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Thursday, November 26, 2009

क्या फर्क है प्रिंट और वेब पत्रकारिता ?

दिलीप मंडल

वेब इस समय दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता मीडियम है। लेकिन सवाल ये है कि क्या कभी ऐसा समय आएगा जब वेब पत्रकारिता प्रिंट को रिप्लेस कर देगी। यानी क्या आप ऐसे समय की कल्पना कर सकते हैं जब आप समाचारों के लिए पूरी तरह से वेब पर निर्भर हो जाएं।


शायद हां और शायद नही।


दरअसल वेब तेजी से जरूर बढ़ रहा है लेकिन भारत जैसे देश में जहां इस समय ब्राडबैंड के सिर्फ ७० लाख ग्राहक हैं, वहां इंटरनेट को एक लंबा सफर तय करना होगा। अभी विश्वसनीयता से लेकर पहुंच में प्रिंट पत्रकारिता काफी आगे है। अभी भी भारत में लिखे हुए शब्द की महत्ता निर्विवाद रूप से ज्यादा है और वेब को वो स्थिति हासिल करने में काफी मशक्कत करनी होगी।

Sunday, November 22, 2009

डॉ. अंबेडकर नहीं पढ़ पाए थे जो भाषण, क्या वही है भारत की मुक्ति का मार्ग?


शेष नारायण सिंह

(क्या मायावती जाति के विनाश के ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करने का बीड़ा उठाएंगी। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार और समाजवाद के अध्येता शेष नारायण सिंह के विचार। उनसे sheshji@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था. उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। दर असल डॉ बी आर अंबेडकर उन पांच ऐसे लोगों में हैं जिन्होंने भारत के बीसवीं सदी, के इतिहास की दशा तय की.

जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,The Annihilation of caste , ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया. है..आज सभी पार्टियां डॉ अंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं.सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा योगदान है. यह काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा. डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.

सत्ता और अंबेडकर के सिद्धांत

The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में जो सरकार कायम है, उसके बारे में माना जाता है कि वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की है। राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज सत्ता उनके पास है। इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोग रही सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।


उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की पिछले पंद्रह वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मुख्यमंत्री मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।

एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।

इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।

इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।

तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीति क विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसको अपना मुद्दा बनाए और मायावती को चाहिए कि इस आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करें।

Thursday, November 19, 2009

मेरिट में आगे, जिंदगी में पीछे!


कल आईआईएमसी में इस बात पर चर्चा हुई कि लड़कियां जीवन के विविध क्षेत्रों में टॉप पर क्यों नहीं हैं। जबकि 10वीं और 12वीं की कक्षाओं में वो बेहतरीन प्रदर्शन करती हैं। सीबीएसई के तमाम पिछले नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैँ। इस बारे में पूजा मीणा, स्नेहा शर्मा, लता कश्यप, आशिमा, स्मिता मुग्धा और अमृता सिंह ने विचार रखे और बताया कि किस तरह सामाजिक आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से वो शिखर पर पहुंचने से रह जाती हैं।

Tuesday, November 17, 2009

रिजर्वेशन: उम्र में छूट किसे चाहिए?


दिलीप मंडल

(ये लेख नवभारत टाइम्स के संपादकीय पन्ने पर मुख्य लेख के रूप में छप चुका है। आप भी देखिए।)
यूपीएससी और कई और सरकारी संस्थान तथा एजेंसियां नौकरियों में खास समुदायों को उम्र में छूट देती है। ऐसी ही छूट एंट्रेंस और कंपिटिटिव एक्जाम के लिए अटैंप्ट में भी मिलती है। यूपीएससी के सिविल सर्विस एक्जाम में दलित और आदिवासी कैंडिडेट को अपर एज लिमिट में पांच साल की और ओबीसी कैंडिडेट्स को तीन साल की छूट मिलती है। जबकि जनरल कटेगरी का कैंडिटेट 30 साल की उम्र पूरी करने के बाद ये परीक्षा नहीं दे सकता। दलित और आदिवासी कैंडिडेट के लिए सिविल सर्विस एक्जाम में अटैंप्ट्स की कोई सीमा नहीं है जबकि ओबीसी के कैंडिडेट सात बार इस परीक्षा में बैठ सकते हैं। वहीं जनरल कटेगरी के कैंडिडेट चार बार ही ये परीक्षा दे सकते हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में इस बात पर सवाल उठाया गया है कि दलित, आदिवासी और ओबीसी कैंडिटेट्स को यूपीएससी सिविल सर्विस एक्जाम के लिए ज्यादा अटैंप्ट की इजाजत क्यों दी जाती है। अब सुप्रीम कोर्ट ने यूपीएससी से पूछा है कि ओबीसी कैंडिडेट को सात बार ये परीक्षा देने की इजाजत क्यों मिलनी चाहिए। दरअसल हाई कोर्ट ने इस पिटिशन को ये कहकर खारिज कर दिया था कि पिछड़े वर्गों को ज्यादा अटैंप्ट्स के लिए मौका देना गलत नहीं है क्योंकि संविधान की धारा 16(4) का मकसद ही ये है कि अवसर की समानता सुनिश्चित की जाए और सामाजिक कारणों से जो समुदाय पीछे रह गए हैं उन्होंने सरकारी नौकरियों में पर्याप्त मौके दिए जाएं।
पहली नजर में तो ये व्यवस्था दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ों वर्गों के हित में दिखती है कि उन्हें ज्यादा बार परीक्षा देने के मौके मिलते हैं, ज्यादा उम्र होने तक मौके मिलते रहते हैं। इस मामले में भारतीय राज्य व्यवस्था उनके प्रति उदारता बरतती दिखती है। लेकिन क्या सचमुच ये व्यवस्था उन समुदायों के हित में है? दरअसल इस व्यवस्था का नतीजा क्या होता है? क्या उम्र और अटैंप्ट में छूट से वंचित समुदायों का वाकई भला हो रहा है? और अगर ऐसी कोई छूट न दी जाए तो क्या वंचित समुदायों का नुकसान हो जाएगा?
सबसे पहले अगर आखिरी सवाल पर विचार करें तो इस छूट के न होने पर भी इन समुदायों से चुनकर आने वाले कैंडिडेट्स की कुल संख्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मिसाल के तौर पर इस साल सिविल सर्विस एक्जाम के बाद अगर 580 कैंडिडेट का सलेक्शन होना है तो संवैधानिक प्रावधानों के हिसाब से ये तय है कि इनमें से कितने कैंडिडेट दलित, आदिवासी या ओबीसी कटेगरी के होंगे। इस संख्या पर इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कितने कैंडिडेट ने किस उम्र में ये एक्जाम दिया है या फिर उनका ये कौन सा अटैंप्ट था। दलित, आदिवासी या ओबीसी कटेगरी में टैलेंट पूल अब उतना बड़ा है कि हर साल हजारों कैंडिडेट इस परीक्षा को पास कर सकते हैं। लेकिन सीट सीमित होने के कारण उनमें से जिनका परफॉर्मेंस बेहतर है, उनका सलेक्शन होता है। यानी अगर इन समुदायों के कैंडिडेट्स को उम्र या अटेंप्ट में कोई छूट न मिले तो भी सिविल सर्विस में इनकी संख्या पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
लेकिन उम्र और अटैंप्ट में छूट से एक फर्क पड़ता है। वो फर्क ये है कि इन समुदाय के अफसर अगर सर्विस को बड़ी उम्र में ज्वाइन करते हैं तो उनके लिए ब्यूरोक्रेसी के टॉप पदों पर पहुंच पाना असंभव है। भारत सरकार में रिटायरमेंट की उम्र 60 साल है और इस मामले में दलित, आदिवासी, ओबीसी या जनरल कटेगरी में कोई फर्क नहीं किया गया है। यानी अलग अलग उम्र में सर्विस ज्वाइन करने वाले अफसर एक ही उम्र में रिटायर होंगे। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि अगर कोई दलित अफसर 35 साल की उम्र में सर्विस ज्वाइन करता है तो उसके पास नौकरी करने के लिए सिर्फ 25 साल होंगे। जबकि जनरल कटेगरी के कैंडिडेट के पास नौकरी के कम से कम 30 साल होंगे क्योंकि वो 30 साल की उम्र के बाद यूपीएससी सिविल सर्विस की परीक्षा नहीं दे सकता।
नौकरशाही में आखिर के पांच साल की सिनियॉरिटी बेहद महत्वपूर्ण होती है क्योंकि कैबिनेट सचिव से लेकर मंत्रालयों के सचिव और राज्यों के प्रमुख सचिव जैसे सबसे बड़े पदों पर एक एक साल की सिनियॉरिटी से फर्क पड़ जाता है। सही उम्र में सिविल सर्विस ज्वाइन करना टॉप पर पहुंचने के लिए बेहद जरूरी है और उम्र में मिलने वाली छूट चाहे पहली नजर में लुभावनी नजर आए, लेकिन इसका कुल असर ये होता है कि ब्यूरोक्रेसी के शिखर पर वंचित समुदायों के लोगों की उपस्थिति कम होती है।
क्या ये किसी साजिश का हिस्सा है? इसका कोई प्रमाण नहीं है। हालांकि ये भी सच है कि आंबेडकर से लेकर किसी भी दलित चिंतक ने नौकरियों में उम्र की छूट मांगी हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता। ये छूट क्यों शुरू हुई और इसके पीछे तर्क क्या रहे होंगे ये शोध का विषय है। ये संभव है कि आजादी के तुरंत बाद इन समुदायों का टेलेंट पूल छोटा होगा और इस वजह से ये छूट देनी पड़ी हो। लेकिन अब तो ये स्थिति नहीं है। मिसाल के तौर पर 14 जुलाई को राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से जवाब दिया गया कि इस साल आईआईटी में 1493 ओबीसी, 1265 दलित और 659 आदिवासी चुने गए। आईआईटी जैसी मुश्किल परीक्षा पास करने वालों के लिए यूपीएससी का इम्तेहान पास करना मुश्किल नहीं हो सकता। और ये संख्या सिर्फ आईआईटी की है। इसके अलावा आईआईएम से लेकर केंद्रीय और राज्यों के विश्वविद्यालयों और तकनीकी शिक्षा संस्थानों में अब इन समुदायों के लाखों छात्र हाइयर एजुकेशन हासिल कर रहे हैं और प्रोफेसर से लेकर नामी इंस्टिट्यूट में डायरेक्टर तक बन रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय नौकरियों में उम्र और अटैंप्ट की छूट इन समुदायों के कैंडिडेट का मनोबल कम करती है। जाति से अगर टेलेंट तय नहीं होता और असमानता सिर्फ इस वजह से है कि सबको समान अवसर नहीं मिले तो फिर रिजर्वेशन सिर्फ उस असमानता को दूर करने का माध्यम होना चाहिए। जाति के आधार पर दी जाने वाली कथित सुविधा अगर टैलेंट को दबाने का जरिया बन जाए, मनोवैज्ञानिक बाधा बन जाए या तरक्की में अड़चन बन जाए तो उससे छुटकारा पाने की कोशिश होनी चाहिए। शायद हम ये समझ सकते हैं कि उस कैंडिडेट की मानसिक स्थिति कैसी होती होगी जो सातवीं बार या उससे भी ज्यादा बार एक इम्तेहान दे रहा हो और हर बार रेस में पीछे रह जाता हो? ये अनुभव किसी को भी मनोवैज्ञानिक स्तर पर कमजोर और लाचार बना सकता है।
जाहिर है एज लिमिट और अटैंप्ट मे छूट का कोई तर्क अगर पहले कभी था भी तो उनका आधार खत्म हो चुका है। अब ये छूट इन समुदायों के गले का फंदा ही साबित हो रही है। अगर ये छूट खत्म होती है तो ब्यूरोक्रेसी के ऊंचे पदों पर भी दलित, आदिवासी और ओबीसी की उपस्थिति बेहतर होगी।

Tuesday, November 3, 2009

गुलामगिरी: एक बेहद जरूरी किताब

♦ शेष नारायण सिंह

महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हो रही है, जो जायज भी है। महात्मा जी की इसी किताब ने सत्याग्रह और अहिंसा को राजनीतिक विजय के एक हथियार के रूप में विकसित करने की प्रेरणा दी और 1920 से 1947 तक की भारत की राजनीतिक यात्रा के पाथेय के रूप में हिंद स्वराज में बताये गये मंत्र अमर हो गये।

दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।

1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।

महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।

महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।

महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।

स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।

महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।

स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।

फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।

महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।

(शेष नारायण सिंह। मूलतः इतिहास के विद्यार्थी। पत्रकार। प्रिंट, रेडियो और टेलिविज़न में काम किया। 1992 से अब तक तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक व्यवहार पर अध्ययन करने के साथ साथ विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरी की। महात्‍मा गांधी पर काम किया। अब स्‍वतंत्र रूप से लिखने-पढ़ने के काम में लगे हैं। उनसे sheshji@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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