प्रणव प्रियदर्शी
मुंबई के सायन उपनगर का एक फ्लैट। 29 साल की रंजन तैयार हो रही है। रविवार होने की वजह से दफ्तर में तो छुट्टी है, पर रंजन जल्दी-जल्दी तैयार हो रही है। ऐसा लगता है, उसे कहीं पहुंचना है और देर हो रही है। काम वाली बाई घर साफ करते हुए उस कमरे में आती है। रंजन को तैयार होते देख बोलती है, 'आज तो संडे है, आज किधर जाने का है?'
रंजन उसे एक नजर देखती है, 'संगीता मुलुक से कब लौटने वाली है?' काम वाली बताती है, 'अबी 10 दिन हैं।' रंजन बोलती है, 'तुम कल से नहीं आना काम पर। मैं संगीता से बात कर लेगी।' इतना कहते हुए रंजन बैग उठाकर निकल जाती है।
दरअसल, संगीता रंजन के घर का कामकाज देखती है। उसे गांव जाना था, इसलिए उसने छुट्टी ली और अपनी जगह कुछ दिनों के लिए इसे रखवा गई। मगर, यह नई कामवाली अपने काम से काम रखने के बदले रंजन की जिंदगी में दिलचस्पी लेने लगी। अपनी निजता में यह दखलंदाजी रंजन को पसंद नहीं आई, उसने उसे चलता कर दिया। मगर, संगीता से उसके रिश्तों में कोई बदलाव नहीं आया। गांव से लौटने के बाद संगीता फिर रंजन के घर काम करने लगी।
मुंबई में दफ्तर में काम करने वाली एक कामकाजी लडक़ी और उस लडक़ी के घर काम करने वाली बाई के बीच, या किसी ईरानी रेस्तरां में कॉफी का ऑर्डर देने वाले ग्राहक और लेनेवाले वेटर के बीच या फिर कार में बैठे साहब और उनके लिए सोसाइटी का मेन गेट खोलते वाचमैन के बीच वैसा ही प्रफेशनल रिश्ता होता है जैसा किसी कंपनी के मालिक और उस कंपनी के कर्मचारियों के बीच होता है। यह रिश्ता दोनों पक्षों की जरूरत से निर्देशित होता है। इसमें न तो एक पक्ष में दूसरे के लिए अनावश्यक आदर का भाव होता है और न ही दया या सहानुभूति का। रंजन ने काम वाली बाई को निकालते समय यह नहीं सोचा कि मैं निकाल दूंगी तो इस बेचारी का क्या होगा, न ही उसने कामवाली के लिए हिकारत का भाव दर्शाया।
मगर, दिल्ली में ये रिश्ते इतने सुलझे हुए नहीं नजर आते। मिस्टर दीक्षित एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर हैं। वह जब भी अपनी बीएमडब्लू से घर लौटते हैं, चाहे ऑफिस से आ रहे हों, या परिवार के साथ कोई फिल्म देखकर या फिर अपने किसी दोस्त को एयर पोर्ट से रिसीव कर - अपनी पॉश सोसाइटी के सामने आकर कार के अंदर से जब वह कहते हैं, 'बहादुर गेट खोलो', तो आवाज का कडक़पन और आदेशात्मक लहजा छिपा नहीं रह पाता। बहादुर के कान भी इस कडक़पन के इस कदर आदी हो चुके लगते हैं कि अगर किसी आवाज में यह कडक़पन नहीं रहता, इसके बदले विनम्रता जैसी कोई चीज होती है तो बहादुर को उस आवाज पर शक हो जाता है और यह शक खुद उसकी आवाज में कडक़पन घोल देता है. कहां से आए हैं, किससे मिलना है, जैसे उसके सवालों में वही कडक़पन आ जाता है जो मिस्टर दीक्षित जैसों की आवाज की खासियत है।
आवाज में यह कडक़पन लाना जैसे दिल्ली के खाते-पीते घरों के लोगों की जरूरत बन गया है। चाहे ऑटो वालों से किराया कम करने को कहना हो या सब्जी वालों से मोलभाव करना हो- आवाज में यह कडक़पन हर जगह नजर आता है। अगर आपकी आवाज में कडक़पन नहीं तो आपकी औकात संदिग्ध है।
सवाल यह है कि 'औकात' इतनी जरूरी चीज क्यों हो जाती है दिल्ली में? मुंबई में यह क्यों नहीं होती? क्या ऐसा है कि मुंबई में इसे जताने के तरीके दूसरे हैं? या फिर यह कि दिल्ली में हमारा पूरा वजूद औकात तक सिमटकर रह गया है?
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3 comments:
"शायद दिल्ली वाले किसी बैंक के कैशियर जैसे घमंडी होंगे हैं जो कि खुद का ही पैसा निकालने वाले से ना तो अच्छे से बात करते हैं और पैसा भी अहसान करके देते हैं...बढ़िया पोस्ट ........"
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
औकात से बड़ी बात मजबूरी की है। आप किसी भी अंजान से प्यार से बात कीजिए आपको पहले तो वो घूरेगा और फिर आपके प्यारभरे लहेजे को आपकी कमज़ोरी समझकर आप पर गुर्राने लगेगा। ये हालत महज दिल्ली की नहीं है। मुम्बई कभी गई नहीं हूँ हो सकता है वहां लोग अभी भी सभ्य हो जिस पर मुझे शक़ है।
बिल्कुल सही दीप्ति, दूसरों का गलत नजरिया उन्हें विनम्रता को कमजोरी समझने को मजबूर करता है और हम उनके उस गलत नजरिये को अपना अपमान समझ उस विनम्रता को तिलांजलि देंने की जरूरत महसूस करने लगते हैं। देर-सबेर हमें सफलता मिल भी जाती है और फिर भविष्य में हम जाने अनजाने दूसरों को भी उसी प्रकार विनम्रता छोड़ने के लिए मजबूर करने लग जाते हैं।
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