-दिलीप मंडल
अच्छा होता अगर योगी आदित्यनाथ के हाथों उदयप्रकाश कोई सम्मान न लेते। लेकिन उतना ही अच्छा होता अगर तमाम प्रगतिशील पत्रिकाओं में बीजेपी और कांग्रेसी और वामपंथी सरकारों के विज्ञापन न छपते (क्या ये बताने की जरूरत है कि भारत में सरकारों का चरित्र क्या होता है)। और शायद उससे भी अच्छा होता कि उदयप्रकाश के आदित्यनाथ से सम्मान लेने के खिलाफ गोलबंदी दिखाने वाले साहित्यकारों ने लालगढ़ में आदिवासियों के संहार के खिलाफ या नंदीग्राम और सिंगुर में राजकीय हिंसा के खिलाफ “भी” ऐसा ही एक वक्तव्य जारी किया होता (मैं जानता हूं कि ये बेहद अश्लील और सांप्रदायिक फासीवादी किस्म की अलोकतांत्रिक मांग है)।
उदयप्रकाश के गलत काम की निंदा में सक्रिय होने वाले साहित्यकारों से ये पूछने का कोई औचित्य नहीं है कि उन्होंने अपने निजी जीवन में कितने ताल-तिकड़म किए हैं। इस लिस्ट में अच्छे-बुरे दोनों होंगे। समानता का बिंदु इनमें सिर्फ ये है कि वो एक मुद्दे पर सहमत हैं। वैसे, उदयप्रकाश या किसी की भी आलोचना के लिए आलोचना करने वाले को 24 कैरेट का होना पड़ेगा, इस तर्क से मैं सहमत नहीं हूं। ऐसी शर्त लगा दें कि पापी पर पहला पत्थर वो मारे, जिसने पाप ना किया हो तो फिर किसी बात की या किसी व्यक्ति की आलोचना ही संभव नहीं है। हम आमतौर पर एक दूसरे को कम या ज्यादा मिलावट के साथ ही स्वीकार कर सकते हैं।
ये पूछना भी बेमानी और बेवकूफी है कि उदयप्रकाश के खिलाफ हस्ताक्षर करने वालों में से कितनों ने कितने रिश्तेदारों और चेलों को कहां फिट कराया है, कितने पुरस्कार किनसे लिए और किनको दिलाए हैं। कितने को और क्यों सबसे प्रतिभाशाली करार दिया है और किसे किस तरह खारिज करने की कोशिश की है। पुस्तक समीक्षाओं और लाइब्रेरी में किताबें लगवाने आदि की अंतर्कथा जानने में भी अपनी दिलचस्पी नहीं है। न किसी से ये पूछने का कोई कारण है कि जिन लोगों को उन्होंने साहित्य में आगे बढ़ाया, उनमें से कितने स्वजातीय थे, कितने चेले थे। ये पूछना भी सरासर बेवकूफी है कि पिछले 10-15 साल में सबसे ज्यादा बिकने वाले दलित साहित्य के रचयिता हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों की श्रेणी में स्थान कब पाएंगे। ऐसे सारे सवाल बेमानी हैं।
ये अगर बीमारियां हैं तो ये हिंदी साहित्य का स्थायी भाव भी है। उदयप्रकाश प्रकरण से इसका कोई लेना-देना नहीं है। न ही मेरी दिलचस्पी इस गणना में है कि उदयप्रकाश के खिलाफ हस्ताक्षर करने वाले 60 परसेंट ब्राह्मण-कायस्थ हैं (ऐसी गिनती ब्लॉग पर किसी ने करने की कोशिश की है) या 90 परसेंट सवर्ण हैं। ऐसी गिनती उदयप्रकाश के चेले ही करें। हिंदू समाज की सत्ता संरचना अगर उसी रूप में हिंदी साहित्य में नजर आ रही है तो इस पर अचरज करने का कोई कारण नहीं है। इसके पीछे साजिश ढूंढने वालों को हिंदी और हिंदू समाज की रचना में इसके मूल ढूंढने चाहिए। हस्ताक्षर अभियान में महिलाओं की लगभग गैरमौजूदगी के आधार पर जैसे आप ये नहीं कह सकते कि उदयप्रकाश के खिलाफ पुरुष मिलकर साजिश कर रहे हैं वैसे ही ये नहीं कहा जा सकता कि उनके खिलाफ कोई खास जाति वाले षड्यंत्र कर रहे हैं। महिलाएं यहां भी लगभग गैरमौजूद इसलिए हैं क्योंकि हिंदी साहित्य में ही उनकी मौजूदगी कम है।
जैसे कि किसी जाति का होने से कोई जातिवादी नहीं हो जाता, वैसे ही ब्राह्मणवादी यानी वर्णवादी होने के लिए ब्राह्मण होना कतई जरूरी नहीं है। ठाकुर ही क्यों कई मझौली जातियां अपने उग्र जातिवादी तेवर से कई बार ब्राह्मणों के कान काटती हैं। दलितों का नरसंहार करने में मझौली जातियां सवर्ण जातियों से आगे रही हैं। और उदयप्रकाश जिस जाति के हैं वो तो इस खेल में बराबर की टक्कर देनेवाली जाति मानी जाती है। उपनिषद काल से ही हिंदी वर्णव्यवस्था की दो शीर्ष जातियों की लड़ाई चल रही है। बाकी देश में जब आधुनिकता और अंतर्जातीय विवाहों की आंधी में जाति खत्म हो चुकी होगी और इसकी शुरुआत हो चुकी है, तो भी मेरा अपना अंदाजा है (गलत हो तो खुशी होगी) हिंदी साहित्य के फॉसिल्स में वर्णवाद सबसे प्रभावी तत्व के रूप में मौजूद होगा।
बहरहाल मुद्दे की बात सिर्फ इतनी है कि उदयप्रकाश ने हममे से ज्यादातर की नजर में एक ऐसा काम किया जो हमें नागवार गुजरा है। इसलिए शायद हर लोकतांत्रिक व्यक्ति को इस पर एतराज होगा और इस नाते हमारी नाराजगी उन्हें झेलनी चाहिए। उदयप्रकाश को ये संदेह नहीं करना चाहिए कि अनिल यादव ने किसी जातिवादी साजिश के तहत अमर उजाला में छपे गोरखपुर के समारोह की कटिंग कबाड़खाना ब्लॉग में पेस्ट की थी। अनिल यादव किसी साजिश में शामिल हैं, ऐसा प्रमाण किसी ने अब तक पेश नहीं किया है।
लेकिन एक बात मुझे खटक रही है। उदयप्रकाश ने बेहद तेज नजर पाई है। उनके ऑब्जर्वेशंस के कायल लोगों की कमी नहीं है। जब वो आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित हो रहे होंगे तो उन्हें अच्छी तरह मालूम होगा कि वो क्या कर रहे हैं। इतने भोले तो वो नहीं हैं कि इसके असर के बारे में उन्हें अंदाजा नहीं रहा होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि साहित्य में जिस ब्राह्मण-अब्राह्मण विभेद की वो चर्चा करते रहे हैं, उसी धुरी पर वो इस समय पूरे हिंदी साहित्य को नचाने की कोशिश कर रहे हैं। आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित होते समय उदयप्रकाश के मन में ये बात रही होगी या नहीं ये कहना तो मुश्किल है लेकिन अब विवाद जहां आ पहुंचा है, वो एजेंडा उदयप्रकाश का ही ज्यादा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जाने अनजाने में हम सब उस एजेंडे के पक्ष या विपक्ष में खड़े हो गए हैं जो उदयप्रकाश ने सेट किया है। वरना इससे पहले आखिरी बार इस बात की गणना कब हुई थी कि साहित्यकारों के किसी समूह में जाति विशेष के कितने लोग हैं।
ये विवाद ब्लॉग और नेट पर तो फास्ट फूड की तरह निबट जाएगा। लेकिन हिंदी के मंथर गति से रेंगते कई साहित्यकारों को अब अगले छह महीने या कई साल तक की जुगाली का माल मिल गया है। इस मामले में आखिरी अध्याय लिखा जाना अभी बाकी है।
यहां एक सवाल उठता है कि क्या हिंदी साहित्य को जातिवाद और ऐसे ही तमाम पोंगापंथी विचारों से मुक्त करने का कोई रास्ता है। क्या इसका एक रास्ता ये हो सकता है कि अंग्रेजी या दुनिया की कई और भाषाओं की तरह हिंदी में भी ये बात सार्वजनिक की जाए कि बेस्टसेलर कौन है? कम से कम तिमाही या छमाही आधार पर अगर प्रकाशकों से उनकी सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों की लिस्ट के आधार पर टॉप 20 या टॉप 100 जैसी कोई लिस्ट बनाई जाए तो शायद कई समस्याओं का समाधान हो जाएगा। दुनिया को ये पता चलेगा कि हिंदी में ज्यादा क्या बिक रहा है। पाठकों के लिए किताबें चुनना आसान हो जाएगी। इसके लिए फिक्शन और नॉन फिक्शन की कटेगरी बनाई जा सकती है। रॉयल्टी की चोरी भी इससे रुकेगी क्योंकि कोई भी प्रकाशक सिर्फ रॉयल्टी बचाने के लिए अपनी किताबों को कम बिकने वाली नहीं बताएगा। सिर्फ लाइब्रेरी में चंद सौ किताबें लगवाकर महान बनने वाले कई सेटिंगबाज साहित्यकारों की इस तरह पोल भी खुल जाएगा। प्रकाशकों की संस्था बेस्टसेलर की लिस्ट बनाने का जिम्मा अपने ऊपर ले सकती है। क्या हिंदी साहित्य और साहित्यकारों में है इतना दम?
Custom Search
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Custom Search
4 comments:
मित्र सद_इछाओं के बावजूद भी तुम्हारा विश्लेषण भी एकांगी है। वह इस रूप में कि जब आप खुद ही मानते हैं कि उदय प्रकाश जी ने जो किया वह वैचारिक द्रष्टि से गल्त है तो फ़िर उसके विरोध में उठी हुई आवाज कोई साजिश कैसे हो सकती है?अभी इतना ही। बाकि संवाद जारी रहने पर।
saval sirf itana hai ki kyaa kisii bhii paristhiti me aadityanaath ke saath manch share karane ko justify kiya jaa sakataa hai?
baakii PAATH bas mudde ko dilute karane ke hathkande hain
बहुत संतुलित नज़रिये से लिखा है।
सही है.. ये तेवर बने रहें! शुभकामनाएं!
नहीं
, टीआरपी वाले हिन्दी साहित्य, साहित्यकारों में सार्वजनिक चहल-पहल से छुपे मंच में दायें-बायें फुदकने से अलग, कमसकम पचीस साल तो हुए ही, कभी दम नहीं रहा. समरेश बसु ने 120 उपन्यास लिखे हैं सुनकर भी ये साहित्यकार कहां बेदम होते हैं, नाइजीरिया के चिनुआ अचेबे की 'थिंग्स फॉल अपार्ट' की बीस लाख से ज्यादा प्रतियां बिकी हैं जानकर हिन्दी साहित्य को कभी हार्ट अटैक आया है?
Post a Comment