-मोनिका
(मोनिका रांची, झारखंड में पब्लिक एजेंडा पत्रिका से जुड़ी हैं।)
मोहनदास करमचंद गांधी। हमारे और आपके लिए भले ही यह नाम आज देश का सर्वप्रिय और सबसे सम्मानित संस्था का हो, लेकिन इसके अनुसरण का हर मौका हाथ से जाता रहता है और लोग इसके मूक गवाह बने देखते रह जाते हैं।
गांधी की सामयिकता आज की तारीख में भौतिकता को छोड़कर कहीं नज़र नहीं आती। जिस सत्य के लिए गांधी ने जोहान्सबर्ग से लेकर साबरमती तक जुल्म सहे, उसी सत्य का आज बेशर्मी के साथ संहार हो रहा है। गांधी की जन्मभूमि गुजरात में ही उनके सबसे प्रबल हथियार "अहिंसा' की धार कुंद कर दी गयी। जिन-जिन बातों से गांधीजी ने देश को निषेधात्मक धारा में ले जाने की कोशिश की थी, उन्हीं रास्तों पर आज बलता के साथ लोग आगे बढ़ रहे हैं।
सवाल उठ रहे हैं कि आज की तारीख़ में गांधी हैं कहां? क्या गांधी की ज़रूरत देश को है? जवाब भी खुद देशवासी ही देते हैं- हां गांधी की ज़रूरत है, लेकिन मेरे घर में नहीं, पड़ोस में। कुल मिलाकर गांधी की सर्वव्यापकता को संकुचित करने में भारत ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। आज गांधीजी की प्रासंगिकता कहीं सबसे ज़्यादा दिखती है, तो वह है नोट में। नोट असली है कि नकली, यह जांचने के औजार के रूप में इस्तेमाल होते हैं गांधीजी। नैन-नक्श, चश्मा, लाठी सब ठीक है तभी नोट की दूसरी तकनीकी बिंदुओं की जांच की जाती है। अगर सब कुछ ठीक है, तो गड्डियों में एक के ऊपर एक तह लगाकर गांधी को भी तिजोरियों की भेंट चढ़ा दिया जाता है।
और, आज गांधी सीमित हैं चौक-चौराहों तक। देश के हर भूभाग में एक गांधी चौक या एक गांधी चौराहा तो आपको ज़रूर मिल जायेगा। इन चौराहों पर "आधे गांधी' हैरत के साथ इस आधुनिक भारत के भागदौड़ को देखते नज़र आयेंगे। चौक-चौराहों में टिकाये गये गांधी देखते रहते हैं कि किस बेशर्मी के साथ उनकी प्रतिमा के सामने खड़े होकर पुलिसवाले ट्रैफिक के कथित नियमों को तोड़ने का हवाला देकर लोगों से पैसे ऐंठ रहे हैं।
पिछले 60 वर्षों में इस देश ने गांधी के नाम को सिर्फ भुनाया ही है। गांधीवाद को एक कवच की तरह पहना है। गांधीजी की पदयात्रा का अनुसरण आज भी होता है, लेकिन सिर्फ वोट मांगने के लिए। नेता एक शहर से दूसरे शहर और गांव की पगडंडियों में चलते आज भी नज़र आते हैं लेकिन सिर्फ चैनलों को बाइट देने के लिए। उनके साथ एसी गाड़ियों की लंबी कतार उन्हें आरामदेह यात्राएं कराने के लिए हमेशा साथ रहती हैं। गांधीजी स्वराज और सत्य के लिए जेल भी गये थे। आज भी लोग जेल जा रहे हैं और सच भी बोल रहे हैं कि हां, हमने खाये देश के करोड़ों रुपये। गांधीजी सूत कातते थे और खादी पहनते थे, हम भाषण कात रहे हैं और वाहवाही पहन रहे हैं।
गांधी आज एक मेहमान हो चुके हैं, जो साल में दो बार आते हैं - पहली बार दो अक्तूबर को, दूसरी बार तीस जनवरी को। गांधी जयंती पर हम खुश हो जाते हैं कि पता नहीं अगर ये सख्श न होता, तो हम किस अंग्रेज गवर्नर के यहां जूते साफ कर रहे होते और आज तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहते। शुक्र है कि इस अर्द्धनग्न महापुरुष ने हमें आज़ाद तो कराया। और, साहब पुण्यतिथि को तो लोग ज़रूर आंसू बहाते हैं, इसलिए नहीं कि इस दिन गांधीजी दुनिया से विदा हुए थे, बल्कि इसलिए क्योंकि तीस जनवरी को सरकारी छुट्टी नहीं होती ना। लोग सोचते हैं और मन ही मन सरकार को कोसते हैं कि काश! आज छुट्टी होती, तो मल्टिप्लेक्स में एक मज़ेदार फिल्म देख आते और ब्रेकफास्ट से लेकर डिनर तक का मजा बाहर ही उठाते, लेकिन हाय रे सरकार छुट्टी नहीं देती। लोगों को तो इतने में भी संतोष नहीं।
देश में आज भी ऐसे एहसानफरामोशों की कमी नहीं, जो आज गांधी को इस बात के लिए कोसते हैं कि क्यों दिलाई हमें आजादी? अच्छे भले ब्रिटिश शासन में थे। कम से कम आज की तरह भ्रष्ट सरकारों से तो हम त्रस्त नहीं थे। अब उन्हें कौन समझाये कि गांधी ने आपको इसलिए आज़ादी नहीं दिलायी थी कि आप खुद भ्रष्ट लोगों को चुनकर संसद भेजें, बल्कि उन्होंने तो भारत और भारतवासियों के कल्याण के सिवा कुछ सोचा ही नहीं था। फिर, गांधी की जगह दिल से हटकर पर्स तक ही सीमित कैसे हो सकती है?
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Sunday, February 28, 2010
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