- सीमा स्वधा
औरत
धीरे-धीरे उतरती है
मर्द की जिंदगी में
और शुमार हो जाती है
आदत की तरह.
कभी खौलती है
वजूद में/चाय की तरह
कभी बिखरती है/हर कश के साथ
धुयें की मानिंद.
बहती है कभी रंगों में
जिंदगी की सच्चाई बन
दहक-लाल-गर्म.
थरथराती है कभी/सांसों में
इच्छाओं की
ज्वार भाटा बन.
गोया
पत्नी वजूद नहीं
एक वस्तु हो/जिसे गढा हो
भले ही इश्वर ने
पर/इतना लचीलापन भी जरूरी है
कि मर्द ढाल सके
वक्त-बेवक्त/अपनी सुविधा
और कायदे के सांचे में.
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Sunday, July 19, 2009
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6 comments:
bahut hi sahi likha hai apane......sundar
bahut hi sahi likha hai apane......sundar
कभी खौलती है
वजूद में/चाय की तरह
कभी बिखरती है/हर कश के साथ
धुयें की मानिंद.
अच्छी कविता। मेरे मित्र अस्थाना जी अक्सर कहते हैं कि-
रोज सबेरे सबेरे मेरे घर में एक सवाल उछलता है।
पत्नी का गुस्सा और चाय दोनों में पहले कौन उबलता है।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सुमन जी बहुत खूब फ़रमाया आपने..आप सीमा जी को www.uskasach.blogspot.com पढ़ सकते हैं.
आपका ही
सौरभ के.स्वतंत्र
रिजेक्ट माल का कांसेप्ट बढ़िया है .
इस पर प्रकाशित रचनाओं को पढ़ कर समझा जा
सकता है कि हमारे संपादकों के रचना स्वीकृत
करने के पैमाने कितने समझदारी से भरे होते हैं.
निर्मल
bahut hi badiya सुमन जी
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