Sunday, February 28, 2010
पहले दिल में थे, अब बटुए में हैं
(मोनिका रांची, झारखंड में पब्लिक एजेंडा पत्रिका से जुड़ी हैं।)
मोहनदास करमचंद गांधी। हमारे और आपके लिए भले ही यह नाम आज देश का सर्वप्रिय और सबसे सम्मानित संस्था का हो, लेकिन इसके अनुसरण का हर मौका हाथ से जाता रहता है और लोग इसके मूक गवाह बने देखते रह जाते हैं।
गांधी की सामयिकता आज की तारीख में भौतिकता को छोड़कर कहीं नज़र नहीं आती। जिस सत्य के लिए गांधी ने जोहान्सबर्ग से लेकर साबरमती तक जुल्म सहे, उसी सत्य का आज बेशर्मी के साथ संहार हो रहा है। गांधी की जन्मभूमि गुजरात में ही उनके सबसे प्रबल हथियार "अहिंसा' की धार कुंद कर दी गयी। जिन-जिन बातों से गांधीजी ने देश को निषेधात्मक धारा में ले जाने की कोशिश की थी, उन्हीं रास्तों पर आज बलता के साथ लोग आगे बढ़ रहे हैं।
सवाल उठ रहे हैं कि आज की तारीख़ में गांधी हैं कहां? क्या गांधी की ज़रूरत देश को है? जवाब भी खुद देशवासी ही देते हैं- हां गांधी की ज़रूरत है, लेकिन मेरे घर में नहीं, पड़ोस में। कुल मिलाकर गांधी की सर्वव्यापकता को संकुचित करने में भारत ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। आज गांधीजी की प्रासंगिकता कहीं सबसे ज़्यादा दिखती है, तो वह है नोट में। नोट असली है कि नकली, यह जांचने के औजार के रूप में इस्तेमाल होते हैं गांधीजी। नैन-नक्श, चश्मा, लाठी सब ठीक है तभी नोट की दूसरी तकनीकी बिंदुओं की जांच की जाती है। अगर सब कुछ ठीक है, तो गड्डियों में एक के ऊपर एक तह लगाकर गांधी को भी तिजोरियों की भेंट चढ़ा दिया जाता है।
और, आज गांधी सीमित हैं चौक-चौराहों तक। देश के हर भूभाग में एक गांधी चौक या एक गांधी चौराहा तो आपको ज़रूर मिल जायेगा। इन चौराहों पर "आधे गांधी' हैरत के साथ इस आधुनिक भारत के भागदौड़ को देखते नज़र आयेंगे। चौक-चौराहों में टिकाये गये गांधी देखते रहते हैं कि किस बेशर्मी के साथ उनकी प्रतिमा के सामने खड़े होकर पुलिसवाले ट्रैफिक के कथित नियमों को तोड़ने का हवाला देकर लोगों से पैसे ऐंठ रहे हैं।
पिछले 60 वर्षों में इस देश ने गांधी के नाम को सिर्फ भुनाया ही है। गांधीवाद को एक कवच की तरह पहना है। गांधीजी की पदयात्रा का अनुसरण आज भी होता है, लेकिन सिर्फ वोट मांगने के लिए। नेता एक शहर से दूसरे शहर और गांव की पगडंडियों में चलते आज भी नज़र आते हैं लेकिन सिर्फ चैनलों को बाइट देने के लिए। उनके साथ एसी गाड़ियों की लंबी कतार उन्हें आरामदेह यात्राएं कराने के लिए हमेशा साथ रहती हैं। गांधीजी स्वराज और सत्य के लिए जेल भी गये थे। आज भी लोग जेल जा रहे हैं और सच भी बोल रहे हैं कि हां, हमने खाये देश के करोड़ों रुपये। गांधीजी सूत कातते थे और खादी पहनते थे, हम भाषण कात रहे हैं और वाहवाही पहन रहे हैं।
गांधी आज एक मेहमान हो चुके हैं, जो साल में दो बार आते हैं - पहली बार दो अक्तूबर को, दूसरी बार तीस जनवरी को। गांधी जयंती पर हम खुश हो जाते हैं कि पता नहीं अगर ये सख्श न होता, तो हम किस अंग्रेज गवर्नर के यहां जूते साफ कर रहे होते और आज तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहते। शुक्र है कि इस अर्द्धनग्न महापुरुष ने हमें आज़ाद तो कराया। और, साहब पुण्यतिथि को तो लोग ज़रूर आंसू बहाते हैं, इसलिए नहीं कि इस दिन गांधीजी दुनिया से विदा हुए थे, बल्कि इसलिए क्योंकि तीस जनवरी को सरकारी छुट्टी नहीं होती ना। लोग सोचते हैं और मन ही मन सरकार को कोसते हैं कि काश! आज छुट्टी होती, तो मल्टिप्लेक्स में एक मज़ेदार फिल्म देख आते और ब्रेकफास्ट से लेकर डिनर तक का मजा बाहर ही उठाते, लेकिन हाय रे सरकार छुट्टी नहीं देती। लोगों को तो इतने में भी संतोष नहीं।
देश में आज भी ऐसे एहसानफरामोशों की कमी नहीं, जो आज गांधी को इस बात के लिए कोसते हैं कि क्यों दिलाई हमें आजादी? अच्छे भले ब्रिटिश शासन में थे। कम से कम आज की तरह भ्रष्ट सरकारों से तो हम त्रस्त नहीं थे। अब उन्हें कौन समझाये कि गांधी ने आपको इसलिए आज़ादी नहीं दिलायी थी कि आप खुद भ्रष्ट लोगों को चुनकर संसद भेजें, बल्कि उन्होंने तो भारत और भारतवासियों के कल्याण के सिवा कुछ सोचा ही नहीं था। फिर, गांधी की जगह दिल से हटकर पर्स तक ही सीमित कैसे हो सकती है?
Wednesday, February 24, 2010
कॉमरेड, आपने मुसलमानों के साथ ये क्या किया?
(ये लेख संपादन के बाद 23 फरवरी जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपा है।)
अपने नाम में कम्युनिस्ट लगाने वाली पार्टियों का आग्रह होता है कि उन पर कोई और आरोप लगाइए लेकिन कम से कम उन्हें सांप्रदायिक मत कहिए। भारत में कम्युनिस्ट नाम से चल रही पार्टियों पर ये आरोप लगाने में उनके विरोधी भी परहेज करते हैं। लेकिन पहले ज्योति बसु और अब बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल सरकार का मॉडल लगातार इस धारणा को तोड़ रहा है कि वामपंथी हैं और तो अल्पसंख्यक विरोधी नहीं हो सकते। बल्कि पश्चिम बंगाल का पिछले 33 साल का अनुभव बताता है कि वामपंथी होने की आड़ में और मुसलमानों को सुरक्षा देने के नाम पर उन्हें ज्यादा सहजता से दबाकर रखा जा सकता है। उन्हें हर तरह के अवसरों से वंचित रखा जा सकता है। ये सब इतनी इतनी सहजता से हुआ है कि जिसे मारा जा रहा हो, उसे दशकों तक मारे जाने के दर्द का एहसास भी न हो। ये एक अलग तरह की हिंसा है, जिसका एहसास पश्चिम बंगाल के मुसलमानों को अब जाकर हुआ है। इसलिए सीपीएम मुसलमानों के वोट को लेकर इन दिनों इतनी चिंतित है। इसलिए पश्चिम बंगाल देश का पहला राज्य है, जिसने मुसलमानों की हालत पर विचार करने के लिए बने रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को सबसे पहले मान लिया है और मुसलमानों में पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की है।
पश्चिम बंगाल में एक चौथाई आबादी मुसलमान है। कहते हैं कि वाममोर्चा सरकार मुसलमानों की रक्षक है। ये सरकार मुसलमानों की पिछले 33 साल से रक्षा कर रही है, 23 साल तक उनकी रक्षा ज्योति बसु ने की और अब बुद्धदेव भट्टाचार्य यही कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में दंगे नहीं होते। दंगे बिहार में भी नहीं होते। मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक हालत दोनों राज्यों में बेहद खराब है। दंगे न होने को वाम मोर्चा के नेता और लालू प्रसाद यादव मेडल की तरह पहनते रहे। सवाल ये है कि क्या मुसलमानों को इसलिए खुश रहना चाहिए कि वो सुरक्षित हैं और इस नाते क्या वो ये भूल जाएं कि विकास और जीवन के तमाम मानदंडों पर वो पिछड़ रहे हैं? क्या सुरक्षा और विकास में से किसी समुदाय को एक ही चीज मिल सकती है? पश्चिम बंगाल में अब मुसलमानों का मिजाज थोड़ा उखड़ा-उखड़ा सा है। ये तब से शुरू हुआ है जब पश्चिम बंगाल सरकार ने बताया है कि एक चौथाई आबादी मुसलमानों की होने के बावजूद राज्य की नौकरियों में सिर्फ 2.1 फीसदी मुसलमान हैं। और पश्चिम बंगाल सरकार के अपने उपक्रमों यानी स्टेट पीएसयू में तो उच्च पदों पर सिर्फ 1.2 फीसदी मुसलमान हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने ये आंकड़ा सच्चर कमेटी को दिया और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में ये सब छप कर आ गया। पश्चिम बंगाल सरकार ये भी नहीं कह सकती कि राज्य सरकार की नौकरियों और स्टेट पीएसयू में मुसलमान इसलिए नहीं हैं क्योंकि केंद्र सरकार का उसे सहयोग नहीं मिलता। न ही वो ये कह सकती है कि उसे पूंजीवादी ढांचे में ही काम करना होता है और उसमें कई मजबूरियां होती हैं। जबकि केरल में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग बराबर है पर वहां राज्य सरकार की नौकरियों में साढ़े दस फीसदी मुसलमान हैं। दंगा प्रदेश गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में 5.4 फीसदी मुसलमान हैं जबकि गुजरात में 9.1 फीसदी मुसलमान हैं।
समस्या पश्चिम बंगाल की सामाजिक बनावट में हो सकती है, लेकिन कॉमरेड इसे 33 साल में भी क्यों नहीं बदल पाए। कॉमरेडों के पास कांग्रेस के इस आरोप का भी जवाब नहीं है कि वामपंथियों की सरकार बनने से पहले राज्य की नौकरियों में अब के मुकाबले ज्यादा मुसलमान थे। अब बात सिर्फ सरकारी नौकरियों की होती तो कई सफाई दी जा सकती थी। लेकिन शिक्षा, बैंको से दिया गया कर्ज, बैंकों में जमा धन, हर मानदंडों पर पश्चिम बंगाल के मुसलमानों का हाल बदहाल है। शिक्षा की बात करें तो पूरे देश में 40 फीसदी मुसलमान मीडिल पास करते हैं जबकि पश्चिम बंगाल में ये संख्या 26 फीसदी है। पूरे देश में 24 फीसदी मुसलमान मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी करते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल में सिर्फ 12 फीसदी मुसलमान ही मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। पश्चिम बंगाल सरकार का ये कहना काफी नहीं है कि मदरसों को वो काफी धन देती है, क्योंकि मदरसा शिक्षा रोजगार नहीं दिला सकती।
पश्चिम बंगाल में मुसलमान बैंकों में खाता तो खूब खुलवाते हैं (राज्य के 29 फासदी बैंक खाते मुसलमानों के हैं) लेकिन प्रायोरिटी सेक्टर लैंडिंग यानी सरकार के कहने पर जिन क्षेत्रों को अपेक्षाकृत सस्ता कर्ज मिलता है, उसमें मुसलमानों का हिस्सा सिर्फ 9.2 फीसदी है। पश्चिम बंगाल में औसतन एक बैंक खाते में 30,000 रुपए जमा हैं, जबकि औसत मुसलमान के खाते में सिर्फ 14,000 रुपए जमा हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में ये आंकड़े विस्तार से हैं। मुश्किल ये है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं, ड्रॉपआउट रेट बहुत ज्यादा है, सरकारी नौकरियां उन्हें मिलती नहीं हैं और निजी रोजगार करने के लिए बैंक लोन मिलना आसान नहीं है। इसे किसी समुदाय के खिलाफ हिंसा की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जा सकता?
साथ ही पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में है, जहां वंचित तबकों को सबसे कम रिजर्वेशन दिया जाता है। पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और ओबीसी को मिलाकर 35 प्रतिशत आरक्षण है। पिछड़े मुसलमानों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की अभी घोषणा ही हुई है, उसे अभी लागू किया जाना है। वहां ओबीसी के लिए सिर्फ सात फीसदी आरक्षण है। अभी तक कानूनों के मुताबिक, मुसलमानों को आरक्षण इसी ओबीसी कोटे के तहत मिलता है। तमिलनाडु में ओबीसी कोटा 50 फीसदी, केरल में 40 फीसदी और कर्नाटक में 32 फीसदी है। इसलिए इन राज्यों में उन मुसलमानों के लिए रोजगार और शिक्षा के बेहतर मौके हैं, जो ओबीसी लिस्ट में शामिल हैं। मिसाल के तौर पर तमिलनाडु में मुसलमानों की लगभग पूरी आबादी(95 फीसदी) ही ओबीसी कटेगरी में आती है। आप समझ सकते हैं कि अगर बंगाल में ओबीसी को सिर्फ सात फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है तो ये किस तरह मुसलमानों के हितों के भी खिलाफ गया। ये बात भी गौरतलब है कि ओबीसी आरक्षण लागू करने वाले बड़े राज्यों में पश्चिम बंगाल आखिरी था। और तो और पश्चिम बंगाल में उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण अभी भी लागू नहीं है।
काफी समय तक वहां कॉमरेड ये बोलते रहे कि पश्चिम बंगाल में वर्ग है, जाति तो है ही नहीं। कोलकाता के अखबारों के मेट्रीमोनियल पेज इस झूठ का हर दिन, हर हफ्ते, हर साल और साल दर साल पर्दाफाश करते रहते हैँ। पश्चिम बंगाल में नौकरियों से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में चंद जातियों की वर्चस्व क्या किसी से छिपा है? राज्य में सीपीएम की सत्ता संरचना में भी मुसलमानों की निर्णायक पदों पर गैरमौजूदगी है। पश्चिम बंगाल कहा जाता है कि जिलों में जिला कलेक्टर से ज्यादा असरदार सीपीएम का डिस्ट्रिक्ट सेक्रेटरी होता है। इस महत्वपूर्ण पद पर आपको मुसलमान बिरले ही दिखेंगे। इस बारे में विस्तार से अध्ययन करने की जरूरत है कि ऐसा पार्टी में किन स्तरों पर है और ये समस्या कितनी गंभीर है।
बहरहाल एक रोचक घटना अक्टूबर, 2007 में हुई जब राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रदेश के सचिवालय में मुस्लिम संगठनों की एक बैठक बुलाई। बैठक में मिल्ली काउंसिल, जमीयत उलेमा-ए-बांग्ला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद, पश्चिम बंगाल सरकार के दो मुस्लिम मंत्री और एक मुस्लिम सांसद शामिल हुए। बैठक की जो रिपोर्टिंग सीपीएम कीपत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी के 21 अक्टूबर, 2007 के अंक में छपी है उसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि सच्चर कमेटी ने राज्य में भूमि सुधार की चर्चा नहीं की। उनका ये कहना आश्चर्यजनक है क्योंकि सच्चर कमेटी भूमि सुधारों का अध्ययन नहीं कर रही थी। उसे तो देश में अल्पसंख्यकों की नौकरियों और शिक्षा और बैंकिग में हिस्सेदारी का अध्ययन करना था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आगे कहा- "ये तो मानना होगा कि सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में उतने मुसलमान नहीं हैं, जितने होने चाहिए। इसका ध्यान रखा जा रहा है और आने वाले वर्षों में हालात बेहतर होंगे।"
सवाल ये उठता है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का अगर ऐसा बुरा हाल था, तो देश दुनिया में पश्चिम बंगाल सरकार की मुस्लिम परस्त छवि कैसे बनी। बीजेपी को आखिर तक समझ में नहीं आया कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम न सिर्फ हिंदू पार्टी है और हिंदू सवर्ण वर्चस्व वाली पार्टी है, इसलिए उसे कभी भी वहां पैर जमाने का मौका नहीं मिला। पश्चिम बंगाल के हर तीन में से दो मंत्री या तो ब्राह्मण हैं या कायस्थ या वैद्य। शायद ये भी एक वजह है कि बीजेपी का हिंदुवाद पश्चिम बंगाल में नहीं चला क्य़ोंकि वह सीपीएम के सवर्ण हिंदुवाद का मुकाबला नहीं कर पाया।
दरअसल पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में मध्यम वर्ग लगभग नदारद है। इसलिए नौकरियों से लेकर शिक्षा और बैंक लोन तक मिलने में हो रहे भेदभाव को लेकर उनमें आंदोलन का तेवर नहीं रहा। फिलस्तीन पर इजरायली हमले, डेनमार्क में कार्टून विवाद, इराक पर अमेरिकी हमले, तस्लीमा नसरीन के लेखन जैसे मुद्दों पर ही उनकी गोलबंदी वामपंथी पार्टियां करती रही हैं। ये सच है कि सीपीएम ने मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित करके उन्हें फौरी समस्या से बचा लिया। साथ ही मुसलमानों के हित में बोलने में सीपीएम की बराबरी इस समय मुख्यधाऱा की कोई भी पार्टी शायद ही कर सकती है। सच्चर कमेटी ने बेशक पश्चिम बंगाल सरकार को नंगा कर दिया, लेकिन रिपोर्ट आते ही सीपीएम ने मांग की थी कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाए।
पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले जारी घोषणापत्र में भी सीपीएम ने अल्पसंख्यकों के लिए अलग से एक हिस्सा रखा जिसमें इक्वल ऑपुर्चुनिटी कमीशन बनाने, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू करने और मुस्लिम बहुल जिलों में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेक्ष में विशेष पहल करने की बात की। तो आप देख सकते हैं कि हकीकत और छवि का निर्माण किस तरह दो अलग अलग बातें हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीएम का सिर्फ एक मुसलमान सांसद पश्चिम बंगाल से चुनाव जीत सका। मुस्लिम बहुल इलाकों में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में बीजेपी का एक सक्षम चुनौती के रूप में मौजूद न होना अब सीपीएम के लिए मुसीबत है। भय और सुरक्षा की राजनीति की सीमाएं अब साफ नजर आने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की भी ऐसी ही मुश्किल है। इन जगहों में मुसलमान अब भय और सुरक्षा के अलग दूसरे चुनावी गणित के आधार पर वोट देने की हालत में हैं। कॉमरेड सचमुच मुसीबत में हैं। विधानसभा चुनाव से पहले अब इतना समय नहीं है कि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के साथ न्याय किया जा सके। न ही पश्चिम बंगाल और सीपीएम का सामाजिक ढांचा इस तरह नौरी के सीमित अवसरों को मुसलमानों पर लुटाने की इजाजत देगा।
Sunday, February 14, 2010
ब्रूनो की बेटियां (कवि-आलोकधन्वा) पूर्व पुलिस अफसर के हरम में...
Saturday, February 13, 2010
संत वेलंटाइन और महाराज मनु का मुकाबला
दरअसल ये कभी न कभी होना ही था। इसमें देर सिर्फ इसलिए लगी कि भारत में औद्योगीकरण और शहरीकरण की रफ्तार कमजोर है। मुंबई और कोलकाता में जब कारखाने खुले तो कैंटीनों में साथ खाने का चलन शुरू हुआ और इस तरह रोटी ने जाति की सीमा लांघ ली। बसों में और ट्रेन-ट्राम आदि सार्वजनिक परिवहन के साधनों में साथ सफर करने, साथ बैठकर सिनेमा-थिएटर देखने, मेले-ठेलों-मॉल-बाजार में साथ घूमने आदि से छुआछूत के बंधन कमजोर पड़े। शहरों में रहने वाले ये हठ नहीं पाल सकते थे कि कोई छू गया तो नहाना होगा ना ही किसी के लिए ये संभव था कि पूरा हॉल बुक कराकर फिल्म देखे। तो इस तरह जो चीज हजारों साल में नहीं बदली वो दशकों में बदल गई।
इसके अलावा औद्योगीकरण ने कर्म और जाति के बंधनों को कमजोर कर दिया। भारत में जाति व्यवस्था सिर्फ ऊंच-नीच की यानी समाज में हायरार्की तय करने की व्यवस्था नहीं है। बल्कि जाति उत्पादन संबंधों और कर्मों को निर्धारित करने वाली व्यवस्था भी है। जाति व्यवस्था के तहत हर व्यक्ति की जन्म के साथ सिर्फ जाति तय नहीं होती, बल्कि उसका कर्म भी तय हो जाता है। भारत में हर जाति के साथ एक कर्म जुड़ा है। ऐसा लगभग दो हजार साल तक चला। तमाम सुधार आंदोलनों, भक्ति आंदोलनों और मुस्लिम और ईसाई शासन के झंझावातों को जाति की संस्था झेल गई। लेकिन ग्राम समाज से शहरी समाज में हो रहे संक्रमण और आधुनिकता ने वो कर दिखाया, जिसे बड़े-बड़े समाज सुधारक नहीं कर पाए थे।
आज शहरों में कोई ये नहीं कहेगा कि किसी जाति को कोई खास काम करना होगा। यहां तक कि शौचालय साफ करने के काम में भी सवर्ण जातियों के काफी लोग लगे हैं। सुलभ आंदोलन की बात करें,या सरकारी स्तर पर स्वीपर्स की नियुक्ति की या फिर फास्ट फूड ज्वायंट और मॉल्स की, सफाई के काम में अब सिर्फ दलित शायद ही कहीं हैं। देश में अब सबसे ज्यादा धन का सृजन सेवा क्षेत्र में हो रहा है और इस क्षेत्र में आने के लिए ब्राह्मणों से लेकर दलितों तक में बराबर की होड़ लगी है। सेवा शूद्रों का काम है, बोलने वाले अब हास्य के पात्र हैं। रिटेलिंग, बैंकिग, इंश्योरेंस से लेकर हेल्थकेयर और हॉस्पिटालिटी जैसे समाम सेक्टर में हर जाति समूह के लोग काम करते हैं।
जाति व्यवस्था मे एक के बाद एक दरारें लगातार आती गईं और अब इस पर निर्णायक प्रहार वहां हो रहा है, जिसकी शुद्धता के बिना जाति बच ही नहीं सकती। ये प्रहार विवाह संस्था के वर्णवादी स्वरूप पर हो रहा है। शहरों ने युवक-युवतियों के बीच संबंधों को नया स्तर प्रदान किया है। खासकर महिलाओं की आर्थिक आजादी ने उन्हें संबंधों के मामले में भी ज्यादा आजाद होने का अवसर दिया है। अलग अलग जाति के युवक युवतियों के लिए मिलने जुलने के अवसर भी अब पहले से काफी ज्यादा हैं। शिक्षा संस्थाओं से लेकर दफ्तरों और काम करने की तमाम जगहों से लेकर क्लब-पार्क और इंटरनेट तक अब प्रेम की नई-नई संभावनाएं प्रदान कर रहे हैं। जाति व्यवस्था को सख्ती से लागू करने वाली व्यवस्था भी शहरों में ढीली है।
अगर आप शहरों या महानगरों में रहते हैं तो शादी के ऐसे कार्ड आपके पास अक्सर पहुंच रहे होंगे,जिसमें शादी तय करने में परिवार या कुनबे की भूमिका नहीं होगी। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि आधुनिकता अनिवार्य रूप से जाति का ध्वंस कर रही है। इंटरनेट युग ने जहां मिलने जुलने और रिश्ते बनाने के अबाध मौके उपलब्ध कराए हैं वहीं शादी की साइट्स ने जातिवादी होने की हर सुविधा प्रदान की है। अमूमन हर मेट्रिमोनियल साइट आपको जाति के अनुसार वर और वधु छांटने की सुविधा देती है। यहां तक की वर्चुअल स्पेस में भी आप आप अपनी जाति और गोत्र तक के ग्रुप बना सकते हैं। ऑर्कूट से लेकर फेसबुक तक में जातियों के ग्रुप बन गए हैं जहां एक ही जाति के लोग वर्चुअल स्पेस में मिलते बतियाते हैं।
ये जाति की जीवनी शक्ति और वक्त के मुताबिक उसकी अनुकूलन क्षमता का एक और प्रमाण है। दरअसल शादी के मामले में जाति के ऊपर प्यार की निर्णायक जीत अभी नहीं हुई है। जाति संस्था लगभग दो हजार से अगर जिंदा है और फलफूल रही है तो इसकी यही वजह है कि उसमें इतना लोच है कि वो समय के मुताबिक खुद को ढाल ले। इस बार स्थिति इस मायने में अलग है कि जाति पर इस बार का हमला किसी सुधारक की इच्छा या उपदेश की वजह से नहीं हो रहा है। इस बार जो चीज बदल रही है वो है सामंती उत्पादन संबंध। जाति व्यवस्था की प्राणवायु सामंती उत्पादन संबंध ही है। अगर उत्पादन के रिश्ते बदल जाएंगे तो जाति नहीं बचेगी। भारत इस समय तेजी से बदल रहा है। सर्विस और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर ने खेती को पीछे छोड़ दिया है। देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में खेती का हिस्सा घटकर 18 फीसदी से भी कम रह गया है। इस बदलाव का असर समाज पर भी हो रहा है। आपके पास आने वाले शादी के कार्डों में दिख रहे नाम अगर बदल रहे हैं तो इसका रिश्ता बदलते उत्पादन संबंधों से भी हैं। हर जाति के लोग, अगर अपने लिए तय काम नहीं करेंगे, और जाति के बाहर शादियां होने लगेंगी तो फिर जाति व्यवस्था में बचेगा ही क्या?
क्या आप इस बदलते समय की आहट सुन पा रहे हैं?
Saturday, February 6, 2010
आखिर कहां गायब हो जाते हैं दलित-आदिवासी अफसर
दिलीप मंडल
कुल 88 में एक भी नहीं। ये आंकड़ा है देश की शीर्ष नौकरशाही में दलित अफसरों की मौजूदगी का। देश को चलाने वाली शीर्ष नौकरशाही यानी केंद्र सरकार में सेक्रेटरी पद पर नियुक्त अफसरों की संख्या के बारे में ये आंकड़ा केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण राज्य मंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने पिछले दिनों लोकसभा में पेश किया। उन्होंने लोकसभा को ये भी बताया कि केंद्र सरकार में एडिशनल सेक्रेटरी के 66 पदों में से सिर्फ एक पर दलित है जबकि ज्वांयट सेक्रेटरी के 249 पदों में से 13 पद दलित अफसरों के पास हैं। आदिवासी अफसरों की बात करें तो केंद्र सरकार में चार सेक्रेटरी, एक एडिशनल सेक्रेटरी और नौ ज्वायंट सेक्रेटरी आदिवासी हैं। यानी इस देश की शीर्ष नौकरशाही के 403 पदों में से सिर्फ 28 पद दलितों और आदिवासियों के पास हैं। दलितों और आदिवासियों को मिलाकर इस देश की लगभग चौथाई आबादी बनती है। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि शीर्ष नौकरशाही में इस आबादी की हिस्सेदारी सात फीसदी से भी कम है। सबसे ऊपर सेक्रेटरी पद पर तो दलितों की पूरी तरह गैरमौजूदगी बेहद चौंकाने वाली है।
भारतीय नौकरशाही में कुछ खास जातियों और समूहों का वर्चस्व हमेशा रहा है। साथ ही नौकरशाही में कुछ जाति और जाति समूहों की कम और लगभग गैरमौजूदगी भी सार्वजनिक तथ्य है। चौंकाने वाली बात सिर्फ ये है कि शीर्ष नौकरशाही में दलितों और आदिवासियों की लगभग गैरमौजूदगी आजादी से पहले से चले आ रहे आरक्षण के प्रावधान के बावजूद है। इन पदों पर ओबीसी और मुस्लिमों की कम मौजूदगी की बात अलग है और इसके कारण समझे जा सकते हैं। मुस्लिमों के लिए धर्म के आधार पर कभी भी आरक्षण नहीं रहा और ओबीसी आरक्षण लागू हुए अभी सिर्फ 16 साल हुए हैं और उसके बाद से आए ओबीसी अफसर अभी शीर्ष तक पहुंचने की वरीयता हासिल नहीं कर पाए हैं। लेकिन दलितों और आदिवासियों के साथ ऐसा क्यों है, जिन्हें आजादी के बाद से ही केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण हासिल हुआ। आजादी के फौरन बाद 21 सितंबर 1947 को खुली प्रतियोगिता के आधार पर केंद्र सरकार की नियुक्तियों में अनुसूचित जातियों के लिए 12.5 फीसदी आरक्षण का आदेश जारी किया गया। खुली प्रतियोगिता के अलावा दूसरी नियुक्तियों में आरक्षण का प्रतिशत 16.66 तय किया गया। संविधान लागू होने के बाद सितंबर 1950 में सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जनजातियों के लिए 5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। 1961 की जनगणना के आधार पर 1970 में आरक्षण का नया आधार तय हुआ और तब से ही केंद्र सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फीसदी आरक्षण है। हालांकि तब से कुल आबादी में दलितों और आदिवासियों का अनुपात बढ़ा है जो जनगणना में लगातार दर्ज हो रहा है। इसके हिसाब से आरक्षण का अनुपात ठीक करने की मांग लगातार हो रही है, जिसे लेकर सरकार अब तक खामोश है।
बहरहाल माना जाना चाहिए कि इस देश में दलितों और आदिवासियों के साथ कोई भेदभाव नहीं होता और संवैधानिक संस्था यूपीएससी संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही हर साल केंद्रीय सिविल सेवाओं के लिए प्रत्याशियों का चयन करती है। इसके तहत सिविल सर्विस के लिए चुने जाने वालों में कम से कम 22.5 फीसदी प्रत्याशी दलित और आदिवासी होंगे। कम से कम इसलिए क्योंकि इन समुदायों के जो लोग सामान्य मेरिट से चुनकर आते होंगे, उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर जनरल कटेगरी का माना जाना चाहिए। हालांकि इस नियम और इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को बरसों से तोड़ा जाता रहा है। इसके बावजूद नौकरशाही में प्रवेश के स्तर पर कम से कम 22.5 फीसदी दलित और आदिवासी होंगे। सिविल सर्विस के ही अफसर नौकरशाही के शिखर तक पहुंचते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यूपीएससी से चुने जाने और नौकरशाही के शिखर तक पहुंचने के रास्ते में दलित और आदिवासी अफसर बीच में कहां खो जाते हैं?
सबसे पहले देखते हैं कि इसकी सरकारी व्याख्या क्या है? सरकार का कहना है कि इन पदों पर नियुक्ति विभिन्न काडर से डेपुटेशन यानी प्रतिनियुक्ति के आधार पर होती है। इसलिए इन काडर में दलित और आदिवासी अफसरों का जो प्रतिशत है, वो जरूरी नहीं है कि इन पदों पर भी नजर आए। कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्री का ये भी कहना है कि केंद्र सरकार में सेक्रेटरी, एडिशनल सेक्रेटरी और ज्वायंट सेक्रेटरी के पद प्रमोशन के जरिए नहीं भरे जाते हैं। सिर्फ विदेश मंत्रालय के सेक्रेटरी का पद ही ऐसा है जिसे उसी काडर के अफसर से भरा जाता है। सरकार का स्पष्टीकरण ये है कि केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों में सेक्रेटरी, एडिशनल सेक्रेटरी और ज्वायंट सेक्रेटरी के पदों को भरने के लिए राज्य काडर समेत तमाम काडर के अफसरों का एक पैनल बनाया जाता है और उसी पैनल में आए अफसरों से इन पदों को भरा जाता है। सरकार ने साफ कर दिया है कि इन पदों पर रिजर्वेशन का कोई प्रावधान नहीं है लेकिन पैनल बनाते समय दलित और आदिवासी अफसरों को भी शामिल करने की कोशिश की जाती है और इसके लिए उन्हें जनरल अफसरों की तुलना में कम कड़े मानदंडों पर तौला जाता है।
सरकार के कहने का कुल मतलब ये है कि शीर्ष नौकरशाही में कौन आएगा और कौन नहीं इसके लिए एक व्यवस्था बनी हुई है और अगर इस व्यवस्था के तहत दलित और आदिवासी अफसर (जो कुल नौकरशाही का 22.5 फीसदी हैं) इन पदों के लिए पैनल में नहीं आ सकते हैं तो सरकार क्या कर सकती है। वो तो मानदंडों तक में ढील देती है लेकिन इससे ज्यादा वो क्या कर सकती है? ठीक ऐसा ही तर्क न्यायपालिका और रक्षा सेवाओं में वंचित समूहों की लगभग गैरमौजूदगी के लिए भी दिया जाता है। इस बारे में पूछे गए दर्जनों सवालों के जवाब में लोकसभा और राज्यसभा में यही कहा गया कि एक तो सरकार इन पदों पर जाति प्रतिनिधित्व का हिसाब नहीं रखती और दूसरी बात ये कि इन पदों पर नियुक्ति की एक प्रक्रिया का पालन होता है और उस प्रक्रिया के तहत ही कोई इन पदों पर चुनकर आ सकता है। यानी विशेष अवसर का सिद्धांत इन जगहों पर लागू नहीं होता।
हालांकि रक्षा सेवाओं में आरक्षण या विशेष अवसर की कभी मांग भी नहीं उठी है, इसलिए उन सेवाओं को फिलहाल इस विवाद से अलग रखा जा सकता है। उच्च न्यायपालिका में भी आरक्षण की मांग तो होती रही है, लेकिन संविधान और कायदे-कानून इस बारे में खामोश हैं और अब तक की सरकारों ने इस विषय पर चुप्पी साध रखी है। न्यायपालिका में दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय न्यायिक सेवा आयोग बनाने की मांग उठती रही है, लेकिन फिलहाल ये मामला ठंडे बस्ते में ही है। लेकिन नौकरशाही का मामला इनसे अलग है।
सरकार उच्च नौकरशाही में दलितों और आदिवासियों की बेहद कम मौजूदगी के लिए जो तर्क दे रही है उसकी समीक्षा की जानी चाहिए। हालांकि ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि सरकार ये स्वीकार करेगी कि इसकी वजह जातिगत भेदभाव है। लेकिन इसके अलावा इस आश्चर्यजनक घटना की और कोई सुसंगत व्याख्या नहीं हो सकती। एक और व्याख्या जो ऐसे मामलों में हमेशा सुनी जाती है वो मूलत: नस्लवादी है। ये व्य़ाख्या इस तरह की है कि दलित और आदिवासी अफसर आरक्षण की वजह से केंद्रीय सेवाओं में आ तो जाते हैं लेकिन मेरिट न होने या मेरिट कम होने की वजह से वो शिखर पर नहीं पहुंच पाते। जाहिर है इस तर्क के नस्लवादी स्वरूप की वजह से केंद्रीय मंत्री ने खुलकर ये बात लोकसभा में नहीं कही। लेकिन राजकाज और देश के संचालन में ऊंचे पदों पर वंचित समुदायों की कम उपस्थिति के पीछे अक्सर दबी जुबान में और कई बार खुलकर ये तर्क ये दिया जाता है कि मेरिट नहीं होने पर किसी को किसी खास पद पर कैसे बिठाया जा सकता है।
वैसे ये तर्क बेहद पुराना है। अंग्रेजी राज में ये तर्क तमाम भारतीयों के खिलाफ इस्तेमाल होता था। व्हाइटमैंस बर्डन की पूरी अवधारणा ही श्वेत लोगों की सर्वोच्चता और बाकी लोगों के प्रतिभाहीन-संस्कृतिहीन होने के आधार पर टिकी थी। लेकिन आजादी के बाद देश के ही कुछ खास समुदायों के खिलाफ इस तर्क का इस्तेमाल किया जाने लगा जो अब तक जारी है। ये एक खतरनाक सोच है और ये ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस वजह से आबादी के एक हिस्से का भारतीय लोकतंत्र से मोहभंग भी हो सकता है। इसी आशंका को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने संविधान में ही इस बात की व्यवस्था की है कि वंचित और पिछड़े समूहों को विशेष अवसर दिए जाएंगे। और ये बात ध्यान देने योग्य है कि विशेष अवसर के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए संविधान में कहीं भी इसका आधार ये नहीं है कुछ समुदायों में मेरिट की कमी है। विशेष अवसर का आधार शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन है और इसके कारण ऐतिहासिक हैं। खासकर दलितों के लिए आरक्षण तो सवर्णों और दलितों के बीच हुई एक संधि का नतीजा है जिसे देश पूना पैक्ट के नाम से जानता है।
वैज्ञानिक तौर पर भी इस बात को साबित नहीं किया जा सका है कि किसी भी मानव समूह में नस्ल या जाति केआधार पर कम या ज्यादा प्रतिभा होती है। 15वीं सदी तक जिन यूरोपीय लोगों को बाकी दुनिया बर्बर जानती थी, वोआज दुनिया के सबसे सभ्य और समृद्ध लोगों में हैं। दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण भी इस मामले में बेहद महत्वपूर्णहै जहां नस्लभेदी शासन खत्म होने के बाद अश्वेत प्रतिभा का जबर्दस्त विस्फोट दुनिया ने देखा। अमेरिका में भीअब शासन और जीवन के ज्यादातर अंगों में अश्वेत, हिस्पैनिक्स और एशियाई लोगों की हिस्सेदारी बढ़ रही है।मेरिट का सीधा संबंध अवसर मिलने या न मिलने से है। जब ये कहा जाता है कि किसी समुदाय में मेरिट वाले बच्चे ज्यादा हैं, तो इसका एक ही मतलब है कि उस समुदाय के बच्चों को शिक्षा और प्रगति करने के अवसर ज्यादा मिले। शहरों में जाकर बेहतर स्कूलों में दाखिला मिलते है एक बच्चा अचानक मेरिट वाला बन जाता है और गांवों के स्कूलों से आईआईटी, आईआईएम के लिए मेरिट का सृजन नहीं हो पाता है। ये सीधी सी बात जानते सभी हैं, लेकिन इसे मानने और लागू करने में भारतीय समाज की सदियों पुरानी मान्यताएं बाधा उत्पन्न करती हैं। यही बाधा दलित अफसरों को और दूसरे वंचित समुदायों के अफसरों को नौकरशाही के शिखर तक नहीं पहुंचने देती।
21वीं सदी के दूसरे दशक में जब भारतीय गणराज्य अपनी 60वीं सालगिरह मना रहा है, तब देश आकांक्षाओं के विस्फोट के दौर से भी गुजर रहा है। तमाम तरह की खामोश अस्मिताएं अब मुखर हो रही हैं। ऐसे समय में देश के सबसे बड़े कुछ समुदाय अगर ये महसूस करने लगें कि गणराज्य ने उन्हें छला है, उनके अवसर छीन लिए गए हैं तो ये अच्छी बात नहीं है। भारत सरकार के लिए ये सही नहीं है किनौकरशाही के शिखर पर वंचित समुदायों की बेहद कम मौजूदगी के लिए प्रक्रिया की आड़ ले। इस सवाल पर अबदेश में बहस होनी चाहिए कि ऐसा क्य़ों है और इसे कैसे सुधारा जा सकता है। ये समाज के भी हित में है और देश के हित में भी, कि कोई समुदाय ये न समझे कि वो छल का शिकार है।
Monday, February 1, 2010
जब सवाल जाति का हो तो क्या सेकुलर(?) और क्या संघी
जब वर्धा में प्रोफेसर अनिल चमड़िया की नियुक्ति निरस्त करने का आदेश जारी किया जा रहा था, लगभग उन्हीं दिनों दूर दक्षिण में मैंगलोर यूनिवर्सिटी में भी ऐसा ही एक फैसला हो रहा था। एक यूनिवर्सिटी केंद्र सरकार की है और दूसरी यूनिवर्सिटी एक ऐसे राज्य में चल रही है, जहां बीजेपी का शासन है। एक यूनिवर्सिटी को तथाकथित प्रगतिशील का गौरवशाली नेतृत्व हासिल है तो दूसरे पर संघ की ध्वजा लहरा रही है। लेकिन जब लोकतांत्रिक आचरण की धज्जियां उड़ाने की बात हो तो दोनों विश्वविद्यालयों में अद्भुत समानताएं दिखती हैं। आप खुद ही पढ़ लीजिए। -दिलीप मंडल
बेंगलुरू: हिंदुत्व से जुड़े संगठनों के दबाव में मैंगलोर यूनिवर्सिटी ने पत्रकारिता के एक लेक्चरर से पढ़ाने-लिखाने का काम छीन लिया है। लेक्चरर एम. पी. उमेशचंद्र को पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाने की जगह विश्वविद्यालय के एससी/एसटी सेल में स्पेशल अफसर का काम सौंप दिया गया है। इससे पहले
विश्वविद्यालय सिंडेकेट ने उन्हें क्लास न लेने का आदेश दिया था।
मैंगलोर से बीजेपी के सांसद नलिन कुमार कतील ने मांग की है कि उमेशचंद्र के ब्राह्मण विरोधी बयानों की जांच कराई जाए। एबीवीपी ने आरोप लगाया है कि उमेशचंद्र संघपरिवार के संगठनों के खिलाफ बोलते हैं और दलित मुद्दों पर अतिवादी रुख रखते हैं।
मैंगलोर यूनिवर्सिटी के मास कम्युनिकेशन के पोस्ट ग्रेजुएशन के कुछ छात्र लेक्चरर उमेशचंद्र को विश्वविद्यालय से निकालने की मांग कर रहे थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी इस आंदोलन का समर्थन कर रही थी। आंदोलनकारी 10 दिनों से उमेशचंद्र की कक्षा का बहिष्कार कर रहे थे।
उमेशचंद्र को लेक्चरर के पद से हटाने का फैसला सिंडेकेट की बैठक में किया गया, जिसकी अध्यक्षता कार्यकारी वाइस चांसलर के के आचार ने की। बैठक के बाद रजिस्ट्रार के चिनप्पा गौड़ा ने बयान जारी करके कहा है कि सिंडिकेट उमेशचंद्र को निर्देश देती है कि अगले आदेश तक वो क्लास न लें। जब तक सिंडिकेट अगला फैसला नहीं करती है तब तक संबंधित विषयों की पढ़ाई के लिए कोई और व्यवस्था की जाएगी।
उमेशचंद्र ने कहा है कि छात्रों को राजनीतिक ताकतों ने बहकाया है और छात्रों से उन्हें कोई शिकायत नहीं है। इससे पहले हिंदुत्ववादी संगठनों ने इंग्लिश के लैक्चरर पट्टाबिरम सौमय्याजी के खिलाफ भी अभियान चलाया था क्योंकि उन्होंने इलाके में नैतिकता को लेकर जबर्दस्ती करने वालों को विरोध किया था। (द हिंदू, सकाल टाइम्स और मैंगलोरियन डॉट कॉम से मिली सूचनाओं के आधार पर।)
स्रोत:
http://www.sakaaltimes.com/
http://beta.thehindu.com/news/
http://mangalorean.com/news.