-दिलीप मंडल
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत कहते है कि हिंदू समाज को अब मिलकर जाति पर हल्ला बोल देना चाहिए। जाति का विरोध इस समय फैशन में है। हिंदू समाज में जिस भी व्यक्ति को जाति की चोट नहीं झेलनी पड़ती और किसी खास जाति का होने का नुकसान या अपमान नहीं उठाना पड़ता, वो आसानी से कह सकता है कि मैं जाति को नहीं मानता और भारत में जातिवाद खत्म हो रहा है। ऐसे लोग बसों में साथ चलने, रेस्टोरेंट में साथ खाने और साथ नौकरी करने आदि को जाति के अंत के संकेत के रूप में देख रहे हैं। लेकिन मोहन भागवत जब ये कहते हैं कि जाति का अंत होना चाहिए तो इस पूरी चर्चा के मायने बदल जाते हैं।
मोहन भागवत की आगरा में कही गई बातों को अगर मीडिया ने सही रिपोर्ट किया है (ये खबर दर्जनों जगह छपी है और आरएसएस ने इसका खंडन नहीं किया है) तो उन्होंने न सिर्फ ये कहा है कि जाति के बंधनों की वजह से हिंदुत्व का विकास सैकड़ों वर्षों से रुका हुआ है बल्कि मोहन भागवत हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह को जातिवाद की समस्या के समाधान के रूप में देख रहे हैं। आरएसएस प्रमुख ने ये दावा भी किया है कि हाल के किसी सर्वे के मुताबिक अंतरजातीय शादियां करने वालों में आरएसएस से जुड़े लोग सबसे आगे हैं। ऐसा सर्वे कहां हुआ है, उसका विधि क्या थी और सैंपल साइज क्या था, इस बारे में जानना रोचक होगा।
आरएसएस आज अगर इस नतीजे पर पहुंचा है कि जातिवाद से हिंदुत्व का नुकसान हुआ है तो ये शुभ है लेकिन साथ ही बेहद आश्चर्यजनक भी है। उससे भी आश्चर्यजनक है आरएसएस द्वारा हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह का समर्थन। आरएसएस से जुड़े किसी भी आधिकारिक साहित्य में अंतरजातीय विवाह का समर्थन नहीं मिलता। जातिवाद का विरोध करना एक बात है। काफी लोग ऐसा जबानी विरोध करते हैं। घनघोर जातिवादी लोग भी जाति के खिलाफ बोलते रहते हैं। लेकिन इस समय आरएसएस का जाति व्यवस्था की जड़ों पर हमला करना और रक्त शुद्धता की अवधारणा का खंडन करना बेहद महत्वपूर्ण है। ये मानने का कोई कारण नहीं है कि आरएसएस को ये मालूम नहीं है कि इसका क्या मतलब है। जाति व्यवस्था को विरोध करना दरअसल सनातम धर्म के मूल का खंडन करना है। हम सब जानते हैं कि कोई भी हिंदू सिर्फ हिंदू नहीं हो सकता। उसे वर्णव्यवस्था की सीढ़ी में कहीं न कहीं होना ही होगा। किसी जाति का होना होगा। उस जाति के ऊपर या नीचे या ऊपर और नीचे भी किसी न किसी जाति को होना होगा। ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भगवतगीता की अलग अलग व्याख्याएं हिंदू धर्म के इस अविकल सत्य को स्थापित करती हैं। इस बिंदु पर हिंदू धर्म के टीकाकारों में कोई मतभेद नहीं है।
यही वजह है कि किसी हिंदू का अन्य धर्म में जाना यानी धर्मांतरण संभव है, लेकिन किसी और धर्म के व्यक्ति का हिंदू धर्म में धर्मांतरण मुमकिन नहीं है क्योंकि उसे किस जाति में रखा जाए, इसकी समस्या होती है। किसी जाति का हुए बिना रोटी का संबंध तो फिर भी कायम हो सकता है लेकिन बेटी यानी शादी का संबंध कैसे कायम हो सकता है? धर्मांतरण के नाम पर हिंदुत्ववादी संगठन शुद्धिकरण करके कुछ लोगों की हिंदू धर्म में वापसी करा पाते हैं क्योंकि शुद्धिकरण करते समय ये पता होता है कि वो व्यक्ति या समूह पहले किस हिंदू जाति में था। मिसाल के तौर पर अगर किसी दलित ने या उसके पूर्वज ने इस्लाम या कोई और धर्म अपना लिया था, तो शुद्धिकरण कर उसे फिर से दलित जाति का हिस्सा बनाया जा सकता है। लेकिन अगर किसी अन्य देश के ईसाई या मुसलमान या यहूदी व्यक्ति का हिंदू बन पाना संभव नहीं है।
ऐसी कठोर जाति व्यवस्था में बंटे समाज के लिए अगर मोहन भागवत अंतरजातीय विवाह का मंत्र दे रहे हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए। हिंदुओं ने जाति व्यवस्था की वजह से काफी तकलीफें सही हैं और देश के विकास में ये एक बड़ी बाधा रही है। मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिए जाने तक देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद थे क्योंकि गुरुकुलों में सभी जाति के बच्चों का स्वागत नहीं होता था। अभी भी खास जाति के बच्चों के लिए खासकर गांवों में शिक्षा प्राप्त करना आसान नहीं हैं। साथ ही उत्पादन कार्यों में जुटी जातियों को ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा से दूर रखे जाने के कारण भारत में विज्ञान की जीवंत परंपरा बन ही नहीं पाई। ज्ञान का अगर कर्म से संबंध न हो तो ज्ञान का विकास नहीं होता है। यूरोप में वर्कशॉप से निकला अनुभव शिक्षा केंद्रों तक पहुंचा और शिक्षा केंद्रों के ज्ञान की परीक्षा कार्यशालाओं में हुई। भारत में जाति की जकड़बंदी के कारण ये मुमकिन ही नहीं था। ऊंची मानी गई जातियों के लिए मरे हुए को छुने पर धार्मिक निषेध के कारण यहां चिकित्साशास्त्र में शल्य क्रिया की विधा का विकास नहीं हो पाया! ऐसी कई समस्याएं भारत में ज्ञान के विकास में बाधक रही हैं।
ऐसी ही समस्याओं की विरासत हम आज भी ढो रहे हैं। विदेशी हमलावरों के लिए हम हमेशा आसान शिकार रहे क्योंकि चंद जातियों के अलावा बाकी विशाल आबादी के लिए अस्त्र शस्त्र के संधान की तो बात छोड़िए, उन्हें छूने पर भी पाबंदी थी। फुले और आंबेडकर की परंपरा ने इन समस्याओं को काफी पहले चिन्हित कर लिया था। अब अगर आरएसएस भी इसी वैचारिक रास्ते पर चलता है तो इससे बेहतर क्या हो सकता है? लेकिन ये रास्ता आरएसएस के लिए आसान नहीं होगा। संघ का मूल जनाधार हिंदू धर्म में इतने बड़े बदलाव के लिए अभी शायद ही तैयार है। कई लोगों को ये लग सकता है कि अंतरजातीय विवाह से जाति टूटेगी और बड़ी संख्या में जाति से बाहर शादियां होने लगीं, तो जाति और प्रकारांतर में हिंदू धर्म के अस्तित्व पर ही सवाल जरूर खड़ा हो जाएगा।
ये सच है कि शहरीकरण और महिलाओं की शिक्षा और नौकरियों में बढ़ती भागीदारी के कारण अंतरजातीय शादियों को काफी बल मिला है। खासकर शहरों और महानगरों में लोग अब अंतरजातीय शादियों पर पहले की तरह नहीं चौंकते। लेकिन समाज की मुख्यधारा में इसकी मान्यता स्थापित होने में समय लगेगा। साथ ही अंतरजातीय शादियों में भी इस बात का कई बार ध्यान रखा जाता है कि वर्णों की क्रमव्यवस्था यानी हायरार्की में ज्यादा दूरी न हो। इसलिए ब्राह्मण और कायस्थ की शादियां तो फिर भी होती दिखती हैं, दलित वर और ब्राह्मण वधु जैसे जोड़े अपेक्षाकृत कम बन रहे हैं। यानी अंतरजातीय विवाहों में भी जाति का ख्याल कई बार रखा जाता है। वैसे मुंबई के दादर में हुए एक बहुचर्चित शोध (शोधकर्ता : केविन मुंशी और मार्क रोजेनविग) से ये स्थापित हुआ कि अंग्रेजी शिक्षा और अंतरजातीय विवाह का भी रिश्ता है। इस शोध से पता चला कि जिनकी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से हुई उनमें से 31.6% ने जाति से बाहर शादी की जबकि मराठी माध्यम में शिक्षा प्राप्त करने वालों में अंतरजातीय विवाह का प्रतिशत 10% से भी कम था।
ऐसे में क्या ये माना जाए कि हिंदुत्ववादी संगठन भी समय की बदलती चाल को भांप रहे हैं। उनका जिस शहरी मध्यवर्ग में आधार है, उनके बीच शिक्षा की बदलती प्राथमिकताओं का असर, मुमकिन है कि, ऐसे संगठनों की विचारधारा पर भी पड़ रहा है। अगर सचमुच ऐसा हो रहा है तो ये फुले-आंबेडकर विचारधारा की जीत का जश्न मनाने का समय है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आरएसएस अपने प्रमुख के इस विचार पर कायम रहेगा और हिंदू समाज मोहन भागवत के इन विचारों का समर्थन करेगा। हिंदू समाज में व्यापक स्वीकार्यता के बावजूद महात्मा गांधी भी कभी जाति व्यवस्था के अंत की बात नहीं कर पाए। अब अगर आरएसएस हिंदू धर्म की इस कुरीति को खत्म करने के लिए अभियान चलाता है तो ये न सिर्फ हिंदू धर्म और उसके मतावलंबियों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए शुभ होगा। ऐसे अभियान की कमान अभी तक समाज में नीचे से हुई है। आरएसएस की पहल की वजह से अब इस अभियान को एक नई दिशा मिल सकती है। ऐसा कामना की जानी चाहिए कि आरएसएस इस अभियान के लिए साहस जुटा पाएगा और 21वीं सदी में ये संगठन अपने लिए एक नया रास्ता चुन पाएगा।
हालांकि इस पहल का स्वागत करते समय एक सावधानी बरतने की भी जरूरत है। जाति के अंत की बात हाल के वर्षों में सबसे ज्यादा उन लोगों ने की है, जो आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था का अंत देखना चाहते हैं। आरक्षण और जाति के आधार पर दूसरे विशेष अधिकारों के विरोधियों की तरफ से ये तर्क बार बार आता है कि समाज में जातपात अब है कहां। सभी तो बराबर हैं। इसलिए अब मेरिट को ही शिक्षा और नौकरियों का एकमात्र आधार माना जाए। इस बात का ध्यान रखना होगा कि जाति विरोध और जाति के अंत की आरएसएस की कामना का निहितार्थ कहीं ऐसा न हो। जब तक जाति है, और जाति के आधार पर अवसरों में भेदभाव है, तब तक जाति के आधार पर शासन की ओर से विशेष व्यवस्था और सुविधा की जरूरत होगी। इसलिए लोकसभा और विधानसभाओं के अलावा बाकी और किसी भी तरह के आरक्षण और जाति के आधार पर विशेष सुविधाओं की व्यवस्था के साथ समय की सीमा नहीं जोड़ी गई है। जब देश में बड़ी संख्या में अंतरजातीय शादियां होने लगेंगी और जाति के आधार पर भेदभाव का अंत हो जाएगा, तब जाति का अस्तित्व नहीं रहेगा और तब आरक्षण न जरूरत होगी न ही कोई इसकी मांग करेगा।
बहरहाल इस समय हिंदू धर्म के तमाम हितरक्षकों को मोहन भागवत के सुझावों और तर्कों पर विचार करना चाहिए। अगर
मोहन भागवत ऐसा कह रहे हैं तो लगता है कि जातिरहित समाज बनाने का समय सचमुच आ गया है!
(यह लेख जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपा है)
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Tuesday, December 29, 2009
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9 comments:
सिर्फ़ इस तरह के बयानों से कुछ फ़ायदा होगा। ये बात मुश्किल लग रही हैं। खैर, हमारे समाज की ख़ासकर मीडिया की हालत अगर देखनी हो तो कलर्स पर शुरु हुआ नया धारावाहिक ज़रूर देखे। इस धारावाहिक की टैग लाइन ही है- ब्राह्मण का बेटा कायस्थ की बेटी। समाज में आपको ऐसी बातों के समर्थन में बातें करते तो बहुत मिल जाएंगे लेकिन, अपनी ज़िंदगी में इसे अपनाते इसके बीस फ़ीसदी भी नहीं होंगे।
हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे खुला, स्वतंत्र और उदार धर्म है। गहराई से देखने पर वह 'सत्य की खोज' का दूसरा नाम लगता है। इसका कोई एक सम्स्थापक नहीं है; इसका कोई 'एकमात्र' धर्मग्रन्थ नहीं है (कई हजार धर्मग्रन्थ हैं) ; इसमें कहीं कोई 'अन्तिम सत्य' कहने का दावा नहीं किया गया है (यही तो विज्ञान भी करता है; 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति'); पूजा की कोई पद्धति नहीं 'फिक्स' की गयी है।
हिन्दू धर्म जितना खुला और स्वतंत्र है उतना ही अग्रगामी विचारों का स्वामी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी है। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू धर्म का 'मूर्त रूप' मानता हूँ। मुझे कोई आश्चर्य नहीं है कि आरएसएस के लोग सबसे अधिक अन्तर्जातीय विवाह करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग वर्ण-व्यवस्था को तत्कालीन मनीषियों द्वारा आविष्कृत एक 'सामाजिक नवाचार' (सोसल इन्नोवेशन) मानते हैं (जिसे आधुनिक अर्थशास्त्र में श्रम-विभाजन या 'डिविजन आफ लेबर' कहते हैं) और इसलिये इस पर गर्व करते हैं। किन्तु यह भी मानते हैं कि कालान्तर में (सम्भवत: अंग्रेजी राज के दिनों में) यह व्यवस्था आर्थिक लक्ष्यों को कम और राजनीतिक लक्ष्यों और कलह को ज्यादा बढ़ा रही है। वैसे भी वर्तमान समय में श्रम-विभाजन शिक्षा और परीक्षा के आधार पर सरकारों एवं कम्पनियों द्वारा तय किया जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग और उससे प्रेरित संस्थाएँ मलिन बस्तियों में काम कर रहीं हैं (और कोई 'ऐडवर्टिशमेन्ट' नहीं करतीं); वे लोग दूरस्थ वनवासियों के बीच 'एकल विद्यालय' चला रहे हैं। इसलिये जो लोग इस महान संस्था को करीब से जानते हैं उन्हें इस आह्वान में न तो कुछ 'आशचर्यजनक' दिखेगा न इसमें किसी 'षडयन्त्र' की गन्ध आयेगी।
"...ये कहा है कि जाति के बंधनों की वजह से हिंदुत्व का विकास सैकड़ों वर्षों से रुका हुआ है बल्कि मोहन भागवत हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह को जातिवाद की समस्या के समाधान के रूप में देख रहे हैं..." भागवत जी की इस बात से पूर्ण सहमत।
अन्तर्जातीय विवाह समय की आवश्यकता है… इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिये…।
अब आप इसे इस्लाम और ईसाई धर्मों का आक्रामक प्रचार और धर्मान्तरण अभियान कहें अथवा मजबूरी… लेकिन हकीकत यही है कि "हिन्दू एकता" के लिये जो भी करना पड़े किया जाना चाहिये…। भागवत ने एक पहल की है, देखते हैं बात कितने गहरे उतरती है…
यदि मोहन भागवत ने ऐसा कहा है तो बहुत खुशी की बात है. वैसे बहुत से लोग विवाह प्रेम के लिए करते हैं जाति के लिए नहीं. वही सही भी है.जातिवाद तोड़ने के लिए अन्तर्जातीय विवाह अचूक हैं.
घुघूती बासूती
यह बस दिखावे का चेहरा है।ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व की प्राणदायिनी शक्ति है भागवत इसे बदल नहीं सकते। संघ की पूरी पद्धति इसी से संचालित है अगर वाकई वह गंभीर हैं तो साफ़ साफ़ कहें कि वह मांग ग़लत थी जब गोलवलकर ने मनु स्मृति को संविधान की जगह रखने की मांग की थी।
मामला बस यूपी में मृतप्राय भाजपा के लिये संजीवनी की तलाश का लगता है।
रोटी-बेटी का संबंध बनने लगा तो फिर जातिवाद में बचेगा क्या ?....और फिर मामला कथनी और करनी के बीच जाकर फंस जाता है।
पाण्डेय जी, क्या खुद अपने ब्राह्मण होने का टैग हटायेंगे? और फिर क्या अपने आप सपरिवार इस जाति बंधन के दायरे से बाहर आकर कोई अच्छा उदाहरण पेश करेंगे या अपने आप भी पर-उपदेश कुशल बहुतेरे पर चलते रहेंगे?
भागवत ने अंतरजातीय विवाह की जो बात की है वह हिंदुत्व के मूल तर्क को ही आगे बढाने की कोशिश है। इसीलिये अशोक भाई, इस बिंदु पर उन्हें गोलवरकर से अलग खडा दिखाने का कोई ख़ास फायदा नहीं है। सुरेश जी ने मूल बात को अच्छे से पकड़ा है। गोलवलकर हों या भागवत - उद्देश्य दोनों का एक ही है हिन्दू को सर्वश्रेष्ठ मानना, बताना ऐसा साबित करने की कोशिश करना। इस कोशिश में दुसरे धर्म-सम्प्रदाय के लोग हीन साबित होते हैं तो हों (बल्कि प्रयासपूर्वक भी उन्हें हीन साबित करना)। इस सोच की जो राजनीति है और उसके पीछे जो अर्थनीति है, उस पर बात करने की यहाँ जरूरत नहीं है, लेकिन यहाँ इतना जरूर कहना होगा की अंतरजातीय विवाह का भागवती सुझाव हमारे लिए खास मायने इसलिए नहीं रखता क्योंकि उसके पीछे इंसान की समानता का भाव नहीं है। बस हिन्दू-मुस्लिम समीकरणों का गुना-भाग है। हर वयस्क इंसान को किसी भी दुसरे इंसान से प्यार करने उसके साथ जीवन बिताने की आज़ादी है। जाति या धर्म का सवाल इसके आड़े नहीं आता। इस सीधी बात को सीधे ढंग से अगर संघ मान ले तो उसका स्वागत है। पर वह मानता नहीं।
Ashok Pandey, Rangnath aur Pranava ki bateN vichaarniye lagtiN haiN. Dudh ke jaloN ko Chhaachh bhi fuNk-fuNk kar peena chaahiye.
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