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Tuesday, May 26, 2009

पत्रकारिता हमारी ढाल है...

राजीव रंजन

(राजीव इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया से होते हुए ऑनलाइन मीडिया पहुंचे हैं और आजकल एक क्रिकेट वेबसाइट से जुड़े हैं। इसलिए अगर उनकी ये पंक्तियाँ हम सबके सच की गवाही दे रही हैं तो आश्चर्य नही।)


हमें गुमान है कि हम
लोकतंत्र के चौथे खंभे की
ईंट और गारे हैं
हमें यह भी गुमान है कि
हम लोगों की आवाज हैं
ये बात और है कि
हमारी ही आवाज
बेमौत मर जाती है
या यूं कहें, हम ही खुद
घोट देते हैं उसका गला
हम सिर्फ नौकरी करते हैं
हमारी एकमात्र चिंता है
नौकरी बची रहे
चाहे कुछ और बचे न बचे
जब हम पर कोई सवाल उठाता है
हम उछाल देते हैं
उस पर ही कई सवाल
हम पापी पेट की दुहाई देकर
न जाने कितने पाप
चुपचाप देखते रहते हैं
हम पापी पेट के नाम पर
हर रोज न जाने कितने
पाप करते रहते हैं
और इन सारे ‘पापबोधों’ से
मुक्‍त होने के लिए
कविता लिख देते हैं।
पत्रकारिता हमारी ढाल है
साहित्‍य हमारी आड़।
(28/12/2006 )

Monday, May 25, 2009

क्यो हमारा पीछा नही छोड़ रहा बाबरी मस्जिद का भूत?


डॉक्टर एस डी नैय्यर

(आर्मी से रिटायर हुए डॉक्टर नैय्यर से रिजेक्ट माल के पाठक परिचित हैं। इस बार डॉक्टर साहब बाबरी मस्जिद... अर्ररर... सॉरी राम जन्मभूमि पर अपने विचार लेकर हाजिर हैं। हम तो पहले ही घोषित कर चुके हैं कि किसी भी विचार को रिजेक्ट करना इस मंच की नीति के ख़िलाफ़ है। सो नैय्यर साहब के विचारों को भी यहाँ जगह मिलनी ही थी, पर इसके अलावा भी एक कारण है इसे यहाँ आप सबके सामने पेश करने का।

डॉ नैय्यर देश और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझने और उसे यथाशक्ति निभाने वाले कर्तव्यनिष्ठ नागरिक हैं। ८० वर्ष की उम्र में भी वह एक चैरिटेबल ट्रस्ट से जुड़ कर मुफ्त लोगो का इलाज करते हैं। श्रद्धालु हैं, लेकिन राजनीति से कोई लेना-देना नही है। ऐसे व्यक्ति के विचार हमें मौका देते हैं उस मानसिकता को समझने का जो इस देश के आम जन मानस के आसपास है। खासकर तब जब चुनाव में मिले अप्रत्याशित झटके से बौखलाई बीजेपी इस उलझन से निकल नही पा रही कि उसे मन्दिर के रास्ते चलना चाहिए या विकास के रास्ते, नैय्यर साहब की बातें यह समझने में भी मदद कर saktee है कि उन जैसे लाखो लोगों की सोच और बीजेपी की महत्वाकांक्षा में दूरी कहां और क्यों आ गयी है।)

मैं अयोध्या और वहाँ के विवादित स्थल पर अक्सर जाता रहा हूँ जिसके बारे में माना जाता है कि वह राम जन्म भूमि है। इस बात का कोई ठोस सबूत नही हो सकता, सिवाय इसके कि लोग ऐसा मानते हैं। वहाँ अखंड कीर्तन वर्षों से चल रहा है।

अयोध्या की अपनी यात्राओं के दौरान मैंने उस स्थान पर मस्जिद के कोई निशान नही पाये। वहाँ कभी कोई मुस्लिम मुझे नही दिखा। जिस गुम्बद का जिक्र किया जाता है वह दूसरे गुम्बदों जैसा ही था। किसी भी मस्जिद में कुछ चीजें तो होनी ही चाहिए, जैसे

- हाथ धोने की जगह जहाँ 'वजू' किया जाए। वहाँ ऐसी कोई जगह नही थी।
- मुस्लिम श्रद्धालुओं के लिए ख़ास तौर पर बनायी गयी एक जगह जहाँ नमाज पढी जाए। वहाँ यह जगह भी नही थी।
- स्थानीय निवासियों की याद में (कम से कम मौजूदा पीढी की याद में) वहां किसी ने नमाज़ नही पढी है।

फ़िर यह मस्जिद आयी कहाँ से? बाबर ने यहाँ कोई मस्जिद नही बनवाई, कोई पुरातात्विक प्रमाण भी ऐसा नही बताते।

पूर्व प्रधानमन्त्री वी पी सिंह ने भी एक बार स्वीकार किया था कि वहाँ कोई मस्जिद नही है। यह मुस्लिम वोटों के लिए चलने वाला राजनीतिक खेल ही है जिसकी वजह से बाबरी मस्जिद का भूत हमारा पीछा नही छोड़ रहा। अजीब बात यह है कि बीजेपी के लोगो ने भी सच का पता लगाने की कोशिश नही की।

Monday, May 18, 2009

आर्थिक मंदी : आख़िर रास्ता किधर है


कुलदीप नाथ शुक्ला
(जब भी मौजूदा हालात की गंभीरता का सवाल शिद्दत से उठता है तो पहला सवाल यह सामने आता है कि इसका हल क्या है। सवाल लाजिमी है, लेकिन अक्सर यह इस तत्परता से और इस अंदाज़ में किया जाता है कि हालात की गंभीरता का मुद्दा उठाने वाला ही ख़ुद को कटघरे में महसूस करने लगता है। इलाज नही मालूम था तो सवाल क्यों उठाया? बहरहाल, हालात की गंभीरता को महसूस करते हुए और यह समझते हुए कि इसका कोई एक सर्वमान्य हल या नुस्खा रातो-रात नही निकाला जा सकता, हम शुक्लाजी के लेख की अगली कड़ी यहाँ पेश कर रहे हैं जिसमे उनहोंने हल के संभावित विकल्पों पर विचार किया है। )



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करीब दो दशक पहले जब सोविएत संघ का पतन हुआ था तब सोविएत मोडल की विफलता का शोर पूरी दुनिया में मचाया गया था। गौर करने की बात है कि सोविएत संघ का विघटन न तो वहाँ की जनता के आतंरिक विद्रोह का नतीजा था और न ही बाहरी हमले का। यह उस मोडल की आतंरिक विसंगति की स्वाभाविक गति का परिणाम था। घोषित पूंजीवादियों ने उसे समाजवाद के पतन का नाम देते हुए समाजवाद को अप्रासंगिक करार दिया। शीत युद्ध की समाप्ति की घोषणा के साथ ही अमेरिका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय विश्व की परिकल्पना पेश की गयी और पूंजीवादी व्यवस्था को एकमात्र प्रासंगिक और शाश्वत व्यवस्था के जामे में प्रस्तुत किया जाने लगा।




इस प्रकरण से सभी पाठक अच्छी तरह परिचित हैं। यहाँ इस सम्बन्ध में सिर्फ़ इतना ही बताना काफ़ी होगा कि सोविएत संघ का स्वघोषित पतन एवं विघटन समाजवाद का नही बल्कि राजकीय एकाधिकार पूँजीवाद का पतन एवं विघटन था। इस बारे में वैज्ञानिक समाजवाद की सामान्य जानकारी रखने वाले लोगों को भी कोई संदेह न था और न है।

तो सोविएत संघ के इस स्वघोषित पतन के साथ पूँजीवाद का एक महत्वपूर्ण मोडल - राजकीय एकाधिकारी पूँजीवाद का मोडल ध्वस्त हो गया। उसे यानी सोविएत संघ को राजकीय एकाधिकार पूंजीवाद से निजी एकाधिकार पूँजीवाद की तरफ़ संक्रमण करना पड़ा।

आज आप सब देख रहे हैं कि पूंजीवाद का स्वर्ग कहे जाने वाले अमेरिका में उसका क्लासिकल मोडल - निजी एकाधिकारी पूंजीवाद का मोडल - अपनी आतंरिक विसंगतियों के चलते अमेरिका में तो ध्वस्त हो ही रहा है पूरी पूंजीवादी दुनिया को ही हिला कर रख दे रहा है। मंदी से उबरने के असफल प्रयास में दुनिया कीसभी सरकारें सरकारी खजाना खोले दे रही हैं। जिन बड़ी कंपनियों का दिवाला पिट चुका है उन्हें राजकीय मालिकाने में लिया जा रहा है। दीवालियेपन की कगार पर खड़ी कंपनियों को सरकारी आर्थिक पॅकेज के जरिये बचाने के साथ-साथ उनमे राजकीय हिस्सेदारी बढ़ाईजा रही है। संक्षेप में बात यह कि निजी एकाधिकार पूँजीवाद की इस ढहती दीवार को सरकारी सहयोग एवं संरक्षण की जरूरत पड़ गयी है। दूसरे शब्दों में निजी एकाधिकारी पूंजीवादी मोडल स्वतः राजकीय एकाधिकारी मोडल की तरफ़ संक्रमित होने को मजबूर हो रहा है।

भारत जैसे मिश्रित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाले मोडल की जड़ें भी बुरी तरह हिल चुकी हैं। यह कछुआ अपनी गर्दन अपनी खोल में समेटने को विवश हो रहा है। यहाँ इस बात पर ध्यान अवश्य दिया जाना चाहिए कि दूसरे विश्व युद्ध में विजयी तथा पराजित दोनों तरह की साम्राज्यवादी शक्तियां इस महामंदी से सर्वाधिक प्रभावित हुयी हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद स्वाधीन हुए नवोदित साम्राज्यवादी देशों पर इस मंदी का असर अभी अपेक्षाकृत कम मालूम पड़ रहा है। इसका प्रमुख कारण इनके अर्थतंत्र की तथाकथित मजबूती में नही बल्कि इसका सारा बोझ इन देशों की आम मेहनतकश जनता के कन्धों पर डाल देने की सरकारी साजिश में निहित है। मगर इस लगातार बढ़ते बोझ से दबते मेहनतकश अवाम में भी अब इस संकट का सारा बोझ बर्दाश्त करने क्षमता नही रह गयी है। उसके अन्दर बेचैनी बढ़ती जा रही है जिसका विस्फोटक स्वरुप कभी भी सामने आ सकता है।

तथ्यों की गवाही से स्पष्ट है कि पूँजीवाद का प्रत्येक मोडल - राजकीय एकाधिकार वाला मोडल, निजी एकाधिकार वाला मोडल और मिश्रित एकाधिकार वाला मोडल - बुरी तरह असफल साबित हो चुका है। पूंजीवाद के अन्दर संकटों का निदान संकट का बोझ शोषित-पीड़ित-मेहनतकश जनता के कन्धों पर डालते जाने में ही निहित है। प्रतिद्वंदी साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा एक दूसरे को नष्ट कर के स्वयं को संकट से निकलने का जो प्रयास करती हैं और उसकी वजह से जो विनाशकारी युद्ध होते हैं उनका खामियाजा भी आम जनता को ही भुगतना पड़ता है।

बहरहाल, जब पूँजीवाद के सारे मोडल असफल साबित हो चुके हों तब अगर संकट का हल उसी दायरे में खोजने की बाध्यता कोई अपने ऊपर लादे रहे तो उसका कूछ नही किया जा सकता। अगर इस सीमित दायरे से बाहर निकल कर देखें और समाजवाद से जुड़े पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर खुले दिलो-दिमाग से विचार कर सकें तो ऐसे संकटों से सर्वथा मुक्त समाज का लक्ष्य देख पाना मुश्किल नही है। जहाँ तक उस लक्ष्य की ओर बढ़ने का सवाल है है तो यहाँ मै लेनिन के इन शब्दों को याद दिलाना काफ़ी समझता हूँ कि 'अवसरवाद के ख़िलाफ़ निर्मम संघर्ष के बिना साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष असंभव है।'

Wednesday, May 13, 2009

आर्थिक मंदी : आख़िर ये बला क्या है

कुलदीप नाथ शुक्ला

(आर्थिक मंदी की मार और इससे मची चीख-पुकार तो अब हमारे लिए नयी बात नही है। हम सब इसके गवाह हैं। सवाल सिर्फ़ यह है कि आख़िर यह सब क्यों और कब तक? दोनों सवालों के जो जवाब हमें मिल रहे हैं वे संतोषजनक नही हैं। जो आर्थिक सुधार हमें अकेलेपन से निकाल कर और पूरी दुनिया के साथ जोड़ कर स्वर्ग की तरफ़ ले जाने वाले थे उन्ही सुधारो ने हमें आर्थिक संकट की गर्त में पहुँचा दिया । यह सब क्यों और कैसे हुआ कोई ढंग का जवाब नही मिल रहा। कब तक चलेगा इस बारे में भी कोई ठोस जवाब नही है। पहले कहा गया संकट ही नही है। फ़िर कहा गया कुछ हफ्तों में या अगली तिमाही तक चीजें ठीक हो जायेंगी। फ़िर कहा गया साल दो साल भी लग सकता है। ऐसे ही उलझन और संभ्रम की स्थिति में पेश है दो किश्तों का यह लेख जो मंदी की मौजूदा स्थिति का एक ख़ास दृष्टिकोण से विश्लेषण करता है। )

मौजूदा महामंदी की शुरुआत दुनिया के सर्वाधिक विकसित, संपन्न और शक्तिशाली पूंजीवादी देश अमेरिका से हुयी। असलियत पर परदा डालने के लिए पहले तो इसे सब प्राईम संकट तथा वित्तीय संकट कहा गया जो संकट का कारण नही बल्कि इसका लक्षण मात्र है। लेकिन वास्तविकता बड़ी निर्मम होती है। उसने व्यवस्था के संचालकों की आंखों में ऊँगली डाल कर दिखा दिया और उन्हें यह स्वीकारने को मजबूर कर दिया कि संकट इतना बड़ा है कि उनके हाथ पैर फूले हुए हैं। संकट पर जल्द ही काबू पा लेने की थोथी घोषणाएं तसल्लीबख्श बकवास साबित हुयी। निजी एकाधिकार पूंजीवाद का स्वर्ग अपने गुलामों के लिए ही नही, मालिकों के लिए भी नर्क बन गया है।

इस वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते बीते वर्ष के दौरान वित्तीय परिसंपत्तियों में लगभग पाँच सौ खरब डालर का नुकसान हुआ है। एशिया विकास बैंक द्बारा जारी एक अध्ययन 'वैश्विक वित्तीय संकट एवं उभरती हुयी अर्थव्यवस्थाएं : परिसंपत्तियों में प्रमुख नुकसान' में कहा गया है कि वर्ष २००८ के दौरान एशिया के विकासशील देशों में ९६ अरब डॉलर की क्षति दर्ज की गयी। अध्ययन में स्पष्ट किया गया है कि १९३०-३१ की मंदी के बाद यह सर्वाधिक भीषण संकट है।

यह संकट सही मायनो में अति उत्पादन का संकट है। अति उत्पादन से मतलब यह नही कि दुनिया के सभी लोगो की जरूरतों से ज्यादा उत्पादन हो रहा है। उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था में आवश्यकता का मतलब यह है कि आपको किसी चीज की जरूरत हो और आप उसकी कीमत चुकाने लायक माल अपनी जेब में रखते हों और उस चीज पर खर्च करने का आपका इरादा भी हो। जब ये तीनो संयोग जुड़ते हैं तभी उसे आपकी या किसी की भी जरूरत में शुमार किया जाता है।

यानी अगर आपके पास पैसे न हों तो रोटी आपकी जरूरत नही मानी जायेगी। इतना ही नही, मान लिया आपके पास रोटी खरीदने लायक पैसे हैं लेकिन उसे रोटी पर खर्च करने के बजाय आप अपने बच्चे की दवा पर खर्च करना ज्यादा जरूरी समझते हैं तब भी रोटी को आपकी आवश्यकता में नही गिना जाएगा।

इस प्रकार पूँजीवाद में अति उत्पादन का मतलब उस उत्पादन से है जिसके खरीदार नही मिल रहे हैं, भले ही आबादे के एक बड़े हिस्से को उस उत्पादन की अत्यधिक जरूरत हो। वर्त्तमान आर्थिक संकट के मूल में यही बात है। आज बाजार ऐसे उत्पादित मालों से भर गया है जिसकी जरूरत तो लोगों को है लेकिन इनका दाम दाम चुका कर इन्हे खरीदने की सामर्थ्य उनमे नही है। एक वाक्य में कहें तो समाज के ज्यादातर लोगों में क्रय शक्ति का अभाव।

कहना न होगा कि पूंजीवादी शोषण की चलती चक्की ने आबादी के बड़े हिस्से की संपत्ति का अपहरण कर उसे सम्पत्तिहीन बना है। सेवारत श्रमिकों को भारी संख्या में काम से हटा कर उनकी आमदनी का जरिया छीन लिया गया। इससे बेरोजगारों की फौज बढ़ी और इस स्थिति का भी फायदा इस रूप में उठाया गया कि लोगो को न्यूनतम से भी कम मजदूरी देकर दिहाडी एवं ठेका मजदूरों के रूप में काम लिया जाने लगा। इतना ही नही सरकारी टैक्सों में बढोतरी करके और एकाधिकारी दामो के जरिये कीमतें भी काफ़ी बढ़ा दी गयीं।

इस पूरी प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से आबादी के बड़े हिस्से की क्रय शक्ति लगातार कम होती गयी। और बाजार में इतना माल जमा हो गया कि जरूरत होते हुए भी क्रय शक्ति के अभाव में लोग उसे खरीद नही पा रहे हैं।

इसी संकट के महासमुद्र में यह व्यवस्था डूब - उतरा रही है। अपनी आतंरिक विसंगतियों का शिकार हुयी इस व्यवस्था के पास इससे बचने का कोई उपाय नही है। इसका स्वाभाविक परिणाम चालू उत्पादन में कमी, कल-कारखानों की बंदी और बेतहाशा छंटनी के रूप में सामने आ रहा है जिसके चलते यह संकट और भी व्यापक तथा गहरा होता जाएगा।
(अगली किश्त : आख़िर रास्ता किधर है?)
लेखक मासिक पत्रिका 'कम्युनिस्म' के सम्पादक हैं.

Saturday, May 9, 2009

पहाड़ की खुशी और गम को समझने का नया मंच

एस राजेन टोडरिया उन लोगों के लिए परिचय के मोहताज नहीं हैं, जिनकी दिलचस्पी पहाड़ के सुख-दुख को जानने समझने और उनके साथ एकाकार होने में हैं। टिहरी में हुए विस्थापन की सबसे तेज तर्रार रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर से एक प्रखर संपादक की लंबी यात्रा टोडरिया जी ने की है। अब वो ब्लॉग जगत में आए हैं। स्वागत कीजिए ब्लॉगर एस राजेन टोडरिया का।

देखिए उनका ब्लॉग

Wednesday, May 6, 2009

भावनात्मक उबाल अगर सूचनारहित हो...

डॉक्टर एस डी नैय्यर
([डॉक्टर नैय्यर आर्मी के रिटायर्ड कर्नल हैं। वह अस्थमा एसोसियेशन के प्रेजिडेंट भी रह चुके हैं। दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में पिछले दिनों हुयी एक छात्रा आकृति भाटिया की मौत पर वे बहुत बेचैन हैं। उनका कहना है की एक तो सही जानकारी की कमी एक मासूम जिंदगी को लील गयी दूसरे इस मामले पर जो हंगामा मचा है उससे सही जानकारी फैलाने में कोई मदद नही मिल रही उल्टे लोग और गुमराह हो रहे हैं। पेश है डॉक्टर नैय्यर की बेचैनी से उपजी यह पोस्ट।)


दिल्ली के एक स्कूल में पिछले दिनों हुयी एक छात्रा आकृति की मौत पर काफी हंगामा हुआ है। मैं इस मामले में छपी khabaren dekhataa rahaa hoon । कहने की जरूरत नही कि १७ साल की इस बच्ची की मौत सचमुच दुखद है। पैरेंट्स की तकलीफ समझ में आती है। जो बात समझ में नही आती वह है स्कूल और प्रिंसिपल के ख़िलाफ़ मचाया जा रहा हंगामा। ख़ास तौर पर इसलिए कि कम से कम इस मामले में स्कूल - प्रिंसिपल और टीचर्स - की कोई गलती नही है।

आकृति दमे की मरीज थी। वर्षों से उसे यह बीमारी थी और मौत के कुछ ही दिन पहले अस्पताल में भर्ती भी की गयी थी। साफ़ है कि पैरेंट्स इस बीमारी से जुड़े मानसिक - भावनात्मक पहलुओं की अहमियत पूरी तरह नही समझ पाये। वरना शायद use उस हालत में स्कूल नही भेजते। दिल्ली में बच्चो के बीच कम्पीटीशन का भाव बहुत तगडा होता है। पैरेंट्स को चाहिए था कि वे टीचर्स को आकृति की स्थिति के बारे में पहले से बताते और एहतियाती kउठाते बजाय इसके बाद में स्कूल पर दोष मढें।

दमे के मरीजो को इन्हेलर लेने की सलाह देना आम है। इसका इस्तेमाल भी आम है। मेरा अपना जो अनुभव है इतने वर्षों का, उसमे मैंने देखा है की इनहेलर ke jyada उपयोग के साईड इफेक्ट के बारे में शायद ही किसी mareej को बताया jata है। amooman वे इस बारे me अंधेरे me ही रहते हैं।




जैसा कि आकृति के मामले में हुआ जब किसी मरीज को दमे का दौरा आता है तब मरीज अटैक को रोकने के लिए लगातार इन्हेलर का इस्तेमाल करता है। साँस लेने में परेशानी, चिंता घबराहट और दूसरे लक्षण बढ़ जाते हैं।


साँस ले रहे फेफडे की सतह पर एक परत जम जाती है और गैसों का आदान-प्रदान रुक जाता है। कार्बन डाईऔक्साइड जमा हो जाता है मरीज का दम घुट जाता है, आकृति की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट से भी इसकी पुष्टि होती है। मुझे पता नही इस बच्ची को इन्हेलर के लगातार इस्तेमाल के साइड इफेक्ट के बारे में आगाह किया गया था या नही।


ऐसे मामले से निपटना डॉक्टरों के लिए भी मुश्किल होता है। फ़िर तीचेर्स और प्रिंसिपल से क्या अपेक्षा रखी जाए? जरूरत है इन्हेलर इस्तेमाल करने वालों के बीच जागरूकता लाई जाए। खासकर बच्चों के मामले में उनके पैरेंट्स को समय रहते इसके ज्यादा इस्तेमाल के खतरे बताये जाएँ। स्कूल और प्रिंसिपल पर दोष मढ़ना - कम से कम इस मामले में उचित नही।
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