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Sunday, July 5, 2009

टाइम मशीन में लालगढ़ और एसपी सिंह

लालगढ़ ने मीडिया के सामने कुछ सवाल खड़े किए हैं। इस बारे में hoot में सेवंती नैनन ने लिखा है। पक्ष और पक्षपात की सवाल मीडिया को लेकर न पहली बार उठे हैं न आखिरी बार। हाल ही में हमने पत्रकार एसपी सिंह की 12वीं बरसी मनाई है। एसपी सिंह की स्मृति में दिल्ली में हुई एक सभा में पत्रकार रामबहादुर राय ने ये सवाल उठाया कि एसपी सिंह अगर आज जिंदा होते तो लालगढ़ को लेकर क्या उस धारा में वो बह रहे होते, जिस धारा में मीडिया बह रहा है। उनके मुताबिक एसपी सिंह इस समय लालगढ़ में संघर्ष कर रहे लोगों का अभिनंदन करते और उनके दमन में जुटी सरकार के विरोध में खड़े होते।

यहां हम एक ऐसे न्यूजरूम की कल्पना करते हैं जहां टाइम मशीन में डालकर लालगढ़ के संघर्ष और एसपी सिंह को एक साथ इकट्ठा कर दिया गया हो। इस घटना के पात्र वास्तविक हो सकते हैं, सिर्फ नाम बदल दिए हैं क्योंकि इससे पूरी बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।


जून 2009 के आखिरी हफ्ते का कोई दिन
स्थान-एक न्यूज चैनल का दफ्तर


"लालगढ़ में पुलिस के खिलाफ सभा कर रहे 10,000 लोगों को कल आतंकवादी किसने लिखा था?" एसपी की संयत लेकिन थोड़ी तीखी आवाज के साथ ही न्यूजरूम में सन्नाटा छा गया। सुबह साढ़े 9 बजे का समय था। कनॉट प्लेस में टीवी चैनल के एक दफ्तर में रात की शिफ्ट वाले जा रहे थे और अगली शिफ्ट वाले आ रहे थे। हर ओर हलचल मची थी। एसपी सिंह 3 दिन शहर से बाहर रहकर लौटे थे। ज्यादातर लोगों को तो पहली बार में समझ में ही नहीं आया कि लालगढ़ में पुलिस से लड़ रहे लोगों को आतंकवादी नहीं तो और क्या लिखा जाएगा। पूरा मीडिया तो लालगढ़ में जो हो रहा है उसे माओवादी आतंकवादी बनाम सुरक्षा बलों के संघर्ष के तौर पर देख रहा है। ऐसे में एसपी आखिर कहना क्या चाहते हैं।

"भाई ऐसा है कि 10,000 लोग अगर आतंकवादी हो गए हैं और 140 गांवों की पूरी जनता आतंकवादी हो गई है तब तो उन्हें गिरफ्तार करना होगा या मारना होगा", एसपी बोले, " आप सब लोग पत्रकार हैं और इस नाते समझदार भी, क्या ये संभव है।"

न्यूजरूम का सन्नाटा और गहरा हो गया क्योंकि बुलेटिन में आतंकवादी शब्द कई बार आया था और ये खबर कई हाथों से गुजरी थी, जिसमें सीनियर लोग भी शामिल थे। न्यूजरूम की सबसे युवा सदस्य सुनयना ने पूछा, "सर, आतंकवादी नहीं तो क्या लिखें? बंदूक तो उनके पास होती है। हमारे पास जो फुटेज आ रहे हैं उनमें आदिवासियों के हाथों में कुल्हाड़ी, लाठी और दो-चार बंदूकें भी दिखती हैं। उन्होंने लैंडमाइन ब्लास्ट भी तो किए हैं।"

"देखिए अगर हथियार होने से कोई आतंकवादी होता है तो देश में सबसे ज्यादा हथियार तो पुलिस और सेना के पास हैं। उनके काम करने का तरीका भी हिंसक ही होता है। आपकी परिभाषा से तो देश में आतंकवादियों का सबसे बड़ा गिरोह सेना और पुलिस हो गई। मेरे ख्याल से लालगढ़ में जो हो रहा है वो एक पॉपुलर आंदोलन हैं, जिसमें कुछ माओवादी भी घुसे हुए हैं। आप हद से हद इन्हें माओवादी या उग्रवादी या अतिवादी कहें। हिंसक तौर तरीके अपनाने वाले भगत सिंह को ब्रिटेन का इतिहास आतंकवादी कहता है और हम क्रांतिकारी कहते हैं। यानी भाषा के ऐसे सवाल इस बात से तय होते हैं कि आप किस पक्ष में खड़े हैं। मेरी राय है कि पत्रकारों में इस लड़ाई में जनता के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। देखिए आप जैसे ही अपना पक्ष तय करेंगे आपकी भाषा और आपके शब्दों का संस्कार तय हो जाएगा, " एसपी की बात अब कुछ लोगों को समझ में आने लगी थी।

लेकिन सुनयना के जेहन में अभी भी कई सवाल आ रहे थे। वो बोली, "सर, ये लोग सरकार को नहीं मानते, पुलिस को इलाके में घुसने नहीं देते, ऐसे लोगों को आतंकवादी और देशद्रोही क्यों नहीं माना जाए।

एसपी अब गहरी सोच में डूब गए। सुनयना को बाकी सीनियर्स समझाने में जूट गए। कई तरह के तर्क वितर्क होते रहे। अचानक एसपी बोले, सुनयना आपकी राय में लालगढ़ में हंगामा कब शुरू हुआ है। सुनयना के साथ ही कई और लोग बोले लगभग 15-20 दिनों से।

एसपी ने कहा, यही तो हमारे पेशे के लोगों की मुश्किल है। सब कुछ इंस्टेंट होता है आप लोगों के लिए। देखिए अगर पश्चिम बंगाल और देश की बड़ी खबरों पर आपकी नजर होगी तो आपको याद होगा कि पिछले साल नवंबर महीने में इसी इलाके में एक माइन ब्लास्ट हुआ था, जिसमें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और उस समय के केंद्रीय स्टील मंत्री रामविलास पासवान बाल बाल बचे थे। वो इलाके में एक स्टील प्लांट के निर्माण का उद्घाटन करने जा रहे थे। इस प्लान्ट के लिए बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण होना है और पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के अनुभव के बाद कोई भी किसान सरकार को निजी प्रोजेक्ट के लिए सरकारी कीमत पर जमीन बेचने के तैयार नहीं है। खैर आप सबने भी अपने ही चैनल पर खबर चलाई थी ब्लास्ट के बाद बड़े पैमाने पर लोगों की गिरफ्तारी हुई थी। इस घटना को जाने बगैर आप लालगढ़ के बारे में अगर लिखेंगे या बोलेंगे तो खबर के साथ और साथ ही उस इलाके की जनता के साथ अन्याय करेंगे। लालगढ़ माओवाद का नहीं जमीन अधिग्रहण और विरोध का मुद्दा है।

इस चर्चा के दौरान दिन की शिफ्ट के ज्यादातर लोग ऑफिस पहुंच चुके थे। कॉन्फ्रेंस रूम में न्यूजमीटिंग के लिए लोग जुटने लगे। चाय के साथ खबरें तय करने का सिलसिला शुरू हुआ...

...न्यूजरूम में लालगढ़ और एसपी सिंह

न्यूज मीटिंग में सभी ब्यूरो से आए आइडिया की लिस्ट और एएनआई और दूसरी समाचार एजेंसियों के दिन के एजेंडे की सूची बांट दी गई। चूंकि लालगढ़ से बेहद एक्साइटिंग विजुअल आ रहे थे। इसलिए ये सब समझ रहे थे कि ये खबर ही आज बिकेगी। लेकिन एसपी ने आतंकवाद और उग्रवाद के बीच फर्क को लेकर जिस तरह अपनी बातें रखीं थी, उससे साफ जाहिर था कि लालगढ़ अब वैसे कवर नहीं होगा, जिस तरह से उसे पिछले तीन-चार दिनों से कवर किया जा रहा था।

एसपी ने बांग्ला के एक अखबार में छपी एक फोटो लोगों को दिखाई। "देखिए ये चार फोटो हैं हमारी आज की सबसे बड़ी स्टोरी।" इसके साथ छपी खबर को पढ़ने के लिए उन्होंने अखबार छवि विश्वास की ओर बढ़ाया। छवि ने जो खबर पढ़ी उसके मुताबिक चूंकि सुरक्षा बलों के पास लैंडमाइन डिटेक्टर सिर्फ दो ही हैं, इसलिए वो आदिवासियों को लोहे की छड़े पकड़ा देते हैं और सुरक्षा बलों के आगे आगे चलने को मजबूर करते हैं। उन्हें कहा जाता है कि वो जमीन को बीच बीच में कोंचकर देखते रहें कि कोई बारूदी सुरंग तो नहीं है।

एसपी ने कहा मुझे कोलकाता से किसी ने बताया है कि वहां के लोकल चैनल के पास इसकी फुटेज है। चैनल के संपादक से मेरी बात हो गई है। कोलकाता की रिपोर्टर से कहिए कि वहां से फुटेज ले आए। इस फुटेज पर बांग्ला चैनल का एक्सक्लूसिव जरूर चलाएं। साथ ही एक रिपोर्टर को फुटेज के साथ मानवाधिकार आयोग भेजिए और वहां से रिएक्शन लाइए। बंगाल के मुख्यमंत्री या चीफ या होम सेक्रेटरी जहां भी मिले उन्हें पकड़िए और सवाल के जवाब में जो भी कहें या चुप रहें, उसे दिखाइए। कोई बात न करे तो रिपोर्टर को राइटर्स बिल्डिंग के बाहर खड़ा कीजिए और उसके रिएक्शन लेने के प्रयासों के बारे में पीटीसी करवाइए। मानवाधिकार आयोग और मुख्यमंत्री कार्यालय में अगले एक घंटे में फैक्स भेजकर रिएक्शन मांगिए।

पिछले तीन दिनों से होम मिनिस्ट्री से आ रहे बयानों और बाइट के आधार पर लालगढ़ की रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर प्रकाश चंद्रा को समझ में आ रहा था कि अब उसके आराम के दिन गए। एसपी ने प्रकाश की ओर मुड़कर कहा, "मंत्री और सेक्रेटरी तो बहुत बयान दे रहे हैं। इस बारे में उनसे सवाल पूछिए। जो भी वो कहते हैं उसे स्टोरी के हिस्से के तौर पर डालिए। सरकार असहज सवाल पूछने वालों को ही पूछती है। इसलिए जरा डटकर पूछिए। भरोसा रखिए आपका सोर्स खराब नहीं होगा"

एसपी ने एसाइनमेंट हेड नवीन कुमार से पूछा-लालगढ़ कौन कवर कर रहा है। जवाब मिला कोलकाता की रिपोर्टर श्रुति वहां गई है। वो सुरक्षा बलों के साथ लगातार लगी हुई है और हर पल की खबर चैनल को मिल रही है। इस मामले में हमारा चैनल किसी भी चैनल से पीछे नहीं है।

एसपी ने कहा- अगर सभी चैनलों के रिपोर्टर सुरक्षा बलों के साथ लगे हैं और सारी सूचनाएं सुरक्षा बलों से ही मिल रही है तो कोई भी चैनल पीछे कैसे हो सकता है। लेकिन मुश्किल ये है कि कोई भी चैनल आगे भी नहीं हो सकता। वहां हमारे कम से कम तीन रिपोर्टर और कैमरा टीम होनी चाहिए। एक श्रुति को सुरक्षा बलों से साथ रहने दीजिए। पटना से आशीष और दिल्ली से छवि विश्वास को लालगढ़ भेजिए। दोनों को बांग्ला आती है। ये दोनो रिपोर्टर गांववालों के साथ रहकर उनके नजरिए को सामने लाएंगे। इस तरह हम न सिर्फ बैलेंस रिपोर्टिंग कर रहे होंगे बल्कि बाकी चैनलों को जब तक ये बात समझ में आएगी तब तक हम लीड ले चुके होंगे। हमारे पास अलग तरह के फुटेज होंगे अलग तरह की साउंड बाइट होगी।

एसपी सिंह इस पूरी बातचीत के दौरान बांग्ला और कोलकाता से छपने वाले बाकी अखबारों को पढ़ते भी जा रहे थे। उन्होंने कहा- ये जो खबर इस बांग्ला अखबार में छपी है, इसे देखिए। गांव वाले सुरक्षा बलों को खाने पीने का सामान नहीं बेच रहे हैं। सुरक्षा बलों को उनके साथ जबर्दस्ती करनी पड़ रही है। ये स्टोरी बताती है कि लोगों को सुरक्षा बलों को लेकर कितनी नाराजगी है और दिल्ली के अखबारों में जो छप रहा है कि गांव वालों ने सुरक्षा बलों का स्वागत किया, उसकी हकीकत क्या है।

इसके बाद एसपी डेस्क के लोगों की ओर मुड़े और कहा- देखिए लालगढ़ को पूरे कॉन्टेस्ट में देखिए। ये सिर्फ कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। जमीन अधिग्रहण को लेकर देश भर में जो गुस्सा है, उसके हिस्से के तौर पर भी लालगढ़ को देखा जाना चाहिए। आप लोग कोलकाता के अखबारों को जरूर देखें। उससे आपको ज्यादा पक्षों को समझने में आसानी होगी। दिल्ली में बैठकर आपको ये कैसे अंदाजा लग पाएगा कि वहां के ज्यादातर स्कूलों में फौज भरी है। जीवन अस्तव्यस्त है। वहां लगभग युद्ध जैसे हालात हैं। अपने ही देश की सबसे गरीब जनता के विरुद्ध युद्ध। मैं निजी तौर पर हिंसा के खिलाफ हूं। लेकिन हर तरह की हिंसा का। सरकारी हिंसा का समर्थन मैं नहीं कर सकता। किसान की जमीन मनमानी कीमत पर लेकर उसे उद्योगपतियों को जबरन सौंप देना हिंसा है। दुनिया भर में उद्योगपति खुद जमीन खरीदते हैं। जबरन जमीन ले लेने का ये कानून अंग्रेजों के समय बना। लेकिन आजाद भारत की सरकारें इसका इस्तेमाल करती रहती हैं। ये कानून जनता और किसानों के खिलाफ हिंसा है। हिंसा का विरोध करना है तो इस सरकारी हिंसा का भी विरोध करना चाहिए। ये आश्चर्यजनक है कि सरकार की बंदूकें ऐसे मामलों में हमेशा किसानों के खिलाफ ही चलती हैं। यूरोप या अमेरिका जैसे विकसित लोकतंत्र में इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते। ये हमारे जैसे अविकसित देशों में ही हो सकता है।

इस बातचीत को बहुत देर से खामोशी से सुन रहा अभिषेक थोड़ा बेचैन दिख रहा था। अभिषेक ने कहा, "लेकिन सर, माओवादियों को सरकार बैन कर चुकी है। बाजार की ताकतें उनके खिलाफ हैं ही। ऐसे में क्या आपको लगता है कि हमारे जैसा मीडिया इस मुद्दे पर जनता के पक्ष में स्टैंड ले सकता है।"

एसपी के माथे पर चिंता की लकीरें नजर आने लगीं। वो चुप रहे। ऐसा लगा कि वो इस सवाल का जवाब नहीं देना चाहते। वो धीरे से बोले, "अभिषेक दरअसल आप वो सवाल उठा रहे हैं जो मैं अपने आप से अक्सर पूछता हूं। देखिए आप यहां इतने महीनों से काम कर रहे हैं। चैनल के जनता के या कमजोरों के पक्ष में खड़े होने से आपको शायद ही कभी रोका गया होगा। लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि जिसने इस चैनल के चलाने के लिए पैसे खर्च किए हैं वो धर्मार्थ चैनल नहीं चला रहा है। उसे अपने निवेश पर मुनाफा चाहिए। हमें उसने काम पर इसलिए रखा है कि हम उसके लिए मुनाफा कमाएं। इसके लिए जरूरी है कि ढेर सारे लोग हमारा चैनल देखें। अगर आप जनपक्षीय होकर भी दर्शक जुटा पा रहे हैं तो शायद ही आपको कभी टोका जाएगा। बिजनेसमैन की पहली और आखिरी प्राथमिकता पैसे कमाना है। इस गणित को हमें समझना होगा। बिजनेस मैन के पैसे से चल रहे चैनल को हम माओवादियों का मुखपत्र या लघुपत्रिका बनाना चाहेंगे तो वो ऐसा नहीं करने देगा। वो इस चैनल को सरकार का भोंपू भी नहीं बनने देगा अगर ऐसा करने पर दर्शक हमें छोड़ जाएं। इस समय की असली चुनौती है कि कैसे जनपक्षीय होते हुए भी पॉपुलर बने रहा जाए। ये काम कठिन है। लेकिन मुमकिन है। गणेश जी को दूध पिलाने वाली घटना को अंधविश्वास के तौर पर दिखाकर भी दर्शक जुटाए जा सकते थे और अंधविश्वास का खंडन करके भी। हमने मोची के औजार को दूध पिलाकर अंधविश्वास का खंडन किया और पॉपुलर भी बने रहे। ये पत्रकारों के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है।

अभिषेक बीच में ही बोल पड़ा, " लेकिन सर, अगर हमारी रिपोर्टिंग ज्यादा ही जनपक्षीय हो गई तो क्या सरकार और देश के सत्ता इसकी इजाजत देगी। एसपी अब और परेशान नजर आ रहे थे। उन्होंने कहा- "मैं जानता हूं कि इसकी इजाजत संस्थागत मीडिया में नहीं है। मैं संस्थानों के अंदर लोकतांत्रिक और जनपक्षीय स्पेस के लिए गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहा हूं। लेकिन ये भी सच है कि महीने के आखिर में मिलने वाली तनख्वाह और संस्थान में होने से आने वाला रुतबा और दबदबा भी शायद मुझे प्रिय है। ये मेरे अंदर का अंतर्विरोध है। कभी कभी मन करता है कि सब छोड़कर चल दूं और अपने मन का काम करूं। लेकिन जो कुछ भी हासिल हो रहा है वो मुझे पीछे खींचता है। इसलिए कई बार मैं समझौते करता हूं। कई बार नहीं करता। कई बार जनता के लिए लड़ रहे संगठनों को पैसे देकर अपना अपराधबोध मिटाता हूं। लेकिन आखिरकार मैं इसी व्यवस्था के अंदर का एक पत्रकार हूं। अपना सच और अपनी सीमाएं मैं जानता हूं। अपनी सीमाएं मैं बढ़ाने की कोशिश में लगा रहता हूं। लेकिन एक लिमिट है, जिसे मैं पार नहीं करता। मुझे कृपया आप लोग इस कमजोरी या सीमा के साथ ही स्वीकार करें।

सुबह की चमक अब एसपी के चेहरे से पूरी तरह गायब हो गई थी। वो थके हुए दिख रहे थे। न्यूजरूम में अब अफरातफरी शुरू हो चुकी थी। इस भाषणबाजी के चक्कर में लगभग डेढ़ घंटे "खराब" हो चुके थे।

5 comments:

अजित वडनेरकर said...

...और भोर से कुछ ही पहले मैं न्यूज़ रूम के एसपी से एक बार फिर मिल कर स्तब्ध हूं। क्या 2009 के एसपी के पास पॉपुलर बने रहने की धार कुछ कम हो गई? सेठ को सिर्फ मुनाफा चाहिए। दम होनी चाहिए संपादक में जो सेठ को आश्वस्त करता रह सके कि चिंता न करें, मगर बीच में भी न बोलें। आज का संपादक हिम्मत ही कहां कर पाता है? एसपी के चेले जो आज संपादक बने बैठे हैं किस तरह के मुहावरे रच रहे हैं, मुर्गी के पेट से इन्सानी जिस्म पैदा कराने जैसी घृणित खबरें दिखा रहे हैं। टीवी के मालिक को अगर यह पता चले कि किस कीमत पर वह संपादक चैनल को पॉपुलर बना रहा है तो शायद दो दिन उसे दफ्तर में न रहने दे। पर वहां तक बात इसी अंदाज़ में पहुंचाई जाती है कि सर, जनता यही देखना चाहती है...
दरअसल हिम्मत और दम की कमी है। कुछ जल्दी ही एसपी चले गए....कुछ जल्दी ही भाई लोग उनकी कुर्सी पर लपक गए...कुछ जल्दी ही जेब भारी हो गई...कुछ जल्दी ही खुमारी आ गई....और लो, हम थकने लगे...शायद प्रिंट में फिर कोई जगह निकल आए...

अच्छी पोस्ट दिलीप भाई...बहुत अच्छी। शुक्रिया...

Rakesh Kumar Singh said...

इस बेहतरीन पोस्‍ट के लिए शुक्रिया दिलीपजी.

Dipti said...

बहुत ही बेहतरीन

Rajesh Tripathi said...

प्रिय दिलीप भाई
मीडिया खबर में टाइम मशीन में लालगढ़ और एसपी आलेख के लिए बधाई और आभार। बधाई इसलिए कि आपकी कल्पना ने एसपी के तेवर और खबरों को सच के धरातल पर देखने और सोचने की उनकी विशेषता को हूबहू चित्रित किया है। आलेख
पढ़ते हुए हम अपनी कल्पना में एसपी को साक्षात देख रहे थे। हम सौभाग्यशाली हैं और हमें इस बात पर गर्व है कि हमने उस महान संपादक और सही मायने में सदी के मीडिया महानायक के साथ काम किया। उनकी कार्यशैली, सोच की प्रखरता और
खबरों तक पैनी पैठ के साक्षी और सहभागी बने। वे कौआ कान ले गया पर आंख बंद कर विश्वास कर लेने वालों में नहीं थे। वस्तुस्थिति को पूरी तरह जांच-परख कर ही निष्कर्ष निकालते थे। आपने सच कहा है आज वे होते तो लालगढ़ के उस जन-संघर्ष के साथ खड़े होते जो साल-दर-साल सरकारी उपेक्षा, अभाव और गरीबी व लाचारी से उभरा है। आदिवासी अंचलों के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं के प्रसार के लिए जो करोड़ों रुपये सरकार देती है वे उन लोगों तक क्यों नहीं पहुंचते
जिन पर उनका हक है। विकास क्यों खास सीमाओं तक जाकर ठिठक जाता है। आखिर आदिवासी या वनवासी भी तो देश के नागरिक हैं और उन्हें भी मानवोचित जीवन जीने का वैसा ही अधिकार है जैसा शीत घरों में शान से जीते बाबुओं या
मंत्रियों को है। पेड़ की छाल और अखाद्य खाकर जिंदगी जीने वालों को एक न एक दिन तो अपने अधिकारों के लिए आंदोलित होना ही था, वे हुए भी अब आप अपना दामन बचाने के लिए इसे नक्सलवाद. आतंकवाद कोई भी नाम दे सकते हैं इससे उनके अधिकारों की लड़ाई का महत्व तो कम नहीं हो जाता। जो अपराधी हैं, उनके
लिए देश का कानून है , वह अपना काम करेगा, दबे-कुचलों को उनका हक दीजिए, खाली हाथों को काम दीजिए देखिएगा लालगढ़ में भी प्रगति का परचम लहरायेगा। एसपी होते तो इस समस्या को मानवीय दृष्टि से देखते जो उनकी विशेषता थी। आज एसपी को कोई समाजवाद से प्रेरित कहे या उन्हें किसी और वाद से जोड़ लेकिन
हमारी नजरों में वे हमेशा मानवतावादी रहे हैं। उनका कार्य इस बात का साक्षी है।
हमें रविवार के दिनों की याद ताजा कराने और दिल्ली के उस मशहूर चैनल के (जिसके रूपकारों में एसपी अग्रणी हैं) के न्यूजरूम के साक्षात दर्शन कराने के लिए धन्यवाद।
राजेश त्रिपठी (पत्रकार)
कोलकाता

आनंद प्रधान said...

Shukriya Dilip ji....Behatarin katha/lekh hai...Bahut educative hai...meri rai hai ki isi shaili me aap koi dus ya pandrah case studies lekar likhen to nai pidhi ke patrakaron ke liye acha training material tayyar ho jayega...

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