विवेक आसरी
(युवा संवेदनशील कवि और पत्रकार विवेक नवभारत टाइम्स डॉट कॉम से जुड़े हैं। अपने ब्लॉग सुना आपने पर भी विवेक खासे सक्रिय रहते हैं। रिजेक्ट माल पर यह उनकी पहली प्रस्तुति है। )
अंधेरा रात के बलात्कार में बिजी है
और सुबह की उम्मीद
बेड के पास पड़ी
सिसक रही है
ख्वाबों के पांव तले की ज़मीन
धीरे-धीरे खिसक रही है
रूह खौल रही है
गुजरते वक्त की तेज होती आंच पर।
किसका बस है !!!
कभी-कभी लगता है
उम्मीद एक फालतू शब्द है
हर रात के बाद दिन होगा
इस तसल्ली से मुझे चिढ़ होती है
मुझसे किसने पूछा था
सुबह और शाम बनाते वक़्त।
न मेरी सहमति ली गयी
रात को अंधेरे में छिपाते वक़्त।
तो रोशनी के लिए
मैं क्यों सहर तलक इंतज़ार करूँ ?
गर रोशनी से पहले
मौत आ गई… उम्मीद को
तो क्या सूरज को सज़ा दोगे?
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1 comment:
भाई, कहना क्या चाहते हो?
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