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Saturday, August 22, 2009

क्रिकेट के मैदान में अधूरा भारत क्यों दिखता है?

दिलीप मंडल

विनोद कांबली का टीम से बाहर होना क्या किसी नस्लभेदी या जातिवादी साजिश की वजह से हुआ था? एक टीवी कार्यक्रम में इस ओर संकेत कर विनोद कांबली ने बेहद संवेदनशील मुद्दा छेड़ दिया। लेकिन एक व्यक्ति के टीम में होने या न होने या निकाले जाने से बड़ा एक मुद्दा है, जिसपर बात होनी चाहिए। वो है क्रिकेट के मैदान में पूरे देश की इमेज नजर न आना। आखिर ये शायद अकेला टीम स्पोर्ट है जिसकी भारतीय टीम में नॉर्थ ईस्ट से कोई नहीं होता, कोई आदिवासी नहीं होता, कोई दलित नहीं होता, पिछड़े जाति समूहों के खिलाड़ी आम तौर पर नदारद होते हैं। यानी तीन चौथाई से ज्यादा हिंदुस्तान भारतीय क्रिकेट टीम में नजर ही नहीं आता। और ये साल दर साल से चला आ रहा है।

24 साल की उम्र में विनोद कांबली की टेस्ट क्रिकेट से विदाई से कुछ असहज सवाल तो खड़े होते ही हैं। विनोद कांबली ने 1992-93 में इंग्लैंड के खिलाफ सिरीज से टेस्ट करियर की शुरुआत की और उन्होंने 17 मैचों में 1084 रन बनाए। उन्होंने इस दौरान 4 सेंचुरी और 3 हाफ सेंचुरी बनाई। उनका टॉप स्कोर 227 रहा और बैटिंग एवरेज रहा 54.20 (सचिन तेंडुलकर का एवरेज है 54.58)। आखिर के चंद टेस्ट मैच में कांबली जरूर ढलान पर रहे। लेकिन अगर अजित आगरकर लगातार पांच टेस्ट इनिंग्स मे जीरो बनाकर भी इंडियन टीम में रह सकते हैं और कई खिलाड़ियों (सचिन और गांगुली समेत) की खराब फॉर्म के बाद टीम में वापसी होती रही है तो ये सवाल उठता ही है कि कांबली जैसे टैलेंटेड खिलाड़ी को प्रदर्शन सुधारने का टेस्ट मैच में एक भी मौका क्यों नहीं मिला। तेज शॉर्ट पिच गेंदों को खेलने की उनकी जिस कमजोरी की बात की जाती है वो तो गांगुली समेत देश के कई बैट्समैन के साथ रही है। तकनीक में सुधार का मौका मिलने में कई बैट्समैन ने इस कमजोरी को सुधार भी लिया। ये सुविधा कांबली को नहीं मिली और इसे ही संभवत: वो भेदभाव कह रहे हैं।

बहरहाल विनोद कांबली की टीम से विदाई के बाद ये सवाल एक बार फिर सामने आ गया है कि भारतीय टीम में पूरा भारत क्यों नहीं दिखता। ऑस्ट्रेलिया के एक खेल पत्रकार ने साइमंड्स और हरभजन विवाद के समय भारतीय क्रिकेट में ब्राह्मण वर्चस्व के बारे में पूछा था तो क्रिकेट जगत में जबर्दस्त विवाद खड़ा हो गया था। किसी को ये सवाल जातिवादी, सैक्टेरियन, विभाजनकारी और मॉडर्निटी विरोधी लग सकती है लेकिन ऐसी बहस तो इस समय लगभग पूरी दुनिया में चल रही है और लगभग सभी विकसित देश एक के बाद एक ये मान रहे हैं कि राष्ट्र की विविधता राष्ट्रजीवन के तमाम अंगों में उसी खूबसूरती से नजर आना देश और नागरिकों के हित में है।

ऐसे देशों में अमेरिका (जहां अब एक अश्वेत राष्ट्रपति है), फ्रांस, कैनेडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। ये सभी देश डायवर्सिटी को अपना रहे हैं। ब्रिटेन की क्रिकेट टीम में चेन्नई का जन्मा एक मुसलमान नासिर हुसैन कैप्टन बनता है और फ्रांस अपनी फुटबॉल टीम की कमान अफ्रीकी मूल के जिनाडिन जिडान को सौंप सकता है। हॉलैंड की फुटबॉल टीम में लगभग आधा दर्जन अश्वेत नजर आते हैं। एक और मिसाल के तौर पर साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम को ही लीजिए। वहां के क्रिकेट बोर्ड के डायवर्सिटी प्लान के तहत टीम में लगभग आधे खिलाड़ी ब्लैक या मिली जुली नस्ल के होते हैं और इसमें भारत समेत एशियाई मूल के खिलाड़ी भी शामिल हैं।

नहीं ये कोई कोटा सिस्टम नहीं है। अगर वंचित तबकों को आगे लाने का मतलब मेरिट की अनदेखी होता, तो फ्रांस और हॉलैंड की फुटबॉल टीम कमजोर टीमों की गिनती में आती और साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम दुनिया की सबसे कमजोर टीम होती। लेकिन ऐसा नहीं है। अश्वेतों की भागीदारी ने साउथ अफ्रीका की टीम को कमजोर नहीं किया। आईसीसी की वन डे रैंकिंग में फिलहाल वह नंबर वन है। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि 1983 में जिस क्रिकेट टीम में विश्वकप जीता था, उसमें भारतीय समाज की विविधता शायद अब तक सबसे बेहतरीन शक्ल में नजर आई थी। दरअसल खेल में डायवर्सिटी का एक ही मतलब है और वो है टैलेंट पूल को बड़ा करना और ज्यादा से ज्यादा लोगों तो खेलों को ले जाना। क्रिकेट तो वैसे भी 12 देशों का खेल है। अगर भारत को स्पोर्ट्स सुपरपावर बनना है, ओलिंपिक्स में मेडल लाने हैं तो देश में टैलेंट पूल को कई गुना बढ़ाना होगा।

अब जबकि आईपीएल के रूप में इतना अधिक क्रिकेट खेला जा रहा है और इतने ज्यादा खिलाड़ी मैदान में हैं कि टैलेंट को दबा पाना आज उस तरह संभव नहीं है जैसा कि आज से 20 या 50 साल पहले हो सकता था। आज तो किसी छोटे शहर का धोनी, प्रवीण कुमार, हरभजन सिंह या आरपी सिंह तमाम बाधाओं को पार कर टीम में जगह बना लेता है। साधारण परिवार से आने वाले अमित मिश्रा के टेलेंट की अनदेखी आज मुश्किल है।

इसके बावजूद क्रिकेट में अगर हॉकी या फुटबॉल या एथेलेटिक्स जैसी विविधता वाली टीम नजर नहीं आती तो इसकी वजह क्रिकेट के इतिहास और इस खेल के स्वरूप में है। आजादी से पहले तक क्रिकेट टीम में ज्यादातर राजा-महाराजा हुआ करते थे। उसके बाद भी क्रिकेट जिमखाना संस्कृति से अरसे तक मुक्त नहीं हुआ। साथ ही क्रिकेट का एक और केंद्र वो स्कूल और कॉलेज रहे जहां अच्छे मैदान थे, नेट पर क्रिकेट के गुर सिखाने वाले अच्छे कोच थे और इन स्कूलों में प्रवेश हर किसी को नहीं मिल सकता था। इसलिए क्रिकेट का एक एलीट चरित्र हमेशा से रहा।

क्रिकेट के बारे में कई समाजशास्त्रियों ने ये बात लिखी है कि ये खेल मूल रूप से भारतीय स्वभाव के अनुकूल है। इसमें शारीरिक संपर्क न्यूनतम है और ये छुआछूत मानने वाली भारतीय जाति परंपरा के भी हिसाब से फिट खेल है।

लेकिन वक्त के साथ क्रिकेट भी बदल रहा है। अब ट्वेंटी-ट्वेंटी फॉर्मेट में स्टैमिना का महत्व काफी बढ़ गया है। खेल का चरित्र बदलने के साथ ही खेलने वाले भी बदल रहे हैं। कांबली की शिकायत उनके समय के हिसाब से सही हो भी सकती है लेकिन 2009 के भारतीय क्रिकेट के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। आने वाले दिनों में किसी कांबली को शायद ये शिकायत करने का मौका नहीं मिलेगा कि जाति की वजह से उसे टीम से निकाल दिया गया

2 comments:

dhiresh said...

मुझे क्रिकेट की बारीकियां नहीं पता लेकिन कुछ सवाल जो आपके लेख में ही मौजूद हैं, खुद अपने जवाब हैं. सचिन महान हैं पर क्या यह सच नहीं हैं कि वे अपने प्रदर्शन की निरंतरता न होते हुए भी चाहे जब तक खेलने का दम भर सकते हैं. प्रभाष जोशी जब इसे ब्रहम से संवाद का कमाल बताते हैं तो उससे ही साफ़ हो जाता है कि अन्याय का किला कितना बेशर्म और मजबूत है.
प्रवीण कुमार जाट हैं, शायद हरभजन भी जाट सिख हों, मैं नहीं जानता पर ये जानता हूँ कि जाट और कई दबंग पिछडी जाति के युवकों को संघर्ष तो करने पड़ते हैं पर वैसे नहीं जैसे किसी दलित को. दलित चेहरे तो स्कूल स्तर पर ही किनारे कर दिए जाते हैं.

Anonymous said...

Aapka kahna sahi hai.
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

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