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Friday, March 26, 2010

मायावती की माला आपको बुरी क्यों लगती है?

दिलीप मंडल

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष कुमारी मायावती की माला को लेकर राजनीति और भद्र समाज में मचा शोर अकारण है। मायावती ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो वर्तमान राजनीतिक संस्कृति और परंपराओं के विपरीत है। नेताओं को सोने चांदी से तौलने और रुपयों का हार पहनाने को लेकर ऐसा शोर पहले कभी नहीं मचा। नेताओं की आर्थिक हैसियत के खुलेआम प्रदर्शन का ये कोई अकेला मामला नहीं हैं। सड़क मार्ग से दो घंटे में पहुचना संभव होने के बावजूद जब बड़े नेता हेलिकॉप्टर से सभा के लिए पहुंचते हैं, तो इससे किसी को शिकायत नहीं होती। करोड़ों रुपए से लड़े जा रहे चुनाव के बारे में देश और समाज अभ्यस्त हो चुका है। मायावती प्रकरण में अलग यह है कि वर्तमान राजनीतिक संस्कृति का अब दलित क्षेत्र में विस्तार हो गया है। धन पर बुरी तरह निर्भर हो गए भारतीय लोकतंत्र का यह दलित आख्यान है जो दलित पुट की वजह से कम अभिजात्य है और कदाचित इस वजह से कई लोगों को अरुचिकर लग रहा है। साठ करोड़ रू का चारा घोटाला लगभग 30,000 करोड़ रू के टेलिकॉम घोटाले या ऐसे ही बड़े दूसरे कॉरपोरेट घोटालों की तुलना में लोकस्मृति में ज्यादा असर पैदा करता है, तो इसकी वजह घोटाले का भोंडापन ही है। मधु कोड़ा इस देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की लिस्ट में बहुत पीछे होने के बावजूद अपने भ्रष्टाचार के भोंडेपन की वजह से मध्यवर्ग की घृणा के पात्र बनते हैं, जो उन्हें बनना भी चाहिए, लेकिन हर तरह का भ्रष्टाचार समान स्तर की घृणा पैदा नहीं करता।

मायावती की माला को लेकर छिड़े विवाद से भारतीय राजनीति में धन के सवाल पर बहस शुरू होने की संभावना है और इसलिए आवश्यक है कि इस प्रकरण की गहराई तक जाकर पड़ताल की जाए। इस पड़ताल के दायरे में ये सवाल हो सकते हैं- क्या मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों और भारतीय मध्यवर्ग को माला प्रकरण को लेकर मायावती की निंदा करने का अधिकार है, क्या मायावती का वोट बैंक इस विवाद की वजह से नाराज होकर उनसे दूर जा सकता है, राजनीति और चुनाव में धन की संस्कृति का स्रोत क्या है और क्या उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति का कोई दलित-वंचित विकल्प हो सकता है।

सबसे पहले तो इस बात की मीमांसा जरूरी है कि क्या मायावती कुछ ऐसा कर रही हैं, जो अनूठा है और इस वजह से चौंकानेवाला है। अगर मायावती के जन्मदिन पर हुए समारोह की इस आधार पर आलोचना की जाए कि राजनीति में ये धनबल का प्रदर्शन है, तो सिर्फ मायावती या बसपा ही इसके लिए दोषी कैसे हैं? धनबल भारतीय राजनीति की अस्थिमज्जा में इतने गहरे समा चुका है कि लगभग अथाह रुपयों के बिना संसदीय राजनीति करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन लोगों को मायावती को पहनाई गई नोटों की माला को देखकर उबकाई आ रही है, उन्हें दरअसल उबकाई उस दिन भी आनी चाहिए थी जब ये पता चला था कि दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक, भारत की लोकसभा में 2009 के आम चुनाव के बाद 300 से ज्यादा करोड़पति (करोड़पति यानी वे, जिन्होंने चुनाव आयोग को दिए हलफनामे में अपनी जायदाद एक करोड़ रुपए से ज्यादा घोषित की है। उनकी वास्तविक हैसियत और अधिक हो सकती है) सांसद पहुंचे हैं। ये संख्या पिछली लोकसभा से दोगुनी है। लोकसभा के एक सांसद की औसत घोषित जायदाद 5 करोड़ रुपए से ज्यादा है और लोकसभा के सभी एमपी की सम्मिलित जायदाद 2,800 करोड़ रुपए से ज्यादा है।

राजनीति में धन के संक्रमण की बीमारी राष्ट्रव्यापी हो चली है। महाराष्ट्र में अक्टूबर 2009 के विधानसभा चुनाव में 184 करोड़पति विधायक चुनकर आए। महाराष्ट्र विधानसभा में कुल 288 सीटें हैं। हरियाणा में हर चार में से तीन विधायक करोड़पति है। हरियाणा में भी महाराष्ट्र के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए। साथ ही ये बात भी साबित हो गई है कि जिस उम्मीदवार के पास ज्यादा पैसे हैं, उसके जीतने के मौके ज्यादा हैं। मिसाल के तौर पर, नेशनल इलेक्शन वाच ने आंकड़ों का अध्ययन करके बताया है कि महाराष्ट्र में अगर किसी के पास एक करोड़ रुपए से ज्यादा की जायदाद है तो 10 लाख रुपए या उससे कम जायदाद वाले के मुकाबले उसके जीतने के मौके 48 गुना ज्यादा हैं।

इस संदर्भ में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की पहल पर किए गए चुनाव सुधारों की चर्चा की जानी चाहिए। शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के दौरान उम्मीदवारों पर, चुनाव खर्च की सीमा के अंदर चुनाव लड़ते हुए दिखने का दबाव पहली बार बना। वे आर्थिक उदारीकरण (बाजार अर्थव्यवस्था) के भी शुरुआती वर्ष थे। शेषन से पहले भी चुनाव खर्च की सीमा तो थी, लेकिन इसे एक औपचारिकता माना जाता था। उम्मीदवार मनमाना खर्च करते थे और अपना खर्च तय सीमा के अंदर दिखा देते थे। इस समय तक चुनावों में तड़क-भड़क खूब होती थी। पोस्टरों और झंडों से गलियां पट जाती थीँ। लगभग हर दीवार पर किसी न किसी उम्मीदवार या पार्टी के नारे लिखे होते थे। झंडे-बैनर से लेकर जुलूसों में गाड़ियों और मोटरसाइकिलों की संख्या आदि से किसी उम्मीदवार को मिल रहे समर्थन का एक हद तक अंदाज लग जाता था। बसों में भरकर लोग आते और खूब बड़ी-बड़ी रैलियां हुआ करती थीं।

लेकिन चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू किए जाने के बाद चुनाव में माहौल बनाने के ये तरीके बेअसर हो गए। मतदाताओं में संवाद कायम करने, उन तक पहुंचने के पुराने तरीके अब किसी काम के नहीं थे क्योंकि तय सीमा से ज्यादा गाड़ियां चुनाव प्रचार में शामिल नहीं हो सकती थीं, पोस्टर कहां लगाया जा सकता है और कहां नहीं और किसी की दीवार पर नारे लिखने से किसी उम्मीदवार को दिक्कत हो सकती है, जैसे नियमों ने चुनाव लड़ने के तरीके को निर्णायक रूप से बदल दिया। शेषन से पहले के दौर वाले चुनाव प्रचार के परंपरागत तरीकों में ऐसा लग सकता है कि काफी तड़क-भड़क होती होगी, लेकिन ये तरीके काफी हद तक सभी उम्मीदवारों की पहुंच के अंदर थे। अगर किसी उम्मीदवार को कार्यकर्ताओं का समर्थन हासिल होता था, तो उसके लिए दीवार लेखन करना, पोस्टर छापना, झंडे लगाना, बैनर टांगना, साइकिल-मोटरसाइकिल या गाड़ियों का जुलूस निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं होता था और न ही इन कामों में करोड़ों रुपए खर्च होते थे।

परंपरागत तरीके के चुनाव प्रचार में उम्मीदवार समान धरातल पर होते थे और किसी उम्मीदवार के झंडे किसी की छत पर लगे रहें या पोस्टर किसी के घर की दीवार पर चिपके रहें, ये पैसे से ज्यादा उसे हासिल समर्थन से तय होता था। इन सब तरीकों को मुश्किल बना दिए जाने के बाद पैसे के कुछ नए खेल शुरू हो गए, जिनसे चुनावी खर्च कई गुना बढ़ गया। मिसाल के तौर पर, किसी इलाके के प्रभावशाली व्यक्ति को अपने पक्ष में करने के लिए किए गए खर्च का हिसाब न देने का रास्ता अब भी खुला है। चुनाव से पहले प्रशासन के सहयोग से मतदाताओं के बीच शराब पहले भी बांटी जाती थी और अब भी बांटी जाती है। चुनाव में खुद खर्च न कर किसी समाजसेवी या स्वंयसेवी संगठन के माध्यम से किसी विरोधी उम्मीदवार के खिलाफ अभियान चलाया जा सकता है, जिसका खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होता। चुनाव पर खर्च करना नेताओं के लिए किसी निवेश की तरह है क्योंकि नेता बनना आमदनी के अनेकों नए रास्ते खोलता है। सांसदों और विधायकों के चुनाव आयोग में जमा आमदनी के हलफनामों का अध्ययन करके साबित किया जा चुका है कि जीते हुए उम्मीदवार अगले चुनाव तक काफी अमीर हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, उम्मीदवारों के हलफनामों के अध्ययन से पाया गया कि महाराष्ट्र में 2004 के विधानसभा चुनाव जीतने वाले एक औसत उम्मीदवार ने 2009 के चुनाव तक अपनी जायदाद में 3.5 करोड़ रुपए जोड़ लिए थे।

चुनाव जीतना जब इस कदर फायदे का सौदा हो तो जिताऊ पार्टियों के चुनावी टिकट पाने के लिए खर्च करने वालों की कमी कैसे हो सकती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस-बीजेपी आदि में पैसे का ये खेल अभिजात्य सफाई के साथ किया जाता है जबकि बाकी पार्टियों में उपयुक्त राजनीतिक संस्कार न होने के कारण खेल खुल जाता है। साथ ही मुख्यधारा में बीएसपी, आरजेडी, जेएमएम जैसी कुछेक पार्टियां ऐसी बच गई हैं, जिनके आर्थिक स्रोतों में कॉरपोरेट पैसे की हिस्सेदारी काफी कम है। मायावती की माला की आलोचना में मुखर तीनों राजनीतिक पार्टियों, कांग्रेस, बीजेपी और सपा के कॉरपोरेट संबंध जगजाहिर हैं। कॉरपोरेट रिश्तों को निभाने में बड़ी पार्टियां ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती हैं, इसलिए कंपनियों के रास्ते से आने वाले धन पर उनकी ही हिस्सेदारी होती है। दक्षिण भारत की राज्यस्तरीय कई पार्टियों ने भी कॉरपोरेट जगत के साथ अपने रिश्ते जोड़ लिए हैं। कॉरपोरेट संबंधों के बगैर जब कोई दल पैसे जुटाता है या पैसे जुटाने की कोशिश करता है, तो उसमें उसी तरह का भोंडापन नजर आता है, जिसके लिए बीएसपी, आरजेडी या झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां बदनाम मानी जाती हैं।

वामपंथी दलों के अपवाद को छोड़कर ढेर सारे पैसे के बगैर राजनीति में सफल होने का कोई महत्वपूर्ण मॉडल इस समय मौजूद नहीं है, इसलिए जो नेता पैसे जुटा सकता/सकती है, उसी की राजनीति चल सकती है। इस तंत्र को समझे बगैर ये अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि मायावती पैसे जुटाने पर इतना जोर क्यों देती हैं और लालू प्रसाद या शिबू सोरेन पैसे के लिए इतने बेताब क्यों नजर आते हैं। जिन दलों को कंपनियों से पैसे मिलते हैं, वो इन सब गंदे दिखने वाले कामों से परे रहकर राजनीतिक कदाचार और सदाचार की बात कर सकते हैं। राजनीति के लिए धन जुटाने के कॉरपोरेट और गैर-कॉरपोरेट दोनों ही खेल में विजेता नेता और हारने वाली जनता होती है। वैसे तुलना करके देखें तो राजनीति और कॉरपोरेट का संबंध जनता के लिए ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इसका असर नीतियों पर होता है। निजी भ्रष्टाचार की तुलना में नीतियों में भ्रष्टाचार कई गुणा ज्यादा लोगों को प्रभावित करने में सक्षम होता है।

एक सवाल ये भी है कि क्या मायावती की समर्थक जनता को इस तरह के विवाद से कोई फर्क पड़ता है? शायद नहीं। दलितों में इस समय पहचान की जिस तरह की राजनीति चल रही है, उसमें नेताओं की समृद्धि कोई शिकायती मुद्दा नहीं है। मुमकिन है कि अपने नेता को इतना समृद्ध देख कर गरीब दलित भी खुश होते हों कि उनका नेता भी कम हैसियत वाला नहीं है। दलित नेताओं के पहनावे और तामझाम पर जोर को और गांधी और अंबेडकर के पहनावे में फर्क को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दलितों को अपना नेता फकीर नहीं चाहिए क्योंकि ये तो उनके जीवन की असलियत है। वे तो इस स्थिति से उबरना चाहते हैं। खुद न भी सही तो प्रतीकों के जरिए ही वे अपना सशक्तिकरण देखते हैं और महसूस करते हैं। यहीं एक सवाल ये भी उठता है कि क्या दलित राजनीति किसी बेहतर राजनीतिक संस्कृति को सामने ला सकती है। इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान संसदीय राजनीति के दायरे में, जहां पैसे की खनक राजनीति की दिशा को निर्णायक रूप से तय करने लगी है, दलित राजनीति का कोई अलग रास्ता संभव नहीं है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में संसदीय राजनीति के दायरे से बाहर वामपंथियों के कुछ समूह अलग तरह के राजनीतिक प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें दलितों और आदिवासियों की अच्छी-खासी हिस्सेदारी है। लेकिन इनसे कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी ही नहीं, बीएसपी को भी डर लगता है। इनका दमन माओवादी बताकर किया जा रहा है। ( ये लेख संपादन के बाद जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपा है।)

6 comments:

कृष्ण मुरारी प्रसाद said...

मायावती के बारे में मेरे विचार इस पोस्ट में हैं.....
.......
मायावती की माला, अन्धों का हाथी और सुराही में कद्दू
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_19.html

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

मायावती की माला आपको इतनी बुरी क्यों लगती है ?

क्योंकि गधे के सर पर सींग अच्छे नहीं लगते !!!!!!!!!!!

अभय तिवारी said...

बिना भावुक हुए आप ने बेहतरीन विश्लेषण किया है.. भ्रष्टाचार हो मगर भोंडा न हो.. और गाँधी की फ़कीरी वाली बातें विशेष तौर पर एक दम निशाने पर हैं।

राजीव रंजन श्रीवास्‍तव said...

मुझे सोनिया गांधी, लालकृष्‍ण आडवाणी और दूसरे सभी की मालाएं बुरी लगती हैं जी। मैं मालाओं को जाति के चश्‍मे से नहीं देखता।

Nanak said...

ये मायावती की माला नहीं उन लोगों के दिलों पर लोटने वाले सांप हैं जिन्हें दलितों को फटेहाल और अपने से नीचा देखने की आदत है। आदत बदलिए, ज़माना बदल गया है।

प्रदीप said...

aapko achhi q lagti hai........?

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