राजीव रंजन
(राजीव इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया से होते हुए ऑनलाइन मीडिया पहुंचे हैं और आजकल एक क्रिकेट वेबसाइट से जुड़े हैं। इसलिए अगर उनकी ये पंक्तियाँ हम सबके सच की गवाही दे रही हैं तो आश्चर्य नही।)
हमें गुमान है कि हम
लोकतंत्र के चौथे खंभे की
ईंट और गारे हैं
हमें यह भी गुमान है कि
हम लोगों की आवाज हैं
ये बात और है कि
हमारी ही आवाज
बेमौत मर जाती है
या यूं कहें, हम ही खुद
घोट देते हैं उसका गला
हम सिर्फ नौकरी करते हैं
हमारी एकमात्र चिंता है
नौकरी बची रहे
चाहे कुछ और बचे न बचे
जब हम पर कोई सवाल उठाता है
हम उछाल देते हैं
उस पर ही कई सवाल
हम पापी पेट की दुहाई देकर
न जाने कितने पाप
चुपचाप देखते रहते हैं
हम पापी पेट के नाम पर
हर रोज न जाने कितने
पाप करते रहते हैं
और इन सारे ‘पापबोधों’ से
मुक्त होने के लिए
कविता लिख देते हैं।
पत्रकारिता हमारी ढाल है
साहित्य हमारी आड़।
(28/12/2006 )
4 comments:
आनंदम् आनंदम्, सुंदरम् सुंदरम्
इस धंधे से होती उचाट के बीच एक ईमानदार वक्तव्य सी कविता...
दिल की बात पढ़ाने का शुक्रिया
मंडलबाबू।
कविवर को बधाइयां खूब खूब
ओहो...ध्यान नहीं दिया।
ये आभार प्रदर्शन तो पणव के लिए होना था:)
धन्यवाद अजित भाई। एक ही बात है। आप आए आपने पढ़ा और दाद दी। शुक्रिया... कविवर तो अपनी बात खुद ही कहेंगे
अगर हम साथ चले..
कंधे से कन्धा मिलाएं..
तो पत्रकारिता को अपनी
बपौती बनाने वाले
सोच से गरीब/
पैसों से अमीर
पूंजीपतियों की भगई
खुलते देर नहीं लगेगी....!
और वे फिर कला की क़द्र करना सीखेंगे!
अगर नहीं सीखे तो
पत्रकारिता से उन्हें बैरंग
वापस लौटाना ही श्रेस्यकर!
बस एकता की दरकार है..
जागो पत्रकार भाईयों..जागो..
अब नहीं तो कभी नहीं..
ये फिर अंतहीन गाथा बन जायेगी..
और आने वाले बच्चे
सोच से उस गरीब तबके का जूता साफ़ करते
पाए जायें तो कोई आश्चर्य नहीं...!
- सौरभ के. स्वतंत्र
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