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Friday, March 26, 2010

मायावती की माला आपको बुरी क्यों लगती है?

दिलीप मंडल

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष कुमारी मायावती की माला को लेकर राजनीति और भद्र समाज में मचा शोर अकारण है। मायावती ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो वर्तमान राजनीतिक संस्कृति और परंपराओं के विपरीत है। नेताओं को सोने चांदी से तौलने और रुपयों का हार पहनाने को लेकर ऐसा शोर पहले कभी नहीं मचा। नेताओं की आर्थिक हैसियत के खुलेआम प्रदर्शन का ये कोई अकेला मामला नहीं हैं। सड़क मार्ग से दो घंटे में पहुचना संभव होने के बावजूद जब बड़े नेता हेलिकॉप्टर से सभा के लिए पहुंचते हैं, तो इससे किसी को शिकायत नहीं होती। करोड़ों रुपए से लड़े जा रहे चुनाव के बारे में देश और समाज अभ्यस्त हो चुका है। मायावती प्रकरण में अलग यह है कि वर्तमान राजनीतिक संस्कृति का अब दलित क्षेत्र में विस्तार हो गया है। धन पर बुरी तरह निर्भर हो गए भारतीय लोकतंत्र का यह दलित आख्यान है जो दलित पुट की वजह से कम अभिजात्य है और कदाचित इस वजह से कई लोगों को अरुचिकर लग रहा है। साठ करोड़ रू का चारा घोटाला लगभग 30,000 करोड़ रू के टेलिकॉम घोटाले या ऐसे ही बड़े दूसरे कॉरपोरेट घोटालों की तुलना में लोकस्मृति में ज्यादा असर पैदा करता है, तो इसकी वजह घोटाले का भोंडापन ही है। मधु कोड़ा इस देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की लिस्ट में बहुत पीछे होने के बावजूद अपने भ्रष्टाचार के भोंडेपन की वजह से मध्यवर्ग की घृणा के पात्र बनते हैं, जो उन्हें बनना भी चाहिए, लेकिन हर तरह का भ्रष्टाचार समान स्तर की घृणा पैदा नहीं करता।

मायावती की माला को लेकर छिड़े विवाद से भारतीय राजनीति में धन के सवाल पर बहस शुरू होने की संभावना है और इसलिए आवश्यक है कि इस प्रकरण की गहराई तक जाकर पड़ताल की जाए। इस पड़ताल के दायरे में ये सवाल हो सकते हैं- क्या मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों और भारतीय मध्यवर्ग को माला प्रकरण को लेकर मायावती की निंदा करने का अधिकार है, क्या मायावती का वोट बैंक इस विवाद की वजह से नाराज होकर उनसे दूर जा सकता है, राजनीति और चुनाव में धन की संस्कृति का स्रोत क्या है और क्या उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति का कोई दलित-वंचित विकल्प हो सकता है।

सबसे पहले तो इस बात की मीमांसा जरूरी है कि क्या मायावती कुछ ऐसा कर रही हैं, जो अनूठा है और इस वजह से चौंकानेवाला है। अगर मायावती के जन्मदिन पर हुए समारोह की इस आधार पर आलोचना की जाए कि राजनीति में ये धनबल का प्रदर्शन है, तो सिर्फ मायावती या बसपा ही इसके लिए दोषी कैसे हैं? धनबल भारतीय राजनीति की अस्थिमज्जा में इतने गहरे समा चुका है कि लगभग अथाह रुपयों के बिना संसदीय राजनीति करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन लोगों को मायावती को पहनाई गई नोटों की माला को देखकर उबकाई आ रही है, उन्हें दरअसल उबकाई उस दिन भी आनी चाहिए थी जब ये पता चला था कि दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक, भारत की लोकसभा में 2009 के आम चुनाव के बाद 300 से ज्यादा करोड़पति (करोड़पति यानी वे, जिन्होंने चुनाव आयोग को दिए हलफनामे में अपनी जायदाद एक करोड़ रुपए से ज्यादा घोषित की है। उनकी वास्तविक हैसियत और अधिक हो सकती है) सांसद पहुंचे हैं। ये संख्या पिछली लोकसभा से दोगुनी है। लोकसभा के एक सांसद की औसत घोषित जायदाद 5 करोड़ रुपए से ज्यादा है और लोकसभा के सभी एमपी की सम्मिलित जायदाद 2,800 करोड़ रुपए से ज्यादा है।

राजनीति में धन के संक्रमण की बीमारी राष्ट्रव्यापी हो चली है। महाराष्ट्र में अक्टूबर 2009 के विधानसभा चुनाव में 184 करोड़पति विधायक चुनकर आए। महाराष्ट्र विधानसभा में कुल 288 सीटें हैं। हरियाणा में हर चार में से तीन विधायक करोड़पति है। हरियाणा में भी महाराष्ट्र के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए। साथ ही ये बात भी साबित हो गई है कि जिस उम्मीदवार के पास ज्यादा पैसे हैं, उसके जीतने के मौके ज्यादा हैं। मिसाल के तौर पर, नेशनल इलेक्शन वाच ने आंकड़ों का अध्ययन करके बताया है कि महाराष्ट्र में अगर किसी के पास एक करोड़ रुपए से ज्यादा की जायदाद है तो 10 लाख रुपए या उससे कम जायदाद वाले के मुकाबले उसके जीतने के मौके 48 गुना ज्यादा हैं।

इस संदर्भ में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की पहल पर किए गए चुनाव सुधारों की चर्चा की जानी चाहिए। शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के दौरान उम्मीदवारों पर, चुनाव खर्च की सीमा के अंदर चुनाव लड़ते हुए दिखने का दबाव पहली बार बना। वे आर्थिक उदारीकरण (बाजार अर्थव्यवस्था) के भी शुरुआती वर्ष थे। शेषन से पहले भी चुनाव खर्च की सीमा तो थी, लेकिन इसे एक औपचारिकता माना जाता था। उम्मीदवार मनमाना खर्च करते थे और अपना खर्च तय सीमा के अंदर दिखा देते थे। इस समय तक चुनावों में तड़क-भड़क खूब होती थी। पोस्टरों और झंडों से गलियां पट जाती थीँ। लगभग हर दीवार पर किसी न किसी उम्मीदवार या पार्टी के नारे लिखे होते थे। झंडे-बैनर से लेकर जुलूसों में गाड़ियों और मोटरसाइकिलों की संख्या आदि से किसी उम्मीदवार को मिल रहे समर्थन का एक हद तक अंदाज लग जाता था। बसों में भरकर लोग आते और खूब बड़ी-बड़ी रैलियां हुआ करती थीं।

लेकिन चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू किए जाने के बाद चुनाव में माहौल बनाने के ये तरीके बेअसर हो गए। मतदाताओं में संवाद कायम करने, उन तक पहुंचने के पुराने तरीके अब किसी काम के नहीं थे क्योंकि तय सीमा से ज्यादा गाड़ियां चुनाव प्रचार में शामिल नहीं हो सकती थीं, पोस्टर कहां लगाया जा सकता है और कहां नहीं और किसी की दीवार पर नारे लिखने से किसी उम्मीदवार को दिक्कत हो सकती है, जैसे नियमों ने चुनाव लड़ने के तरीके को निर्णायक रूप से बदल दिया। शेषन से पहले के दौर वाले चुनाव प्रचार के परंपरागत तरीकों में ऐसा लग सकता है कि काफी तड़क-भड़क होती होगी, लेकिन ये तरीके काफी हद तक सभी उम्मीदवारों की पहुंच के अंदर थे। अगर किसी उम्मीदवार को कार्यकर्ताओं का समर्थन हासिल होता था, तो उसके लिए दीवार लेखन करना, पोस्टर छापना, झंडे लगाना, बैनर टांगना, साइकिल-मोटरसाइकिल या गाड़ियों का जुलूस निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं होता था और न ही इन कामों में करोड़ों रुपए खर्च होते थे।

परंपरागत तरीके के चुनाव प्रचार में उम्मीदवार समान धरातल पर होते थे और किसी उम्मीदवार के झंडे किसी की छत पर लगे रहें या पोस्टर किसी के घर की दीवार पर चिपके रहें, ये पैसे से ज्यादा उसे हासिल समर्थन से तय होता था। इन सब तरीकों को मुश्किल बना दिए जाने के बाद पैसे के कुछ नए खेल शुरू हो गए, जिनसे चुनावी खर्च कई गुना बढ़ गया। मिसाल के तौर पर, किसी इलाके के प्रभावशाली व्यक्ति को अपने पक्ष में करने के लिए किए गए खर्च का हिसाब न देने का रास्ता अब भी खुला है। चुनाव से पहले प्रशासन के सहयोग से मतदाताओं के बीच शराब पहले भी बांटी जाती थी और अब भी बांटी जाती है। चुनाव में खुद खर्च न कर किसी समाजसेवी या स्वंयसेवी संगठन के माध्यम से किसी विरोधी उम्मीदवार के खिलाफ अभियान चलाया जा सकता है, जिसका खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होता। चुनाव पर खर्च करना नेताओं के लिए किसी निवेश की तरह है क्योंकि नेता बनना आमदनी के अनेकों नए रास्ते खोलता है। सांसदों और विधायकों के चुनाव आयोग में जमा आमदनी के हलफनामों का अध्ययन करके साबित किया जा चुका है कि जीते हुए उम्मीदवार अगले चुनाव तक काफी अमीर हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, उम्मीदवारों के हलफनामों के अध्ययन से पाया गया कि महाराष्ट्र में 2004 के विधानसभा चुनाव जीतने वाले एक औसत उम्मीदवार ने 2009 के चुनाव तक अपनी जायदाद में 3.5 करोड़ रुपए जोड़ लिए थे।

चुनाव जीतना जब इस कदर फायदे का सौदा हो तो जिताऊ पार्टियों के चुनावी टिकट पाने के लिए खर्च करने वालों की कमी कैसे हो सकती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस-बीजेपी आदि में पैसे का ये खेल अभिजात्य सफाई के साथ किया जाता है जबकि बाकी पार्टियों में उपयुक्त राजनीतिक संस्कार न होने के कारण खेल खुल जाता है। साथ ही मुख्यधारा में बीएसपी, आरजेडी, जेएमएम जैसी कुछेक पार्टियां ऐसी बच गई हैं, जिनके आर्थिक स्रोतों में कॉरपोरेट पैसे की हिस्सेदारी काफी कम है। मायावती की माला की आलोचना में मुखर तीनों राजनीतिक पार्टियों, कांग्रेस, बीजेपी और सपा के कॉरपोरेट संबंध जगजाहिर हैं। कॉरपोरेट रिश्तों को निभाने में बड़ी पार्टियां ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती हैं, इसलिए कंपनियों के रास्ते से आने वाले धन पर उनकी ही हिस्सेदारी होती है। दक्षिण भारत की राज्यस्तरीय कई पार्टियों ने भी कॉरपोरेट जगत के साथ अपने रिश्ते जोड़ लिए हैं। कॉरपोरेट संबंधों के बगैर जब कोई दल पैसे जुटाता है या पैसे जुटाने की कोशिश करता है, तो उसमें उसी तरह का भोंडापन नजर आता है, जिसके लिए बीएसपी, आरजेडी या झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां बदनाम मानी जाती हैं।

वामपंथी दलों के अपवाद को छोड़कर ढेर सारे पैसे के बगैर राजनीति में सफल होने का कोई महत्वपूर्ण मॉडल इस समय मौजूद नहीं है, इसलिए जो नेता पैसे जुटा सकता/सकती है, उसी की राजनीति चल सकती है। इस तंत्र को समझे बगैर ये अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि मायावती पैसे जुटाने पर इतना जोर क्यों देती हैं और लालू प्रसाद या शिबू सोरेन पैसे के लिए इतने बेताब क्यों नजर आते हैं। जिन दलों को कंपनियों से पैसे मिलते हैं, वो इन सब गंदे दिखने वाले कामों से परे रहकर राजनीतिक कदाचार और सदाचार की बात कर सकते हैं। राजनीति के लिए धन जुटाने के कॉरपोरेट और गैर-कॉरपोरेट दोनों ही खेल में विजेता नेता और हारने वाली जनता होती है। वैसे तुलना करके देखें तो राजनीति और कॉरपोरेट का संबंध जनता के लिए ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इसका असर नीतियों पर होता है। निजी भ्रष्टाचार की तुलना में नीतियों में भ्रष्टाचार कई गुणा ज्यादा लोगों को प्रभावित करने में सक्षम होता है।

एक सवाल ये भी है कि क्या मायावती की समर्थक जनता को इस तरह के विवाद से कोई फर्क पड़ता है? शायद नहीं। दलितों में इस समय पहचान की जिस तरह की राजनीति चल रही है, उसमें नेताओं की समृद्धि कोई शिकायती मुद्दा नहीं है। मुमकिन है कि अपने नेता को इतना समृद्ध देख कर गरीब दलित भी खुश होते हों कि उनका नेता भी कम हैसियत वाला नहीं है। दलित नेताओं के पहनावे और तामझाम पर जोर को और गांधी और अंबेडकर के पहनावे में फर्क को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दलितों को अपना नेता फकीर नहीं चाहिए क्योंकि ये तो उनके जीवन की असलियत है। वे तो इस स्थिति से उबरना चाहते हैं। खुद न भी सही तो प्रतीकों के जरिए ही वे अपना सशक्तिकरण देखते हैं और महसूस करते हैं। यहीं एक सवाल ये भी उठता है कि क्या दलित राजनीति किसी बेहतर राजनीतिक संस्कृति को सामने ला सकती है। इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान संसदीय राजनीति के दायरे में, जहां पैसे की खनक राजनीति की दिशा को निर्णायक रूप से तय करने लगी है, दलित राजनीति का कोई अलग रास्ता संभव नहीं है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में संसदीय राजनीति के दायरे से बाहर वामपंथियों के कुछ समूह अलग तरह के राजनीतिक प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें दलितों और आदिवासियों की अच्छी-खासी हिस्सेदारी है। लेकिन इनसे कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी ही नहीं, बीएसपी को भी डर लगता है। इनका दमन माओवादी बताकर किया जा रहा है। ( ये लेख संपादन के बाद जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपा है।)

Monday, March 15, 2010

'औकात' तक सिमटता वजूद

प्रणव प्रियदर्शी

मुंबई के सायन उपनगर का एक फ्लैट। 29 साल की रंजन तैयार हो रही है। रविवार होने की वजह से दफ्तर में तो छुट्टी है, पर रंजन जल्दी-जल्दी तैयार हो रही है। ऐसा लगता है, उसे कहीं पहुंचना है और देर हो रही है। काम वाली बाई घर साफ करते हुए उस कमरे में आती है। रंजन को तैयार होते देख बोलती है, 'आज तो संडे है, आज किधर जाने का है?'
रंजन उसे एक नजर देखती है, 'संगीता मुलुक से कब लौटने वाली है?' काम वाली बताती है, 'अबी 10 दिन हैं।' रंजन बोलती है, 'तुम कल से नहीं आना काम पर। मैं संगीता से बात कर लेगी।' इतना कहते हुए रंजन बैग उठाकर निकल जाती है।

दरअसल, संगीता रंजन के घर का कामकाज देखती है। उसे गांव जाना था, इसलिए उसने छुट्टी ली और अपनी जगह कुछ दिनों के लिए इसे रखवा गई। मगर, यह नई कामवाली अपने काम से काम रखने के बदले रंजन की जिंदगी में दिलचस्पी लेने लगी। अपनी निजता में यह दखलंदाजी रंजन को पसंद नहीं आई, उसने उसे चलता कर दिया। मगर, संगीता से उसके रिश्तों में कोई बदलाव नहीं आया। गांव से लौटने के बाद संगीता फिर रंजन के घर काम करने लगी।

मुंबई में दफ्तर में काम करने वाली एक कामकाजी लडक़ी और उस लडक़ी के घर काम करने वाली बाई के बीच, या किसी ईरानी रेस्तरां में कॉफी का ऑर्डर देने वाले ग्राहक और लेनेवाले वेटर के बीच या फिर कार में बैठे साहब और उनके लिए सोसाइटी का मेन गेट खोलते वाचमैन के बीच वैसा ही प्रफेशनल रिश्ता होता है जैसा किसी कंपनी के मालिक और उस कंपनी के कर्मचारियों के बीच होता है। यह रिश्ता दोनों पक्षों की जरूरत से निर्देशित होता है। इसमें न तो एक पक्ष में दूसरे के लिए अनावश्यक आदर का भाव होता है और न ही दया या सहानुभूति का। रंजन ने काम वाली बाई को निकालते समय यह नहीं सोचा कि मैं निकाल दूंगी तो इस बेचारी का क्या होगा, न ही उसने कामवाली के लिए हिकारत का भाव दर्शाया।

मगर, दिल्ली में ये रिश्ते इतने सुलझे हुए नहीं नजर आते। मिस्टर दीक्षित एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर हैं। वह जब भी अपनी बीएमडब्लू से घर लौटते हैं, चाहे ऑफिस से आ रहे हों, या परिवार के साथ कोई फिल्म देखकर या फिर अपने किसी दोस्त को एयर पोर्ट से रिसीव कर - अपनी पॉश सोसाइटी के सामने आकर कार के अंदर से जब वह कहते हैं, 'बहादुर गेट खोलो', तो आवाज का कडक़पन और आदेशात्मक लहजा छिपा नहीं रह पाता। बहादुर के कान भी इस कडक़पन के इस कदर आदी हो चुके लगते हैं कि अगर किसी आवाज में यह कडक़पन नहीं रहता, इसके बदले विनम्रता जैसी कोई चीज होती है तो बहादुर को उस आवाज पर शक हो जाता है और यह शक खुद उसकी आवाज में कडक़पन घोल देता है. कहां से आए हैं, किससे मिलना है, जैसे उसके सवालों में वही कडक़पन आ जाता है जो मिस्टर दीक्षित जैसों की आवाज की खासियत है।

आवाज में यह कडक़पन लाना जैसे दिल्ली के खाते-पीते घरों के लोगों की जरूरत बन गया है। चाहे ऑटो वालों से किराया कम करने को कहना हो या सब्जी वालों से मोलभाव करना हो- आवाज में यह कडक़पन हर जगह नजर आता है। अगर आपकी आवाज में कडक़पन नहीं तो आपकी औकात संदिग्ध है।

सवाल यह है कि 'औकात' इतनी जरूरी चीज क्यों हो जाती है दिल्ली में? मुंबई में यह क्यों नहीं होती? क्या ऐसा है कि मुंबई में इसे जताने के तरीके दूसरे हैं? या फिर यह कि दिल्ली में हमारा पूरा वजूद औकात तक सिमटकर रह गया है?

Wednesday, March 10, 2010

लोकविमर्श, असहमति का निषेध और षड्यंत्रपूर्ण शांति

दिलीप मंडल

मुंबई
को कोई मुंबई न कहे या चेन्नई और कोलकाता को उनके पुराने नाम से पुकारे तो क्या ऐसे शख्स को देश या इन शहरों में रहने का हक नहीं होना चाहिए? इसी तरह किसी महिला के कपड़े की लंबाई कम हो या घेरा पतला तो क्या इस बात के लिए उस पर पत्थर फेंके जाने चाहिए? क्या कोई प्रेमी एक दूसरे को वेलंटाइन डे पर फूल भेंट करें या सार्वजनिक स्थानों पर कमर में हाथ डालकर घूमें तो ऐसी लड़की को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिए कि वो अपने साथी के हाथों में राखी बांधे? क्या फिल्मकार को इस बात का हक नहीं है कि वो ऐसी फिल्में बनाए, जिसके विचारों से लोग सहमत न हों और इसी तरह क्या लेखक और कवि को कोई भी रचना करने या चित्रकार को पेंटिंग बनाते और फोटोग्राफर को फोटो खीचने से पहले ये सोचना होगा कि समाज का सेंसर इसे पास करेगा या नहीं? कुछ लोगों के विरोध की वजह से क्या रचनाकर्मी और कलाकर्मी खुद ही अपने हाथों में हथकड़ी डाल लें?

ये सारे सवाल आज प्रासंगिक हैं और ऐसे ही सैकडों अन्य सवाल हैं जो आज पूछे जाने चाहिए क्योंकि इस समय विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बार फिर से हमला तेज हो रहा है।

लोकतंत्र में लोकविमर्श यानी पब्लिक स्फेयर का महत्व निर्विवाद है। एक निजी व्यक्ति के जनता या समूह बनने और अपनी राजनीतिक इच्छा और विचारों को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया इस लोकविमर्श से ही उपजी है। आधुनिक लोकतंत्र की जन्मभूमि यूरोप में कॉफी हाउसों से लेकर चर्च और ट्रेड यूनियन से लेकर मास मीडिया तक इस लोकविमर्श के माध्यम बने और राजतंत्र से लोकतंत्र की दिशा में बढ़ने में इसका काफी योगदान रहा। लोकविमर्श का मूल स्वभाव आलोचनात्मक माना गया और इसके लोक उपयोगी तरीके से काम करने की शर्त ये है कि इस पर सरकार या बडे़ वित्तीय हितों का दबाव न हो। अगर लोकविमर्श में असहमति की गुंजाइश न हो तो फिर वो लोकविमर्श नहीं है।

जर्मन दार्शनिक हायबरमास के इन सिद्धातों को देश विदेश के लाखो विद्यार्थी पढ़ते हैं और इसकी तमाम तरह की आलोचनाओं के बावजूद लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इसके महत्व को लेकर लगभग आम राय है। आज जबकि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की घटनाएं बढ़ रही हैं, तो इसे सिर्फ व्यक्ति के निजी अधिकारों का हनन मात्र नहीं माना जाना चाहिए। ये लोकविमर्श के दायरे को संकुचित करने की कार्रवाई है और प्रकारांतर में ये लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इसका विरोध इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए और इसी तरह का विरोध कारगर भी हो सकता है।

भारत में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले कई तरफ से हो रहे हैं। हालांकि मास मीडिया के मीडिया बाजार में तब्दील होने के दौर में सरकार की भूमिका घटी है। भारत में सरकार की ओर से लोकविमर्श पर नियंत्रण करने की सबसे बड़ी कोशिश इमरजेंसी के दौर में हुई थी, जब मीडिया सेंसरशिप लागू करके विरोध का गला घोंटने की कोशिश की गई। ये सेंसरशिप सिर्फ अखबारों और पत्रिताओं ही नहीं बल्कि हर तरह के प्रकाशनों पर लगाई गई थी। लेकिन उसके बाद से सरकारों ने कभी खुले तौर पर सेंसरशिप लागू करने की कोशिश नहीं की। ये बात और है कि सरकारों के पास कई ऐसे उपकरण हैं और 30 से ज्यादा ऐसे कानून हैं जिसके जरिए वो समाचारों, सूचनाओं और विचारों के प्रसार को रोक सकती है या रोकती है।

विचारों पर नियंत्रण का दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू अब बाजार है। विचारों के लोकतंत्र पर ये ऐसा नियंत्रण है जो जोर जबर्दस्ती लागू नहीं किया जाता। संचार माध्यम इसे स्वेच्छा से लागू करते हैं क्योंकि इसके साथ उनका अर्थशास्त्र जुड़ा हुआ है। इस बारे में बड़ी संख्या में शोध कार्य हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि संचार माध्यमों का अर्थशास्त्र किस तरह से एक फिल्टर यानी छननी का काम करता है। आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत में ये फिल्टर ज्यादा असरदार हो गया है।

लेकिन इस समय विचारों पर लगे जिस पहरे की ज्यादा चर्चा है वो समाज के अतिवादियों की तरफ से आया है। किसी समाज में अलग अलग समय में अतिवादी विचारों के मानने वालों की संख्या और उनके विचारों के असर में कमी-बेसी होती रहती है। विचारों के लोकतंत्र से हर तरह के अतिवादी विचार को खतरा होता है। अतिवादी विचारधारा धर्म से लेकर जाति और राजनीतिक विचारों से जुड़ी हो सकती है। इनमें साझा बात ये है कि ये सहिष्णुता को अपना दुश्मन मानती हैं और इस मायने में ये सरासर अलोकतांत्रिक है। कोई भी परिपक्व लोकतंत्र विरोध के ढेर सारे स्वरों को सुनने की उदारता बरतता है। ये स्वर तीखे भी हों तो उसकी लोकतंत्र में गुंजाइश होती है और होनी चाहिए।

ऐसे में किसी फिल्म में मुंबई को मुंबई न कहने पर हंगामा करे, किसी चित्र से असहमति होने की वजह से चित्रकार को मारने का फतवा देने, किसी पत्रिका को माओवादी बताकर उसके संपादक को जेल में बंद कर देने, किसी के कम या अलग तरीके के कपड़े पहनने पर उसके साथ दुर्व्यवहार करने, वेलंटाइन डे पर कार्ड और फूल देने को भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताते हुए दुकानों में तोड़फोड़ करने, फिल्मों से पोस्टर फाड़ने, जबरन गानों के बोल बदलवाने, किताबों को प्रतिबंधित करने, जलाने, नुक्कड़ नाटकों का प्रदर्शन रोकने जैसी लगातार हो रही घटनाएं ये बताती हैं कि भारतीय लोकतंत्र का शैशव काल अभी समाप्त नहीं हुआ है।

दरअसल इस तरह असहमति को कुचलने की कोशिश करने वाले सभी लोग इस बात की अनदेखी करते हैं कि असहमति के बगैर लोकतंत्र निर्जीव हो जाएगा। ऐसा करना खास तौर पर आपत्तिजनक है जब जब ऐसा काम वे राजनीतिक संगठन करते हैं जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होते हैं और चुनाव जीतकर सरकार भी चलाते हैं। असहिष्णुता एक ऐसा विचार है, जिसके आसपास लोगों की गोलबंदी मुमकिन है, लेकिन इसके खतरों को समझना जरूरी है। लोकतांत्रिक विमर्श की गुंजाइश का कम होना अलग अलग समय में अलग अलग दलों के लिए मारक साबित हो सकता है। और ऐसा न भी हो तो लोकतंत्र का तेज इस वजह से कम होता ही है।

(राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 9 मार्च 2009 को प्रकाशित)
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