शेष नारायण सिंह
(क्या मायावती जाति के विनाश के ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करने का बीड़ा उठाएंगी। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार और समाजवाद के अध्येता शेष नारायण सिंह के विचार। उनसे sheshji@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था. उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। दर असल डॉ बी आर अंबेडकर उन पांच ऐसे लोगों में हैं जिन्होंने भारत के बीसवीं सदी, के इतिहास की दशा तय की.
जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,The Annihilation of caste , ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया. है..आज सभी पार्टियां डॉ अंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं.सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा योगदान है. यह काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा. डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.
सत्ता और अंबेडकर के सिद्धांत
The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में जो सरकार कायम है, उसके बारे में माना जाता है कि वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की है। राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज सत्ता उनके पास है। इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोग रही सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की पिछले पंद्रह वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मुख्यमंत्री मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।
इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीति क विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसको अपना मुद्दा बनाए और मायावती को चाहिए कि इस आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करें।
5 comments:
धन्यवाद, आपके द्वारा दी गई जानकारी के लिए।
बाबा साहब नें सही कहा था कि जब तक बेटी-रोटी(ब्याह-शादी) का रिश्ता नहीं होगा,तब तक जातिवाद का दंश जस का तस बना रहेगा। लेकिन वास्तविक परिदृश्य में सवर्ण और पिछड़े वर्ग की क्या बात करें दलितों में भी जाति आधारित विवाह होते हैं। शादी-ब्याह के रिश्तों को भी धीरे-धीरे से लोग अपनानें लग जाएंगे। गंदा काम छुड़ानें और पढ़नें का अधिकार दिलानें के लिए बाबा साहब आऐ थे। अब क्यों हमें किसी का मुंह देखना चाहिए। ये हमारी जिम्मेदारी हे कि आगे हम कैसे उनके विचारों को क्रियांवित करते हैं।
बात सही है।
जाति प्रथा टूटने से सबसे बड़ी हानि राजनैतिक दलों को ही होगी। जाति वोट बैंक का सरल काम करती है। यदि यह नहीं रहेगी तो विभिन्न दलों व नेताओं को वोट अपने काम के आधार पर माँगने पड़ेंगे। काम करना कठिन विकल्प है।
घुघूती बासूती
यह कहना अतिशियोक्ति न होगी कि यह भाषण भारत में समतामूलक समाज चाहने वालों के लिए वही महत्व रखता है जो कम्युनिस्टों के लिए ’कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ रखता है । यह भी गौरतलब है कि बाबासाहब की जगह आयोजकों ने फिर गांधी को बुलाया। एक तरफ़ बाबासाहब द्वारा बहुजन समाज में आत्म सम्मान जागृत किया गया तो दूसरी ओर गांधी ने बाकी सब से आत्म-शुद्धि की उम्मीद की ।
डा़ अम्बेडकर के लेखन से किसी भी संकीर्ण मानस वाले नेता या बुद्धिजीवी को असुविधा होती है। वो चाहे किसी भी जाति का हो। http://vipakshkasvar.blogspot.com/ पर आज की पोस्ट पढ़ें। आपके कुछ काम की है।
जातिवादी विचारधारा और परंपरा को त्यागे बिना भारतीय समाज समता के लक्ष्य को नहीं पा सकता। किन्तु इससे भी अधिक जरूरी है कि देश में धर्म के नाम पर चल रहे पोंगापंथी कट्टरवादी विचारधारा को समाप्त किया जाए। ऐसे साहित्य का सृजन किया जाए जो लोगों को धर्मिकता के नाम पर परोसे जा रहे आफिम की नशा को कम करे। जाति के बंधन बेटियों के परिणय बंघन से ही टूटेंगे। लेकिन हर इंसान के मानवीय गुण को पूर्ण विकसित करने के लिए समान अवसर का सृजन के बिना यह नहीं होगा।
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