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Wednesday, February 24, 2010

कॉमरेड, आपने मुसलमानों के साथ ये क्या किया?

-दिलीप मंडल

(ये लेख संपादन के बाद 23 फरवरी जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपा है।)

अपने नाम में कम्युनिस्ट लगाने वाली पार्टियों का आग्रह होता है कि उन पर कोई और आरोप लगाइए लेकिन कम से कम उन्हें सांप्रदायिक मत कहिए। भारत में कम्युनिस्ट नाम से चल रही पार्टियों पर ये आरोप लगाने में उनके विरोधी भी परहेज करते हैं। लेकिन पहले ज्योति बसु और अब बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल सरकार का मॉडल लगातार इस धारणा को तोड़ रहा है कि वामपंथी हैं और तो अल्पसंख्यक विरोधी नहीं हो सकते। बल्कि पश्चिम बंगाल का पिछले 33 साल का अनुभव बताता है कि वामपंथी होने की आड़ में और मुसलमानों को सुरक्षा देने के नाम पर उन्हें ज्यादा सहजता से दबाकर रखा जा सकता है। उन्हें हर तरह के अवसरों से वंचित रखा जा सकता है। ये सब इतनी इतनी सहजता से हुआ है कि जिसे मारा जा रहा हो, उसे दशकों तक मारे जाने के दर्द का एहसास भी न हो। ये एक अलग तरह की हिंसा है, जिसका एहसास पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को अब जाकर हुआ है। इसलिए सीपीएम मुसलमानों के वोट को लेकर इन दिनों इतनी चिंतित है। इसलिए पश्चिम बंगाल देश का पहला राज्य है, जिसने मुसलमानों की हालत पर विचार करने के लिए बने रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को सबसे पहले मान लिया है और मुसलमानों में पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की है।

पश्चिम बंगाल में एक चौथाई आबादी मुसलमान है। कहते हैं कि वाममोर्चा सरकार मुसलमानों की रक्षक है। ये सरकार मुसलमानों की पिछले 33 साल से रक्षा कर रही है, 23 साल तक उनकी रक्षा ज्योति बसु ने की और अब बुद्धदेव भट्टाचार्य यही कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में दंगे नहीं होते। दंगे बिहार में भी नहीं होते। मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक हालत दोनों राज्यों में बेहद खराब है। दंगे न होने को वाम मोर्चा के नेता और लालू प्रसाद यादव मेडल की तरह पहनते रहे। सवाल ये है कि क्या मुसलमानों को इसलिए खुश रहना चाहिए कि वो सुरक्षित हैं और इस नाते क्या वो ये भूल जाएं कि विकास और जीवन के तमाम मानदंडों पर वो पिछड़ रहे हैं? क्या सुरक्षा और विकास में से किसी समुदाय को एक ही चीज मिल सकती है? पश्चिम बंगाल में अब मुसलमानों का मिजाज थोड़ा उखड़ा-उखड़ा सा है। ये तब से शुरू हुआ है जब पश्चिम बंगाल सरकार ने बताया है कि एक चौथाई आबादी मुसलमानों की होने के बावजूद राज्य की नौकरियों में सिर्फ 2.1 फीसदी मुसलमान हैं। और पश्चिम बंगाल सरकार के अपने उपक्रमों यानी स्टेट पीएसयू में तो उच्च पदों पर सिर्फ 1.2 फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने ये आंकड़ा सच्चर कमेटी को दिया और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में ये सब छप कर आ गया। पश्चिम बंगाल सरकार ये भी नहीं कह सकती कि राज्य सरकार की नौकरियों और स्टेट पीएसयू में मुसलमान इसलिए नहीं हैं क्योंकि केंद्र सरकार का उसे सहयोग नहीं मिलता। न ही वो ये कह सकती है कि उसे पूंजीवादी ढांचे में ही काम करना होता है और उसमें कई मजबूरियां होती हैं। जबकि केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। दंगा प्रदेश गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में 5.4 फीसदी मुसलमान हैं जबकि गुजरात में 9.1 फीसदी मुसलमान हैं।

समस्या पश्चिम बंगाल की सामाजिक बनावट में हो सकती है, लेकिन कॉमरेड इसे 33 साल में भी क्यों नहीं बदल पाए। कॉमरेडों के पास कांग्रेस के इस आरोप का भी जवाब नहीं है कि वामपंथियों की सरकार बनने से पहले राज्य की नौकरियों में अब के मुकाबले ज्यादा मुसलमान थे। अब बात सिर्फ सरकारी नौकरियों की होती तो कई सफाई दी जा सकती थी। लेकिन शिक्षा, बैंको से दिया गया कर्ज, बैंकों में जमा धन, हर मानदंडों पर पश्चिम बंगाल के मुसलमानों का हाल बदहाल है। शिक्षा की बात करें तो पूरे देश में 40 फीसदी मुसलमान मीडिल पास करते हैं जबकि पश्चिम बंगाल में ये संख्या 26 फीसदी है। पूरे देश में 24 फीसदी मुसलमान मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी करते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल में सिर्फ 12 फीसदी मुसलमान ही मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। पश्चिम बंगाल सरकार का ये कहना काफी नहीं है कि मदरसों को वो काफी धन देती है, क्योंकि मदरसा शिक्षा रोजगार नहीं दिला सकती।

पश्चिम बंगाल में मुसलमान बैंकों में खाता तो खूब खुलवाते हैं (राज्य के 29 फासदी बैंक खाते मुसलमानों के हैं) लेकिन प्रायोरिटी सेक्टर लैंडिंग यानी सरकार के कहने पर जिन क्षेत्रों को अपेक्षाकृत सस्ता कर्ज मिलता है, उसमें मुसलमानों का हिस्सा सिर्फ 9.2 फीसदी है। पश्चिम बंगाल में औसतन एक बैंक खाते में 30,000 रुपए जमा हैं, जबकि औसत मुसलमान के खाते में सिर्फ 14,000 रुपए जमा हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में ये आंकड़े विस्तार से हैं। मुश्किल ये है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं, ड्रॉपआउट रेट बहुत ज्यादा है, सरकारी नौकरियां उन्हें मिलती नहीं हैं और निजी रोजगार करने के लिए बैंक लोन मिलना आसान नहीं है। इसे किसी समुदाय के खिलाफ हिंसा की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जा सकता?


साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां वंचित तबकों को सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। पिछड़े मुसलमानों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की अभी घोषणा ही हुई है, उसे अभी लागू किया जाना है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। अभी तक कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है। तमिलनाडु में ओबीसी कोटा 50 फीसदी, केरल में 40 फीसदी और कर्नाटक में 32 फीसदी है। इसलिए इन राज्यों में उन मुसलमानों के लिए रोजगार और शिक्षा के बेहतर मौके हैं, जो ओबीसी लिस्ट में शामिल हैं। मिसाल के तौर पर तमिलनाडु में मुसलमानों की लगभग पूरी आबादी(95 फीसदी) ही ओबीसी कटेगरी में आती है। आप समझ सकते हैं कि अगर बंगाल में ओबीसी को सिर्फ सात फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है तो ये किस तरह मुसलमानों के हितों के भी खिलाफ गया। ये बात भी गौरतलब है कि ओबीसी आरक्षण लागू करने वाले बड़े राज्यों में पश्चिम बंगाल आखिरी था। और तो और पश्चिम बंगाल में उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण अभी भी लागू नहीं है।

काफी समय तक वहां कॉमरेड ये बोलते रहे कि पश्चिम बंगाल में वर्ग है, जाति तो है ही नहीं। कोलकाता के अखबारों के मेट्रीमोनियल पेज इस झूठ का हर दिन, हर हफ्ते, हर साल और साल दर साल पर्दाफाश करते रहते हैँ। पश्चिम बंगाल में नौकरियों से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में चंद जातियों की वर्चस्व क्या किसी से छिपा है? राज्य में सीपीएम की सत्ता संरचना में भी मुसलमानों की निर्णायक पदों पर गैरमौजूदगी है। पश्चिम बंगाल कहा जाता है कि जिलों में जिला कलेक्टर से ज्यादा असरदार सीपीएम का डिस्ट्रिक्ट सेक्रेटरी होता है। इस महत्वपूर्ण पद पर आपको मुसलमान बिरले ही दिखेंगे। इस बारे में विस्तार से अध्ययन करने की जरूरत है कि ऐसा पार्टी में किन स्तरों पर है और ये समस्या कितनी गंभीर है।

बहरहाल एक रोचक घटना अक्टूबर, 2007 में हुई जब राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रदेश के सचिवालय में मुस्लिम संगठनों की एक बैठक बुलाई। बैठक में मिल्ली काउंसिल, जमीयत उलेमा-ए-बांग्ला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, पश्चिम बंगाल सरकार के दो मुस्लिम मंत्री और एक मुस्लिम सांसद शामिल हुए। बैठक की जो रिपोर्टिंग सीपीएम कीपत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी के 21 अक्टूबर, 2007 के अंक में छपी है उसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि सच्चर कमेटी ने राज्य में भूमि सुधार की चर्चा नहीं की। उनका ये कहना आश्चर्यजनक है क्योंकि सच्चर कमेटी भूमि सुधारों का अध्ययन नहीं कर रही थी। उसे तो देश में अल्पसंख्यकों की नौकरियों और शिक्षा और बैंकिग में हिस्सेदारी का अध्ययन करना था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आगे कहा- "ये तो मानना होगा कि सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में उतने मुसलमान नहीं हैं, जितने होने चाहिए। इसका ध्यान रखा जा रहा है और आने वाले वर्षों में हालात बेहतर होंगे।"

सवाल ये उठता है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का अगर ऐसा बुरा हाल था, तो देश दुनिया में पश्चिम बंगाल सरकार की मुस्लिम परस्त छवि कैसे बनी। बीजेपी को आखिर तक समझ में नहीं आया कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम न सिर्फ हिंदू पार्टी है और हिंदू सवर्ण वर्चस्व वाली पार्टी है, इसलिए उसे कभी भी वहां पैर जमाने का मौका नहीं मिला। पश्चिम बंगाल के हर तीन में से दो मंत्री या तो ब्राह्मण हैं या कायस्थ या वैद्य। शायद ये भी एक वजह है कि बीजेपी का हिंदुवाद पश्चिम बंगाल में नहीं चला क्य़ोंकि वह सीपीएम के सवर्ण हिंदुवाद का मुकाबला नहीं कर पाया।

दरअसल पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में मध्यम वर्ग लगभग नदारद है। इसलिए नौकरियों से लेकर शिक्षा और बैंक लोन तक मिलने में हो रहे भेदभाव को लेकर उनमें आंदोलन का तेवर नहीं रहा। फिलस्तीन पर इजरायली हमले, डेनमार्क में कार्टून विवाद, इराक पर अमेरिकी हमले, तस्लीमा नसरीन के लेखन जैसे मुद्दों पर ही उनकी गोलबंदी वामपंथी पार्टियां करती रही हैं। ये सच है कि सीपीएम ने मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित करके उन्हें फौरी समस्या से बचा लिया। साथ ही मुसलमानों के हित में बोलने में सीपीएम की बराबरी इस समय मुख्यधाऱा की कोई भी पार्टी शायद ही कर सकती है। सच्चर कमेटी ने बेशक पश्चिम बंगाल सरकार को नंगा कर दिया, लेकिन रिपोर्ट आते ही सीपीएम ने मांग की थी कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाए।

पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले जारी घोषणापत्र में भी सीपीएम ने अल्पसंख्यकों के लिए अलग से एक हिस्सा रखा जिसमें इक्वल ऑपुर्चुनिटी कमीशन बनाने, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू करने और मुस्लिम बहुल जिलों में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेक्ष में विशेष पहल करने की बात की। तो आप देख सकते हैं कि हकीकत और छवि का निर्माण किस तरह दो अलग अलग बातें हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीएम का सिर्फ एक मुसलमान सांसद पश्चिम बंगाल से चुनाव जीत सका। मुस्लिम बहुल इलाकों में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में बीजेपी का एक सक्षम चुनौती के रूप में मौजूद न होना अब सीपीएम के लिए मुसीबत है। भय और सुरक्षा की राजनीति की सीमाएं अब साफ नजर आने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की भी ऐसी ही मुश्किल है। इन जगहों में मुसलमान अब भय और सुरक्षा के अलग दूसरे चुनावी गणित के आधार पर वोट देने की हालत में हैं। कॉमरेड सचमुच मुसीबत में हैं। विधानसभा चुनाव से पहले अब इतना समय नहीं है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के साथ न्याय किया जा सके। न ही पश्चिम बंगाल और सीपीएम का सामाजिक ढांचा इस तरह नौरी के सीमित अवसरों को मुसलमानों पर लुटाने की इजाजत देगा।

9 comments:

मृत्युंजय पांडेय "त्रिलोचन" said...

एक बेहतरीन लेख मंडल साहब. इस सत्य को प्रकाशित करने के लिए सपूर्ण वेस्ट बंगाल के मुस्ल्मिम समुदाय को आपका आभारी होना चाहिए|

Anonymous said...

वैसे यह भी बताईये कि कामरेडों की इस मुश्किल से प्रसन्न आप भला किसका चाहते हैं?
नये सेकुलर गड़करी साहब का?

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी said...

मंडलजी, सुंदर तथ्यपूर्ण सच्चाई बताने के लिए साधुवाद।

Ek ziddi dhun said...

Benami ko khulkar samne ana chahiye. CPM ko in sawalon par khulkar bat karnee chahiye. bahar na sahi, apne bheetar hi sahi. Kerala ka hal kya hai, ek bhala CM Achyutanandan khud pareshan hai. Bhala chahne se kya hota hai, sawal ye hai ki hamare karname kise fayda pahuncha rahe hain. kam se kam main koi dushman nhi CPM ka lekin aisa andh samarthak bhi nahi. nange sach ko jhuthlakar kya bhala ho sakta hai?

Rangnath Singh said...

सीपएम ने वामपंथ को झुकाया है। फिर भी यह लेख दोषपूर्ण है। सिर्फ आकंड़ों से पूरा सच जाहिर नहीं होता।

मैंने बहुत पहले दिलीप जी से एक सवाल पूछा था। आज तक उसका जवाब नहीं मिला !

मोहल्लालाइव के नब्बे से ज्यादा फीसद लेखक सवर्ण हिन्दु पृष्ठभूमि वाले हैं तो क्या मोहल्लालाइव सवर्णवादी ओर मुस्लिम विरोधी हो गया ?

हिन्दीवाणी said...

रंगनाथ जी, आप ही बताएं कि पूरा सच क्या है। दिलीप जी ने जो मुद्दा इस लेख में उठाया है, क्या आप उसे सही नहीं मानते...क्या आप इसके जरिए उठ रहे सवालों को जानबूझकर नजरन्दाज करना चाहते हैं। मैं जिस मुसलमानों के जिस समुदाय से संबंध रखता हूं, वह क्रीमीलेयर वाला वर्ग है, तो क्या इस नाते मैं भी इन सवालों से मुंह मोड़ लूं। एक मुस्लिम महिला के पति सीताराम येचुरी मुसलमानों के बारे में बहुत नजदीक से सारे तथ्यों को जानते हैं...आप क्यों मुंह छिपा रहे हैं।

हिन्दीवाणी said...

रंगनाथ जी, आप ही बताएं कि पूरा सच क्या है। दिलीप जी ने जो मुद्दा इस लेख में उठाया है, क्या आप उसे सही नहीं मानते...क्या आप इसके जरिए उठ रहे सवालों को जानबूझकर नजरन्दाज करना चाहते हैं। मैं जिस मुसलमानों के जिस समुदाय से संबंध रखता हूं, वह क्रीमीलेयर वाला वर्ग है, तो क्या इस नाते मैं भी इन सवालों से मुंह मोड़ लूं। एक मुस्लिम महिला के पति सीताराम येचुरी मुसलमानों के बारे में बहुत नजदीक से सारे तथ्यों को जानते हैं...आप क्यों मुंह छिपा रहे हैं।

हिन्दीवाणी said...
This comment has been removed by a blog administrator.
निर्मला कपिला said...

बहुत अच्छा लगा आलेख। आपसे ही पता चला कि पश्चिमी बंगाल मे भी कोई राज करता है वर्ना वहाँ तो गुन्डा राज का पता था। धन्यवाद होली की हार्दिक शुभकामनायें

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