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Sunday, September 28, 2008

बेटियों के नाम

मैंने अपने को हमेशा एक वंचित बेटी समझा है जिसे पदार्थ के रूप में तो समृद्धि हमेशा मिली लेकिन भावनात्मक संतुष्टि की तलाश में परिवार के बाहर सहृदय लोगों का मुंह देखना पड़ा। इसमें मां की गलती नहीं है कि वे मुझे उम्र के उस बदलावों भरे तूफानी दौर में दिलासा नहीं दे पाईं, जिसकी मुझे सख्त जरूरत थी। दरअसल मां ने भी जो सीखा था, वही व्यवहार मेरे साथ किया। लेकिन आज की मांएं यह बेहतर समझती हैं कि अपनी बेटी को उस कठिन समय में संभालना, जानकारी देना, मजबूती देना और भरोसा दिलाना हर मां के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘इंद्रधनुष के पीछे-पीछे: एक कैंसर विजेता की डायरी’ के कुछ संबंधित हिस्से आपके साथ बांट रही हूं।

“मन के कोने में एक बात छुपी हुई है जिसे संकोच के परदे हटा कर बाहर लाने की पूरी कोशिश करती हूं- इस बात को कहने का यह, शायद जीवन का एकमात्र, मौका मैं खोना नहीं चाहती। मैं नहीं जानती, ऐसा कुछ मेरे जमाने में हर किशोर होती लड़की को सहना पड़ा होगा या नहीं। लेकिन मेरे दिलो-दिमाग में वे बातें गहरी खुदी हुई हैं। अच्छा लगता है आज की किशोरियों की मांओं यानी अपनी पीढ़ी की परिचित औरतों को अपनी बेटियों के सामान्य विकास की परवाह करता देख कर।

मैं उस समय चौदह साल की थी और अपने आप से ही जूझ रही थी- शरीर और मन के बदलावों से। लगता था सारी दुनिया की नज़रें मुझ पर हैं। हर जगह, हर समय बंदिश है, कुछ अपने संकोच की, कुछ मां की हिदायतों की। मन करता था, किसी ऐसी जगह जा कर रहा जाए जहां मन-मुताबिक हाथों-पैरों और दिलो-दिमाग को पूरी तरह ढीला छोड़कर कुछ देर जिया जा सके। छातियों के बढ़ने के दर्द को सहा पर कभी किसी से कह नहीं पाई। मां ने कभी इन सब विषयों पर बात नहीं की। मुझसे बड़ी एक बहन भी थी, लेकिन कभी खयाल नहीं आया कि उससे ही कुछ पूछा जाए। उस स्तर पर उससे कभी बातचीत ही नहीं होती थी। मां ने कभी बात तो नहीं की लेकिन कभी शाम को कॉलोनी की ही सहेलियों के घर से लौटने में देरी हो तो ताने जरूर दिए- लाज-शर्म नहीं है। और जबाव मेरी आवेश भरी आंखों में होता था- हां, तो मैं क्या करूं। इसमें मेरी क्या गलती है। और एक बार नहीं, अनेक बार मैंने मनाया कि मैं लड़की रहूं भी तो इन छातियों के साथ नहीं। उन्हें छुपाने की कोशिश में कसी हुई शमीज पहनने से लेकर स्कर्ट या मिडी में टक-इन की हुई शर्ट को ढीला रखते हुए उसके नीचे पहनी शमीज़ को खींच-खींच कर रखने जैसे न जाने कितने उपाय किए लेकिन उनका आकार नहीं घटा, बल्कि बढ़ता ही गया।...

...लेकिन स्तन क्या इतने ही अवांछनीय और शर्मिंदगी का विषय हैं कि उनके बारे में चर्चा भी सहज होकर न की जा सके? दरअसल यह बात मुझे काफी देर हो जाने के बाद समझ में आई कि ये शर्मिंदगी का विषय तब हैं, जब छोटी-छोटी अनभिज्ञताओं की वजह से नवजात शिशु दूध न पी पाए। समय पर उनका वास्तविक इस्तेमाल न हो पाए।

समान कपड़ों और बालों वाले समूह में स्त्री-पुरुष की पहचान करनी हो तो नजर सबसे पहले सीने की तरफ जाती है। यह स्त्रीत्व का बाहरी निशान है। मेडिकल तथ्य यह है कि इसका आकार-प्रकार बच्चे को दूध पिलाने का अपना मकसद पूरा करने में आड़े नहीं आता। लेकिन पुरुष प्रधान समाज में इसे ही स्त्रीत्व मान लिया जाता है।

एक तरफ तो बार्बी डॉल जैसे अवास्तविक आदर्श हैं और मर्लिन मुनरो जैसी फैंटसी, जिनसे बराबरी की भावना समाज बचपन से ही हमारे मन में लगातार भरता रहता है। और इसी लक्ष्य को पाने की कोशिश में हम कभी अपने शरीर के इस हिस्से को जैसा है, उसी रूप में स्वीकार नहीं कर पातीं। उसमें हमेशा कमी-बेशी नजर आती है। हमें हमेशा याद दिलाया जाता है कि यही हमारे नारीत्व का केंद्र है और इसे आदर्श रूप में रखना है।

दूसरी तरफ हमें उसी पर शर्मिंदा होना भी सिखाया जाता है। शो बिजनेस से जुड़ी औरतें शरीर के इस हिस्से का प्रदर्शन कर सकती हैं। लेकिन सामान्य ' भद्र' महिला से उम्मीद की जाती है कि वह लोगों के बीच इसे ठीक ढंग से ढक-छुपा कर रखे। 'प्लेबॉय' और 'कॉस्मोपॉलिटन' के कवर पेज पर इस प्रदर्शन का स्वागत है लेकिन आम औरत का सार्वजनिक रूप से इस तरह के गैर-इरादतन व्यवहार का अंश मात्र भी निंदनीय और दंडनीय है।...

...स्तन कैंसर के शुरुआती लक्षण भी उन्हीं दिनों उभर रहे थे। अगर मैं इस बारे में जानती होती या डॉक्टर ध्यान देते तो सब समझा जा सकता था। अब (कैंसर के बारे में) इतना कुछ पढ़ने-जानने के बाद साफ-साफ एक ही दिशा (स्तन में कैंसर होने) की ओर इशारा करती उन घटनाओं का सिलसिला जोड़ने में कोई कठिनाई नहीं होती।“

Thursday, September 25, 2008

शिमला में है लड़कियों का पहला कॉलेज, सौ साल पुराना ये कॉलेज क्या बंद हो जाएगा?


देश का पहला लड़कियों का कॉलेज सेंट बीड्’स, जल्दी ही बंद हो जाएगा। राष्ट्रीय बालिका दिवस पर ये खबर आई है। 1904 में बने शिमला के इस कॉलेज के प्रशासन ने सरकार से कहा है कि अगर उन्हें मिल रही आर्थिक मदद को बढ़ाया नहीं गया तो कॉलेज बंद करना ही होगा। कॉलेज बंदी की योजना बनने भी लगी है। दरअसल इस साल मार्च में सरकार ने एक नियम बना कर निजी कॉलेजों को मदद 95 फीसदी से घटा कर 50 फीसदी कर दी।

प्रिंसिपल मौली अब्राहम का कहना है कि फीस बढ़ा कर पैसे की तंगी को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन हम लड़कियों को सस्ती शिक्षा के अपने मकसद से हटना नहीं चाहते। 1970 से कॉलेज की फीस 70 रुपए प्रतिमाह तय है।दिल्ली के प्रतिष्ठित जीजस एंड मैरी का सहयोगी संस्थान सेंट बीड्’स राज्य का एकमात्र कॉलेज है जिसे एन ए ए सी का ए प्लस का दर्जा मिला हुआ है।

दिलचस्प बात ये है कि 1967 में जब दिल्ली में नया जीजस एंड मैरी कॉलेज बना तो यह तय हुआ कि शिमला के इस कॉलेज को बंद कर दिया जाए। तब हिमाचल सरकार और स्थानीय लोगों के कहने पर इसे बंद करने का पैसला टाल दिया गया। डाक विभाग ने संस्थान के 100 साल होने पर डाक टिकट भी जारी किया है।

इस कॉलेज से जुड़ी कुछ मशहूर हस्तियां हैं- हिमाचल की पहली महिला आई पी एस अधिकारी सतवंत अटवाल त्रिवेदी, पहली महिला हिमाचल पुलिस अधिकारी पुनीता कुमार, मिस इंडिया अंजना कुथलिया, फिल्मी हस्ती प्रिटी ज़िंटा।

Tuesday, September 16, 2008

बच्चों की देखभाल के लिए दो साल की छुट्टी

सरकारी दफ्तरों में काम करने वाली महिलाओं के लिए अच्छी खबर है। पता नहीं क्यों, अखबारों ने इन्हें खास तवज्जो नहीं दी, लेकिन है यह काम की खबर।

अब महिलाओं को अब साढ़े चार के बजाए छह महीने की मैटरनिटी लीव मिलेगी। उससे भी ज्यादा दिलचस्प और खुशी की बात है कि उन्हें अपने बच्चों के पालन के लिए अलग से दो साल की सवेतन छुट्टी मिलेगी और इसे वे किसी भी समय, टुकड़ों में भी, ले सकती हैं। शर्त बस ये है कि बच्चे/बच्चों की उम्र 18 साल से ज्यादा न हुई हो। उन्हें इस छुट्टी के दौरान तनख्वाह तो मिलती रहेगी ही, उनकी सीनियॉरिटी भी बनी रहेगी। यह पहली सितंबर से लागू है।

अब कोई इसे चुनावी हथकंडा कहे, पर सरकारी कामकाजी महिलाओं के लिए काफी सुविधा हो गई है। इसका मतलब यह है कि वे बच्चों की परीक्षा के समय उन्हें पढ़ाने, हारी-बीमारी में देखभाल, उसे किसी हॉबी आदि के अभ्यास या ट्रेनिंग, प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए शहर से बाहर ले जाने या घर में बच्चे की किसी और जरूरत के लिए भी छुट्टी ले सकती हैं।

उम्मीद करें कि केंद्र सरकार के इस नियम को और दफ्तरों में भी लागू किया जाएगा।

Thursday, September 11, 2008

यह था मॉनसून

अरिंदम बारह साल के हैं। आज अचानक उन्हें यह अहसास हुआ कि वे तो आशुकवि हैं! फिर क्या था, धड़ाधड़ कविताएँ रचने लगे। बाहर बारिश की झड़ी थी (दिल्ली की बात है ये) और उनकी कॉपी में कविताओं की। फिर एक कविता मॉनसून पर भी लिखी गई जो कि अब आपकी नज़र है। दाद जी खोल कर दीजिएगा, (अरिंदम की) उम्र का तकाज़ा है।

आसमां रो रहा था
बादल गुर्रा रहे थे
धरती नहा रही थी
यह था मॉनसून

बच्चे भीग रहे थे
फसलें उग रही थीं
चादर आसमां को ढक रही थी
यह था मॉनसून
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