(दोस्तो, डा कुमार विनोद की ग़ज़लें आप इस ब्लाग पर पहले भी पढ़ चुके हैं. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय मे बतौर असोसिएट प्रोफ़ेसर छात्रो को गणित की गुत्थियाँ सुलझाना सिखाते हुए विनोद जी कविता के लिए भी समय निकालते रहे. उनका ग़ज़ल संग्रह 'बेरंग हैं सब तितलियाँ' हाल ही आधार प्रकाशन से छप कर आया है. पेश है उसी संग्रह की चुनिंदा ग़ज़लें)
1
बर्फ हो जाना किसी तपते हुए एहसास का
क्या करूँ मै खुद से ही उठते हुए विश्वास का
आँधियों से लड़ कर गिरते पेड़ को मेरा सलाम
मै कहाँ कायल हुआ हूँ सर झुकाती घास का
घर मेरे अक्सर लगा रहता है चिड़ियों का हुजूम
है मेरा उनसे कोई रिश्ता बहुत ही पास का
नाउमीदी है बड़ी शातिर कि आ ही जाएगी
एक हम रोशन किए बैठे हैं दीपक आस का
देख कर ये आसमाँ को भी बड़ी हैरत हुई
पढ़ कहाँ पाया समंदर जर्द चेहरा प्यास का
2
उनकी फ़ितरत मे शरारत है ज़रा - सी
दोस्ती मे भी अदावत है ज़रा - सी
कल इसी के दम पे बदलेगी हुकूमत
आप कहते हैं - बग़ावत है ज़रा - सी
सब कहें कायर मुझे तो क्या ग़लत है
बच रही मुझमे शराफ़त है ज़रा - सी
यूँ तो कोई ऐब राजा मे नही है
खून मे शामिल सियासत है ज़रा - सी
ज़ुल्म की आँखों मे आँखें डालना भी
कौन कहता है इबादत है ज़रा - सी
3
है हवा खामोश इसका ये मगर मतलब नही
आँधियों ने डर के मारे सी लिए हैं लब, नही
सबकी हां मे हां मिला, गर्दन झुकाकर बैठ जा
करके कोशिश देखना, आसान ये करतब नही
रात के हाथो उजाले आज फिर बेचे गये
है अजूबा इसमे क्या, ऐसा हुआ है कब नही
जब कभी दैरोहरम मे चल पड़े बादेसबा
सबको देती ताज़गी है, पूछ्ती मज़हब नही
दिल मे था जो कह दिया, जो कह दिया सो कर दिया
साफ़गोई से इतर आता हमे कुछ ढब नही
4
दोस्तो, पत्थर यहाँ भगवान है
यांत्रिकता शहर की पहचान है
खून से लथपथ हर इक मंज़र यहाँ
और मस्जिद मे खुदा हैरान है
सत्य का पथ है यही तो दोस्तो
घुप अंधेरा, दूर तक सुनसान है
मुस्कुराने से नही फुर्सत इसे
है अभी बच्चा, ज़रा नादान है
और कितनी दूर तक पीछा करें
ख्वाहिशों की क्या कोई पहचान है?
(डा. कुमार विनोद से 09416137196 पर संपर्क किया जा सकता है)
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Wednesday, January 27, 2010
Tuesday, January 12, 2010
सबसे खतरनाक है कामयाब लोगों का अलगाववाद
दिलीप मंडल
कामयाब लोगों के इस अलगाववाद से देश को कौन बचाएगा?
Monday, January 11, 2010
फिर पूछें कि कौन दुश्मन है ..
शेष नारायण सिंह
अपनी स्थापना के समय से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी कई स्तर पर महसूस की जाती रही है. पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से जानते रहे हैं कि 1947 के पहले के भारत में रहने वाले मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बना कर पाकिस्तान की स्थापना की गयी थी. आखिर तक, मुहम्मद अली जिन्ना ने यह नहीं बताया था कि पाकिस्तान की सीमा कहाँ होगी. क्योंकि अगर वे सच्चाई बता देते तो अवध और पंजाब के ज़मींदार मुसलमान अपनी खेती बारी छोड़ने को तैयार न होते और पाकिस्तान की अवधारणा ही खटाई में पड़ जाती. लेकिन पाकिस्तान बन गया है और वह आज एक सच्चाई है ..एक सच्चाई यह भी है कि दोनों देशों के बीच कई स्तर पर नफरत और दुश्मनी का भाव है सभ्य समाज में लगभग सभी मानते हैं कि यह दुश्मनी ख़त्म की जानी चाहिए.
भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की एक नयी पहल की गयी है. भारत और पाकिस्तान के कुछ अखबारों की कोशिश है कि दोनों देशों की जनता पहल करे और दोस्ती की जो लहर चले, वह दोनों मुल्कों के सरकारी तौर पर जिंदा रखे जा रहे दुश्मनी के भूत को भागने के लिए मजबूर कर दे. कोशिश यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बनायी गयी सरहद की दीवाल इतनी नीची कर दी जाए कि कोई भी मासूम बच्चा उसे पार कर ले. दर असल पाकिस्तान का बनना ही एक ऐसी राजनीतिक चाल थी जिसने आम आदमी को हक्का-बक्का छोड़ दिया था. इसके पहले कि उस वक़्त के भारत की जनता यह तय कर पाती कि उसके साथ क्या हुआ है, अंग्रेजों की शातिराना राजनीति और भारत के नेताओं की अदूरदर्शिता का नतीजा था कि अंग्रेजों की पसंद के हिसाब से मुल्क बँट गया.
बँटवारे के इतिहास और भूगोल पर चर्चा बार बार हो चुकी है . चर्चा करने से एक दूसरे के खिलाफ तल्खी बढ़ती है. इस लेख का उद्देश्य पहले से मौजूद तल्खी को और बढ़ाना नहीं है. हाँ यह याद करना ज़रूरी है कि पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति चाहे जो हो, 1947 के बाद सरहद के इस पार बहुत सारे घरों के आँगन में पाकिस्तान बन गया है और वह अभी तक तकलीफ देता है ..राजनीतिक नेताओं की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हुए बँटवारे ने अवाम को बहुत तकलीफ पंहुचायी है. दुनिया मानती है कि 1947 में भारत का विभाजन एक गलत फैसला था . बाद में तो बँटवारे क एसबसे बड़े मसीहा, मुहम्मद अली जिन्ना भी मानने लगे थे..विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने लिखा है कि अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें. बहरहाल पछताने से इतिहास के फैसले नहीं बदलते ..
बँटवारे के बाद ,पंजाब की तो आबादी का ही बँटवारा हो गया था. सरहद के दोनों तरफ के लोग रो पीट कर एक दूसरे के हिस्से में आये मुल्क में रिफ्यूजी बन कर आज 60 साल से रह रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बहुत सारे जिलों से लोग कराची गए थे इस लालच में कि पाकिस्तान में मुसलमानों को अच्छी नौकरी मिलेगी.यहाँ उनका भरा पूरा परिवार था लेकिन वहां से कभी लौट नहीं पाए . उनके लोगों ने वर्षों के इंतज़ार के बाद अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया और वह तकलीफ अब तक है..आज भी जब कोई बेटी, जो पाकिस्तान में बसे अपने परिवार के लोगों में ब्याह दी गयी है , जब भारत आती है तो उसकी माँ उसके घर आने की खुशी का इस डर के मारे नहीं इज़हार कर पाती कि बच्ची एक दिन चली जायेगी. और वह बीमार हो जाती है . उसी बीमार माँ की बात वास्तव में असली बात है . नेताओं को शौक़ है तो वे भारत और पाकिस्तान बनाए रखें, राज करें ,सार्वजनिक संपत्ति की लूट करें, जो चाहे करें लेकिन दोनों ही मुल्कों के आम आदमी को आपस में मिलने जुलने की आज़ादी तो दें. अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान और हिन्दुतान सरहद पर तो होगा , संयुक्त राष्ट्र में होगा, कामनवेल्थ में होगा लेकिन हमारे मुल्क के बहुत सारे आंगनों में जो पाकिस्तान बन गया है , वह ध्वस्त हो जाएगा.फिर कोई माँ इसलिए नहीं बीमार होगी कि उसकी पाकिस्तान में ब्याही बेटी वापस चली जायेगी . वह माँ जब चाहेगी ,अपनी बेटी से मिल सकेगी. इसलिए दोनों देशों के बड़े अखबारों की और से शुरू किया गया यह अभियान निश्चित रूप से स्वागत योग्य है ..
अखबारों की तरफ से जो अभियान शुरू किया गया है उसमें दोनों देशों की सरकारों और नेताओं को बाईपास करके लोगों के बीच संवाद शुरू करने के लिए सकारात्मक पहल की घोषणा भी की गयी है .. दोनों देशों के बीच अविश्वास और नफरत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी आपसी बात चीत के रास्ते शुरू करने का आवाहन किया गया है .कोशिश यह है कि विवादों को सुलझाने की नेताओं की कोशिश की परवाह किये बिना,दोस्ती और संवाद की बात चल निकले. आखिर सब कुछ तो एक जैसा है दोनों देशों के बीच में . संगीत, रीति रिवाज़, बोली , भाषा सब कुछ साझा है . हमारे बुज़ुर्ग तक साझी हैं., ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती , हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बुल्ले शाह , बाबा फरीद,गुरु नानक, कबीर सब साझी हैं. हमारे आस्था के केंद्र अजमेर में भी हैं और पाक पाटन में भी. .हमने आज़ादी की लड़ाई एक साथ लड़ी है. हमारा संगीत वही है . हमारे महान शायर वही हैं . हमारे ग़ालिब और मीर वही हैं और हमारे इकबाल वही हैं .. किशोर कुमार , लता मंगेश्कार, मुहम्मद रफ़ी ,गुलाम अली,आबिदा परवीन और मेहंदी हसन दोनों ही देशों के अवाम के बीच एक ही तरह के जज्बे पैदा करते है . तो फिर हम लड़ते क्यों हैं? जवाब साफ़ है . हम नहीं लड़ते. हमारे नेता लड़ते हैं .क्योंकि उनके अस्तित्व के लिए वह ज़रूरी है .... ज़रुरत इस बात की है कि सरकारों और नेताओं की परवाह न करके दोनों देशों के लोग एक दूसरे से बात चीत करें. दोनों ही देशों के अखबारों ने इस दिशा में पहला क़दम उठा दिया है ..
भारत के बहुत सारे शहरों में 16 से 24 जनवरी के बीच संगीत के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं जिनमें भारत और पाकिस्तान के नामी संगीतकार हिस्सा लेंगें ..कैलाश खेर, राहत फ़तेह अली खां , शुभा मुद्गल ,आबिदा परवीन,गुलाम अली, हरिहरन आदि संगीतकार इस पहल की पहली कड़ी हैं .. और कोशिश करेंगें कि हमारे दोनों मुल्कों में रहने वाले इंसान एक दूसरे के खिलाफ नहीं बल्कि एक साथ खड़े हों . इस कोशिश की सफलता की कामना की जानी चाहिए.. ...
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)
अपनी स्थापना के समय से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तल्खी कई स्तर पर महसूस की जाती रही है. पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से जानते रहे हैं कि 1947 के पहले के भारत में रहने वाले मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बना कर पाकिस्तान की स्थापना की गयी थी. आखिर तक, मुहम्मद अली जिन्ना ने यह नहीं बताया था कि पाकिस्तान की सीमा कहाँ होगी. क्योंकि अगर वे सच्चाई बता देते तो अवध और पंजाब के ज़मींदार मुसलमान अपनी खेती बारी छोड़ने को तैयार न होते और पाकिस्तान की अवधारणा ही खटाई में पड़ जाती. लेकिन पाकिस्तान बन गया है और वह आज एक सच्चाई है ..एक सच्चाई यह भी है कि दोनों देशों के बीच कई स्तर पर नफरत और दुश्मनी का भाव है सभ्य समाज में लगभग सभी मानते हैं कि यह दुश्मनी ख़त्म की जानी चाहिए.
भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की एक नयी पहल की गयी है. भारत और पाकिस्तान के कुछ अखबारों की कोशिश है कि दोनों देशों की जनता पहल करे और दोस्ती की जो लहर चले, वह दोनों मुल्कों के सरकारी तौर पर जिंदा रखे जा रहे दुश्मनी के भूत को भागने के लिए मजबूर कर दे. कोशिश यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बनायी गयी सरहद की दीवाल इतनी नीची कर दी जाए कि कोई भी मासूम बच्चा उसे पार कर ले. दर असल पाकिस्तान का बनना ही एक ऐसी राजनीतिक चाल थी जिसने आम आदमी को हक्का-बक्का छोड़ दिया था. इसके पहले कि उस वक़्त के भारत की जनता यह तय कर पाती कि उसके साथ क्या हुआ है, अंग्रेजों की शातिराना राजनीति और भारत के नेताओं की अदूरदर्शिता का नतीजा था कि अंग्रेजों की पसंद के हिसाब से मुल्क बँट गया.
बँटवारे के इतिहास और भूगोल पर चर्चा बार बार हो चुकी है . चर्चा करने से एक दूसरे के खिलाफ तल्खी बढ़ती है. इस लेख का उद्देश्य पहले से मौजूद तल्खी को और बढ़ाना नहीं है. हाँ यह याद करना ज़रूरी है कि पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति चाहे जो हो, 1947 के बाद सरहद के इस पार बहुत सारे घरों के आँगन में पाकिस्तान बन गया है और वह अभी तक तकलीफ देता है ..राजनीतिक नेताओं की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए हुए बँटवारे ने अवाम को बहुत तकलीफ पंहुचायी है. दुनिया मानती है कि 1947 में भारत का विभाजन एक गलत फैसला था . बाद में तो बँटवारे क एसबसे बड़े मसीहा, मुहम्मद अली जिन्ना भी मानने लगे थे..विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने लिखा है कि अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें. बहरहाल पछताने से इतिहास के फैसले नहीं बदलते ..
बँटवारे के बाद ,पंजाब की तो आबादी का ही बँटवारा हो गया था. सरहद के दोनों तरफ के लोग रो पीट कर एक दूसरे के हिस्से में आये मुल्क में रिफ्यूजी बन कर आज 60 साल से रह रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बहुत सारे जिलों से लोग कराची गए थे इस लालच में कि पाकिस्तान में मुसलमानों को अच्छी नौकरी मिलेगी.यहाँ उनका भरा पूरा परिवार था लेकिन वहां से कभी लौट नहीं पाए . उनके लोगों ने वर्षों के इंतज़ार के बाद अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया और वह तकलीफ अब तक है..आज भी जब कोई बेटी, जो पाकिस्तान में बसे अपने परिवार के लोगों में ब्याह दी गयी है , जब भारत आती है तो उसकी माँ उसके घर आने की खुशी का इस डर के मारे नहीं इज़हार कर पाती कि बच्ची एक दिन चली जायेगी. और वह बीमार हो जाती है . उसी बीमार माँ की बात वास्तव में असली बात है . नेताओं को शौक़ है तो वे भारत और पाकिस्तान बनाए रखें, राज करें ,सार्वजनिक संपत्ति की लूट करें, जो चाहे करें लेकिन दोनों ही मुल्कों के आम आदमी को आपस में मिलने जुलने की आज़ादी तो दें. अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान और हिन्दुतान सरहद पर तो होगा , संयुक्त राष्ट्र में होगा, कामनवेल्थ में होगा लेकिन हमारे मुल्क के बहुत सारे आंगनों में जो पाकिस्तान बन गया है , वह ध्वस्त हो जाएगा.फिर कोई माँ इसलिए नहीं बीमार होगी कि उसकी पाकिस्तान में ब्याही बेटी वापस चली जायेगी . वह माँ जब चाहेगी ,अपनी बेटी से मिल सकेगी. इसलिए दोनों देशों के बड़े अखबारों की और से शुरू किया गया यह अभियान निश्चित रूप से स्वागत योग्य है ..
अखबारों की तरफ से जो अभियान शुरू किया गया है उसमें दोनों देशों की सरकारों और नेताओं को बाईपास करके लोगों के बीच संवाद शुरू करने के लिए सकारात्मक पहल की घोषणा भी की गयी है .. दोनों देशों के बीच अविश्वास और नफरत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी आपसी बात चीत के रास्ते शुरू करने का आवाहन किया गया है .कोशिश यह है कि विवादों को सुलझाने की नेताओं की कोशिश की परवाह किये बिना,दोस्ती और संवाद की बात चल निकले. आखिर सब कुछ तो एक जैसा है दोनों देशों के बीच में . संगीत, रीति रिवाज़, बोली , भाषा सब कुछ साझा है . हमारे बुज़ुर्ग तक साझी हैं., ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती , हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, बुल्ले शाह , बाबा फरीद,गुरु नानक, कबीर सब साझी हैं. हमारे आस्था के केंद्र अजमेर में भी हैं और पाक पाटन में भी. .हमने आज़ादी की लड़ाई एक साथ लड़ी है. हमारा संगीत वही है . हमारे महान शायर वही हैं . हमारे ग़ालिब और मीर वही हैं और हमारे इकबाल वही हैं .. किशोर कुमार , लता मंगेश्कार, मुहम्मद रफ़ी ,गुलाम अली,आबिदा परवीन और मेहंदी हसन दोनों ही देशों के अवाम के बीच एक ही तरह के जज्बे पैदा करते है . तो फिर हम लड़ते क्यों हैं? जवाब साफ़ है . हम नहीं लड़ते. हमारे नेता लड़ते हैं .क्योंकि उनके अस्तित्व के लिए वह ज़रूरी है .... ज़रुरत इस बात की है कि सरकारों और नेताओं की परवाह न करके दोनों देशों के लोग एक दूसरे से बात चीत करें. दोनों ही देशों के अखबारों ने इस दिशा में पहला क़दम उठा दिया है ..
भारत के बहुत सारे शहरों में 16 से 24 जनवरी के बीच संगीत के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं जिनमें भारत और पाकिस्तान के नामी संगीतकार हिस्सा लेंगें ..कैलाश खेर, राहत फ़तेह अली खां , शुभा मुद्गल ,आबिदा परवीन,गुलाम अली, हरिहरन आदि संगीतकार इस पहल की पहली कड़ी हैं .. और कोशिश करेंगें कि हमारे दोनों मुल्कों में रहने वाले इंसान एक दूसरे के खिलाफ नहीं बल्कि एक साथ खड़े हों . इस कोशिश की सफलता की कामना की जानी चाहिए.. ...
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)
Friday, January 8, 2010
लड़ाकू विमान में प्रेजिडेंट की उड़ान का मतलब
आज, 8 जनवरी 2010 के नवभारत टाइम्स में संपादकीय पृष्ठ पर भी मेरा यह लेख पढ़ा जा सकता है। ऑनलाइन एडीशन का लिंक है-
लड़ाकू विमान में प्रेजिडेंट की उड़ान का मतलब- अनुराधा
अपने सिर को हमेशा साड़ी के पल्लू से ढक कर रखने वाली 74 वर्षीया राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने पिछले दिनों पूरे कॉम्बैट सूट में सुखोई फाइटर जेट में उड़ान भरी। इसके महीना भर बाद ही वे भारत के इकलौते विमानवाहक पोत आईएनएस विराट पर भी सवार हुईं। हमारी राष्ट्रपति की ये पहलकदमियां स्त्री शक्ति में बढ़ोतरी और उसमें देश के भरोसे की प्रतीक हैं।
राष्ट्रपति ने अपने इन कामों से इस भरोसे को और मजबूत किया है कि महिलाएं न सिर्फ फाइटर प्लेन उड़ा सकती हैं, बल्कि इस तरह के जटिल से जटिल मोर्चे पर सफलतापूर्वक काम कर सकती हैं। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान ने अपनी वायु सेना में महिला लड़ाकू विमानचालकों की भर्ती की इजाजत दी हुई है, पर भारत में इस पर रोक है। हमारे यहां ऐसा क्यों है?
पिछले साल 13 दिसंबर को केंद्र सरकार ने एक मामले में दिल्ली हाई कोर्ट से कहा कि भारतीय थलसेना और वायुसेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन देने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि उनकी भर्ती के लिए जगह खाली नहीं है। उसके मुताबिक सेना में पहले से ही जरूरत से ज्यादा अधिकारी भर्ती हैं। ऐसे में अगर शॉर्ट सर्विस कमिशन (एसएससी) की महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन दिया जाएगा, तो उन्हें कहां काम दिया जाएगा?
हमारे देश में महिला सेना अधिकारियों को स्थायी कमिशन का विकल्प नहीं दिया जाता। एसएससी के जरिए भर्ती के बाद ज्यादा से ज्यादा 14 साल की नौकरी के बाद उन्हें सेना छोड़नी पड़ती है और फिर उन्हें कोई सिविल नौकरी ढूंढनी होती है, क्योंकि पुरुष अधिकारियों की तरह उन्हें सेवानिवृत्ति पर पेंशन वगैरह की सुविधाएं देने का भी कोई प्रावधान भारतीय सेना में नहीं है।
थल और वायुसेना की 20 महिला अधिकारियों ने यह मामला कोर्ट में दायर किया है कि उन्हें पुरुषों की तरह ही स्थायी कमिशन क्यों नहीं दिया जाता, जबकि वे भी पुरुषों की ही तरह हर परीक्षा और ट्रेनिंग से गुजरती हैं। इसके जवाब में सेना ने ए. वी. सिंह समिति की रिपोर्ट के हवाले से दलील दी कि फिलहाल युवा अधिकारियों की ग्राउंड ड्यूटी के लिए ज्यादा जरूरत है इसलिए महिलाओं को सेना में नहीं लिया जा सकता। सेना की ओर से कुछ दूसरे तर्क भी पेश किए गए, जैसे महिला अधिकारी हमेशा अपनी पसंद की पोस्टिंग चाहती हैं, जबकि पुरुष उतना हो-हल्ला नहीं करते। यह भी कहा गया कि अगर महिलाओं को सीमा पर तैनाती किया जाएगा, तो वहां उनके लिए ज्यादा खतरे हो सकते हैं। हालांकि डिविजन बेंच ने इन सभी तर्कों को नकारते हुए कहा कि कोई राय भावनाओं के आधार पर नहीं बनाई जाए। साथ ही सवाल किया कि क्या यह जरूरी है कि महिला अधिकारियों को फॉरवर्ड इलाकों में ही भेजा जाए। कई दूसरी ऐसी महत्वपूर्ण जगहें हैं जहां महिलाओं की तैनाती में कोई समस्या नहीं है।
महिलाओं की सेना में भर्ती के मसले पर वायुसेना के एयर मार्शल पी. के. बारबोरा ने भी हाल में एक टिप्पणी करके सनसनी फैला दी। उनके मत में महिलाओं को फाइटर पायलट बनाना आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है। फाइटर पायलट की ट्रेनिंग पर बहुत खर्च आता है। भर्ती के कुछ साल बाद शादी करके वे मां बनना चाहें तो इससे वे कम से कम 10 महीने के लिए काम से दूर हो जाती हैं। इस कारण उन पर हुए खर्च के मुकाबले उनकी सेवाओं का पूरा फायदा नहीं लिया जा पाता है। सिर्फ दिखावे के लिए उनकी भर्ती नहीं की जानी चाहिए।
भारतीय सेना में महिलाओं की भूमिका लंबे समय तक डॉक्टर और नर्स तक ही सीमित रही है। 1992 में एविएशन, लॉजिस्टिक्स, कानून, इंजीनियरिंग, एग्जेक्यूटिव जैसे काडर में रेग्युलर अधिकारियों के तौर पर भर्ती के दरवाजे उनके लिए खुले। इन पदों के विज्ञापनों के जवाब में रिक्तियों से कई गुना ज्यादा अर्जियां पहुंचीं। जोश से भरपूर महिलाओं ने रोजगार के इस नए मोर्चे पर कामयाबी के झंडे गाड़े और कई शारीरिक गतिविधियों में पुरुषों से आगे रहीं। उनमें नेतृत्व के गुण थे और सहकर्मियों और अपने अधीनस्थ सैनिकों के साथ उनका व्यवहार सकारात्मक पाया गया।
झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, रजिया सुल्तान, बेगम हजरत महल, जीनत महल, रानी चेन्नम्मा जैसे अनगिनत नाम हैं जो युद्धों में दुश्मनों के दांत खट्टे करने में इंच भर भी पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। सुभाष चंद्र बोस की सेना में भी महिला ब्रिगेड ने कठिन जिम्मेदारियों को बखूबी पूरा किया था। विश्वयुद्ध रहे हों या हाल के इराक, अफगानिस्तान, फॉकलैंड युद्ध, मित्र देशों की जमीनी और हवाई सेनाओं की लड़ाकू टुकड़ियों में महिलाएं बहुतायत में रही हैं। हिटलर की बदनाम एसएस सेना ने महिला दुश्मनों के साथ जरा भी ढील नहीं बरती और उन्होंने भी पुरुषों के बराबर ही मार खाई।
महिलाएं मानसिक काम ज्यादा स्थिरचित्त होकर कर पाती हैं, इसलिए आज के तकनीक प्रधान युद्ध में उनकी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है। फिर भी हमारे देश की सीमाओं की दुर्गम स्थितियों के मुताबिक सख्त शारीरिक तैयारी की जरूरत को हल्के में नहीं लिया जा सकता। महिला सैनिकों को भर्ती के समय और बाद में एक कैडेट के तौर पर पुरुषों के समान ही शारीरिक और मानसिक क्षमता से जुड़ी कठिन ट्रेनिंग और परीक्षाओं से होकर गुजरना पड़ता है। नौकरी के दौरान भी ऐसे अभ्यास लगातार चलते रहते हैं। ऐसे में वे युद्धक जिम्मेदारियों के लिए पुरुषों के मुकाबले मिसफिट कैसे मानी जा सकती हैं?
मेजर जनरल मृणाल सुमन( सेवानिवृत्त) ने अपने एक पर्चे में साफ किया है कि दरअसल ज्यादा बड़ी समस्या पुरुषों की तरफ से इस माहौल के लिए आनाकानी है। शारीरिक दमखम वाले किसी काम में एक महिला के अधीनस्थ होना भी उन्हें पसंद नहीं आता। ऊंचे पदों पर पहुंचने के बाद भी महिला अधिकारियों को पुरुष सैनिकों की इसी मानसिकता का शिकार होना पड़ता है।
हालांकि मेजर जनरल मृणाल का कहना है कि भारत में महिला सैनिकों को अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है और उनके साथ जिम्मेदारी के बंटवारे में अब तक भेदभाव किया जा रहा है, इसलिए इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगा। पर मुद्दे की बात यही है कि बिना पूरी तरह परीक्षा किए सिर्फ भावनाओं के आधार पर महिलाओं से यह मौका छीनना अनुचित है।
लड़ाकू विमान में प्रेजिडेंट की उड़ान का मतलब- अनुराधा
अपने सिर को हमेशा साड़ी के पल्लू से ढक कर रखने वाली 74 वर्षीया राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने पिछले दिनों पूरे कॉम्बैट सूट में सुखोई फाइटर जेट में उड़ान भरी। इसके महीना भर बाद ही वे भारत के इकलौते विमानवाहक पोत आईएनएस विराट पर भी सवार हुईं। हमारी राष्ट्रपति की ये पहलकदमियां स्त्री शक्ति में बढ़ोतरी और उसमें देश के भरोसे की प्रतीक हैं।
राष्ट्रपति ने अपने इन कामों से इस भरोसे को और मजबूत किया है कि महिलाएं न सिर्फ फाइटर प्लेन उड़ा सकती हैं, बल्कि इस तरह के जटिल से जटिल मोर्चे पर सफलतापूर्वक काम कर सकती हैं। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान ने अपनी वायु सेना में महिला लड़ाकू विमानचालकों की भर्ती की इजाजत दी हुई है, पर भारत में इस पर रोक है। हमारे यहां ऐसा क्यों है?
पिछले साल 13 दिसंबर को केंद्र सरकार ने एक मामले में दिल्ली हाई कोर्ट से कहा कि भारतीय थलसेना और वायुसेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन देने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि उनकी भर्ती के लिए जगह खाली नहीं है। उसके मुताबिक सेना में पहले से ही जरूरत से ज्यादा अधिकारी भर्ती हैं। ऐसे में अगर शॉर्ट सर्विस कमिशन (एसएससी) की महिला अधिकारियों को स्थायी कमिशन दिया जाएगा, तो उन्हें कहां काम दिया जाएगा?
हमारे देश में महिला सेना अधिकारियों को स्थायी कमिशन का विकल्प नहीं दिया जाता। एसएससी के जरिए भर्ती के बाद ज्यादा से ज्यादा 14 साल की नौकरी के बाद उन्हें सेना छोड़नी पड़ती है और फिर उन्हें कोई सिविल नौकरी ढूंढनी होती है, क्योंकि पुरुष अधिकारियों की तरह उन्हें सेवानिवृत्ति पर पेंशन वगैरह की सुविधाएं देने का भी कोई प्रावधान भारतीय सेना में नहीं है।
थल और वायुसेना की 20 महिला अधिकारियों ने यह मामला कोर्ट में दायर किया है कि उन्हें पुरुषों की तरह ही स्थायी कमिशन क्यों नहीं दिया जाता, जबकि वे भी पुरुषों की ही तरह हर परीक्षा और ट्रेनिंग से गुजरती हैं। इसके जवाब में सेना ने ए. वी. सिंह समिति की रिपोर्ट के हवाले से दलील दी कि फिलहाल युवा अधिकारियों की ग्राउंड ड्यूटी के लिए ज्यादा जरूरत है इसलिए महिलाओं को सेना में नहीं लिया जा सकता। सेना की ओर से कुछ दूसरे तर्क भी पेश किए गए, जैसे महिला अधिकारी हमेशा अपनी पसंद की पोस्टिंग चाहती हैं, जबकि पुरुष उतना हो-हल्ला नहीं करते। यह भी कहा गया कि अगर महिलाओं को सीमा पर तैनाती किया जाएगा, तो वहां उनके लिए ज्यादा खतरे हो सकते हैं। हालांकि डिविजन बेंच ने इन सभी तर्कों को नकारते हुए कहा कि कोई राय भावनाओं के आधार पर नहीं बनाई जाए। साथ ही सवाल किया कि क्या यह जरूरी है कि महिला अधिकारियों को फॉरवर्ड इलाकों में ही भेजा जाए। कई दूसरी ऐसी महत्वपूर्ण जगहें हैं जहां महिलाओं की तैनाती में कोई समस्या नहीं है।
महिलाओं की सेना में भर्ती के मसले पर वायुसेना के एयर मार्शल पी. के. बारबोरा ने भी हाल में एक टिप्पणी करके सनसनी फैला दी। उनके मत में महिलाओं को फाइटर पायलट बनाना आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है। फाइटर पायलट की ट्रेनिंग पर बहुत खर्च आता है। भर्ती के कुछ साल बाद शादी करके वे मां बनना चाहें तो इससे वे कम से कम 10 महीने के लिए काम से दूर हो जाती हैं। इस कारण उन पर हुए खर्च के मुकाबले उनकी सेवाओं का पूरा फायदा नहीं लिया जा पाता है। सिर्फ दिखावे के लिए उनकी भर्ती नहीं की जानी चाहिए।
भारतीय सेना में महिलाओं की भूमिका लंबे समय तक डॉक्टर और नर्स तक ही सीमित रही है। 1992 में एविएशन, लॉजिस्टिक्स, कानून, इंजीनियरिंग, एग्जेक्यूटिव जैसे काडर में रेग्युलर अधिकारियों के तौर पर भर्ती के दरवाजे उनके लिए खुले। इन पदों के विज्ञापनों के जवाब में रिक्तियों से कई गुना ज्यादा अर्जियां पहुंचीं। जोश से भरपूर महिलाओं ने रोजगार के इस नए मोर्चे पर कामयाबी के झंडे गाड़े और कई शारीरिक गतिविधियों में पुरुषों से आगे रहीं। उनमें नेतृत्व के गुण थे और सहकर्मियों और अपने अधीनस्थ सैनिकों के साथ उनका व्यवहार सकारात्मक पाया गया।
झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, रजिया सुल्तान, बेगम हजरत महल, जीनत महल, रानी चेन्नम्मा जैसे अनगिनत नाम हैं जो युद्धों में दुश्मनों के दांत खट्टे करने में इंच भर भी पुरुषों से पीछे नहीं रहीं। सुभाष चंद्र बोस की सेना में भी महिला ब्रिगेड ने कठिन जिम्मेदारियों को बखूबी पूरा किया था। विश्वयुद्ध रहे हों या हाल के इराक, अफगानिस्तान, फॉकलैंड युद्ध, मित्र देशों की जमीनी और हवाई सेनाओं की लड़ाकू टुकड़ियों में महिलाएं बहुतायत में रही हैं। हिटलर की बदनाम एसएस सेना ने महिला दुश्मनों के साथ जरा भी ढील नहीं बरती और उन्होंने भी पुरुषों के बराबर ही मार खाई।
महिलाएं मानसिक काम ज्यादा स्थिरचित्त होकर कर पाती हैं, इसलिए आज के तकनीक प्रधान युद्ध में उनकी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है। फिर भी हमारे देश की सीमाओं की दुर्गम स्थितियों के मुताबिक सख्त शारीरिक तैयारी की जरूरत को हल्के में नहीं लिया जा सकता। महिला सैनिकों को भर्ती के समय और बाद में एक कैडेट के तौर पर पुरुषों के समान ही शारीरिक और मानसिक क्षमता से जुड़ी कठिन ट्रेनिंग और परीक्षाओं से होकर गुजरना पड़ता है। नौकरी के दौरान भी ऐसे अभ्यास लगातार चलते रहते हैं। ऐसे में वे युद्धक जिम्मेदारियों के लिए पुरुषों के मुकाबले मिसफिट कैसे मानी जा सकती हैं?
मेजर जनरल मृणाल सुमन( सेवानिवृत्त) ने अपने एक पर्चे में साफ किया है कि दरअसल ज्यादा बड़ी समस्या पुरुषों की तरफ से इस माहौल के लिए आनाकानी है। शारीरिक दमखम वाले किसी काम में एक महिला के अधीनस्थ होना भी उन्हें पसंद नहीं आता। ऊंचे पदों पर पहुंचने के बाद भी महिला अधिकारियों को पुरुष सैनिकों की इसी मानसिकता का शिकार होना पड़ता है।
हालांकि मेजर जनरल मृणाल का कहना है कि भारत में महिला सैनिकों को अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है और उनके साथ जिम्मेदारी के बंटवारे में अब तक भेदभाव किया जा रहा है, इसलिए इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगा। पर मुद्दे की बात यही है कि बिना पूरी तरह परीक्षा किए सिर्फ भावनाओं के आधार पर महिलाओं से यह मौका छीनना अनुचित है।
Friday, January 1, 2010
आरएसएस के लोग सबसे ज्यादा अंतरजातीय विवाह करते हैं। आश्चर्य कैसा?
जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपे लेख पर कुछ प्रतिक्रियाएं आईं हैं। उन्हें प्रकाशित करने में विलंब हुआ, क्षमाप्रार्थी हूं। ये चर्चा महत्वपूर्ण है, इसलिए टिप्पणियां पोस्ट की शक्ल में यहां पेश हैं। जाति के नाश में आरएसएस की भूमिका पर आप भी विचार करें। अवसर मिले तो मूल लेख को भी पढ़ें। धन्यवाद।
Dipti said...
सिर्फ़ इस तरह के बयानों से कुछ फ़ायदा होगा। ये बात मुश्किल लग रही हैं। खैर, हमारे समाज की ख़ासकर मीडिया की हालत अगर देखनी हो तो कलर्स पर शुरु हुआ नया धारावाहिक ज़रूर देखे। इस धारावाहिक की टैग लाइन ही है- ब्राह्मण का बेटा कायस्थ की बेटी। समाज में आपको ऐसी बातों के समर्थन में बातें करते तो बहुत मिल जाएंगे लेकिन, अपनी ज़िंदगी में इसे अपनाते इसके बीस फ़ीसदी भी नहीं होंगे।
December 29, 2009 2:53 PM
अनुनाद सिंह said...
हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे खुला, स्वतंत्र और उदार धर्म है। गहराई से देखने पर वह 'सत्य की खोज' का दूसरा नाम लगता है। इसका कोई एक सम्स्थापक नहीं है; इसका कोई 'एकमात्र' धर्मग्रन्थ नहीं है (कई हजार धर्मग्रन्थ हैं) ; इसमें कहीं कोई 'अन्तिम सत्य' कहने का दावा नहीं किया गया है (यही तो विज्ञान भी करता है; 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति'); पूजा की कोई पद्धति नहीं 'फिक्स' की गयी है।
हिन्दू धर्म जितना खुला और स्वतंत्र है उतना ही अग्रगामी विचारों का स्वामी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी है। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू धर्म का 'मूर्त रूप' मानता हूँ। मुझे कोई आश्चर्य नहीं है कि आरएसएस के लोग सबसे अधिक अन्तर्जातीय विवाह करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग वर्ण-व्यवस्था को तत्कालीन मनीषियों द्वारा आविष्कृत एक 'सामाजिक नवाचार' (सोसल इन्नोवेशन) मानते हैं (जिसे आधुनिक अर्थशास्त्र में श्रम-विभाजन या 'डिविजन आफ लेबर' कहते हैं) और इसलिये इस पर गर्व करते हैं। किन्तु यह भी मानते हैं कि कालान्तर में (सम्भवत: अंग्रेजी राज के दिनों में) यह व्यवस्था आर्थिक लक्ष्यों को कम और राजनीतिक लक्ष्यों और कलह को ज्यादा बढ़ा रही है। वैसे भी वर्तमान समय में श्रम-विभाजन शिक्षा और परीक्षा के आधार पर सरकारों एवं कम्पनियों द्वारा तय किया जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग और उससे प्रेरित संस्थाएँ मलिन बस्तियों में काम कर रहीं हैं (और कोई 'ऐडवर्टिशमेन्ट' नहीं करतीं); वे लोग दूरस्थ वनवासियों के बीच 'एकल विद्यालय' चला रहे हैं। इसलिये जो लोग इस महान संस्था को करीब से जानते हैं उन्हें इस आह्वान में न तो कुछ 'आशचर्यजनक' दिखेगा न इसमें किसी 'षडयन्त्र' की गन्ध आयेगी।
December 29, 2009 5:18 PM
Suresh Chiplunkar said...
"...ये कहा है कि जाति के बंधनों की वजह से हिंदुत्व का विकास सैकड़ों वर्षों से रुका हुआ है बल्कि मोहन भागवत हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह को जातिवाद की समस्या के समाधान के रूप में देख रहे हैं..." भागवत जी की इस बात से पूर्ण सहमत।
अन्तर्जातीय विवाह समय की आवश्यकता है… इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिये…।
अब आप इसे इस्लाम और ईसाई धर्मों का आक्रामक प्रचार और धर्मान्तरण अभियान कहें अथवा मजबूरी… लेकिन हकीकत यही है कि "हिन्दू एकता" के लिये जो भी करना पड़े किया जाना चाहिये…। भागवत ने एक पहल की है, देखते हैं बात कितने गहरे उतरती है…
December 29, 2009 6:13 PM
Mired Mirage said...
यदि मोहन भागवत ने ऐसा कहा है तो बहुत खुशी की बात है. वैसे बहुत से लोग विवाह प्रेम के लिए करते हैं जाति के लिए नहीं. वही सही भी है.जातिवाद तोड़ने के लिए अन्तर्जातीय विवाह अचूक हैं.
घुघूती बासूती
December 29, 2009 9:37 PM
अशोक कुमार पाण्डेय said...
यह बस दिखावे का चेहरा है।ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व की प्राणदायिनी शक्ति है भागवत इसे बदल नहीं सकते। संघ की पूरी पद्धति इसी से संचालित है अगर वाकई वह गंभीर हैं तो साफ़ साफ़ कहें कि वह मांग ग़लत थी जब गोलवलकर ने मनु स्मृति को संविधान की जगह रखने की मांग की थी।
मामला बस यूपी में मृतप्राय भाजपा के लिये संजीवनी की तलाश का लगता है।
December 30, 2009 2:11 PM
रंगनाथ सिंह said...
रोटी-बेटी का संबंध बनने लगा तो फिर जातिवाद में बचेगा क्या ?....और फिर मामला कथनी और करनी के बीच जाकर फंस जाता है।
December 30, 2009 4:03 PM
Dipti said...
सिर्फ़ इस तरह के बयानों से कुछ फ़ायदा होगा। ये बात मुश्किल लग रही हैं। खैर, हमारे समाज की ख़ासकर मीडिया की हालत अगर देखनी हो तो कलर्स पर शुरु हुआ नया धारावाहिक ज़रूर देखे। इस धारावाहिक की टैग लाइन ही है- ब्राह्मण का बेटा कायस्थ की बेटी। समाज में आपको ऐसी बातों के समर्थन में बातें करते तो बहुत मिल जाएंगे लेकिन, अपनी ज़िंदगी में इसे अपनाते इसके बीस फ़ीसदी भी नहीं होंगे।
December 29, 2009 2:53 PM
अनुनाद सिंह said...
हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे खुला, स्वतंत्र और उदार धर्म है। गहराई से देखने पर वह 'सत्य की खोज' का दूसरा नाम लगता है। इसका कोई एक सम्स्थापक नहीं है; इसका कोई 'एकमात्र' धर्मग्रन्थ नहीं है (कई हजार धर्मग्रन्थ हैं) ; इसमें कहीं कोई 'अन्तिम सत्य' कहने का दावा नहीं किया गया है (यही तो विज्ञान भी करता है; 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति'); पूजा की कोई पद्धति नहीं 'फिक्स' की गयी है।
हिन्दू धर्म जितना खुला और स्वतंत्र है उतना ही अग्रगामी विचारों का स्वामी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी है। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू धर्म का 'मूर्त रूप' मानता हूँ। मुझे कोई आश्चर्य नहीं है कि आरएसएस के लोग सबसे अधिक अन्तर्जातीय विवाह करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग वर्ण-व्यवस्था को तत्कालीन मनीषियों द्वारा आविष्कृत एक 'सामाजिक नवाचार' (सोसल इन्नोवेशन) मानते हैं (जिसे आधुनिक अर्थशास्त्र में श्रम-विभाजन या 'डिविजन आफ लेबर' कहते हैं) और इसलिये इस पर गर्व करते हैं। किन्तु यह भी मानते हैं कि कालान्तर में (सम्भवत: अंग्रेजी राज के दिनों में) यह व्यवस्था आर्थिक लक्ष्यों को कम और राजनीतिक लक्ष्यों और कलह को ज्यादा बढ़ा रही है। वैसे भी वर्तमान समय में श्रम-विभाजन शिक्षा और परीक्षा के आधार पर सरकारों एवं कम्पनियों द्वारा तय किया जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग और उससे प्रेरित संस्थाएँ मलिन बस्तियों में काम कर रहीं हैं (और कोई 'ऐडवर्टिशमेन्ट' नहीं करतीं); वे लोग दूरस्थ वनवासियों के बीच 'एकल विद्यालय' चला रहे हैं। इसलिये जो लोग इस महान संस्था को करीब से जानते हैं उन्हें इस आह्वान में न तो कुछ 'आशचर्यजनक' दिखेगा न इसमें किसी 'षडयन्त्र' की गन्ध आयेगी।
December 29, 2009 5:18 PM
Suresh Chiplunkar said...
"...ये कहा है कि जाति के बंधनों की वजह से हिंदुत्व का विकास सैकड़ों वर्षों से रुका हुआ है बल्कि मोहन भागवत हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह को जातिवाद की समस्या के समाधान के रूप में देख रहे हैं..." भागवत जी की इस बात से पूर्ण सहमत।
अन्तर्जातीय विवाह समय की आवश्यकता है… इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिये…।
अब आप इसे इस्लाम और ईसाई धर्मों का आक्रामक प्रचार और धर्मान्तरण अभियान कहें अथवा मजबूरी… लेकिन हकीकत यही है कि "हिन्दू एकता" के लिये जो भी करना पड़े किया जाना चाहिये…। भागवत ने एक पहल की है, देखते हैं बात कितने गहरे उतरती है…
December 29, 2009 6:13 PM
Mired Mirage said...
यदि मोहन भागवत ने ऐसा कहा है तो बहुत खुशी की बात है. वैसे बहुत से लोग विवाह प्रेम के लिए करते हैं जाति के लिए नहीं. वही सही भी है.जातिवाद तोड़ने के लिए अन्तर्जातीय विवाह अचूक हैं.
घुघूती बासूती
December 29, 2009 9:37 PM
अशोक कुमार पाण्डेय said...
यह बस दिखावे का चेहरा है।ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व की प्राणदायिनी शक्ति है भागवत इसे बदल नहीं सकते। संघ की पूरी पद्धति इसी से संचालित है अगर वाकई वह गंभीर हैं तो साफ़ साफ़ कहें कि वह मांग ग़लत थी जब गोलवलकर ने मनु स्मृति को संविधान की जगह रखने की मांग की थी।
मामला बस यूपी में मृतप्राय भाजपा के लिये संजीवनी की तलाश का लगता है।
December 30, 2009 2:11 PM
रंगनाथ सिंह said...
रोटी-बेटी का संबंध बनने लगा तो फिर जातिवाद में बचेगा क्या ?....और फिर मामला कथनी और करनी के बीच जाकर फंस जाता है।
December 30, 2009 4:03 PM
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