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Friday, October 2, 2009
पत्रकारों के पेट तक पहुँचती है लालगढ़ पुलिस की लात?
कोलकाता की पत्रकार बिरादरी उबल रही है, पर दिल्ली में चुप्पी छाई है। एकाध अनुरंजन झा (भड़ास4मीडिया) और अविनाश (मोहल्ला लाइव) को छोड़ दें तो ब्लॉगों पर भी यह सवाल लोगों को मथता नजर नहीं आ रहा। उल्टे यह सवाल उछल रहा है कि जब पत्रकार पुलिस के वेश में या किसी और वेश में खबरें निकाल सकते हैं तो पुलिसवाले पत्रकार का वेश धर कर किसी नक्सली को क्यो नहीं पकड़ सकते?
पहली बात तो यह कि हम किसी पत्रकार, डॉक्टर, गुंडा, आतंकी या नक्सली के आचरण की तुलना पुलिस कार्रवाई से नहीं कर सकते। किसी गुंडे की गोली से एक व्यक्ति का मरना और पुलिस की गोली से मरना - एक जैसी बात नहीं है। पुलिस मौजूदा शासन व्यवस्था का सबसे संगठित हिस्सा है। यही वह ताकत है जिसके जरिए मौजूदा शासन व्यवस्था संचालित होती है।
कहा जा सकता है कि पुलिस वाले भी इंसान होते हैं और उन पर भी काम का वैसा ही बोझ होता है जैसा पत्रकारों पर या किसी भी अन्य पेशे के लोगों पर होता है। बात सही है, लेकिन इसी वजह से यह और भी जरूरी हो जाता है कि शासन व्यवस्था के अन्य संबद्ध हिस्से पुलिस पर अंकुश बनाए रखें। क्योंकि काम के बोझ तले पुलिस में यह स्वाभाविक रुझान होता है कि वह अन्य हिस्सों को अपनी जरूरत के मुताबिक निर्देशित करने की कोशिश करे।
कुछ दिनों पहले नक्सलियों के ही मसले पर इससे मिलती-जुलती सी बहस आंध्र प्रदेश में भी उठी थी। तब आंध्र पुलिस ने पत्रकारों को सलाह दी थी कि वे नक्सली नेताओं से इंटरव्यू न लें, बल्कि अगर उनके पास नक्सली नेताओं के बारे में कोई सूचना हो तो वे पुलिस को दें।
आध्र के पत्रकारों ने इस सलाह पर कड़ा एतराज जाहिर करते हुए कहा था कि हम पुलिस के इन्फोर्मेर नही हैं। पत्रकार का काम पुलिस को नही बल्कि जनता को इन्फोर्म करना होता है। इसीलिये बेहतर यही होगा की पुलिस नक्सलियों को पकड़ने का अपना काम करे और पत्रकारों को अपना काम करने दे।
यही वह बिन्दु है जो पत्रकारों को पुलिस से बुनियादी तौर पर अलग करता है। पुलिस इस तंत्र का एक हिस्सा है जिसका काम इस व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करना है। वह सरकार के अधीन होती है, सरकार से ताकत लेती है। इसके विपरीत पत्रकार जनता से ताकत लेते हैं। लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निहित होती है और पत्रकार सीधे जनता को रिपोर्ट करते हैं। इसीलिये सरकार की नाराजगी से उनकी सेहत पर ख़ास फर्क नही पङता।
अरुण शौरी जैसे पत्रकार अगर प्रधान मंत्री की नाराजगी मोल लेते हुए भी शान से पत्रकारिता करते रहे तो उसका कारण यही है की जनता ने उनको मान्यता दी और तत्कालीन सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ दी।
यही बात मौजूदा विवाद पर भी लागू होती है।
सवाल यह नही है कि छत्रधर महतो कितने अच्छे या बुरे हैं और उन्हें पुलिस को पकड़ना चाहिए या नही। उस बारे में फ़ैसला करना अदालत का काम है। यहाँ सवाल यह है कि छत्रधर महतो या उन जैसे लोगो का जो भी कहना है वह सही है या ग़लत इसका अन्तिम फ़ैसला कौन करेगा? ख़ास कर ऐसे विचारधारात्मक मसलों का अन्तिम फ़ैसला सरकार या सरकारी तंत्र के विवेक पर नही छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र में, आपको अच्छा लगे या बुरा, पर इसका अन्तिम फ़ैसला जनता के ही पास होता है। वह मौजूदा सरकार ही नही संविधान तक के भविष्य पर विचार करके फैसला कर सकती है।
लेकिन जब तक जनता ऐसा फ़ैसला नही करती तब तक जनता के नाम पर अराजकता फैलाने की भी छूट किसी को नही दी जा सकती। इसीलिये यह व्यवस्था की गयी है कि पुलिस समेत शासन के तमाम अंग अपना काम करते रहें और पत्रकार भी इन तमाम चीजो के बारे में जनता को रिपोर्ट करते रहें।
समस्या तब पैदा होती है जब शासन या इसका कोई अंग (जैसे पुलिस) पत्रकारों को स्वतंत्र तरीके से अपना काम करने से रोकने की कोशिश करता है या अपनी वजहों से इसमे बाधा खड़ी कर देता है।
छत्रधर महतो काण्ड इसी का उदाहरण है जिसमे पुलिस ने पत्रकार के वेश में छत्रधर महतो से संपर्क किया और उसे गिरफ्तार कर लिया। हैरत की बात यह है कि पश्चिम बंगाल के अधिकारी यह मानते हुए भी कि इससे पत्रकारों का काम मुश्किल हुआ है, इसे हंसी में टाल रहे हैं। एक बड़े अधिकारी ने चलताऊ ढंग से पत्रकारों को यह नसीहत दी कि कुछ दिनों तक आप फ़ोन पर बात करके काम चला लें, बाद में जब यह मसला हल हो जाएगा तब फ़िर से इंटरव्यू लेना शुरू कर दीजियेगा।
जब राज्य शासन के सर्वोच्च स्तर पर बैठे अफसर ऐसे मामलो में इतने चलताऊ कमेन्ट कर सकते हैं तो निचले स्तर पर पुलिस अफसरों से भला संवेदनशीलता की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
मगर शासन और पुलिस की बात भी बाद में आती है। फिलहाल (कम से कम दिल्ली में) तो हम पत्रकारों को ही यह बात ठीक से समझनी होगी कि यह किसी ख़ास विचारधारा का सवाल नहीं है। यह मामला पत्रकारिता का है, इस बात का है कि पत्रकारों के स्वतंत्र रूप से काम करने की गुंजाइश बनी रहेगी या नही। इसीलए चुप्पी घातक हो सकती है।
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1 comment:
मामला वाकई गंभीर है और हंसी में उड़ाने लायक तो कतई नहीं है। जिन अधिकारियों ने इसे हंसी में उड़ा कर शांत रहने की सलाह दी है, उनके कोई पूछे कि
जो खबर पुलिस नहीं निकाल पाती, वह खबर निकालने के लिए अब पत्रकारों के लिए भी मुश्किल होगी। पत्रकारों द्रारा खबर के रूप में दी गई अंदर की
जानकारी कई मायनों में पुलिस के काम आती है। पर अगर पत्रकारों की क्रेडिबिलिटी खराब होगी तो इससे नुकसान चौतरफा होगा। दूसरी तरफ का पक्ष सामने
आने में भी दिक्कतें होंगी। ऐसा आगे रिपीट न हो, इसके लिए जरूरी है कि विरोध का स्वर मुखर हो।
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