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Friday, January 8, 2010

लड़ाकू विमान में प्रेजिडेंट की उड़ान का मतलब

आज, 8 जनवरी 2010 के नवभारत टाइम्स में संपादकीय पृष्ठ पर भी मेरा यह लेख पढ़ा जा सकता है। ऑनलाइन एडीशन का लिंक है-
लड़ाकू विमान में प्रेजिडेंट की उड़ान का मतलब- अनुराधा

अपने सिर को हमेशा साड़ी के पल्लू से ढक कर रखने वाली 74 वर्षीया राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने पिछले दिनों पूरे कॉम्बैट सूट में सुखोई फाइटर जेट में उड़ान भरी। इसके महीना भर बाद ही वे भारत के इकलौते विमानवाहक पोत आईएनएस विराट पर भी सवार हुईं। हमारी राष्ट्रपति की ये पहलकदमियां स्त्री शक्ति में बढ़ोतरी और उसमें देश के भरोसे की प्रतीक हैं।

राष्ट्रपति ने अपने इन कामों से इस भरोसे को और मजबूत किया है कि महिलाएं न सिर्फ फाइटर प्लेन उड़ा सकती हैं, बल्कि इस तरह के जटिल से जटिल मोर्चे पर सफलतापूर्वक काम कर सकती हैं। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान ने अपनी वायु सेना में महिला लड़ाकू विमानचालकों की भर्ती की इजाजत दी हुई है, पर भारत में इस पर रोक है। हमारे यहां ऐसा क्यों है?

पिछले साल 13 दिसंबर को केंद्र सरकार ने एक मामले में दिल्ली हाई कोर्ट से कहा कि भारतीय थलसेना और वायुसेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन देने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि उनकी भर्ती के लिए जगह खाली नहीं है। उसके मुताबिक सेना में पहले से ही जरूरत से ज्यादा अधिकारी भर्ती हैं। ऐसे में अगर शॉर्ट सर्विस कमिशन (एसएससी) की महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन दिया जाएगा, तो उन्हें कहां काम दिया जाएगा?

हमारे देश में महिला सेना अधिकारियों को स्थायी कमिशन का विकल्प नहीं दिया जाता। एसएससी के जरिए भर्ती के बाद ज्यादा से ज्यादा 14 साल की नौकरी के बाद उन्हें सेना छोड़नी पड़ती है और फिर उन्हें कोई सिविल नौकरी ढूंढनी होती है, क्योंकि पुरुष अधिकारियों की तरह उन्हें सेवानिवृत्ति पर पेंशन वगैरह की सुविधाएं देने का भी कोई प्रावधान भारतीय सेना में नहीं है।

थल और वायुसेना की 20 महिला अधिकारियों ने यह मामला कोर्ट में दायर किया है कि उन्हें पुरुषों की तरह ही स्थायी कमिशन क्यों नहीं दिया जाता, जबकि वे भी पुरुषों की ही तरह हर परीक्षा और ट्रेनिंग से गुजरती हैं। इसके जवाब में सेना ने ए. वी. सिंह समिति की रिपोर्ट के हवाले से दलील दी कि फिलहाल युवा अधिकारियों की ग्राउंड ड्यूटी के लिए ज्यादा जरूरत है इसलिए महिलाओं को सेना में नहीं लिया जा सकता। सेना की ओर से कुछ दूसरे तर्क भी पेश किए गए, जैसे महिला अधिकारी हमेशा अपनी पसंद की पोस्टिंग चाहती हैं, जबकि पुरुष उतना हो-हल्ला नहीं करते। यह भी कहा गया कि अगर महिलाओं को सीमा पर तैनाती किया जाएगा, तो वहां उनके लिए ज्यादा खतरे हो सकते हैं। हालांकि डिविजन बेंच ने इन सभी तर्कों को नकारते हुए कहा कि कोई राय भावनाओं के आधार पर नहीं बनाई जाए। साथ ही सवाल किया कि क्या यह जरूरी है कि महिला अधिकारियों को फॉरवर्ड इलाकों में ही भेजा जाए। कई दूसरी ऐसी महत्वपूर्ण जगहें हैं जहां महिलाओं की तैनाती में कोई समस्या नहीं है।

महिलाओं की सेना में भर्ती के मसले पर वायुसेना के एयर मार्शल पी. के. बारबोरा ने भी हाल में एक टिप्पणी करके सनसनी फैला दी। उनके मत में महिलाओं को फाइटर पायलट बनाना आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है। फाइटर पायलट की ट्रेनिंग पर बहुत खर्च आता है। भर्ती के कुछ साल बाद शादी करके वे मां बनना चाहें तो इससे वे कम से कम 10 महीने के लिए काम से दूर हो जाती हैं। इस कारण उन पर हुए खर्च के मुकाबले उनकी सेवाओं का पूरा फायदा नहीं लिया जा पाता है। सिर्फ दिखावे के लिए उनकी भर्ती नहीं की जानी चाहिए।

भारतीय सेना में महिलाओं की भूमिका लंबे समय तक डॉक्टर और नर्स तक ही सीमित रही है। 1992 में एविएशन, लॉजिस्टिक्स, कानून, इंजीनियरिंग, एग्जेक्यूटिव जैसे काडर में रेग्युलर अधिकारियों के तौर पर भर्ती के दरवाजे उनके लिए खुले। इन पदों के विज्ञापनों के जवाब में रिक्तियों से कई गुना ज्यादा अर्जियां पहुंचीं। जोश से भरपूर महिलाओं ने रोजगार के इस नए मोर्चे पर कामयाबी के झंडे गाड़े और कई शारीरिक गतिविधियों में पुरुषों से आगे रहीं। उनमें नेतृत्व के गुण थे और सहकर्मियों और अपने अधीनस्थ सैनिकों के साथ उनका व्यवहार सकारात्मक पाया गया।

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, रजिया सुल्तान, बेगम हजरत महल, जीनत महल, रानी चेन्नम्मा जैसे अनगिनत नाम हैं जो युद्धों में दुश्मनों के दांत खट्टे करने में इंच भर भी पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। सुभाष चंद्र बोस की सेना में भी महिला ब्रिगेड ने कठिन जिम्मेदारियों को बखूबी पूरा किया था। विश्वयुद्ध रहे हों या हाल के इराक, अफगानिस्तान, फॉकलैंड युद्ध, मित्र देशों की जमीनी और हवाई सेनाओं की लड़ाकू टुकड़ियों में महिलाएं बहुतायत में रही हैं। हिटलर की बदनाम एसएस सेना ने महिला दुश्मनों के साथ जरा भी ढील नहीं बरती और उन्होंने भी पुरुषों के बराबर ही मार खाई।

महिलाएं मानसिक काम ज्यादा स्थिरचित्त होकर कर पाती हैं, इसलिए आज के तकनीक प्रधान युद्ध में उनकी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है। फिर भी हमारे देश की सीमाओं की दुर्गम स्थितियों के मुताबिक सख्त शारीरिक तैयारी की जरूरत को हल्के में नहीं लिया जा सकता। महिला सैनिकों को भर्ती के समय और बाद में एक कैडेट के तौर पर पुरुषों के समान ही शारीरिक और मानसिक क्षमता से जुड़ी कठिन ट्रेनिंग और परीक्षाओं से होकर गुजरना पड़ता है। नौकरी के दौरान भी ऐसे अभ्यास लगातार चलते रहते हैं। ऐसे में वे युद्धक जिम्मेदारियों के लिए पुरुषों के मुकाबले मिसफिट कैसे मानी जा सकती हैं?

मेजर जनरल मृणाल सुमन( सेवानिवृत्त) ने अपने एक पर्चे में साफ किया है कि दरअसल ज्यादा बड़ी समस्या पुरुषों की तरफ से इस माहौल के लिए आनाकानी है। शारीरिक दमखम वाले किसी काम में एक महिला के अधीनस्थ होना भी उन्हें पसंद नहीं आता। ऊंचे पदों पर पहुंचने के बाद भी महिला अधिकारियों को पुरुष सैनिकों की इसी मानसिकता का शिकार होना पड़ता है।

हालांकि मेजर जनरल मृणाल का कहना है कि भारत में महिला सैनिकों को अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है और उनके साथ जिम्मेदारी के बंटवारे में अब तक भेदभाव किया जा रहा है, इसलिए इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगा। पर मुद्दे की बात यही है कि बिना पूरी तरह परीक्षा किए सिर्फ भावनाओं के आधार पर महिलाओं से यह मौका छीनना अनुचित है।

1 comment:

सतीश पंचम said...

भारतीय समाज अब भी पुरूषवादी समाज है जिसमें पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति के साथ रहे और परिवार को संजोये और इस कडी में सास, ससुर, ननद वगैरह सभी जुड जाते हैं। यदि परिवार न्यूक्लियर हुआ तब भी पति अपनी ओर ज्यादा झुकाव चाहता है। ऐसे में कई सारे और भी मुद्दे अपना असर दिखाते हैं ।

हमेशा ही कुछ बातों का Theoretical और Practical dimension होता है।

A v Singh कमेटी की रिपोर्ट practical approach लेकर लिखी गई लगती है।

हो सकता है उसकी कुछ बातें ठीक न हों लेकिन बिना पढे उस पर मैं अपने से कुछ कहना उचित नहीं समझता ।

बढिया लिखा है।

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