कुलदीप नाथ शुक्ला
(आर्थिक मंदी की मार और इससे मची चीख-पुकार तो अब हमारे लिए नयी बात नही है। हम सब इसके गवाह हैं। सवाल सिर्फ़ यह है कि आख़िर यह सब क्यों और कब तक? दोनों सवालों के जो जवाब हमें मिल रहे हैं वे संतोषजनक नही हैं। जो आर्थिक सुधार हमें अकेलेपन से निकाल कर और पूरी दुनिया के साथ जोड़ कर स्वर्ग की तरफ़ ले जाने वाले थे उन्ही सुधारो ने हमें आर्थिक संकट की गर्त में पहुँचा दिया । यह सब क्यों और कैसे हुआ कोई ढंग का जवाब नही मिल रहा। कब तक चलेगा इस बारे में भी कोई ठोस जवाब नही है। पहले कहा गया संकट ही नही है। फ़िर कहा गया कुछ हफ्तों में या अगली तिमाही तक चीजें ठीक हो जायेंगी। फ़िर कहा गया साल दो साल भी लग सकता है। ऐसे ही उलझन और संभ्रम की स्थिति में पेश है दो किश्तों का यह लेख जो मंदी की मौजूदा स्थिति का एक ख़ास दृष्टिकोण से विश्लेषण करता है। )
मौजूदा महामंदी की शुरुआत दुनिया के सर्वाधिक विकसित, संपन्न और शक्तिशाली पूंजीवादी देश अमेरिका से हुयी। असलियत पर परदा डालने के लिए पहले तो इसे सब प्राईम संकट तथा वित्तीय संकट कहा गया जो संकट का कारण नही बल्कि इसका लक्षण मात्र है। लेकिन वास्तविकता बड़ी निर्मम होती है। उसने व्यवस्था के संचालकों की आंखों में ऊँगली डाल कर दिखा दिया और उन्हें यह स्वीकारने को मजबूर कर दिया कि संकट इतना बड़ा है कि उनके हाथ पैर फूले हुए हैं। संकट पर जल्द ही काबू पा लेने की थोथी घोषणाएं तसल्लीबख्श बकवास साबित हुयी। निजी एकाधिकार पूंजीवाद का स्वर्ग अपने गुलामों के लिए ही नही, मालिकों के लिए भी नर्क बन गया है।
इस वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते बीते वर्ष के दौरान वित्तीय परिसंपत्तियों में लगभग पाँच सौ खरब डालर का नुकसान हुआ है। एशिया विकास बैंक द्बारा जारी एक अध्ययन 'वैश्विक वित्तीय संकट एवं उभरती हुयी अर्थव्यवस्थाएं : परिसंपत्तियों में प्रमुख नुकसान' में कहा गया है कि वर्ष २००८ के दौरान एशिया के विकासशील देशों में ९६ अरब डॉलर की क्षति दर्ज की गयी। अध्ययन में स्पष्ट किया गया है कि १९३०-३१ की मंदी के बाद यह सर्वाधिक भीषण संकट है।
यह संकट सही मायनो में अति उत्पादन का संकट है। अति उत्पादन से मतलब यह नही कि दुनिया के सभी लोगो की जरूरतों से ज्यादा उत्पादन हो रहा है। उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था में आवश्यकता का मतलब यह है कि आपको किसी चीज की जरूरत हो और आप उसकी कीमत चुकाने लायक माल अपनी जेब में रखते हों और उस चीज पर खर्च करने का आपका इरादा भी हो। जब ये तीनो संयोग जुड़ते हैं तभी उसे आपकी या किसी की भी जरूरत में शुमार किया जाता है।
यानी अगर आपके पास पैसे न हों तो रोटी आपकी जरूरत नही मानी जायेगी। इतना ही नही, मान लिया आपके पास रोटी खरीदने लायक पैसे हैं लेकिन उसे रोटी पर खर्च करने के बजाय आप अपने बच्चे की दवा पर खर्च करना ज्यादा जरूरी समझते हैं तब भी रोटी को आपकी आवश्यकता में नही गिना जाएगा।
इस प्रकार पूँजीवाद में अति उत्पादन का मतलब उस उत्पादन से है जिसके खरीदार नही मिल रहे हैं, भले ही आबादे के एक बड़े हिस्से को उस उत्पादन की अत्यधिक जरूरत हो। वर्त्तमान आर्थिक संकट के मूल में यही बात है। आज बाजार ऐसे उत्पादित मालों से भर गया है जिसकी जरूरत तो लोगों को है लेकिन इनका दाम दाम चुका कर इन्हे खरीदने की सामर्थ्य उनमे नही है। एक वाक्य में कहें तो समाज के ज्यादातर लोगों में क्रय शक्ति का अभाव।
कहना न होगा कि पूंजीवादी शोषण की चलती चक्की ने आबादी के बड़े हिस्से की संपत्ति का अपहरण कर उसे सम्पत्तिहीन बना है। सेवारत श्रमिकों को भारी संख्या में काम से हटा कर उनकी आमदनी का जरिया छीन लिया गया। इससे बेरोजगारों की फौज बढ़ी और इस स्थिति का भी फायदा इस रूप में उठाया गया कि लोगो को न्यूनतम से भी कम मजदूरी देकर दिहाडी एवं ठेका मजदूरों के रूप में काम लिया जाने लगा। इतना ही नही सरकारी टैक्सों में बढोतरी करके और एकाधिकारी दामो के जरिये कीमतें भी काफ़ी बढ़ा दी गयीं।
इस पूरी प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से आबादी के बड़े हिस्से की क्रय शक्ति लगातार कम होती गयी। और बाजार में इतना माल जमा हो गया कि जरूरत होते हुए भी क्रय शक्ति के अभाव में लोग उसे खरीद नही पा रहे हैं।
इसी संकट के महासमुद्र में यह व्यवस्था डूब - उतरा रही है। अपनी आतंरिक विसंगतियों का शिकार हुयी इस व्यवस्था के पास इससे बचने का कोई उपाय नही है। इसका स्वाभाविक परिणाम चालू उत्पादन में कमी, कल-कारखानों की बंदी और बेतहाशा छंटनी के रूप में सामने आ रहा है जिसके चलते यह संकट और भी व्यापक तथा गहरा होता जाएगा।
(अगली किश्त : आख़िर रास्ता किधर है?)
लेखक मासिक पत्रिका 'कम्युनिस्म' के सम्पादक हैं.
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