिखरने का हिमायती भी हूँ. वैसे दुनिया भर के महानायकों और मसीहाओं ने जितना अन्याय अपने जीते जी समाज के साथ किया है उससे कहीं ज्यादा मरने के बाद तक किया है, इसके मुक़ाबले छोटे नायकों के हिस्से में कम गुनाह आते हैं.
Zindagi ke raho mein bahut se dost milenge,
Ham kya ham se bhi achhe hazar milenge,
En aacho ki bhid mein hame na bhula dena,
Ham kaha tumhe bar bar milenge.
Post a Comment