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Tuesday, September 1, 2009

वक्त बदल गया है, आप भी बदलिए!

प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव,

मेरे करीबी रिश्तेदारों में कई जातियों के लोग हैं। ब्राह्मण से लेकर कायस्थ और नायर से लेकर दलित तक। ये सभी सभी परिवार प्रेम से रह रहे हैं। आपके परिवारों में भी लोगों ने प्रेम किया होगा और कई ने जाति से बाहर शादियां भी की होंगी। अब आप जाति पर अपने शर्मसार करने वाले विचारों को अपने रिश्तेदारों पर लागू करके देखिए और हिसाब लगाइए कि कौन सी बच्ची या बच्चा कवि बनेगा और कौन कहानीकार और कौन आत्मकथा बेहतर लिखेगा। या हिसाब लगाइए इस बात का कि कौन बैटिंग करेगा और कौन बॉलिंग और कौन टिक कर खेलेगा और कौन टिक कर नहीं खेलेगा या फिर कौन बेहतर नेतृत्व क्षमता दिखाएगा और कौन नहीं दिखाएगा। आपको अपने ही विचारों से शायद नफरत होने लगे और आप अपने बच्चों और पोते-पोतियों से माफी मांगने के अलावा कुछ और नहीं कर पाएं। बड़े लोग जब इस तरह अश्लील और समाज में नफरत फैलाने वाली बातें करने लगें, तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है।

मैं ये सोचने की कोशिश कर रहा हूं कि ये दोनों बुज़ुर्ग बीमार क्यों हैं। इसका एक कारण तो मुझे समझ में आ रहा है। इन्हें दुनिया की शायद खबर ही नहीं है। प्रभाष जोशी इंटरनेट नहीं देखते। वो ऑर्कुट पर नहीं हैं। वो फेसबुक में भी नहीं हैं। मुझे नहीं मालूम कि उनके पास ई-मेल आईडी है या नहीं। कुछ समय पहले तक उनके पास मोबाइल फोन भी नहीं था। एसएमएस पता नहीं वो करते हैं या नहीं। वो ट्विटर पर ट्विट भी नहीं करते। उनका कोई ब्लॉग भी नहीं है। राजेंद्र यादव का भी कमोबेश यही हाल है। वैसे तो इस गरीब देश के ज्यादातर लोगों की प्रोफाइल नेटवर्किंग साइट पर नहीं हैं, वो ईमेल भी नहीं करते, न ही कंप्यूटर से उनका कोई वास्ता है। देश में इस समय लगभग 6 करोड़ लोग ही इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं (देखें मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी की सालाना रिपोर्ट)। तो अगर राजेंद्र यादव या प्रभाष जोशी देश के छह करोड़ कनेक्टेड लोगों में नहीं हैं तो क्या फर्क पड़ता है?

फर्क पड़ता है। इसलिए क्योंकि ये दोनों कम्युनिकेशन यानी संवाद के धंधे में हैं। और ऐसे लोग अगर दीन-दुनिया से अपडेट न रहें तो फर्क पड़ता है। ये बेखबर लोग अगर अपनी बात खुद तक ही रखें तो हमें धेले भर की परवाह नहीं। लेकिन वो बोल रहे हैं और बेहद बेतुका और बेहूदा बोल रहे हैं। ये दोनों लोग ऐसी बातें बोल रहे हैं, जो उनके चेलों के अलावा हर किस को अखर रही है। मैं एक भी ऐसे आदमी को नहीं जानता, जो जातिवाद के समर्थन में उनके विचारों का कम से कम सार्वजनिक तौर पर समर्थन करें। इन दोनों महान लोगों के चेलों के पास भी बचाव में देने को कोई तर्क नहीं हैं। आखिर इनके चेलों में से भी कई ने जाति से बाहर शादी की है। उन्हें मालूम है कि उनकी अगली पीढ़ी क्या करने वाली है। हर जाति के लोगों को ये लेखन आउटडेटेड और सड़ा हुआ लग रहा है। 21वीं सदी के लगभग 10 साल बीतने के बाद ये अज्ञानी लेखन हमारी देवभाषा में ही संभव है। इस समय पश्चिम में आप कल्पना नहीं कर सकते कि कोई जाति या वर्ण या नस्ल या रंग के आधार पर श्रेष्ठता का ऐसा खुल्लमखुल्ला और अश्‍लील समर्थन करे। उसे पूरा देश दौड़ा लेगा।

बहरहाल ये इस बात का प्रमाण है कि ये दोनों लोग दुनिया में चल रहे आधुनिक विमर्श से वाकिफ ही नहीं हैँ। ये महानगर में रहते हैं। आर्थिक रूप से समर्थ हैं। लेकिन नेट पर नहीं हैं। पता नहीं की-बोर्ड पर काम करना इन्हें आता भी है या नहीं। ऐसे में दोनों को पता ही कैसे चलेगा कि नॉम चॉमस्की ने अपने ब्लॉग पर ताजा क्या लिखा है या फिर फ्रांसिस फुकोयामा के बारे में ब्लॉग में क्या चल रहा है। उन्हें पता ही नहीं कि दुनिया कितनी बदल गयी है। नहीं, ये एलीट होने या जेब में ढेर सारे पैसे होने की बात नहीं है। 10 रुपये में कोई भी आदमी आधे से लेकर एक घंटे तक इंटरनेट कैफे में कनेक्ट हो सकता है। प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव भी ये कर सकते हैं। वो ऐसा नहीं करते, इस वजह से उनका अपने पाठकों की दुनिया से जबर्दस्त डिस्कनेक्ट है।

भारत में इतने हमलावर आये हैं (उनमें से ज्यादातर अपने साथ परिवार लेकर नहीं आये) और समाज व्यवस्था में इतनी उथल-पुथल हुई है कि रक्त शुद्धता की बात कोई कूढ़मगज इंसान ही कर सकता है। हिमालय के किसी बेहद दुर्गम गांव में या किसी द्वीप या किसी बीहड़ जंगल में बसी बस्ती के अलावा रक्त अब शायद ही कहीं शुद्ध बचा होगा। ऐसे में कोई ये कहे कि कोई खास जाति किसी खास काम को करने में इसलिए ज्यादा सक्षम और समर्थ है कि उसका जन्म किसी खास जाति में हुआ है, तो इस पर आप हंसने के अलावा क्या कर सकते हैं। आप रो भी सकते हैं कि जिन लोगों को हिंदी भाषा ने नायक कह कर सिर पर बिठाया है, उनकी मेधा का स्तर ये है।

प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव, क्या आपको अपने घरों में नयी पीढ़ी की हंसी की आवाज़ सुनाई दे रही है? पता लगाइए कि कहीं वो आप पर तो नहीं हंस रहे हैं।

प्रभाष जोशी तो खुद को ब्राह्मण ही मानते होंगे। उनमें वो सारे गुण होंगे, जिनका जिक्र उन्होंने ब्राह्मणों के बारे में अपने इंटरव्यू में किया है। अगर उनका जन्म मिथिलांचल या मालवा के किसी बेहद गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ होता, तो भी क्या ये तय था कि वो संपादक ही बनते। इस बात की काफी संभावना है कि वो पटना या इंदौर के किसी सरकारी दफ्तर में चपरासी होते और लोगों को पानी पिला रहे होते। राजेंद्र यादव किस जातीय गुण की वजह से संपादक बन गये?

तो प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव,

बात सिर्फ इतनी सी है कि किसी को कितना मौका मिला है। बात अवसर की है। ये न होता तो आप अपने बच्चों को किसी गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ाते। फिर हम भी देखते धारण क्षमता का चमत्कार। यादव जी का ये कहना गलत है कि “ब्राम्हणों में कुछ चीज़ें से अभ्यास आयी हैं जैसे कि अमूर्तन पर विचार-मनन और इसीलिए कविताई में उनका वर्चस्व है। इन्हीं वजहों से विश्वविद्यालयों और अकादमियों में भी वे काबिज़ हैं।” वो वहां काबिज इसलिए हैं, क्योंकि उन्हें वहां तक पहुंचने का मौका मिला है। पढ़ाई-लिखाई को लेकर चेतना अलग-अलग जातियों और समूहों में कुछ जादू नेटवर्किंग का भी है। नरेंद्र जाधव और बीएल मुणगेकर को मौका मिला तो दलित होते हुए भी वो पुणे और मुंबई जैसे बड़े विश्वविद्यालयों में कुलपति बन गये। कोई भी बन सकता है।

किसी जाति में कोई अलग गुण नहीं होता। कुछ पुरानी बातें अब लागू नहीं होतीं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने गीता का भाष्य करते हुए 18वें अध्याय में यही कहा है। पढ़ लीजिएगा। 21वीं सदी में जातीय श्रेष्ठता की बात करेंगे तो घृणा के नहीं हंसी के पात्र बनेंगे।

6 comments:

Fauziya Reyaz said...

sahi kaha aapne...badalne ki waqai zaroorat hai

Priyankar said...

प्रभाष जोशी व राजेन्द्र यादव भले न बदलें (गुजरे जमाने के हैं लोग इन्हें कुछ न कहो .... टाइप प्रतिक्रिया समझें) पर दिलीप मंडल का बदलना भला लग रहा है . अच्छी शुरुआत है . आशा है वे इस आदर्शोन्मुखी ’स्टैण्ड’ पर टिके/टंगे रहेंगे .

Ek ziddi dhun said...

आप सही कह रहे हैं लेकिन नफरत और गैरबराबरी को मूल्य माने और उसी का खाने वाले को शर्म आएगी, ऐसा लगता नहीं है. अभी इतवार को प्रभाष जनसत्ता को जो कागज काला कर चुके हैं, उसमें भी उनकी हास्यास्पद छवि ही उभरती है. वे ब्रह्म से संवाद करने वाली शीला दीक्षित की जबान फिसलने को, जिससे गाँधी की हिंद स्वराज जैसी पुस्तक अशोक चक्रधर की बन गई, किसी तरह जस्टिफाई कर रहे हैं. यह बड़ा मजेदार है कि एक ब्राह्मण एक सत्ताधारी ब्राह्मणी को किस बेशर्मी से डिफेंड करता है.

pranava priyadarshee said...

दो दशक पहले सती प्रथा के सवाल पर जो आपराधिक भूमिका प्रभाष जी की अगुवाई में जनसत्ता ने निभायी थी, उस वक्त अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए हम नही थे। हालांकि तब भी विरोध करने वालों ने विरोध किया ही था और तगड़ा विरोध किया था। उस विरोध पर हम आज भी गर्व करते हैं।
लेकिन आज जब प्रभाषजी ने उन्ही बातो को दूसरे शब्दों में दोहरा कर उन्हें मान्य बनाने की एक और कोशिश की है तो उसका उससे भी जोरदार विरोध करने की जरूरत है, जैसा विरोध दो दशक पहले हुआ था। दिलीप ने देर किए बगैर इस विरोध का श्रीगणेश किया इसके लिए उन्हें हार्दिक बधाई।

स्वप्नदर्शी said...

I do not know how many people follow these gentlemen, and how relevant is the tradtional issue of caste and Sati-pratha is today?

Thanks for offering resistance but these issues have perforated in many new forms in our society and recognizing those is very important for today and for future as well. I belong to small towns and a corner of a India, which has less social contradictions compared to main land. But I was very shocked in my last visit to India, specially how the economic status has replaced old caste system and people are not even aware of it.

I visited some of my relatives and friends in Delhi Metro area, and their treatment towards drivers and household maids was shocking to me, they were treated exactly the same way as were shudras two generation ago.

In my house we do not have separate utensils for drivers and occasional helpers, and they come and sit where everyone else is sitting and are part of the family, more or less. But "metro" culture is quite beyond my perception. I felt very insulted when someone offered a "chai" to my driver in absolutely shameful, old, half broken cup.

similarly the traditional dangers of sati-prathaa are not prominient issue now, but how women and men percieve "women" as objective is a long term danger.

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

दिलीप जी प्रणाम,
आपकी जातिवाद के बारे में क्या समझ है इस मैं फिर कभी बात करुंगा, लेकिन आपके इस लेख के संदर्भ में एक बात मैं आपको बता दूं कि जातिवाद का दंश किस प्रकार आज भी इस तथाकथित पत्रकारिता की दुनिया में काब़िज़ है ये शायद आप मुझसे ज्यादा न जानते होंगे। जिस आधुनिक पत्रकारीय दुनिया(भारत के संदर्भ में)की आप बात कर रहे हैं उसकी कहानी को आप "कथादेश" के "मीडिया विशेषांक" में "पत्रकारिता और इलैक्ट्रोनिक मीडिया" अवश्य पढ़िएगा,ये मेरा आपसे आग्रह है। शायद आपको अपनें इस लेख के लिेखे जानें से पहले मेरे उस अनुभव को न पढ़नें की ग्लानि अवश्य होगी। ये काम आज भी ब्राह्मणवाद से ग्रसित है। पहले भी ज्ञान बघारनें का काम था और आज भी उसी पर काब़िज है। आप जिन लोगों का उदाहरण देकर समझा रहे हैं कि बात अवसर की है और ये जातिवाद जैसे शब्द की प्रासंगिकता नहीं रही है,तो कितनें उदाहरण होंगे आपके पास जहां कोई सवर्ण किसी दलित लड़की से या कोई सवर्ण किसी दलित के बेटे से शादी करनें को तैयार हो, आप जिस आधुनिक इंटरनेट की दुनिया की दुहाई दे रहे हैं,वहां भी आज जातियों के आधार पर ही शादियों के लिए पंजीकरण किए जाते है और ये आंकड़ा भी क्या आप उपलब्ध करवा सकते हैं कि कितनें लोग बिना किसी जाति भेद के आपके तथाकथित आधुनिक संपर्क साधन पर पंजीकरण करवाते है? औऱ कितनें लोग अपनी जाति,भाषा यहां तक की राज्य में भी क्षेत्रों के आधार के ही रिश्ते तलाशते हैं? आप कौन सी दुनिया में है? अगर आप कहते हैं कि आप ज्यादा आधुनिक है तो आप भी उसी पंक्ति में दिखते है जिस में कि प्रभाष जोशी और राजेंद्र यादव है। आप आधुनिकता की दुहाई उसी तरह दे रहे हैं जिस तरह वीर रस के कवि क्षत्रियों की शूरवीरता का अतिश्योक्तिकरण और मिथ्यावर्णन किया करते थे। ब्राह्मण भी कहते हैं कि वो शुक्ला हम तिवारी, शुक्ला-शुक्ला कानिबकुंज या सरयूपारि होनें की दुहाई देते है। जो सवर्णों में जातिवाद का भेद रख सकता है तो दलितों का आप कहां बराबरी की बात कर रहे है। खैर बात बहुत आगे तक लेकर जा सकता हूं इस विषय पर। जीवन के बहुत अनुभव है अपनी जाति के विषय पर। आगे फिर कभी...

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