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Tuesday, June 1, 2010

जनगणना: ओबीसी की गिनती से असहमति

दिलीप मंडल

हर दशक
में एक बार होने वाली जनगणना के लेकर इस समय देश में भारी विवाद चल रहा है। विवाद के मूल में है जाति का प्रश्न। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इस बात की मांग उठने लगी थी कि देश में जाति आधारित जनगणना कराई जाए, ताकि किसी समुदाय के लिए विशेष अवसर और योजनाओं को लागू करने का वस्तुगत आधार और आंकड़े मौजूद हों। इसके बावजूद 2001 की जनगणना बिना इस प्रश्न को हल किए संपन्न हो गई। लेकिन इस बार यानी 2011 की जनगणना में जाति की गिनती को लेकर राजनीतिक हलके में भारी दबाव बन गया है और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की बातों को सरकार का पक्ष मानें तो सरकार इस बार जाति आधारित जनगणना कराएगी।

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी और प्रतिनिधि संस्था लोकसभा में जातीय जनगणना के पक्ष में विशाल बहुमत है और इसे लगभग आम राय कहा जा सकता है। कांग्रेस, बीजेपी, वामपंथी दल और ज्यादातर क्षेत्रीय दलों ने जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया है। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सदन को बताया कि सरकार सदन की भावना से अवगत है और जल्द ही इस बारे में फैसला किया जाएगा और फैसला करते समय सदन की भावना का ध्यान रखा जाए। प्रणव मुखर्जी का बयान इसके बाद 8 मई को आया। लोकसभा में बहुमत की भावना और मनमोहन सिंह तथा प्रणव मुखर्जी की इन घोषणाओं के बाद इस मसले पर संशय खत्म हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक ओर तो जातिगत जनगणना के विरोधी अपने तर्कों के साथ मैदान में डटे हुए हैं तो दूसरी ओर एक पक्ष ऐसा भी है, जो जातिगत जनगणना की जगह सिर्फ ओबीसी की गणना का छोटा रास्ता अपनाने की वकालत कर रहा है।
सबसे पहले तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या ओबीसी गणना, जाति आधारित व्यापक जनगणना का विकल्प है। ओबीसी गणना के पक्षधरों की ओर से जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनमें कोई भी ये नहीं कह रहा है कि जाति आधारित जनगणना की तुलना में ओबीसी की गणना बेहतर विकल्प है। ओबीसी गणना के समर्थकों का तर्क है कि इस समय सरकार ओबीसी गणना से ज्यादा कुछ कराने को तैयार नहीं होगी और जातिगत जनगणना की मांग करने से ओबीसी गणना का काम भी फंस जाएगा। ये तर्क अपने आप में बेहद खोखला है। सरकार ने अब तक कहीं नहीं कहा है कि वह ओबीसी गणना कराना चाहती है। उस पर जो दबाव बना है, वह जाति आधारित जनगणना के लिए है न कि ओबीसी गणना के लिए। ओबीसी गणना सरकारी तंत्र में एक विचार के तौर पर किसी स्तर पर मौजूद हो सकती है, लेकिन इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है।

ओबीसी गणना के समर्थकों का दूसरा तर्क यह है कि इस गिनती से भी वह लक्ष्य हासिल हो जाएगा, जिसे जाति आधारित जनगणना से हासिल करने की कोशिश की जा रही है। उनका तर्क है कि कुल आबादी से दलित, आदिवासी और ओबीसी आबादी के आंकड़ों को निकाल दें तो इस देश में “हिंदू अन्य” यानी सवर्णों की आबादी का पता चल जाएगा। साथ ही ये तर्क भी दिया जा रहा है कि सवर्णों के लिए तो इस देश में सरकारें किसी तरह का विशेष अवसर नहीं देतीं इसलिए अलग अलग सवर्ण जातियों के आंकड़े इकट्ठा करने से क्या हासिल होगा। इन दोनों तर्कों में दिक्कत ये है कि इसमें वास्तविकता का अनदेखी की जा रही है। इस देश में जो भी व्यक्ति जनगणना के दौरान खुद को दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं लिखवाएगा, वे सारे लोग सवर्ण होंगे, यह अपने आप में ही अवैज्ञानिक विचार है। इस आधार पर कोई व्यक्ति अगर खुद को जाति से ऊपर मानता है और जाति नहीं लिखाता, तो भी जनगणना में उसे सवर्ण (हिंदू अन्य) गिना जाएगा।

ऐसा करने से आंकड़ों में वैसी ही गड़बडी़ होगी, जैसे कि इस देश में हिंदुओं की संख्या के मामले में होती है। जनगणना में जो भी व्यक्ति अल्पसंख्यक की श्रेणी में दर्ज छह धर्मों में से किसी एक में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे हिंदू मान लिया जाता है। यानी कोई व्यक्ति अगर आदिवासी है और अल्पसंख्यक श्रेणी के किसी धर्म में अपना नाम नहीं लिखाता, तो जनगणना कर्मचारी उसके आगे "हिंदू" लिख देता है। इस देश के लगभग 8 करोड़ आदिवासी जो न वर्ण व्यवस्था मानते हैं, न पुनर्जन्म और न हिंदू देवी-देवता, उन्हें इसी तरह हिंदू गिना जाता रहा है। उसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता, तो भी जनगणना की दृष्टि में वह हिंदू है। अगर जातिगत जनगणना की जगह दलित, आदिवासी और ओबीसी की ही गणना हुई तो किसी भी वजह से जो "हिंदू" व्यक्ति इन तीन श्रेणियों में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे जनसंख्या फॉर्म के हिसाब से "हिंदू अन्य" की श्रेणी में डाल दिया जाएगा। इसका नतीजा हमें "हिंदू अन्य" श्रेणी की बढ़ी हुई संख्या की शक्ल में देखने को मिल सकता है। अगर "हिंदू अन्य" का मतलब सवर्ण लगाया जाए तो पूरी जनगणना का आधार ही गलत हो जाएगा।

साथ ही अगर जनगणना फॉर्म में तीन श्रेणियों आदिवासी, दलित और ओबीसी और अन्य की श्रेणी रखी जाती है, तो चौथी श्रेणी सवर्ण रखने में क्या समस्या है? अमेरिकी जनगणना में भी तमाम श्रेणियों की गिनती के साथ श्वेत लोगों की भी गिनती की जाती है। प्रश्न ये है कि भारत में कुछ लोग इस बात से क्यों भयभीत हैं कि सवर्णों की गिनती हो जाएगी? तमाम बौद्धिक आवरण के बावजूद जनगणना में ओबीसी गणना का विचार भारतीय समाज में वर्चस्ववादी मॉडल को बनाए रखने की इच्छा से संचालित है।

अब बात करते हैं उनकी जो जातिगत जनगणना के हर रूप का विरोध करते हैं और चाहते हैं कि आजादी के बाद जिस तरह से जनगणना होती आई है, उसी रूप में ये आगे भी जारी रहे। इस विचार के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह है कि जातिगत जनगणना कराने से समाज में जातिवाद बढ़ेगा। यह एक विचित्र तर्क है। इस तर्क का विस्तार यह होगा कि धर्मों के आधार पर लोगों की गिनती करने से सांप्रदायिकता बढ़ेगी। या फिर अमेरिका या यूरोपीय देशों में नस्ल के आधार पर जनगणना कराने से नस्लवाद बढ़ेगा।

जाति और जाति भेद भारतीय सामाजिक जीवन की सच्चाई है, इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता। राजनीति से लेकर शादी-ब्याह के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है। ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसकी हकीकत को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किए जाएं। जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है। इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना कराई जाए।

जातीय जनगणना और ओबीसी की गिनती का विरोध करने वालों का दूसरा तर्क है कि इस मांग के पीछे राजनीति है और ओबीसी नेता संख्या बल के आधार पर अपनी राजनीति मजबूत करना चाहते हैं। इस आधार पर जातिगत आरक्षण का विरोध करना अलोकतांत्रिक है। लोकतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं है और संख्या बल के आधार पर कोई अगर राजनीति में आगे बढ़ता है या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में फैसले अगर संख्या के आधार पर नहीं होंगे, तो फिर किस आधार पर होंगे?

जनगणना प्रक्रिया में यथास्थिति के समर्थकों का एक तर्क ये भी है कि ओबीसी जाति के लोगों को अपनी संख्या गिनवाकर क्या मिलने वाला है। उनके मुताबिक ओबीसी की राजनीति के क्षेत्र में बिना आरक्षण के ही अच्छी स्थिति है। मंडल कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण हासिल है और अर्जुन सिंह की पहल के बाद केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी उन्हें आरक्षण मिल गया है। अब वे आखिर और क्या हासिल करना चाहते हैं, जिसके लिए जातीय जनगणना की जाए? उनकी तो ये भी सलाह है कि ऐसा न करें, क्योंकि हो सकता है कि ओबीसी की वास्तविक संख्या उतनी न हो, जितनी अब तक सभी मानते आए हैं।

ये तर्क को सिर के बल खड़ा करने का मामला है। अगर ओबीसी की संख्या अब तक की मान्यताओं से कम हो सकती है, तो ये अपने आप में पर्याप्त वजह है जिसके आधार पर जातिगत जनगणना की जानी चाहिए। अगर देश की कुल आबादी में ओबसी की संख्या 27 फीसदी से कम है, तो उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? यूथ फॉर इक्वैलिटी जैसे संगठनों और समर्थक बुद्धिजीवियों को तो इस आधार पर जाति आधारित जनगणना का समर्थन करना चाहिए!

वैसे यह रोचक है कि जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले वही लोग हैं जो पहले नौकरियों में आरक्षण का विरोध कर रहे थे, बाद में जिन्होंने शिक्षा में आरक्षण का विरोध किया। ये विचारक इसी निरंतरता में महिला आरक्षण का समर्थन करते हैं। जाति के प्रश्न ने राजनीतिक विचारधारा के बंधनों को लांघ लिया है। जाति के सवाल पर वंचितों के हितों के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ भी हो सकते हैं, वे घनघोर सांप्रदायिक से लेकर घनघोर वामपंथी और समाजवादी हो सकते हैं। जाति संस्था की रक्षा का वृहत्तर दायित्व इनके बीच एकता का बिंदु है। लोकतंत्र की बात करने के बावजूद ये समूह संख्या बल से घबराता है।

लेकिन लोकतंत्र की ताकत के आगे बौद्धिक विमर्श का जोर नहीं चलता। अगर बौद्धिक विमर्श से देश चल रहा होता तो नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण कभी लागू नहीं होता। बौद्धिक चर्चाओं से राजनीति चल रही होती तो महिला आरक्षण विधेयक कब का पास हो चुका होता। जाहिर है लोकतंत्र में जनता की और संख्या की ताकत के आगे किसी का जोर नहीं चलता। इस देश में अगर जातीय जनगणना हुई तो वह भी राजनीतिक दबाव में ही कराई जाएगी। बौद्धिकों के हिस्से घटित होने वाले और घटित हो गए घटनाक्रम के विश्लेषण का ही काम आएगा। इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है। किसी में ये साहस नहीं है कि इस सवाल पर देश में जनमत सर्वेक्षण करा ले। वैसे भी संसदीय लोकतंत्र में लोकसभा की भावना को देश की भावना माना गया है। यह साबित हो चुका है कि इस देश की लोकसभा में बहुमत जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है। ये एकमात्र तथ्य जातीय जनगणना के तमाम तर्कों को खारिज करता है।
(यह आलेख 1 जून के जनसत्ता में छपा है।)

Tuesday, May 25, 2010

जाति, जनगणना और आरक्षण: सही बहस की जरूरत

निखिल आनंद

जाति भारतीय समाज की जड़ - जमीन से जुडी एक बड़ी हकीकत है। पर अफ़सोस कि आज के बौद्धिक बहस में सबसे कम शामिल है। पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवियों, जिनमें समाजशास्त्री और राजनीतिक विद्वान भी शामिल हैं, इस मसले पर बहस करने से कतराते नजर आते हैं - मानो उन्हें जातिवादी करार दिया जायेगा। इस कारण जाति के सवाल पर अधिकतर लोग विनम्र दिखने की कोशिश में चुप रहते हैं। लेकिन बात वही है कि मर्ज छुपाने से बढ़ता है तो फिर उसपर बातचीत कर हल ढूंढने की कोशिश क्यों न करें?

हाल ही में सरकार ने जाति आधारित जनगणना कराने पर सहमति व्यक्त की है। पर वस्तुस्थिति अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाई है कि ये जनगणना पूरी तौर पर जाति आधारित होगी या सिर्फ ओ.बी.सी. की। आश्चर्य है कि एक ओर जनगणना की प्रक्रिया शुरू की जा चुकी है और दूसरी ओर सरकार संसद में बहस कराने और आश्वासन देने के बाद भी निर्णय में देरी कर रही है, जिससे पूरी प्रक्रिया बाधित होगी। सरकार के मंशा ज़ाहिर करने के बाद अब कई बुद्धिजीवी भी सरकार के पक्ष और विपक्ष में अपने - अपने तर्क और पूर्वाग्रहों के साथ खड़े दिखाई देते हैं। कुछ लोगो का समर्थन सिर्फ ओ.बी.सी. की गिनती करने के पक्ष में दिखता है। सवाल ये उठता है कि क्या करोड़ों रुपये खर्च कर कराये जा रहे इस जनगणना का सन्दर्भ सिर्फ आरक्षण से है ? या फिर इसका सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और विकास से जुड़ा सन्दर्भ भी है।

अगर सिर्फ ओ.बी.सी. आधारित जनगणना होती है तो ये मंडल के नाम पर चल रही राजनीति को आगे खीचने की तुच्छ कोशिश होगी। जनगणना में देश के हर नागरिक की सामाजिक (जाति ) और आर्थिक जानकारी का आंकड़ा होना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं कि सब पर जाति थोपी जाये। जिनको जाति में विश्वास नहीं है या फिर 'इन सबसे ऊपर उठ चुके है' उनके लिए 'भारतीय' या फिर 'अन्य' का आप्शन भी दिया जाये। जाति जनगणना के बाद सरकार मंडल लिस्ट के आधार पर ओ.बी.सी. की संख्या जान सकती है और एस.सी.-एस.टी. की संख्या भी। देश में कई ऐसे जनजातीय समुदाय और भाषाएँ हैं जो विलुप्त होने के कगार पर हैं, इनकी जनसंख्या का पता लगे और सरकार उनकी हिफाजत के लिए काम करे। कई समुदाय अब भी सरकार की लिस्ट में नहीं है या फिर घुमंतू जातियां हैं, इनकी सामूहिक आबादी करोड़ों में है, इनकी संख्या का भी पता लगे और योजनाओं में उन्हें शामिल किया जाये। किन्नरों को अभी तक पुरुष की श्रेणी में गिना जाता है, उनकी पहचान भी अलग होनी चाहिए। हम इस तरह के आंकड़ो को समस्या समझना छोड़ दे क्योंकि इन्ही की बुनियाद पर देश के सामाजिक- सांस्कृतिक - आर्थिक विकास की सही पृष्ठभूमि तैयार हो सकती है।

देश में जाति का जन्म आधारित सिद्धांत है, जो भी जिस जाति में पैदा लेता है उसी में मर जाता है। ये एक जड़वादी व्यवस्था है और समाज में सब कुछ बदल सकते हैं, यहाँ तक की धर्म भी, पर जाति नहीं बदल सकते हैं। समाज में आत्म स्वाभिमान और सम्मान जाति के आधार पर है और इसका एक उच्च जातिगत रुझान है। कई बुद्धिजीवी खासकर नई आर्थिक व्यवस्था के आने के बाद जोर शोर से वर्गवाद के सिद्धांत को भारतीय समाज पर थोपने में लगे है। देश में अगर क्लास सोसाइटी का उभार हो रहा है तो भी उसका जातिगत सन्दर्भ मौजूद है। जाति के सन्दर्भ में वर्गवाद की चर्चा अवश्य होनी चाहिए पर वर्ग के नाम पर जाति की समूची अवधारणा को ख़ारिज करने बौद्धिक साजिश भी कम नहीं है। देश के किसी भी अखबार के मेट्रीमोनिअल पेज का आंकड़ा देखे तो पता चल जायेगा। देश में मानवाधिकार का उल्लंघन और बलात्कार के मामलों का अध्ययन करें तो सबसे ज्यादा दलित और उसके बाद पिछड़ी जाति के लोग पीड़ित हैं। मंडल के बाद जो देश के दलित- पिछड़ी जातियों में मोबिलिटी आई है उसपर जातिवाद का लेबल चिपका देना बौद्धिक मठाधीशो एक सहज प्रवृति हो सकती है पर इससे लोकतान्त्रिक व्यवस्था और संस्थाएं मजबूत हुई है ये भी काबिले गौर है। हालाँकि दलित- पिछड़ो नेताओ की पहली जमात बौद्धिक नेतृत्व अभी तक नहीं दे पाई है पर समाज में इन प्रतीकों के महत्व से इनकार नहीं कर सकते। जो भी दलील पेश की जाए जातिगत आरक्षण को ख़त्म करना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। एक नई बहस इन दिनों शुरू है वो उच्च जाति के गरीबों को अलग आरक्षण देने को लेकर है। अगर कभी भविष्य में इसकी व्यवस्था होती भी है तो क्या सरकार इस बात को रोकने के लिए सक्षम है कि सक्षम सवर्ण इसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। इसलिए एक ऐसी जातीय जनगणना होनी चाहिए जिसमें देश के सभी नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक पहलू का जिक्र हो ताकि आरक्षण के लाभ के लिए जाति और आर्थिक आधार का दुरुपयोग रोका जा सके। अभी भी दलित और ओ.बी.सी. के आरक्षण के दुरूपयोग के मामले कम नहीं है।

ओ.बी.सी. जनगणना करा देने मात्र से जाति आधारित सारी समस्याएं ख़त्म हो जायें ऐसा भी नहीं है। कई जातियां और उप- जातियों की तरफ से दलित और ओ.बी.सी. में शामिल करने को लेकर मांग और आन्दोलन होते रहते है। सरकार भी मंडल लागू होने के बाद समय- समय पर कई ऐसे समूहों को आरक्षण की लिस्ट में शामिल कर मांग पूरी करती रही है। इस सन्दर्भ में जाति आधारित जनगणना का एक विकल्प नजर आता है। सारी पार्टियां आरक्षण की अवधारणा को स्वीकार करती हंक लेकिन ये स्वीकार कोई भी नहीं कर सकता कि आरक्षण देश की जातिगत समस्याओं का एक स्थाई समाधान है। लिहाजा इस पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन पालिसी को तात्कालिक जरूरत समझते हुए भविष्य में इसके स्थाई समाधान पर काम करना होगा। दूरगामी भविष्य में आरक्षण से परे किसी भी नई नीति पर काम करने के लिए, अथवा पालिसी और प्लानिंग के लिए जातीय जनगणना के रिकॉर्ड एक महत्वपूर्ण आधार होंगे।

एक बड़ा तबका ये प्रचारित करने में लगा है कि जातीय जनगणना से देश में जातिवाद बढ़ जायेगा। इस प्रकार की डाइवर्सिटी पश्चिमी देशों सहित दुनिया भर में है। अमरीका, ब्रिटेन में भी इस प्रकार की जनगणना होती है जहाँ सभी रेस के लोगो ब्लैक, व्हाइट, हिस्पैनिक, एशियन सभी के आंकड़े इक्कट्ठे किये जाते है। क्या इस देशो में लोकतंत्र ख़त्म हो गया है ? भारत में भी धर्म के आधार पर जनगणना होती रही है और हाल ही में एक सर्वे ये जानने के लिए सरकार की ओर से हुआ की देश की नौकरियों में अल्पसंख्यकों की संख्या कितनी है। तो क्या धर्मान्धता लोकतंत्र पर हावी हो गयी है ? हर जनगणना में हिन्दुओं की आबादी देश में सबसे ज्यादा दिखाई जाती है, इस सन्दर्भ में भारत एक हिन्दू राष्ट्र हो महज एक अवधारणा हो सकती है पर सबको मालूम है कि ये संभव नहीं और ये विचार हर चुनाव में मात खाती है। जो लोग धर्मनिरपेक्षता के समर्थक है उन्हें सामाजिक न्याय और समानता का तत्व स्वीकार करने में क्या दिक्कत हो सकती है? अगर देश में जाति आधारित जनगणना गलत है तो धर्म आधारित जनगणना के पक्ष में क्या अलग बौद्धिक दलील है ?

हाल ही में राजेंद्र सच्चर और रंगनाथ मिश्र ने अल्पसंख्यकों के कल्याण से संबंधित दो अलग- अलग रिपोर्ट पेश की है इसके बाद से देश भर में माइनोरिटी आरक्षण को लेकर राजनrतिक बहस छिड़ी है। कई प्रोग्रेसिव और सोसलिस्ट इस मुहिम में शामिल है। बहुत ही कम लोगो को याद होगा की पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने मंडल के बाद के दौर में इस मुस्लिम आरक्षण की बात को कई मर्तबा उठाया था। तब समाजवादी नेता मधु लिमये ने फोन कर और पत्र लिखकर केसरीजी की इस बात का विरोध किया था की धर्म आधारित आरक्षण संविधान सम्मत नहीं है और अगर वे इतने ही चिंतित है तो सभी अल्पसंख्यक समुदाय के दलित और ओ.बी.सी. को उनके हिन्दू भाइयों की तरह बराबरी का दर्जा क्यों नहीं दिला देते। मधु लिमये का मानना था की धर्म एक ग्लोबल फेनोमेना है वहीँ जाति एक स्थानीय फेनोमेना, इस नाते धर्मान्धता हमेशा जातिवाद से ज्यादा खरतनाक है। भारतीय समाज के हर जानकार को पता है कि यहाँ हर धर्म जाति विभक्त है और उनमें दलित पिछड़े है चाहे इस्लाम हो, क्रिस्चियन हो, सिख या बौद्ध- जैन। भारत के किसी भी धर्म में शामिल ये तत्व उसे दुनिया के किसी भी सामान धर्म से अलग करते हैं। हालाँकि अल्पसंख्यक पिछड़ो को मंडल कमीशन के तहत आरक्षण मिला है पर उनके दलित अभी भी वंचित हैं। देश के बुद्धिजीवी क्यों नहीं माइनोरिटी समुदाय के बृहत् हित में उनके दलित - पिछड़ो को हिन्दुओ के बराबर अधिकार की बात करते है। इस परिप्रेक्ष्य में भी जाति आधारित जनगणना एक बेहतर आंकड़ा देगी जिससे अल्पसंख्यक समाज में जाति और उसके डेप्रिवेशन का अध्ययन किया जा सकता है।

किसी भी राजनितिक दल के लिए धर्म और जाति के नाम पर खेल करना आसान है लेकिन जातिगत आंकड़े इस पूरे खेल को ख़त्म कर देंगे। तब कोई भी दल और सरकार हाशिये के लोगो के हक़ में नीतिगत और विकास से जुड़ा फैसला लेने को बाध्य होगी। नई आर्थिक नीति और सूचना क्रांति के बाद हर समाज की उत्सुकता राजनितिक भागेदारी को लेकर जितनी है उससे ज्यादा अर्थव्यवस्था में भागेदारी को लेकर है। ऐसे में क्या गलत है कि हर समाज खासकर दलित- पिछड़ो को उनका सामाजिक - राजनितिक और आर्थिक बराबरी मिले। इन्हें वंचित रखने की कोई भी दलील शर्मनाक है और एक्सक्लुसिविटी एवं सुपिरिअरिटी के सिद्धांत पर आधारित है।
जाति कोई शिव का धनुष नहीं जो कोई राम आएगा और एक बार में तोड़ डालेगा। जाति कोई देवी- देवताओ की कहानियों की तरह कोई मिथ्या नहीं है बल्कि समाज की क्रूर हकीकत है। जाति समाज में बहुसंख्यक तबके की निजी पहचान से जुड़ा मसला है फिर सीधे तौर पर इसे ख़ारिज करना आगे बढ़ रहे दलित- वंचित समाज के खिलाफ एक बौद्धिक साजिश है- पहचान से वंचित रखने की, डी- पोलिटिसाइज करने की और अंततः हाशिये पर बनाये रखने की। लोकतंत्र के किसी भी स्तम्भ का अध्ययन करें तो एक ख़ास तबके का वर्चश्व साफ़ नजर आता है, जो अपने आप ही नहीं बनी है बल्कि एक प्लानिंग के तहत बनाया गया सिस्टम लगता है। ओपिनियन मेकर की भूमिका निभाने का दावा करने वाली मिडिया भी इस जातिगत पूर्वाग्रह से वंचित नहीं है। जाति बहस और विमर्श से टूटेगी, ज़ाहिर है बहुत लम्बा वक़्त लगेगा। लेकिन इस मुहीम में वास्तविक प्रोग्रेसिव की बड़ी भूमिका होगी- जिनके चेहरे पर मुखौटा नहीं हो और जिनके नीति व नियति में फर्क नहीं हो।

देश के सामाजिक विकास और उसमें दलित- पिछड़ो- वंचितों की भागीदारी का सही आइना जातिगत जनगणना के माध्यम से ही सकेगी। इससे ही देश में जाति के नाम पर चल रही अन्यथा राजनीति और गैर जरूरी जातिगत मांगो पर रोक लगेगी। इस प्रकार की जनगणना से मिले आंकड़े का प्रयोग समाजशास्त्रियों, विकास नीति के निर्धारको और विभिन्न सरकारों के द्वारा देश के सामाजिक- सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में बेहतर किया जा सकता है। अगर इस बार ये जाति आधारित जनगणना नहीं होती है तो फिर ये बहस दस सालों के लिए पीछे चला जायेगा। आइये निःसंकोच होकर देश के एक बड़े सामाजिक मसले पर चर्चा करें, इसकी पीड़ा और त्रासदी को उजागर करें और दूरगामी भविष्य में इसे ख़त्म करने की नीव डाले। ज़ाहिर है मतभिन्नता होगी पर इससे समाज और लोकतंत्र मजबूत होगा।
@ निखिल आनंद /
Mbl:- 9910112007
Email:- nikhil.anand20@gmail.com

Tuesday, May 18, 2010

कौन बेहतर?

अनिल सिन्हा

वे जो ख़ामोशी से जीते रहे हजारों साल की लीक पर
पूजते रहे कभी न दिखाई पड़ने वाले देवताओं को
पुरखों की याद में दीप जलाते रहे
खेत, जंगल जिन्हें पहचानते थे
हवाएं कभी थरथराई नहीं जिनके आने पर
या वे ?
जिन्होंने कभी शंकाओं को छिपाया नहीं
देवताओं से भी सवाल करते रहे
जिनकी बैचैन नज़रों से हवाएं भी कांप जाती
हर शै में जिनके सवाल तैरते हैं
जिन्होंने शंकाओं की पोटली थमा दी अपनी संतति को
और विदा लेते समय भी जिनकी आँखें उत्तर मांग रही थीं
इसका जवाब इतिहास पर छोड़ता हूँ
शंका ने ही हमें देवताओं के ह्रदय में जब्त रहस्यों को जानने के लिए उकसाया
हमें ले गए नदियों के पार, गुफाओं में
पहुंचा दिया हवाओं के ऊपर
कोई बुद्ध किसी निरंजना नदी के तट पर बैठा सुजाता के कटोरे में रखी आस्था की खीर की प्रतीक्षा कर रहा होगा
आस्था के जल से सिंचित शंका के पेड़
सभ्यता के इस खूबसूरत बगीचे में खड़ा मैं चकित!

Sunday, May 9, 2010

वह मारा जाएगा

(निरुपमा कांड के खिलाफ मशहूर संस्कृतिकर्मी अश्विनी कुमार पंकज की कविता)

देहरी लांघो
लेकिन धर्म नहीं
क्योंकि यही सत्य है

पढ़ो
खूब पढ़ो
लेकिन विवेक को मत जागृत होने दो
क्योंकि यही विष (शिव) है

हँसो
जितना जी चाहे
जिसके साथ जी चाहे
पर उसकी आवाज से
देवालयों की मूर्तियों को खलल ना पड़े
क्योंकि यही सुंदर है

याद रखो
देहरी ही सत्य है
अज्ञान ही शिव है
धर्म ही सुंदर है

सत्यं शिवं सुंदरम का अर्थ
प्रेम नहीं है
जो भी इस महान अर्थ को
बदलना चाहेगा
वह मारा जायेगा
चाहे वह मेरा ही अपना लहू क्यों न हो

(प्रेम (इंसान) की हत्या के खिलाफ हमारा भी प्रतिवाद दर्ज करें
झारखंडी प्रेस एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन, झारखंड)
akpankaj@gmail.com

Sunday, May 2, 2010

निरुपमा पाठक के लिए न्याय

निरुपमा के लिए न्याय पिटीशन पर दस्तखत करें। निरुपमा की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि वह अपनी मर्जी से शादी करना चाहती थी। वर्णव्यवस्था के पुजारियों ने इस अपराध के लिए उसे मौत की सजा दे डाली। पिटीशन पर क्लिक करें।
http://www.petitiononline.com/n1i2r3u4/petition.html

Wednesday, April 28, 2010

श्यामाप्रसाद को हां है तो भीमराव को नहीं क्यों?

दिलीप मंडल

दिल्ली की सबसे ऊंची इमारत का नाम जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर रखा गया है। ये इमारत दिल्ली नगर निगम की है और इस समय दिल्ली नगर निगम में भारतीय जनता पार्टी का बहुमत है। इसलिए माना जा सकता है कि बीजेपी जिन लोगों से प्रेरणा लेती है और जिन्हें महान मानती है, उनके नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखने का उसे अधिकार है। इस बात पर न तो कांग्रेस ने सवाल उठाया है न ही वामपंथी दलों ने और न ही सपा, बसपा या राजद ने। सभी राजनीतिक पार्टियां इस राजनीतिक संस्कृति को मानती हैं कि सत्ता में होने के दौरान वे किसी सरकारी योजना या भवन, पार्क, सड़क, हवाई अड्डे या किसी भी संस्थान का नाम अपनी पसंद के किसी शख्स के नाम पर रख सकती हैं। इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति है। इसलिए जिस जनसंघ की विचारधारा और परंपरा से सेकुलर दलों को इतना परहेज है, उसके संस्थापक के नाम पर किसी सरकारी इमारत का नाम रखे जाने को लेकर कहीं किसी तरह का विवाद नहीं है।

इस मामले में एकमात्र व्यतिक्रम या अपवाद या विवाद आंबेडकर और कांशीराम की स्मृति में बनाए गए पार्क और स्थल हैं। इस देश में हर दिन किसी न किसी नेता की स्मृति में कहीं न कहीं कोई शिलान्यास, कोई उद्घाटन या नामकरण होता है, लेकिन विवाद सिर्फ तभी होता है जब किसी दलित या वंचित नायक के नाम पर कोई काम किया जाता हो। ऐसा भी नहीं है कि विवाद सिर्फ तभी होता है, जब बहुजन समाज पार्टी किसी दलित नायक के नाम पर कोई काम करती है। कांग्रेस के शासनकाल में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम भीमराव आंबेडकर के नाम पर रखे जाने को लेकर कई दशकों तक हंगामा चला और कई बार विरोध ने हिंसा का रूप भी ले लिया। लगभग दो दशक तक नामांतर और नामांतर विरोधी आंदोलन और हिंसा तथा आत्मदाह की घटनाओं के बाद जाकर 1994 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबा साहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय रखा जा सका। नामांतर विरोधी आंदोलन को लगभग सभी बड़े राजनीतिक दलों का खुला या प्रछन्न समर्थन हासिल था।

नामांतर आंदोलन के बाद देश में इस तरह का सबसे बड़ा विवाद उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के शासन काल में बनाए जा रहे स्मारकों को लेकर है। इस विवाद में विरोधियों के पास मुख्य रूप में ये तर्क हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे गरीब और पिछड़े राज्य में सरकार इतनी बड़ी रकम स्मारकों पर क्यों खर्च कर रही है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि बहुजन समाज पार्टी सिर्फ अपनी विचारधारा के नायकों के नाम पर स्मारक क्यों बनवा रही है। यह आरोप भी लगाया जाता है बहुजन समाज पार्टी ये सब राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है। ये सारे तर्क बेहद खोखले हैं। अगर इन्हें दूसरे दलों की सरकारों पर लागू करके देखा जाए, तो इनका खोखलापन साफ नजर आता है। राजघाट, गांधी स्मृति, शांति वन, वीर भूमि, शक्ति स्थल, तीनमूर्ति भवन, इंदिरा गांधी स्मृति, दीन दयाल उपाध्याय पार्क आदि-आदि हजारों स्मारकों पर आने वाले खर्च की अनदेखी करके ही बहुजन समाज पार्टी सरकार पर इस मामले में फिजूलखर्ची का आरोप लगाया जा सकता है।

कांग्रेस ने अपने पार्टी से जुड़े नायकों के नाम पर जो कुछ किया है, उस पर आए खर्च की बराबरी बहुजन समाज पार्टी शायद कभी नहीं कर पाएगी। इस देश में जितने गांधी पार्क और नेहरू पार्क हैं, उतने फुले, आंबेडकर और कांशीराम पार्क बीएसपी अगले कई दशक में नहीं बना पाएगी। ये बराबरी का मुकाबला नहीं है। बीजेपी भी अपने नायकों की प्रतिमाएं और स्मारक खड़े करने में पीछे नहीं है और ये सब सरकारी खर्च पर ही होता है। हेडगेवार, गोलवलकर, विनायक दामोदर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम को चिरस्थायी बनाने की बीजेपी ने भी कम कोशिश नहीं की है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर केंद्र सरकार का एक सूचना प्राद्योगिकी संस्थान ग्वालियर में है और हिमाचल प्रदेश में भी वाजपेयी के नाम पर एक माउंटेनियरिंग इंस्टिट्यूट है। अपने नायकों को स्थापित करने में कांग्रेस और बीजेपी की तुलना में समाजवादी पार्टी, आरजेडी, बीएसपी जैसी पार्टियां काफी पीछे हैं। देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों, पार्कों, सड़कों, शिक्षा संस्थानों, पुलों, संग्रहालयों, चिड़ियाघरों पर कांग्रेस के नेताओं के नाम हैं और इस गढ़ में बीजेपी ने थोड़ी-बहुत सेंधमारी की है। ये संयोग हो सकता है कांग्रेस और बीजेपी जिन नायकों के नामों को चिरस्थायी बनाने के लिए उनके नाम पर कुछ करती है, उनमें लगभग सभी सवर्ण जातियों के हैं। जबकि बीएसपी ने जिन महापुरुषों के नाम पर स्मारक बनाए हैं, वे सभी अवर्ण हैं। सिर्फ इस एक बात को छोड़ दें तो कांग्रेस, बीजेपी और बीएसपी में कोई फर्क नहीं है।

कुछ लोगों को इस बात पर एतराज हो सकता है कि गांधी और नेहरू जैसे नेताओं को खास जाति या पार्टी से जोड़कर बताया जा रहा है। यहां सवाल उठता है कि आंबेडकर जैसे विद्वान और संविधान निर्माता को दलित नेता के खांचे में फिट किया जाता है और उनके स्मारकों की अनदेखी की जाती है(दिल्ली में जिस मकान में रहने के दौरान उनका देहांत हुआ, उसके बारे में कितने लोग जानते हैं और इसकी तुलना गांधी स्मृति या तीन मूर्ति भवन से करके देखें) तो जाति के प्रश्न की अनदेखी कैसे की जा सकती है। एक विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखने के सरकार के फैसले को अगर दो दशक तक इसलिए लंबित रखा जाता हो कि कुछ लोग इसके खिलाफ हैं, तो इसकी जाति के अलावा और किस आधार पर व्याख्या हो सकती है? जाति भारतीय समाज की एक हकीकत है और जिसने जाति की प्रताड़ना या भेदभाव नहीं झेला है, वही कह सकता है कि भारत में जाति का असर नहीं है। जाति का अस्तित्व और उसके प्रभाव को संविधान भी मानता है और कानून भी। जो जाति को नहीं मानते, उन्हें भी कोई न कोई जाति अपना मानती है।

ऐसे में सवाल सिर्फ इतना है कि गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, हेडगेवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की स्मृति को जिंदा रखने में अगर कोई बुराई नहीं है तो फुले, शाहूजी महाराज, आंबेडकर, कांशीराम की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए प्रयास करने में कोई दोष कैसे निकाला जा सकता है? पिछड़ी और दलित जातियों के मुसलमानों के नायकों की भी स्थापना होनी चाहिए। बल्कि ये वे काम हैं, जो स्थगित थे और उन्हें अब पूरा किया जाना चाहिए। आखिर हर किसी को अपने नायक चाहिए। महाविमर्श के अंत के बाद अब कोई नायक हर किसी का नायक नहीं है। आज दलित और वंचित अपने नायकों की स्थापना कर रहे हैं। देश के लिए ये शुभ है। इससे घबराना नहीं चाहिए।

(यह लेख 28 अप्रैल को नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर छपा है)

Friday, March 26, 2010

मायावती की माला आपको बुरी क्यों लगती है?

दिलीप मंडल

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष कुमारी मायावती की माला को लेकर राजनीति और भद्र समाज में मचा शोर अकारण है। मायावती ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो वर्तमान राजनीतिक संस्कृति और परंपराओं के विपरीत है। नेताओं को सोने चांदी से तौलने और रुपयों का हार पहनाने को लेकर ऐसा शोर पहले कभी नहीं मचा। नेताओं की आर्थिक हैसियत के खुलेआम प्रदर्शन का ये कोई अकेला मामला नहीं हैं। सड़क मार्ग से दो घंटे में पहुचना संभव होने के बावजूद जब बड़े नेता हेलिकॉप्टर से सभा के लिए पहुंचते हैं, तो इससे किसी को शिकायत नहीं होती। करोड़ों रुपए से लड़े जा रहे चुनाव के बारे में देश और समाज अभ्यस्त हो चुका है। मायावती प्रकरण में अलग यह है कि वर्तमान राजनीतिक संस्कृति का अब दलित क्षेत्र में विस्तार हो गया है। धन पर बुरी तरह निर्भर हो गए भारतीय लोकतंत्र का यह दलित आख्यान है जो दलित पुट की वजह से कम अभिजात्य है और कदाचित इस वजह से कई लोगों को अरुचिकर लग रहा है। साठ करोड़ रू का चारा घोटाला लगभग 30,000 करोड़ रू के टेलिकॉम घोटाले या ऐसे ही बड़े दूसरे कॉरपोरेट घोटालों की तुलना में लोकस्मृति में ज्यादा असर पैदा करता है, तो इसकी वजह घोटाले का भोंडापन ही है। मधु कोड़ा इस देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की लिस्ट में बहुत पीछे होने के बावजूद अपने भ्रष्टाचार के भोंडेपन की वजह से मध्यवर्ग की घृणा के पात्र बनते हैं, जो उन्हें बनना भी चाहिए, लेकिन हर तरह का भ्रष्टाचार समान स्तर की घृणा पैदा नहीं करता।

मायावती की माला को लेकर छिड़े विवाद से भारतीय राजनीति में धन के सवाल पर बहस शुरू होने की संभावना है और इसलिए आवश्यक है कि इस प्रकरण की गहराई तक जाकर पड़ताल की जाए। इस पड़ताल के दायरे में ये सवाल हो सकते हैं- क्या मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों और भारतीय मध्यवर्ग को माला प्रकरण को लेकर मायावती की निंदा करने का अधिकार है, क्या मायावती का वोट बैंक इस विवाद की वजह से नाराज होकर उनसे दूर जा सकता है, राजनीति और चुनाव में धन की संस्कृति का स्रोत क्या है और क्या उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति का कोई दलित-वंचित विकल्प हो सकता है।

सबसे पहले तो इस बात की मीमांसा जरूरी है कि क्या मायावती कुछ ऐसा कर रही हैं, जो अनूठा है और इस वजह से चौंकानेवाला है। अगर मायावती के जन्मदिन पर हुए समारोह की इस आधार पर आलोचना की जाए कि राजनीति में ये धनबल का प्रदर्शन है, तो सिर्फ मायावती या बसपा ही इसके लिए दोषी कैसे हैं? धनबल भारतीय राजनीति की अस्थिमज्जा में इतने गहरे समा चुका है कि लगभग अथाह रुपयों के बिना संसदीय राजनीति करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन लोगों को मायावती को पहनाई गई नोटों की माला को देखकर उबकाई आ रही है, उन्हें दरअसल उबकाई उस दिन भी आनी चाहिए थी जब ये पता चला था कि दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक, भारत की लोकसभा में 2009 के आम चुनाव के बाद 300 से ज्यादा करोड़पति (करोड़पति यानी वे, जिन्होंने चुनाव आयोग को दिए हलफनामे में अपनी जायदाद एक करोड़ रुपए से ज्यादा घोषित की है। उनकी वास्तविक हैसियत और अधिक हो सकती है) सांसद पहुंचे हैं। ये संख्या पिछली लोकसभा से दोगुनी है। लोकसभा के एक सांसद की औसत घोषित जायदाद 5 करोड़ रुपए से ज्यादा है और लोकसभा के सभी एमपी की सम्मिलित जायदाद 2,800 करोड़ रुपए से ज्यादा है।

राजनीति में धन के संक्रमण की बीमारी राष्ट्रव्यापी हो चली है। महाराष्ट्र में अक्टूबर 2009 के विधानसभा चुनाव में 184 करोड़पति विधायक चुनकर आए। महाराष्ट्र विधानसभा में कुल 288 सीटें हैं। हरियाणा में हर चार में से तीन विधायक करोड़पति है। हरियाणा में भी महाराष्ट्र के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए। साथ ही ये बात भी साबित हो गई है कि जिस उम्मीदवार के पास ज्यादा पैसे हैं, उसके जीतने के मौके ज्यादा हैं। मिसाल के तौर पर, नेशनल इलेक्शन वाच ने आंकड़ों का अध्ययन करके बताया है कि महाराष्ट्र में अगर किसी के पास एक करोड़ रुपए से ज्यादा की जायदाद है तो 10 लाख रुपए या उससे कम जायदाद वाले के मुकाबले उसके जीतने के मौके 48 गुना ज्यादा हैं।

इस संदर्भ में भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की पहल पर किए गए चुनाव सुधारों की चर्चा की जानी चाहिए। शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त रहने के दौरान उम्मीदवारों पर, चुनाव खर्च की सीमा के अंदर चुनाव लड़ते हुए दिखने का दबाव पहली बार बना। वे आर्थिक उदारीकरण (बाजार अर्थव्यवस्था) के भी शुरुआती वर्ष थे। शेषन से पहले भी चुनाव खर्च की सीमा तो थी, लेकिन इसे एक औपचारिकता माना जाता था। उम्मीदवार मनमाना खर्च करते थे और अपना खर्च तय सीमा के अंदर दिखा देते थे। इस समय तक चुनावों में तड़क-भड़क खूब होती थी। पोस्टरों और झंडों से गलियां पट जाती थीँ। लगभग हर दीवार पर किसी न किसी उम्मीदवार या पार्टी के नारे लिखे होते थे। झंडे-बैनर से लेकर जुलूसों में गाड़ियों और मोटरसाइकिलों की संख्या आदि से किसी उम्मीदवार को मिल रहे समर्थन का एक हद तक अंदाज लग जाता था। बसों में भरकर लोग आते और खूब बड़ी-बड़ी रैलियां हुआ करती थीं।

लेकिन चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू किए जाने के बाद चुनाव में माहौल बनाने के ये तरीके बेअसर हो गए। मतदाताओं में संवाद कायम करने, उन तक पहुंचने के पुराने तरीके अब किसी काम के नहीं थे क्योंकि तय सीमा से ज्यादा गाड़ियां चुनाव प्रचार में शामिल नहीं हो सकती थीं, पोस्टर कहां लगाया जा सकता है और कहां नहीं और किसी की दीवार पर नारे लिखने से किसी उम्मीदवार को दिक्कत हो सकती है, जैसे नियमों ने चुनाव लड़ने के तरीके को निर्णायक रूप से बदल दिया। शेषन से पहले के दौर वाले चुनाव प्रचार के परंपरागत तरीकों में ऐसा लग सकता है कि काफी तड़क-भड़क होती होगी, लेकिन ये तरीके काफी हद तक सभी उम्मीदवारों की पहुंच के अंदर थे। अगर किसी उम्मीदवार को कार्यकर्ताओं का समर्थन हासिल होता था, तो उसके लिए दीवार लेखन करना, पोस्टर छापना, झंडे लगाना, बैनर टांगना, साइकिल-मोटरसाइकिल या गाड़ियों का जुलूस निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं होता था और न ही इन कामों में करोड़ों रुपए खर्च होते थे।

परंपरागत तरीके के चुनाव प्रचार में उम्मीदवार समान धरातल पर होते थे और किसी उम्मीदवार के झंडे किसी की छत पर लगे रहें या पोस्टर किसी के घर की दीवार पर चिपके रहें, ये पैसे से ज्यादा उसे हासिल समर्थन से तय होता था। इन सब तरीकों को मुश्किल बना दिए जाने के बाद पैसे के कुछ नए खेल शुरू हो गए, जिनसे चुनावी खर्च कई गुना बढ़ गया। मिसाल के तौर पर, किसी इलाके के प्रभावशाली व्यक्ति को अपने पक्ष में करने के लिए किए गए खर्च का हिसाब न देने का रास्ता अब भी खुला है। चुनाव से पहले प्रशासन के सहयोग से मतदाताओं के बीच शराब पहले भी बांटी जाती थी और अब भी बांटी जाती है। चुनाव में खुद खर्च न कर किसी समाजसेवी या स्वंयसेवी संगठन के माध्यम से किसी विरोधी उम्मीदवार के खिलाफ अभियान चलाया जा सकता है, जिसका खर्च उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होता। चुनाव पर खर्च करना नेताओं के लिए किसी निवेश की तरह है क्योंकि नेता बनना आमदनी के अनेकों नए रास्ते खोलता है। सांसदों और विधायकों के चुनाव आयोग में जमा आमदनी के हलफनामों का अध्ययन करके साबित किया जा चुका है कि जीते हुए उम्मीदवार अगले चुनाव तक काफी अमीर हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, उम्मीदवारों के हलफनामों के अध्ययन से पाया गया कि महाराष्ट्र में 2004 के विधानसभा चुनाव जीतने वाले एक औसत उम्मीदवार ने 2009 के चुनाव तक अपनी जायदाद में 3.5 करोड़ रुपए जोड़ लिए थे।

चुनाव जीतना जब इस कदर फायदे का सौदा हो तो जिताऊ पार्टियों के चुनावी टिकट पाने के लिए खर्च करने वालों की कमी कैसे हो सकती है। फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस-बीजेपी आदि में पैसे का ये खेल अभिजात्य सफाई के साथ किया जाता है जबकि बाकी पार्टियों में उपयुक्त राजनीतिक संस्कार न होने के कारण खेल खुल जाता है। साथ ही मुख्यधारा में बीएसपी, आरजेडी, जेएमएम जैसी कुछेक पार्टियां ऐसी बच गई हैं, जिनके आर्थिक स्रोतों में कॉरपोरेट पैसे की हिस्सेदारी काफी कम है। मायावती की माला की आलोचना में मुखर तीनों राजनीतिक पार्टियों, कांग्रेस, बीजेपी और सपा के कॉरपोरेट संबंध जगजाहिर हैं। कॉरपोरेट रिश्तों को निभाने में बड़ी पार्टियां ज्यादा विश्वसनीय मानी जाती हैं, इसलिए कंपनियों के रास्ते से आने वाले धन पर उनकी ही हिस्सेदारी होती है। दक्षिण भारत की राज्यस्तरीय कई पार्टियों ने भी कॉरपोरेट जगत के साथ अपने रिश्ते जोड़ लिए हैं। कॉरपोरेट संबंधों के बगैर जब कोई दल पैसे जुटाता है या पैसे जुटाने की कोशिश करता है, तो उसमें उसी तरह का भोंडापन नजर आता है, जिसके लिए बीएसपी, आरजेडी या झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां बदनाम मानी जाती हैं।

वामपंथी दलों के अपवाद को छोड़कर ढेर सारे पैसे के बगैर राजनीति में सफल होने का कोई महत्वपूर्ण मॉडल इस समय मौजूद नहीं है, इसलिए जो नेता पैसे जुटा सकता/सकती है, उसी की राजनीति चल सकती है। इस तंत्र को समझे बगैर ये अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि मायावती पैसे जुटाने पर इतना जोर क्यों देती हैं और लालू प्रसाद या शिबू सोरेन पैसे के लिए इतने बेताब क्यों नजर आते हैं। जिन दलों को कंपनियों से पैसे मिलते हैं, वो इन सब गंदे दिखने वाले कामों से परे रहकर राजनीतिक कदाचार और सदाचार की बात कर सकते हैं। राजनीति के लिए धन जुटाने के कॉरपोरेट और गैर-कॉरपोरेट दोनों ही खेल में विजेता नेता और हारने वाली जनता होती है। वैसे तुलना करके देखें तो राजनीति और कॉरपोरेट का संबंध जनता के लिए ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इसका असर नीतियों पर होता है। निजी भ्रष्टाचार की तुलना में नीतियों में भ्रष्टाचार कई गुणा ज्यादा लोगों को प्रभावित करने में सक्षम होता है।

एक सवाल ये भी है कि क्या मायावती की समर्थक जनता को इस तरह के विवाद से कोई फर्क पड़ता है? शायद नहीं। दलितों में इस समय पहचान की जिस तरह की राजनीति चल रही है, उसमें नेताओं की समृद्धि कोई शिकायती मुद्दा नहीं है। मुमकिन है कि अपने नेता को इतना समृद्ध देख कर गरीब दलित भी खुश होते हों कि उनका नेता भी कम हैसियत वाला नहीं है। दलित नेताओं के पहनावे और तामझाम पर जोर को और गांधी और अंबेडकर के पहनावे में फर्क को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दलितों को अपना नेता फकीर नहीं चाहिए क्योंकि ये तो उनके जीवन की असलियत है। वे तो इस स्थिति से उबरना चाहते हैं। खुद न भी सही तो प्रतीकों के जरिए ही वे अपना सशक्तिकरण देखते हैं और महसूस करते हैं। यहीं एक सवाल ये भी उठता है कि क्या दलित राजनीति किसी बेहतर राजनीतिक संस्कृति को सामने ला सकती है। इस सवाल के जवाब में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान संसदीय राजनीति के दायरे में, जहां पैसे की खनक राजनीति की दिशा को निर्णायक रूप से तय करने लगी है, दलित राजनीति का कोई अलग रास्ता संभव नहीं है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में संसदीय राजनीति के दायरे से बाहर वामपंथियों के कुछ समूह अलग तरह के राजनीतिक प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें दलितों और आदिवासियों की अच्छी-खासी हिस्सेदारी है। लेकिन इनसे कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी ही नहीं, बीएसपी को भी डर लगता है। इनका दमन माओवादी बताकर किया जा रहा है। ( ये लेख संपादन के बाद जनसत्ता के संपादकीय पेज पर छपा है।)

Monday, March 15, 2010

'औकात' तक सिमटता वजूद

प्रणव प्रियदर्शी

मुंबई के सायन उपनगर का एक फ्लैट। 29 साल की रंजन तैयार हो रही है। रविवार होने की वजह से दफ्तर में तो छुट्टी है, पर रंजन जल्दी-जल्दी तैयार हो रही है। ऐसा लगता है, उसे कहीं पहुंचना है और देर हो रही है। काम वाली बाई घर साफ करते हुए उस कमरे में आती है। रंजन को तैयार होते देख बोलती है, 'आज तो संडे है, आज किधर जाने का है?'
रंजन उसे एक नजर देखती है, 'संगीता मुलुक से कब लौटने वाली है?' काम वाली बताती है, 'अबी 10 दिन हैं।' रंजन बोलती है, 'तुम कल से नहीं आना काम पर। मैं संगीता से बात कर लेगी।' इतना कहते हुए रंजन बैग उठाकर निकल जाती है।

दरअसल, संगीता रंजन के घर का कामकाज देखती है। उसे गांव जाना था, इसलिए उसने छुट्टी ली और अपनी जगह कुछ दिनों के लिए इसे रखवा गई। मगर, यह नई कामवाली अपने काम से काम रखने के बदले रंजन की जिंदगी में दिलचस्पी लेने लगी। अपनी निजता में यह दखलंदाजी रंजन को पसंद नहीं आई, उसने उसे चलता कर दिया। मगर, संगीता से उसके रिश्तों में कोई बदलाव नहीं आया। गांव से लौटने के बाद संगीता फिर रंजन के घर काम करने लगी।

मुंबई में दफ्तर में काम करने वाली एक कामकाजी लडक़ी और उस लडक़ी के घर काम करने वाली बाई के बीच, या किसी ईरानी रेस्तरां में कॉफी का ऑर्डर देने वाले ग्राहक और लेनेवाले वेटर के बीच या फिर कार में बैठे साहब और उनके लिए सोसाइटी का मेन गेट खोलते वाचमैन के बीच वैसा ही प्रफेशनल रिश्ता होता है जैसा किसी कंपनी के मालिक और उस कंपनी के कर्मचारियों के बीच होता है। यह रिश्ता दोनों पक्षों की जरूरत से निर्देशित होता है। इसमें न तो एक पक्ष में दूसरे के लिए अनावश्यक आदर का भाव होता है और न ही दया या सहानुभूति का। रंजन ने काम वाली बाई को निकालते समय यह नहीं सोचा कि मैं निकाल दूंगी तो इस बेचारी का क्या होगा, न ही उसने कामवाली के लिए हिकारत का भाव दर्शाया।

मगर, दिल्ली में ये रिश्ते इतने सुलझे हुए नहीं नजर आते। मिस्टर दीक्षित एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर हैं। वह जब भी अपनी बीएमडब्लू से घर लौटते हैं, चाहे ऑफिस से आ रहे हों, या परिवार के साथ कोई फिल्म देखकर या फिर अपने किसी दोस्त को एयर पोर्ट से रिसीव कर - अपनी पॉश सोसाइटी के सामने आकर कार के अंदर से जब वह कहते हैं, 'बहादुर गेट खोलो', तो आवाज का कडक़पन और आदेशात्मक लहजा छिपा नहीं रह पाता। बहादुर के कान भी इस कडक़पन के इस कदर आदी हो चुके लगते हैं कि अगर किसी आवाज में यह कडक़पन नहीं रहता, इसके बदले विनम्रता जैसी कोई चीज होती है तो बहादुर को उस आवाज पर शक हो जाता है और यह शक खुद उसकी आवाज में कडक़पन घोल देता है. कहां से आए हैं, किससे मिलना है, जैसे उसके सवालों में वही कडक़पन आ जाता है जो मिस्टर दीक्षित जैसों की आवाज की खासियत है।

आवाज में यह कडक़पन लाना जैसे दिल्ली के खाते-पीते घरों के लोगों की जरूरत बन गया है। चाहे ऑटो वालों से किराया कम करने को कहना हो या सब्जी वालों से मोलभाव करना हो- आवाज में यह कडक़पन हर जगह नजर आता है। अगर आपकी आवाज में कडक़पन नहीं तो आपकी औकात संदिग्ध है।

सवाल यह है कि 'औकात' इतनी जरूरी चीज क्यों हो जाती है दिल्ली में? मुंबई में यह क्यों नहीं होती? क्या ऐसा है कि मुंबई में इसे जताने के तरीके दूसरे हैं? या फिर यह कि दिल्ली में हमारा पूरा वजूद औकात तक सिमटकर रह गया है?

Wednesday, March 10, 2010

लोकविमर्श, असहमति का निषेध और षड्यंत्रपूर्ण शांति

दिलीप मंडल

मुंबई
को कोई मुंबई न कहे या चेन्नई और कोलकाता को उनके पुराने नाम से पुकारे तो क्या ऐसे शख्स को देश या इन शहरों में रहने का हक नहीं होना चाहिए? इसी तरह किसी महिला के कपड़े की लंबाई कम हो या घेरा पतला तो क्या इस बात के लिए उस पर पत्थर फेंके जाने चाहिए? क्या कोई प्रेमी एक दूसरे को वेलंटाइन डे पर फूल भेंट करें या सार्वजनिक स्थानों पर कमर में हाथ डालकर घूमें तो ऐसी लड़की को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिए कि वो अपने साथी के हाथों में राखी बांधे? क्या फिल्मकार को इस बात का हक नहीं है कि वो ऐसी फिल्में बनाए, जिसके विचारों से लोग सहमत न हों और इसी तरह क्या लेखक और कवि को कोई भी रचना करने या चित्रकार को पेंटिंग बनाते और फोटोग्राफर को फोटो खीचने से पहले ये सोचना होगा कि समाज का सेंसर इसे पास करेगा या नहीं? कुछ लोगों के विरोध की वजह से क्या रचनाकर्मी और कलाकर्मी खुद ही अपने हाथों में हथकड़ी डाल लें?

ये सारे सवाल आज प्रासंगिक हैं और ऐसे ही सैकडों अन्य सवाल हैं जो आज पूछे जाने चाहिए क्योंकि इस समय विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बार फिर से हमला तेज हो रहा है।

लोकतंत्र में लोकविमर्श यानी पब्लिक स्फेयर का महत्व निर्विवाद है। एक निजी व्यक्ति के जनता या समूह बनने और अपनी राजनीतिक इच्छा और विचारों को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया इस लोकविमर्श से ही उपजी है। आधुनिक लोकतंत्र की जन्मभूमि यूरोप में कॉफी हाउसों से लेकर चर्च और ट्रेड यूनियन से लेकर मास मीडिया तक इस लोकविमर्श के माध्यम बने और राजतंत्र से लोकतंत्र की दिशा में बढ़ने में इसका काफी योगदान रहा। लोकविमर्श का मूल स्वभाव आलोचनात्मक माना गया और इसके लोक उपयोगी तरीके से काम करने की शर्त ये है कि इस पर सरकार या बडे़ वित्तीय हितों का दबाव न हो। अगर लोकविमर्श में असहमति की गुंजाइश न हो तो फिर वो लोकविमर्श नहीं है।

जर्मन दार्शनिक हायबरमास के इन सिद्धातों को देश विदेश के लाखो विद्यार्थी पढ़ते हैं और इसकी तमाम तरह की आलोचनाओं के बावजूद लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इसके महत्व को लेकर लगभग आम राय है। आज जबकि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की घटनाएं बढ़ रही हैं, तो इसे सिर्फ व्यक्ति के निजी अधिकारों का हनन मात्र नहीं माना जाना चाहिए। ये लोकविमर्श के दायरे को संकुचित करने की कार्रवाई है और प्रकारांतर में ये लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इसका विरोध इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए और इसी तरह का विरोध कारगर भी हो सकता है।

भारत में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले कई तरफ से हो रहे हैं। हालांकि मास मीडिया के मीडिया बाजार में तब्दील होने के दौर में सरकार की भूमिका घटी है। भारत में सरकार की ओर से लोकविमर्श पर नियंत्रण करने की सबसे बड़ी कोशिश इमरजेंसी के दौर में हुई थी, जब मीडिया सेंसरशिप लागू करके विरोध का गला घोंटने की कोशिश की गई। ये सेंसरशिप सिर्फ अखबारों और पत्रिताओं ही नहीं बल्कि हर तरह के प्रकाशनों पर लगाई गई थी। लेकिन उसके बाद से सरकारों ने कभी खुले तौर पर सेंसरशिप लागू करने की कोशिश नहीं की। ये बात और है कि सरकारों के पास कई ऐसे उपकरण हैं और 30 से ज्यादा ऐसे कानून हैं जिसके जरिए वो समाचारों, सूचनाओं और विचारों के प्रसार को रोक सकती है या रोकती है।

विचारों पर नियंत्रण का दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू अब बाजार है। विचारों के लोकतंत्र पर ये ऐसा नियंत्रण है जो जोर जबर्दस्ती लागू नहीं किया जाता। संचार माध्यम इसे स्वेच्छा से लागू करते हैं क्योंकि इसके साथ उनका अर्थशास्त्र जुड़ा हुआ है। इस बारे में बड़ी संख्या में शोध कार्य हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि संचार माध्यमों का अर्थशास्त्र किस तरह से एक फिल्टर यानी छननी का काम करता है। आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत में ये फिल्टर ज्यादा असरदार हो गया है।

लेकिन इस समय विचारों पर लगे जिस पहरे की ज्यादा चर्चा है वो समाज के अतिवादियों की तरफ से आया है। किसी समाज में अलग अलग समय में अतिवादी विचारों के मानने वालों की संख्या और उनके विचारों के असर में कमी-बेसी होती रहती है। विचारों के लोकतंत्र से हर तरह के अतिवादी विचार को खतरा होता है। अतिवादी विचारधारा धर्म से लेकर जाति और राजनीतिक विचारों से जुड़ी हो सकती है। इनमें साझा बात ये है कि ये सहिष्णुता को अपना दुश्मन मानती हैं और इस मायने में ये सरासर अलोकतांत्रिक है। कोई भी परिपक्व लोकतंत्र विरोध के ढेर सारे स्वरों को सुनने की उदारता बरतता है। ये स्वर तीखे भी हों तो उसकी लोकतंत्र में गुंजाइश होती है और होनी चाहिए।

ऐसे में किसी फिल्म में मुंबई को मुंबई न कहने पर हंगामा करे, किसी चित्र से असहमति होने की वजह से चित्रकार को मारने का फतवा देने, किसी पत्रिका को माओवादी बताकर उसके संपादक को जेल में बंद कर देने, किसी के कम या अलग तरीके के कपड़े पहनने पर उसके साथ दुर्व्यवहार करने, वेलंटाइन डे पर कार्ड और फूल देने को भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताते हुए दुकानों में तोड़फोड़ करने, फिल्मों से पोस्टर फाड़ने, जबरन गानों के बोल बदलवाने, किताबों को प्रतिबंधित करने, जलाने, नुक्कड़ नाटकों का प्रदर्शन रोकने जैसी लगातार हो रही घटनाएं ये बताती हैं कि भारतीय लोकतंत्र का शैशव काल अभी समाप्त नहीं हुआ है।

दरअसल इस तरह असहमति को कुचलने की कोशिश करने वाले सभी लोग इस बात की अनदेखी करते हैं कि असहमति के बगैर लोकतंत्र निर्जीव हो जाएगा। ऐसा करना खास तौर पर आपत्तिजनक है जब जब ऐसा काम वे राजनीतिक संगठन करते हैं जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होते हैं और चुनाव जीतकर सरकार भी चलाते हैं। असहिष्णुता एक ऐसा विचार है, जिसके आसपास लोगों की गोलबंदी मुमकिन है, लेकिन इसके खतरों को समझना जरूरी है। लोकतांत्रिक विमर्श की गुंजाइश का कम होना अलग अलग समय में अलग अलग दलों के लिए मारक साबित हो सकता है। और ऐसा न भी हो तो लोकतंत्र का तेज इस वजह से कम होता ही है।

(राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 9 मार्च 2009 को प्रकाशित)

Sunday, February 28, 2010

पहले दिल में थे, अब बटुए में हैं

-मोनिका

(मोनिका रांची, झारखंड में पब्लिक एजेंडा पत्रिका से जुड़ी हैं।)



मोहनदास करमचंद गांधी। हमारे और आपके लिए भले ही यह नाम आज देश का सर्वप्रिय और सबसे सम्मानित संस्था का हो, लेकिन इसके अनुसरण का हर मौका हाथ से जाता रहता है और लोग इसके मूक गवाह बने देखते रह जाते हैं।

गांधी की सामयिकता आज की तारीख में भौतिकता को छोड़कर कहीं नज़र नहीं आती। जिस सत्य के लिए गांधी ने जोहान्सबर्ग से लेकर साबरमती तक जुल्म सहे, उसी सत्य का आज बेशर्मी के साथ संहार हो रहा है। गांधी की जन्मभूमि गुजरात में ही उनके सबसे प्रबल हथियार "अहिंसा' की धार कुंद कर दी गयी। जिन-जिन बातों से गांधीजी ने देश को निषेधात्मक धारा में ले जाने की कोशिश की थी, उन्हीं रास्तों पर आज बलता के साथ लोग आगे बढ़ रहे हैं।

सवाल उठ रहे हैं कि आज की तारीख़ में गांधी हैं कहां? क्या गांधी की ज़रूरत देश को है? जवाब भी खुद देशवासी ही देते हैं- हां गांधी की ज़रूरत है, लेकिन मेरे घर में नहीं, पड़ोस में। कुल मिलाकर गांधी की सर्वव्यापकता को संकुचित करने में भारत ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। आज गांधीजी की प्रासंगिकता कहीं सबसे ज़्यादा दिखती है, तो वह है नोट में। नोट असली है कि नकली, यह जांचने के औजार के रूप में इस्तेमाल होते हैं गांधीजी। नैन-नक्श, चश्मा, लाठी सब ठीक है तभी नोट की दूसरी तकनीकी बिंदुओं की जांच की जाती है। अगर सब कुछ ठीक है, तो गड्डियों में एक के ऊपर एक तह लगाकर गांधी को भी तिजोरियों की भेंट चढ़ा दिया जाता है।

और, आज गांधी सीमित हैं चौक-चौराहों तक। देश के हर भूभाग में एक गांधी चौक या एक गांधी चौराहा तो आपको ज़रूर मिल जायेगा। इन चौराहों पर "आधे गांधी' हैरत के साथ इस आधुनिक भारत के भागदौड़ को देखते नज़र आयेंगे। चौक-चौराहों में टिकाये गये गांधी देखते रहते हैं कि किस बेशर्मी के साथ उनकी प्रतिमा के सामने खड़े होकर पुलिसवाले ट्रैफिक के कथित नियमों को तोड़ने का हवाला देकर लोगों से पैसे ऐंठ रहे हैं।

पिछले 60 वर्षों में इस देश ने गांधी के नाम को सिर्फ भुनाया ही है। गांधीवाद को एक कवच की तरह पहना है। गांधीजी की पदयात्रा का अनुसरण आज भी होता है, लेकिन सिर्फ वोट मांगने के लिए। नेता एक शहर से दूसरे शहर और गांव की पगडंडियों में चलते आज भी नज़र आते हैं लेकिन सिर्फ चैनलों को बाइट देने के लिए। उनके साथ एसी गाड़ियों की लंबी कतार उन्हें आरामदेह यात्राएं कराने के लिए हमेशा साथ रहती हैं। गांधीजी स्वराज और सत्य के लिए जेल भी गये थे। आज भी लोग जेल जा रहे हैं और सच भी बोल रहे हैं कि हां, हमने खाये देश के करोड़ों रुपये। गांधीजी सूत कातते थे और खादी पहनते थे, हम भाषण कात रहे हैं और वाहवाही पहन रहे हैं।

गांधी आज एक मेहमान हो चुके हैं, जो साल में दो बार आते हैं - पहली बार दो अक्तूबर को, दूसरी बार तीस जनवरी को। गांधी जयंती पर हम खुश हो जाते हैं कि पता नहीं अगर ये सख्श न होता, तो हम किस अंग्रेज गवर्नर के यहां जूते साफ कर रहे होते और आज तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहते। शुक्र है कि इस अर्द्धनग्न महापुरुष ने हमें आज़ाद तो कराया। और, साहब पुण्यतिथि को तो लोग ज़रूर आंसू बहाते हैं, इसलिए नहीं कि इस दिन गांधीजी दुनिया से विदा हुए थे, बल्कि इसलिए क्योंकि तीस जनवरी को सरकारी छुट्टी नहीं होती ना। लोग सोचते हैं और मन ही मन सरकार को कोसते हैं कि काश! आज छुट्टी होती, तो मल्टिप्लेक्स में एक मज़ेदार फिल्म देख आते और ब्रेकफास्ट से लेकर डिनर तक का मजा बाहर ही उठाते, लेकिन हाय रे सरकार छुट्टी नहीं देती। लोगों को तो इतने में भी संतोष नहीं।

देश में आज भी ऐसे एहसानफरामोशों की कमी नहीं, जो आज गांधी को इस बात के लिए कोसते हैं कि क्यों दिलाई हमें आजादी? अच्छे भले ब्रिटिश शासन में थे। कम से कम आज की तरह भ्रष्ट सरकारों से तो हम त्रस्त नहीं थे। अब उन्हें कौन समझाये कि गांधी ने आपको इसलिए आज़ादी नहीं दिलायी थी कि आप खुद भ्रष्ट लोगों को चुनकर संसद भेजें, बल्कि उन्होंने तो भारत और भारतवासियों के कल्याण के सिवा कुछ सोचा ही नहीं था। फिर, गांधी की जगह दिल से हटकर पर्स तक ही सीमित कैसे हो सकती है?
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