मुंबई को कोई मुंबई न कहे या चेन्नई और कोलकाता को उनके पुराने नाम से पुकारे तो क्या ऐसे शख्स को देश या इन शहरों में रहने का हक नहीं होना चाहिए? इसी तरह किसी महिला के कपड़े की लंबाई कम हो या घेरा पतला तो क्या इस बात के लिए उस पर पत्थर फेंके जाने चाहिए? क्या कोई प्रेमी एक दूसरे को वेलंटाइन डे पर फूल भेंट करें या सार्वजनिक स्थानों पर कमर में हाथ डालकर घूमें तो ऐसी लड़की को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिए कि वो अपने साथी के हाथों में राखी बांधे? क्या फिल्मकार को इस बात का हक नहीं है कि वो ऐसी फिल्में बनाए, जिसके विचारों से लोग सहमत न हों और इसी तरह क्या लेखक और कवि को कोई भी रचना करने या चित्रकार को पेंटिंग बनाते और फोटोग्राफर को फोटो खीचने से पहले ये सोचना होगा कि समाज का सेंसर इसे पास करेगा या नहीं? कुछ लोगों के विरोध की वजह से क्या रचनाकर्मी और कलाकर्मी खुद ही अपने हाथों में हथकड़ी डाल लें?
ये सारे सवाल आज प्रासंगिक हैं और ऐसे ही सैकडों अन्य सवाल हैं जो आज पूछे जाने चाहिए क्योंकि इस समय विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बार फिर से हमला तेज हो रहा है।
लोकतंत्र में लोकविमर्श यानी पब्लिक स्फेयर का महत्व निर्विवाद है। एक निजी व्यक्ति के जनता या समूह बनने और अपनी राजनीतिक इच्छा और विचारों को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया इस लोकविमर्श से ही उपजी है। आधुनिक लोकतंत्र की जन्मभूमि यूरोप में कॉफी हाउसों से लेकर चर्च और ट्रेड यूनियन से लेकर मास मीडिया तक इस लोकविमर्श के माध्यम बने और राजतंत्र से लोकतंत्र की दिशा में बढ़ने में इसका काफी योगदान रहा। लोकविमर्श का मूल स्वभाव आलोचनात्मक माना गया और इसके लोक उपयोगी तरीके से काम करने की शर्त ये है कि इस पर सरकार या बडे़ वित्तीय हितों का दबाव न हो। अगर लोकविमर्श में असहमति की गुंजाइश न हो तो फिर वो लोकविमर्श नहीं है।
जर्मन दार्शनिक हायबरमास के इन सिद्धातों को देश विदेश के लाखो विद्यार्थी पढ़ते हैं और इसकी तमाम तरह की आलोचनाओं के बावजूद लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इसके महत्व को लेकर लगभग आम राय है। आज जबकि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की घटनाएं बढ़ रही हैं, तो इसे सिर्फ व्यक्ति के निजी अधिकारों का हनन मात्र नहीं माना जाना चाहिए। ये लोकविमर्श के दायरे को संकुचित करने की कार्रवाई है और प्रकारांतर में ये लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इसका विरोध इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए और इसी तरह का विरोध कारगर भी हो सकता है।
भारत में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले कई तरफ से हो रहे हैं। हालांकि मास मीडिया के मीडिया बाजार में तब्दील होने के दौर में सरकार की भूमिका घटी है। भारत में सरकार की ओर से लोकविमर्श पर नियंत्रण करने की सबसे बड़ी कोशिश इमरजेंसी के दौर में हुई थी, जब मीडिया सेंसरशिप लागू करके विरोध का गला घोंटने की कोशिश की गई। ये सेंसरशिप सिर्फ अखबारों और पत्रिताओं ही नहीं बल्कि हर तरह के प्रकाशनों पर लगाई गई थी। लेकिन उसके बाद से सरकारों ने कभी खुले तौर पर सेंसरशिप लागू करने की कोशिश नहीं की। ये बात और है कि सरकारों के पास कई ऐसे उपकरण हैं और 30 से ज्यादा ऐसे कानून हैं जिसके जरिए वो समाचारों, सूचनाओं और विचारों के प्रसार को रोक सकती है या रोकती है।
विचारों पर नियंत्रण का दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू अब बाजार है। विचारों के लोकतंत्र पर ये ऐसा नियंत्रण है जो जोर जबर्दस्ती लागू नहीं किया जाता। संचार माध्यम इसे स्वेच्छा से लागू करते हैं क्योंकि इसके साथ उनका अर्थशास्त्र जुड़ा हुआ है। इस बारे में बड़ी संख्या में शोध कार्य हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि संचार माध्यमों का अर्थशास्त्र किस तरह से एक फिल्टर यानी छननी का काम करता है। आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत में ये फिल्टर ज्यादा असरदार हो गया है।
लेकिन इस समय विचारों पर लगे जिस पहरे की ज्यादा चर्चा है वो समाज के अतिवादियों की तरफ से आया है। किसी समाज में अलग अलग समय में अतिवादी विचारों के मानने वालों की संख्या और उनके विचारों के असर में कमी-बेसी होती रहती है। विचारों के लोकतंत्र से हर तरह के अतिवादी विचार को खतरा होता है। अतिवादी विचारधारा धर्म से लेकर जाति और राजनीतिक विचारों से जुड़ी हो सकती है। इनमें साझा बात ये है कि ये सहिष्णुता को अपना दुश्मन मानती हैं और इस मायने में ये सरासर अलोकतांत्रिक है। कोई भी परिपक्व लोकतंत्र विरोध के ढेर सारे स्वरों को सुनने की उदारता बरतता है। ये स्वर तीखे भी हों तो उसकी लोकतंत्र में गुंजाइश होती है और होनी चाहिए।
ऐसे में किसी फिल्म में मुंबई को मुंबई न कहने पर हंगामा करे, किसी चित्र से असहमति होने की वजह से चित्रकार को मारने का फतवा देने, किसी पत्रिका को माओवादी बताकर उसके संपादक को जेल में बंद कर देने, किसी के कम या अलग तरीके के कपड़े पहनने पर उसके साथ दुर्व्यवहार करने, वेलंटाइन डे पर कार्ड और फूल देने को भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताते हुए दुकानों में तोड़फोड़ करने, फिल्मों से पोस्टर फाड़ने, जबरन गानों के बोल बदलवाने, किताबों को प्रतिबंधित करने, जलाने, नुक्कड़ नाटकों का प्रदर्शन रोकने जैसी लगातार हो रही घटनाएं ये बताती हैं कि भारतीय लोकतंत्र का शैशव काल अभी समाप्त नहीं हुआ है।
दरअसल इस तरह असहमति को कुचलने की कोशिश करने वाले सभी लोग इस बात की अनदेखी करते हैं कि असहमति के बगैर लोकतंत्र निर्जीव हो जाएगा। ऐसा करना खास तौर पर आपत्तिजनक है जब जब ऐसा काम वे राजनीतिक संगठन करते हैं जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होते हैं और चुनाव जीतकर सरकार भी चलाते हैं। असहिष्णुता एक ऐसा विचार है, जिसके आसपास लोगों की गोलबंदी मुमकिन है, लेकिन इसके खतरों को समझना जरूरी है। लोकतांत्रिक विमर्श की गुंजाइश का कम होना अलग अलग समय में अलग अलग दलों के लिए मारक साबित हो सकता है। और ऐसा न भी हो तो लोकतंत्र का तेज इस वजह से कम होता ही है।
(राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 9 मार्च 2009 को प्रकाशित)
1 comment:
sahi kaha hai aapne.
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