जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपे लेख पर कुछ प्रतिक्रियाएं आईं हैं। उन्हें प्रकाशित करने में विलंब हुआ, क्षमाप्रार्थी हूं। ये चर्चा महत्वपूर्ण है, इसलिए टिप्पणियां पोस्ट की शक्ल में यहां पेश हैं। जाति के नाश में आरएसएस की भूमिका पर आप भी विचार करें। अवसर मिले तो मूल लेख को भी पढ़ें। धन्यवाद।
Dipti said...
सिर्फ़ इस तरह के बयानों से कुछ फ़ायदा होगा। ये बात मुश्किल लग रही हैं। खैर, हमारे समाज की ख़ासकर मीडिया की हालत अगर देखनी हो तो कलर्स पर शुरु हुआ नया धारावाहिक ज़रूर देखे। इस धारावाहिक की टैग लाइन ही है- ब्राह्मण का बेटा कायस्थ की बेटी। समाज में आपको ऐसी बातों के समर्थन में बातें करते तो बहुत मिल जाएंगे लेकिन, अपनी ज़िंदगी में इसे अपनाते इसके बीस फ़ीसदी भी नहीं होंगे।
December 29, 2009 2:53 PM
अनुनाद सिंह said...
हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे खुला, स्वतंत्र और उदार धर्म है। गहराई से देखने पर वह 'सत्य की खोज' का दूसरा नाम लगता है। इसका कोई एक सम्स्थापक नहीं है; इसका कोई 'एकमात्र' धर्मग्रन्थ नहीं है (कई हजार धर्मग्रन्थ हैं) ; इसमें कहीं कोई 'अन्तिम सत्य' कहने का दावा नहीं किया गया है (यही तो विज्ञान भी करता है; 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति'); पूजा की कोई पद्धति नहीं 'फिक्स' की गयी है।
हिन्दू धर्म जितना खुला और स्वतंत्र है उतना ही अग्रगामी विचारों का स्वामी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी है। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू धर्म का 'मूर्त रूप' मानता हूँ। मुझे कोई आश्चर्य नहीं है कि आरएसएस के लोग सबसे अधिक अन्तर्जातीय विवाह करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग वर्ण-व्यवस्था को तत्कालीन मनीषियों द्वारा आविष्कृत एक 'सामाजिक नवाचार' (सोसल इन्नोवेशन) मानते हैं (जिसे आधुनिक अर्थशास्त्र में श्रम-विभाजन या 'डिविजन आफ लेबर' कहते हैं) और इसलिये इस पर गर्व करते हैं। किन्तु यह भी मानते हैं कि कालान्तर में (सम्भवत: अंग्रेजी राज के दिनों में) यह व्यवस्था आर्थिक लक्ष्यों को कम और राजनीतिक लक्ष्यों और कलह को ज्यादा बढ़ा रही है। वैसे भी वर्तमान समय में श्रम-विभाजन शिक्षा और परीक्षा के आधार पर सरकारों एवं कम्पनियों द्वारा तय किया जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग और उससे प्रेरित संस्थाएँ मलिन बस्तियों में काम कर रहीं हैं (और कोई 'ऐडवर्टिशमेन्ट' नहीं करतीं); वे लोग दूरस्थ वनवासियों के बीच 'एकल विद्यालय' चला रहे हैं। इसलिये जो लोग इस महान संस्था को करीब से जानते हैं उन्हें इस आह्वान में न तो कुछ 'आशचर्यजनक' दिखेगा न इसमें किसी 'षडयन्त्र' की गन्ध आयेगी।
December 29, 2009 5:18 PM
Suresh Chiplunkar said...
"...ये कहा है कि जाति के बंधनों की वजह से हिंदुत्व का विकास सैकड़ों वर्षों से रुका हुआ है बल्कि मोहन भागवत हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह को जातिवाद की समस्या के समाधान के रूप में देख रहे हैं..." भागवत जी की इस बात से पूर्ण सहमत।
अन्तर्जातीय विवाह समय की आवश्यकता है… इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिये…।
अब आप इसे इस्लाम और ईसाई धर्मों का आक्रामक प्रचार और धर्मान्तरण अभियान कहें अथवा मजबूरी… लेकिन हकीकत यही है कि "हिन्दू एकता" के लिये जो भी करना पड़े किया जाना चाहिये…। भागवत ने एक पहल की है, देखते हैं बात कितने गहरे उतरती है…
December 29, 2009 6:13 PM
Mired Mirage said...
यदि मोहन भागवत ने ऐसा कहा है तो बहुत खुशी की बात है. वैसे बहुत से लोग विवाह प्रेम के लिए करते हैं जाति के लिए नहीं. वही सही भी है.जातिवाद तोड़ने के लिए अन्तर्जातीय विवाह अचूक हैं.
घुघूती बासूती
December 29, 2009 9:37 PM
अशोक कुमार पाण्डेय said...
यह बस दिखावे का चेहरा है।ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व की प्राणदायिनी शक्ति है भागवत इसे बदल नहीं सकते। संघ की पूरी पद्धति इसी से संचालित है अगर वाकई वह गंभीर हैं तो साफ़ साफ़ कहें कि वह मांग ग़लत थी जब गोलवलकर ने मनु स्मृति को संविधान की जगह रखने की मांग की थी।
मामला बस यूपी में मृतप्राय भाजपा के लिये संजीवनी की तलाश का लगता है।
December 30, 2009 2:11 PM
रंगनाथ सिंह said...
रोटी-बेटी का संबंध बनने लगा तो फिर जातिवाद में बचेगा क्या ?....और फिर मामला कथनी और करनी के बीच जाकर फंस जाता है।
December 30, 2009 4:03 PM
Custom Search
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Custom Search
2 comments:
बाबा साहब बहुत पहले कह गये हैं अनुनाद जी कि जाति प्रथा श्रम नहीं श्रमिकों का विभाजन है। यहाम फ़ैसला स्किल या फिर चुनाव के आधार पर नहीं जाति के आधार पर होता है और अलग-अलग पेशे सामाजिक हैसियत तय करते हैं।
इस वर्ण प्रथा का अभिशाप हिन्दू समाज सदिओं से भोग रहा है । आज हम वर्णों में बंटे होने के कारन ही यथार्थ में अल्पसंख्यक हैं। युवा पीढ़ी को ही इस बुराई से निपटाना होगा। मोहन भगवत कि पहल प्रशंसनीय और सवागत योग्य है। इस में राजनीती ढूँढने वाले मानसिक रोगी हैं
Post a Comment