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Saturday, April 25, 2009

गर पैसा सचमुच भगवान बन जाए!

दिवाकर मोहनी


(उम्र के आठवें दशक में भी दिवाकर मोहनी इतने सक्रिय हैं कि युवा शरमा जाएँ। नागपुर से प्रकाशित सम्मानित पत्रिका 'सुधारक' के सम्पादक मोहनी जनपक्षधरता एवं प्रामाणिकता के साथ ही मार्क्सवाद से अपनी असहमतियों के लिए भी जाने जाते हैं। हालांकि समतावादी मूल्यों में अपनी दृढ़ आस्था का उद्घोष करने में वह कभी पीछे नही रहे। बहरहाल, उनका यह लेख मासिक पत्रिका 'कम्यूनिज्म' के ताजा अंक से लिया गया है।)

हम अक्सर सुनते आए हैं, 'पैसा भगवान् है।' हालांकि भगवान् दीखता नही और कभी किसी काम से हमें रोकने या हमसे कोई काम करवाने सामने भी नही आता। जैसा कि वैज्ञानिक सोच बताती है और बहुत सारे लोग इस तथ्य को जानते, स्वीकारते और कहते भी हैं कि ईश्वर या भगवान् कुछ नही होता। वह सिर्फ़ कुछ लोगों की कल्पना है। अगर किसी दिन दुनिया के सारे आस्तिक मान लें कि ईश्वर नही है तो उस दिन क्या होगा?

कुछ नही होगा, सिवाय इसके कि मंदिरों में घंटियाँ नही बजेंगी, मस्जिदों से अजान सुनाई नही देगी और गिरजाघरों में मोमबत्तियां नही जलेंगी। सूरज उस दिन भी पूरब में ही उगेगा और शाम को वह डूब भी जायेगा पश्चिम में। क्योंकि ईश्वर तो आता नही कभी कुछ करने। सब कुछ करते तो इंसान और अन्य जीव जंतु ही हैं। सिर्फ़ श्रेय सारा भगवान् को देने की हमने आदत बना ली है।


अब इसी कल्पना को पैसे पर लागू करें। यानी एक दिन पैसा सचमुच ईश्वर बन जाए और परिदृश्य से गायब हो जाए तो? उस दिन क्या होगा? हम घर से अनाज खरीदने निकलें, दूकान पहुँचने पर पता चले पैसे की जरूरत ही नही, अनाज यूँ ही मिल रहा है बिना पैसो के। हम क्या करेंगे?

हमें जरूरत १० किलो चावल की है तो क्या हम ५० किलो चावल खरीद लेंगे? वैसे खरीदना कैसा, जब पैसों का लेंन - देन ही न हो? तो क्या हम १० किलो के बदले ५० किलो चावल घर ले आयेंगे? जरूर ले आना चाहेंगे अगर हमें यह बताया गया हो कि सिर्फ़ आज भर या या दो दिन या एक हफ्ते के लिए ही बिन पैसों के चावल मिल रहा है। अगर हमें यह अच्छी तरह पता हो कि नयी व्यवस्था हमेश के लिए है और जिसे जब जी चाहे जितना भी चावल ले जा सकता है बिना पैसा दिए तो हम उतना ही चावल लायेंगे, जितना हमारे घर में खप जायेगा।

ज्यादा लाकर हम करेंगे क्या? किसी को बेच तो सकते नही। और कोई मुफ्त में भी हमसे लेकर क्यो हमारा एहसानमंद होना चाहेगा? वह सीधे स्टोर से ही लेगा।

दूकानदार की अपनी ज़रूरतें हैं। वह स्कूल जायेगा अपने बच्चे के दाखिले के लिए। पता चला किसी तरह का फॉर्म नही, कोई अड्मिशन फी नही। कोई डोनेशन नही। बस नाम-पता लिखवाइए और बच्चे को स्कूल भेजना शुरू कर दीजिये।


स्कूल टीचर को भी तो पैसों की जरूरत पड़ती है। पता चला उसकी माँ बीमार है। शिक्षक महोदय अस्पताल पहुंचे तो मालूम पड़ा माँ की किडनी में पत्थर है। लेकिन चिंता की कोई बात नही। अस्पताल में कमरा नंबर बिस्तर नंबर निर्धारित कर माँ को भर्ती कर लिया जाता है। न भर्ती का पैसा, न डोक्टर की फीस, न दवाओं की कीमत।


अब तक मैं और आप कल्पना के घोडे पर सवार थे। लेकिन कहीं कोई अड़चन नही आयी। काम तो हम सब ही करते हैं एक दूसरे का, सिर्फ़ भरोसा एक दूसरे पर न करके कागज़ के टुकड़े पर करते हैं।

मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ की यह निरी कल्पना नही है। पैसा रहित व्यवस्था आज भी शुरू हो सकती है, इसी क्षण हो सकती है।

आज जो चावल - दाल की दुकाने हैं वे एक झटके में वितरण केन्द्र बन जायेंगी, जो पढाई की दुकाने हैं यानी स्कूल - कॉलेज, वे सचमुच के विद्या केन्द्र बन जायेंगे और जो लोगों की ज़िन्दगी का सौदा करने वाली दुकाने यानि अस्पताल हैं, स्वास्थ्य केन्द्र बन जायेंगे।

इस कल्पना को अमल में लाने के लिए सरकार को सिर्फ़ एक निर्णायक कदम उठाना होगा। उसे देश के १०० करोड़ लोगो (यानी समूची आबादी) के नाम एक-एक क्रेडिट कार्ड जारी करना होगा। वह कार्ड इस बात की गारंटी होगा की हर व्यक्ति की छः प्राथमिक जरूरतें (भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थय और यातायात) बिना शर्त पूरी होंगी।


यकीन मानिए इससे सरकार पर कोई अतिरिक्त बोझ नही पड़ेगा। ये सारी जरूरतें हम आज भी पूरी करते ही हैं चाहे पैसों के बदले ही सही। उस समय भी हम सब मिल कर एक दूसरे की ये प्राथमिक जरूरतें पूरी e कर लिया करेंगे । फर्क सिर्फ़ यह होगा की उस समय सबकी जरूरतें पूरी होने की गारंटी भी रहा करेगी।

और सोचिये कैसी-कैसी भीषण बीमारियां मानव समाज को छोड़ कर चली जायेंगी। जातिवादी भेदभाव तत्काल ख़त्म हो जायेंगे क्योंकि एक पक्ष की अन्यायपूर्ण बातें सहन करते रहने की कोई मजबूरी दूसरे पक्ष की नही रह जायेगी। युवाओं के सामने रोजी - रोटी जुटाने की कोई समस्या नही रह जायेगी। वे अपनी योग्यता और रूचि के मुताबिक कोई भी काम चुनने को स्वतंत्र रहेंगे। काम तो रहेगा, लेकिन नौकरी नही रह जायेगी।

सबसे बड़ा सवाल इस स्थिति के मद्देनज़र यह उठाया जाता है की ऐसी काल्पनिक स्थिति अगर वास्तव में उत्पन्न हुयी तो लोग काम करना ही छोड़ देंगे। अगर 'अनुपस्थिति' दर्ज होने और वेतन कटने का डर न हो
तो लोग समय से दफ्तर पहुंचेंगे ही क्यों? फ़िर अगर सबको क्रेडिट कार्ड मिल ही जाएगा तो उन्हें दफ्तर में काम करने की जरूरत ही क्या रह जायेगी? और अगर जरूरत न रही तो वे दस फीसदी काम भी वरिष्ठों पर एहसान के ही रूप में करेंगे। ऐसे में दफ्तरों में anushaasan कैसे रह पायेगा?
जवाब देने से पहले यह साफ़ करना बेहतर रहेगा की ये सवाल मौजूदा व्यवस्था द्वारा निर्मित मानसिकता से उपजे हैं। नयी व्यवस्था नयी मानसिकता को भी जन्म देगी और उस मानसिकता में न ऐसे सवालों की गुंजाइश रहेगी न उनका जवाब देने की मजबूरी। मगर, वह नयी मानसिकता जब बनेगी तब बनेगी। आज तो अज की ही मानसिकता है। इसीलिये आज हमें इन सवालों के जवाब देने ही होंगे।
आज की मानसिकता हमें बताती है की मनुष्य या तो लालच से निर्देशित होता है या फ़िर डर से। मौजूदा व्यवस्था के पास यही दो डंडे हैं जिनसे पूरे मानव समाज को हांका जा रहा है। आप ज्यादा और अच्छा काम करेंगे तो वेतन वृद्धि, प्रमोशन, ऐशो - अच्छा काम नही किया तो ट्रान्सफर, डिमोशन, बर्खास्तगी आदि। बस लालच और डर। मगर इस मानसिकता से निकल कर देखें तो लालच और डर में मनुष्य का सर्वोत्तम निकालने की क्षमता नही है। मनुष्य से उसका सर्वोत्तम निकालने की ताकत है प्रेरणा में। सच है की सरकार का क्रेडिट कार्ड मिल जाने के बाद व्यक्ति मजबूरीवश काम नही करेगा। तब वह अपनी प्रेरणा से अपने मन के अनुरूप काम करेगा।
आज एक कवि ह्रदय व्यक्ति हो सकता है पुलिस कांस्टेबल के रूप में ड्यूटी बजाने को मजबूर हो। इसी प्रकार एक संगीतकार बतौर क्लर्क अकाउन्ट्स के काम में सर खपाने को मजबूर हो सकता है।
मगर तब एक कवि अपना पूरा समय बेहतरीन कविता लिखने में दे सकेगा। एक संगीतकार बिना किसी डर, असुरक्षा और परेशानी के सर्वोत्कृष्ट धुनें तैयार करने में लग सकेगा। जज, डॉक्टर और मजदूर सबको एक जैसा ही क्रेडिट कार्ड मिलेगा। इसलिए लोग 'ज्यादा पैसा' के लोभ में पेशा नही चुनेंगे। जिसकी जैसी रूचि और क्षमता होगी वैसा ही कम वे अपने लिए चुनेंगे।
केन्द्र सरकार को चाहिए की वह हर भारतीय के नाम एक क्रेडिट कार्ड अविलम्ब जारी करे। यह कार्ड इस बात की गारंटी हो की sambaddh व्यक्ति की सभी प्राथमिक जरूरतें सहजता से पूरी होंगी। कार्ड में इस बात का उल्लेख उसी प्रकार हो सकता है जैसे रुपये में होता है, यानी 'मैं धारक को भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वस्थ्य और यातायात संबन्धी उसकी सभी आवश्यकताएं निःशुल्क और बिना किसी शर्त पूरी करने का वचन देता हूँ।'
ऐसा क्रेडिट कार्ड जारी किया जाए और तत्काल जारी किया जाए। यह प्रस्ताव मैं पूरी गंभीरता से समाज के सामने रखता हूँ और चाहता हूँ की समाज इसे एक मांग के रूप में सरकार के सामने रखे। इस मांग को जितना अधिक समर्थन मिलेगा सरकार के लिए इसे गंभीरता से लेने की जरूरत भी उतनी ही तेजी से स्पष्ट होगी।

3 comments:

Hari Joshi said...

शब्‍दों की बेहतरीन जुगलबंदी के साथ खूबसूरत ख्‍वाब है।

सचिन said...

बिना नारेबाजी, लफ्फाजी और दार्शनिक प्रसंगों के गैरबराबरी मिटाने वाली शोषणा रहित व्यवस्था का कच्चा ड्राफ्ट. इसे पूरी गंभीरता से लिखा जाना चाहिए. आखिर जीने का हक बिना पैसे के होना चाहिए

आनंद said...

बहुत अच्‍छी सोच है, परंतु एक हिचक है। खाली प्रेरणा के भरोसे कैसे काम हो सकता है? मैं कल्‍पना ही नहीं कर पा रहा हूँ। कहीं कोई जवाबदेही तो होनी चाहिए। अब इस व्‍यवस्‍था को जब तक आजमाकर नहीं देखा जाता, यह मानना बड़ा मुश्किल है कि यह व्‍यावहारिक भी हो सकती है। आखिर बिना डर और लालच के कोई कैसे काम कर सकता है?

- आनंद

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