लिंकन और केनेडी दोनों अमेरिका के राष्ट्रपति थे. दोनों को इतिहास मे महान राष्ट्रपति का दर्जा हासिल है. इसके अलावा भी दोनों मे समानताएं थीं? कितनी? अंदाजा लगा सकते हैं? नहीं तो नीचे की पंक्तियाँ पढिये. दैनिक भास्कर (२९ अप्रिल) के अपने दैनिक स्तंभ मे एन रघुरामन ने एक ईमेल के हवाले से इन समानताओं का जिक्र किया है. ये दिलचस्प जानकारियाँ आप सबके साथ शेयर करने के लिए हम यहाँ दे रहे हैं.
अब्राहम लिंकन को १८४६ मे कांग्रेस के लिए चुना गया था.
जॉन एफ कैनेडी को १९४६ मे कांग्रेस के लिए चुना गया था.
अब्राहम लिंकन को १८६० मे राष्ट्रपति चुना गया था.
जॉन एफ कैनेडी को १९६० मे राष्ट्रपति चुना गया था.
दोनों विशेष रूप से नागरिक अधिकारों के लिए चुने गए थे.
दोनों की पत्नियों ने व्हाइट हाउस मे रहते हुए एक बच्चा खोया था.
दोनों को शुक्रवार के दिन गोली मारी गयी थी.
दोनों को सिर मे गोली मारी गयी थी.
लिंकन के सचिव का उपनाम केनेडी था.
केनेडी के सचिव का उपनाम लिंकन था.
दोनों की हत्या दक्षिणवर्ती अमेरिकियों ने की थी.
दोनों के उत्तराधिकारी का उपनाम जॉन्सन था.
लिंकन के उत्तराधिकारी एंड्रू जॉन्सन का जन्म १८०८ मे हुआ था.
केनेडी के उत्तराधिकारी लंदन जॉन्सन का जन्म १९०८ मे हुआ था.
लिंकन के हत्यारे जॉन विल्किस बूथ का जन्म १८३९ मे हुआ था.
केनेडी के हत्यारे ली हार्वे ओसवाल्ड का जन्म १९३९ मे हुआ था.
दोनों हत्यारे तीन नामो से जाने जाते थे.
दोनों के नाम १५ अक्षरों से बने थे.
लिंकन को गोली फोर्ड नामक थियेटर मे मारी गयी थी.
केनेडी को गोली फोर्ड द्वारा निर्मित लिंकन नामक कार मे मारी गयी थी.
बूथ और ओसवाल्ड दोनों की हत्या मुकदमा शुरू होने से पहले ही कर दी गयी.
मारे जाने से एक सप्ताह पहले लिंकन मोनरोई मेरीलैंड मे थे.
मारे जाने से एक सप्ताह पहले केनेडी मेरिलीन मोनरोई मे थे.
लिंकन को थियेटर मे गोली मार कर हत्यारा एक मालगोदाम की ओर भागा था.
केनेडी को एक मालगोदाम मे गोली मार कर हत्यारा थियेटर की ओर भागा था.
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Wednesday, April 30, 2008
Monday, April 28, 2008
सब मिलें कैसे?
सचिन समाचार पत्रिका सीनियर इंडिया से जुडे हैं. संवेदनशील हैं, मगर लिख कर कुछ कहने मे हिचकते हैं. यह किसी भी ब्लौग पर उनकी पहली पोस्ट है. उम्मीद है पाठक लिखने के ढंग से ज्यादा उनके विचारों पर गौर करेंगे. उम्मीद यह भी है कि सचिन अगली पोस्ट खुद लिख कर देंगे.
सचिन शर्मा
कम अवसरों को ज्यादा लोगों में बांटने के नये-नये नुस्खो मे सर खपाये रखने का सिलसिला कब तक चलेगा? अगर लोग ज्यादा हैं और रोटियां कम तो आप चाहे जाति के आधार पर बांटे या धर्म के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर बाँटें या भाषा के आधार पर, लिंग के आधार पर बाँटें या प्रतिभा के आधार पर - नतीजा एक ही निकलता है कि कुछ लोग रोटी पायेंगे और कुछ को भूखे पेट सोना पड़ेगा.
फिर भी सारे विद्वान् इसी मगजमारी मे अपनी पूरी ऊर्जा झोंके रहते हैं कि आखिर कौन सा आधार सर्वाधिक उपयुक्त है और क्यों? जन समूह भी इस खेल मे शामिल हो जाते हैं. वे बेचारे ज्यादा कुछ नही सोचते. जिस विद्वान् के बताये आधार मे उन्हें अपने लिए रोटी पाने की सबसे ज्यादा संभावना दिखती है, उसी आधार की वकालत वे जोरदार शब्दों मे करने लगते हैं. रोटी पाना उनके लिए इतना जरूरी है कि वे अलग आधार की वकालत करने वालो से भिड जाने उनके साथ मार-पीट करने मे भी नहीं हिचकते.
क्या बहस को आधार से सीधे रोटी तक नही खींचा जा सकता? आखिर हम यह मान कर ही क्यों शुरू करते हैं कि सबको रोटी नही मिल सकती? सबके लिए नौकरी का इन्तजाम नही किया जा सकता. हर नौकरी मे परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी करने लायक तनख्वाह सुनिश्चित नही की जा सकती. हम क्यों यह सब माने बैठे हैं?
और चूंकि हम यह सब मान बैठे हैं इसीलिए शुरू होने से पहले ही हमारे विमर्श का दायरा इतना सीमित हो जाता है कि उससे नया कुछ न निकलना तय रहता है.
हम कहते हैं आरक्षण सिर्फ आर्थिक दिक्कतें दूर करने के लिए नही चाहिए. आरक्षण अहम् स्थानों पर भागीदारी बढाने के लिए चाहिए. हम यह भूल जाते हैं इन कथित 'अहम्' स्थानों पर प्रतिनिधित्व इसीलिए चाहिए ताकि संसाधनों के बंटवारे मे उस खास समुदाय को हिस्सा कुछ ज्यादा मिले.
मीणा समुदाय को आरक्षण मिल तो नौकरियों मे उसकी भागीदारी बढ़ गयी. उस समुदाय के बच्चों के लिए लाइब्रेरी ज्यादा खुल गयी. वे पढ़ने लगे. नौकरियों मे उनका प्रवेश आसान हो गया. अब गुर्जर समुदाय को लग रहा है कि अगर उसे भी आरक्षण की उतनी ही मजबूत बैसाखी मिल जाये तो अहम् स्थानों पर उसका प्रवेश भी आसान हो जायेगा. बात घूम-फिर कर फिर संसाधनों के बंटवारे पर ही आ जाती है.
क्या ये सभी लोग मिल कर सबको रोटी सबको काम की मांग नही मनवा सकते?
सब लोग मिल कर तो सब कुछ कर सकते हैं. सब कुछ. लेकिन सब लोग मिलें कैसे?
सचिन शर्मा
कम अवसरों को ज्यादा लोगों में बांटने के नये-नये नुस्खो मे सर खपाये रखने का सिलसिला कब तक चलेगा? अगर लोग ज्यादा हैं और रोटियां कम तो आप चाहे जाति के आधार पर बांटे या धर्म के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर बाँटें या भाषा के आधार पर, लिंग के आधार पर बाँटें या प्रतिभा के आधार पर - नतीजा एक ही निकलता है कि कुछ लोग रोटी पायेंगे और कुछ को भूखे पेट सोना पड़ेगा.
फिर भी सारे विद्वान् इसी मगजमारी मे अपनी पूरी ऊर्जा झोंके रहते हैं कि आखिर कौन सा आधार सर्वाधिक उपयुक्त है और क्यों? जन समूह भी इस खेल मे शामिल हो जाते हैं. वे बेचारे ज्यादा कुछ नही सोचते. जिस विद्वान् के बताये आधार मे उन्हें अपने लिए रोटी पाने की सबसे ज्यादा संभावना दिखती है, उसी आधार की वकालत वे जोरदार शब्दों मे करने लगते हैं. रोटी पाना उनके लिए इतना जरूरी है कि वे अलग आधार की वकालत करने वालो से भिड जाने उनके साथ मार-पीट करने मे भी नहीं हिचकते.
क्या बहस को आधार से सीधे रोटी तक नही खींचा जा सकता? आखिर हम यह मान कर ही क्यों शुरू करते हैं कि सबको रोटी नही मिल सकती? सबके लिए नौकरी का इन्तजाम नही किया जा सकता. हर नौकरी मे परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी करने लायक तनख्वाह सुनिश्चित नही की जा सकती. हम क्यों यह सब माने बैठे हैं?
और चूंकि हम यह सब मान बैठे हैं इसीलिए शुरू होने से पहले ही हमारे विमर्श का दायरा इतना सीमित हो जाता है कि उससे नया कुछ न निकलना तय रहता है.
हम कहते हैं आरक्षण सिर्फ आर्थिक दिक्कतें दूर करने के लिए नही चाहिए. आरक्षण अहम् स्थानों पर भागीदारी बढाने के लिए चाहिए. हम यह भूल जाते हैं इन कथित 'अहम्' स्थानों पर प्रतिनिधित्व इसीलिए चाहिए ताकि संसाधनों के बंटवारे मे उस खास समुदाय को हिस्सा कुछ ज्यादा मिले.
मीणा समुदाय को आरक्षण मिल तो नौकरियों मे उसकी भागीदारी बढ़ गयी. उस समुदाय के बच्चों के लिए लाइब्रेरी ज्यादा खुल गयी. वे पढ़ने लगे. नौकरियों मे उनका प्रवेश आसान हो गया. अब गुर्जर समुदाय को लग रहा है कि अगर उसे भी आरक्षण की उतनी ही मजबूत बैसाखी मिल जाये तो अहम् स्थानों पर उसका प्रवेश भी आसान हो जायेगा. बात घूम-फिर कर फिर संसाधनों के बंटवारे पर ही आ जाती है.
क्या ये सभी लोग मिल कर सबको रोटी सबको काम की मांग नही मनवा सकते?
सब लोग मिल कर तो सब कुछ कर सकते हैं. सब कुछ. लेकिन सब लोग मिलें कैसे?
Thursday, April 24, 2008
बाबू परमानंद नहीं रहे
हरियाणा के पूर्व राज्यपाल और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के अध्यक्ष रहे बाबू परमानंद का लंबी बीमारी के बाद जम्मू में निधन हो गया। वो 76 साल के थे। बाबू परमानंद का जन्म जम्मू-कश्मीर में आरएस पुरा तहसील के सारोर गांव में हुआ। वो छह बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए चुने गए। अपने राजनीतिक जीवन में उनका जुड़ाव नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस और बीजेपी से रहा। वर्ष 2000 में वो हरियाणा के राज्यपाल बने और केंद्र में यूपीए की सरकार आने के बाद उन्हें ये पद छोड़ना पड़ा।
बाबू परमानंद की एकेडमिक्स और खासकर अर्थशास्त्र में अच्छी दखल मानी जाती थी। हालांकि उन्होंने कानून की भी पढ़ाई की थी। बाबू परमानंद जम्मू-कश्मीर बैंक और जम्मू रूरल बैंक के निदेशक भी रहे।
दलित साहित्य में उनकी गहरी दिलचस्पी थी और वो भारतीय दलित साहित्य अकादमी जम्मू-कश्मीर के अध्यक्ष भी रहे। डोगरी के अलावा हिंदी, इंग्लिश, उर्दू और पंजाबी पर उनका अधिकार था। उन्हें राष्ट्रीय दलित साहित्य अकादमी का बीआर अंबेडकर सम्मान भी मिला। ये सम्मान उन्हें तत्कालीन पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन ने प्रदान किया।
बाबू परमानंद को हमारी श्रद्धांजलि।
बाबू परमानंद की एकेडमिक्स और खासकर अर्थशास्त्र में अच्छी दखल मानी जाती थी। हालांकि उन्होंने कानून की भी पढ़ाई की थी। बाबू परमानंद जम्मू-कश्मीर बैंक और जम्मू रूरल बैंक के निदेशक भी रहे।
दलित साहित्य में उनकी गहरी दिलचस्पी थी और वो भारतीय दलित साहित्य अकादमी जम्मू-कश्मीर के अध्यक्ष भी रहे। डोगरी के अलावा हिंदी, इंग्लिश, उर्दू और पंजाबी पर उनका अधिकार था। उन्हें राष्ट्रीय दलित साहित्य अकादमी का बीआर अंबेडकर सम्मान भी मिला। ये सम्मान उन्हें तत्कालीन पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन ने प्रदान किया।
बाबू परमानंद को हमारी श्रद्धांजलि।
Wednesday, April 23, 2008
पढ़ने के आनंद का सालाना महोत्सव
आज विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस है- किताबों को पढ़ने के आनंद का सालाना महोत्सव। 1996 से संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने इसे विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है। खास तौर पर इसलिए भी कि 1616 में इसी दिन आधुनिक यूरोपीय साहित्य के दो पुरोधा शेक्सपियर और स्पेन के उपन्यासकार, कवि, नाटककार और डॉन क्विक्ज़ोट के रचनाकार सेरवांतेज़ की मृत्यु हुई थी। इस दिन के आयोजनों का मकसद खास तौर पर नई पीढ़ी की किताबों में रुचि को बढ़ाना और उन्हें अच्छी किताबें उपलब्ध कराना है। यह उन सबको एक श्रद्धांजलि भी है जिन्होंने किताबों के जरिए सामाजिक, सांस्कृतिक तरक्की का रास्ता बनाया।
इसकी शुरुआत 1929 में स्पेन की छपाई नगरी बार्सिलोना में संत जॉर्ज या जोर्दी के दिन को मनाने से होती है जब लोग एक-दूसरे को किताबें और गुलाब भेंट करते थे। ज्यादा विस्तार से कहें तो पुरुष अपनी प्रिय महिलाओं को गुलाब भेंट करते थे, बदले में महिलाएं उन्हें किताबें भेंट करती थीं। यह परंपरा वहां आज भी कायम है। हर साल 23 अप्रैल को आधे दिन के लिए शहर के सारे बाज़ार बंद हो जाते हैं और सड़कें सज जाती हैं हजारों किताबों की दुकानों से।
बड़े प्रकाशकों की सुंदर दुकानों से लेकर अपनी किताबें हर खासो-आम के साथ बांटने के शौकीनों की महज एक टेबल पर सजी हर तरह की किताबों तक सब कुछ वहां आए लोगों को नज़र होता है। दुनिया के दूसरे समाजों को जानने और उन्हें अपने बारे में बताने की सहज चाहत सिर चढ़ कर बोलती है। दूसरे लोगों, विषयों, विचारों को गहराई से जानने की कोशिश इस आधे दिन में जम कर होती है। फारसी की आध्यात्मिक किताब से लेकर आधुनिक अर्थशास्त्र तक सब कुछ यहां मिलता है। इस दिन प्रकाशक साल भर की बिक्री के बड़े हिस्से की कमाई की उम्मीद करते हैं। अंदाज़ा है कि पिछले साल इस एक दिन में यहां चार लाख किताबें बिक गईं।
दो दिन तक लगातार डॉन क्विक्ज़ोट पढ़ने की प्रतियोगिता भी इस दौरान होती है और किताबों और पाठकों से जुड़े दूसरे आयोजन भी। किताबों के उत्सव में पढ़ने के शौकीन ही नहीं, अजीब चीजों के शौकीन भी पहुंचते हैं। कोई बुकमार्क जमा करता है तो कोई किताबों के विचित्र/ विलक्षण पोस्टर तो कोई अनोखी किताबें ही। इस मौके पर संस्कृति के दूसरे रंग भी आस-पास बिखरे होते हैं और इस महोत्सव के बूते पर फलते-फूलते हैं। साथ ही फलते-फूलते हैं प्यार-मोहब्बत के रिश्ते और घूमने-फिरने के बहाने।
बार्सिलोना की यह अनूठी संस्कृति जापान जैसे दुनिया के दूसरे देशों तक भी पहुंची है। हिंदुस्तान तक इसकी सुखद पहुंच का बेसब्री से इंतज़ार है।
Monday, April 21, 2008
भय को भूत न बनाएं
ब्लोगर साथियों के लिए विजय शंकर का नाम अपरिचित नही रह गया है. उनकी यह टिप्पणी राजीव रंजन की टिपण्णी के प्रतिक्रियास्वरूप आयी है, लेकिन यह इस विमर्श को सार्थक ढंग से आगे बढाती है, इसे व्यापकता प्रदान करती है. विजय की पूरी टिप्पणी आप उनके ब्लोग आज़ादलब पर देख सकते हैं.
विजय शंकर चतुर्वेदी
जिन मानसिक-शारीरिक बीमारियों को लोग भूत लग जाना समझ लेते हैं, उसका खुलासा दो-तीन घटनाओं के माध्यम से लेखक ने करने की कोशिश की है। लेकिन ये घटनाएँ, ऐसा लगता है कि एक थीम को किसी तरह साबित कर देने की जिद के तहत घटी हैं.
दरअसल लेख में आपकी मूल स्थापना से मैं सहमत हूँ कि भूत-प्रेत का हव्वा खड़ा करके सदियों से चालाक लोग अशिक्षित (और कई बार तो श्रेष्ठी वर्ग को भी) लोगों को ठगते एवं उनका शोषण करते रहे हैं। यह शोषण कई स्तरों पर होता आया है., लैंगिक शोषण भी.
लेख में अगर भूत-प्रेत की अवधारणा का चिट्ठा खोला जाता और इस अवधारणा की मौजूदगी की जेनुइन वजहें तलाशी जातीं तो संभवतः कई दिलचस्प बातें सामने आतीं।
याद आता है कि किस तरह एक गुरु घंटाल नागपुर से एक जज की बीवी को यह यकीन दिलाकर भगा ले गया था कि वह जज की बीवी के पूर्व जन्म में उसका पति था। और जज ने यकीन भी कर लिया था. संभवतः भूत-प्रेतों की मौजूदगी स्वीकारने के लिए दिमाग ऐसी ही किसी अवस्था में चला जाता होगा. ऐसे ढेरों उदाहरण समाज में आपको मिल जायेंगे. सम्मोहन भी इसका एक रूप है.
बचपन में कई बार मुझे ऐसा लगा भी कि 'श्श्श्श् कोई है' ...तो बड़े-बूढ़ों ने सदा यही कहा कि यह मन का भ्रम है। भूत-प्रेत नहीं होते. अगर वे मुझे ओझा या गुनिया के पास झाड़-फूंक के लिए पकड़ ले जाते तो मैं जिंदगी भर 'धजी को सांप' समझता रहता. लेकिन इस विश्वास का बीज बचपन में ही नष्ट कर दिया गया. बाद में कभी इस तरह के ख़याल का पौधा नहीं उगा.
आज पत्र-पत्रिकाओं, नाना प्रकार के टीवी चैनलों तथा सम्पर्क-अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के ज़रिये हमारे बीच भूत-प्रेतों की दुनिया आबाद की जा रही है। बच्चों के कोमल दिमाग पर इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ता है, कभी सोचा है? आप गौर करेंगे कि भूत-प्रेतों और जिन्नात की दुनिया वाले रिसाले उन लोगों के बीच ज्यादा खपते हैं जिनका विकसित और आधुनिक दुनिया से ज्यादा लेना-देना नहीं होता. सारा बिजनेस उसी बंद समाज से चलता है. किस्मत बदलने के लिए तांत्रिक की अंगूठी, बाज़ का पंजा, मर्दानगी बढ़ाने के लिए शिलाजीत जैसी अनेक चीजें वहीं खपती है. लेकिन मार्केट बढ़ाने के लिए जरूरत है कि यह तिलिस्म वृहत्तर शहरी समाज को भी अपनी गिरफ्त में ले ले. आश्चर्य की बात नहीं है कि आजकल अधिकांश हिन्दी चैनल शाम ढलते ही रामसे की फिल्मों के सेट में तब्दील हो जाते हैं.
इन भूत-प्रेत आधारित कार्यक्रमों (क्रियाकर्मों पढ़ें) को देखने के बाद बच्चों के मन पर क्या बीतती होगी? क्या बड़ा होकर वे भूत-प्रेत की संकल्पना से मुक्त हो सकेंगे? और फिर वे अपने बच्चों को क्या दे जायेंगे? यह सही है कि अन्य मनोविकारों की ही तरह मनुष्य के मन में भय उपस्थित रहता है. काम, क्रोध, मद लोभ, ईर्ष्या की तरह ही भय भी हमारे 'सॉफ्टवेयर' में 'इनबिल्ट' है. परन्तु मित्रो, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम भय को भूत न बनाएं.
विजय शंकर चतुर्वेदी
जिन मानसिक-शारीरिक बीमारियों को लोग भूत लग जाना समझ लेते हैं, उसका खुलासा दो-तीन घटनाओं के माध्यम से लेखक ने करने की कोशिश की है। लेकिन ये घटनाएँ, ऐसा लगता है कि एक थीम को किसी तरह साबित कर देने की जिद के तहत घटी हैं.
दरअसल लेख में आपकी मूल स्थापना से मैं सहमत हूँ कि भूत-प्रेत का हव्वा खड़ा करके सदियों से चालाक लोग अशिक्षित (और कई बार तो श्रेष्ठी वर्ग को भी) लोगों को ठगते एवं उनका शोषण करते रहे हैं। यह शोषण कई स्तरों पर होता आया है., लैंगिक शोषण भी.
लेख में अगर भूत-प्रेत की अवधारणा का चिट्ठा खोला जाता और इस अवधारणा की मौजूदगी की जेनुइन वजहें तलाशी जातीं तो संभवतः कई दिलचस्प बातें सामने आतीं।
याद आता है कि किस तरह एक गुरु घंटाल नागपुर से एक जज की बीवी को यह यकीन दिलाकर भगा ले गया था कि वह जज की बीवी के पूर्व जन्म में उसका पति था। और जज ने यकीन भी कर लिया था. संभवतः भूत-प्रेतों की मौजूदगी स्वीकारने के लिए दिमाग ऐसी ही किसी अवस्था में चला जाता होगा. ऐसे ढेरों उदाहरण समाज में आपको मिल जायेंगे. सम्मोहन भी इसका एक रूप है.
बचपन में कई बार मुझे ऐसा लगा भी कि 'श्श्श्श् कोई है' ...तो बड़े-बूढ़ों ने सदा यही कहा कि यह मन का भ्रम है। भूत-प्रेत नहीं होते. अगर वे मुझे ओझा या गुनिया के पास झाड़-फूंक के लिए पकड़ ले जाते तो मैं जिंदगी भर 'धजी को सांप' समझता रहता. लेकिन इस विश्वास का बीज बचपन में ही नष्ट कर दिया गया. बाद में कभी इस तरह के ख़याल का पौधा नहीं उगा.
आज पत्र-पत्रिकाओं, नाना प्रकार के टीवी चैनलों तथा सम्पर्क-अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के ज़रिये हमारे बीच भूत-प्रेतों की दुनिया आबाद की जा रही है। बच्चों के कोमल दिमाग पर इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ता है, कभी सोचा है? आप गौर करेंगे कि भूत-प्रेतों और जिन्नात की दुनिया वाले रिसाले उन लोगों के बीच ज्यादा खपते हैं जिनका विकसित और आधुनिक दुनिया से ज्यादा लेना-देना नहीं होता. सारा बिजनेस उसी बंद समाज से चलता है. किस्मत बदलने के लिए तांत्रिक की अंगूठी, बाज़ का पंजा, मर्दानगी बढ़ाने के लिए शिलाजीत जैसी अनेक चीजें वहीं खपती है. लेकिन मार्केट बढ़ाने के लिए जरूरत है कि यह तिलिस्म वृहत्तर शहरी समाज को भी अपनी गिरफ्त में ले ले. आश्चर्य की बात नहीं है कि आजकल अधिकांश हिन्दी चैनल शाम ढलते ही रामसे की फिल्मों के सेट में तब्दील हो जाते हैं.
इन भूत-प्रेत आधारित कार्यक्रमों (क्रियाकर्मों पढ़ें) को देखने के बाद बच्चों के मन पर क्या बीतती होगी? क्या बड़ा होकर वे भूत-प्रेत की संकल्पना से मुक्त हो सकेंगे? और फिर वे अपने बच्चों को क्या दे जायेंगे? यह सही है कि अन्य मनोविकारों की ही तरह मनुष्य के मन में भय उपस्थित रहता है. काम, क्रोध, मद लोभ, ईर्ष्या की तरह ही भय भी हमारे 'सॉफ्टवेयर' में 'इनबिल्ट' है. परन्तु मित्रो, हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम भय को भूत न बनाएं.
Saturday, April 19, 2008
मैंने भी देखे हैं भूत-प्रेत और जिन्न
भूतों की बात छेड़ी है पूजा प्रसाद ने अपने नवनिर्मित ब्लोग तीन बिंदु पर. हिन्दी समाचार पत्रिका सीनियर इंडिया से जुडे पत्रकार राजीव रंजन अपने अनुभवों के जरिये इस भूत-विमर्श को आगे बढा रहे हैं. चूंकि भूत लगने और भगाने की पूरी प्रक्रिया का शिकार प्रायः निरपवाद रूप से इस देश का रिजेक्ट समूह ही होता है, इसलिए हमे लगा रिजेक्ट माल इस चर्चा को आगे बढाने का उपयुक्त मंच है.
राजीव रंजन
एक पत्रकार मित्र हैं पूजा और उनका ब्लौग है तीन बिंदु. उन्होंने अपने ब्लौग पर एक पोस्ट डाली है, जिसमें एक खबर के हवाले से बताया गया है कि बिहार और झारखण्ड के कुछ इलाकों में ऐसे मेले लगते हैं जिनमें लोगों के भूत उतारे जाते हैं, खासकर औरतों के. पूजा ने इस पर सवाल उठाए हैं जो वाजिब भी हैं. उनका कहना है कि यह एक प्रकार का अत्याचार है, अंधविश्वासों की आड़ में औरतों का शोषण है.
भूत भगाने की इस निर्मम और गर्हित प्रक्रिया का मैं बहुत नजदीक से गवाह रहा हूँ. इस तरह का एक बडा मेला ( नवरात्रों में ) मेरे गाँव भुतहा खैरा से आधा किलोमीटर की दूरी पर लगता है. जगह का नाम है घिनऊ ब्रह्म. यह बिहार के रोहतास जिले के बिक्रमगंज अनुमंडल में स्थित है. यहाँ आसपास के इलाके की महिलायें और पुरुष आते हैं, जो "प्रेत बाधा से पीड़ित" होते हैं. वैसे ज्यादातर संख्या महिलाओं की ही होती है.
बडा वीभत्स दृश्य होता है. में जब भी गाँव जाता था, मेरी आजी ( दादी ) उन रास्तों पर चलने से मना करती थी, जिन पर "प्रेत बाधा से पीड़ित" लोगो के सामान फेकें हुए रहते थे. उन सामानों में रिबन, टिकुली ( बिंदी ), चूडियों के टुकडे और साज-सिंगार के अन्य सामान होते थे. मेरी आजी का मानना था कि उन सामानों को लांघने से उनमें के भूत- प्रेत मुझमें आ जायेंगे.
लिहाजा जब आजी मेरे साथ होती थी तो मुझे पगडण्डी छोड़ कर खेतों के बीच से आना पड़ता था, काफी ध्यानपूर्वक. लेकिन जब दादी साथ नही होती थी तो मैं उसके आदेश पर अमल नही करता था. कई बार जिज्ञासा के वशीभूत में उन चीजों को जान बूझकर लाँघ जाता था. मुझे आजतक किसी भूत ने नही पकडा.
लेकिन मैंने लोगो पर भूत चढ़ते देखा है. ऐसी तीन घटनाओं के बारे में मैं नजदीक से जानता हूँ. दो मेरे दोस्तों के बारे में हैं और एक पड़ोस की दीदी के बारे में. उनकी निजता का सम्मान करते हुए मैं काल्पनिक नामों के माध्यम से अपनी बात कह रहा हूँ. लेकिन, घटनाएं वास्तविक हैं.
मेरे पड़ोस में एक संगीता दीदी रहती थीं. जब उन्हें हिस्टीरिया के दौरे आते थे तो वे जोर-जोर से चिल्लाने लगती थीं, इधर-उधर भागने लगती थीं. उन्हें पकड़ने के लिए चार-चार लोगों को लगना पड़ता था. उनके घर के लोग यही समझते थे कि प्रेत का साया है. कई बार झाड़-फूँक भी कराई गई, कोई फायदा नही हुआ. आसपास के कुछ लोग दबी जुबान से कहते थे कि हिस्टीरिया है, लेकिन संगीता दीदी के घर वाले इसे उन्हें बदनाम करने की साजिश बता बात को सिरे से खारिज कर देते थे.
बाद में उनके एक रिश्तेदार दबाव देकर संगीता दीदी को डॉक्टर के पास ले गए, उनका इलाज हुआ और वे ठीक हो गयी. कुछ समय बाद उनकी शादी हो गई और वे अपने पति तथा बच्चों के साथ हैं. फिर उन्हें "प्रेत" ने नही पकडा. हालांकि पिछले पांच-सात सालों से मेरी उनसे मुलाकात नही हो पाई है, लेकिन इतना ज़रूर पता चला है कि वे पूरी तरह ठीक हैं.
दूसरी घटना मेरे एक मित्र अर्जुन से जुडी है. उसने खुद यह पूरी घटना विस्तार से मुझे बताई थी. उसका परिवार एक ठाकुर साहब के मकान में किराए पर रहता था. और भी किरायेदार थे. बडा तीन मंजिला घर था. ठाकुर साहब के पास एक लाइसेंसी बंदूक थी. उनकी तीन लड़किया थीं- हेमा, जया और कृष्णा . तीनों किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी थीं. बड़ी वाली (हेमा) मेरी क्लासमेट थी और उससे छोटी दोनों जुड़वा थीं. उस मकान में रहने वाले लोग गर्मी की रात में अमूमन छत पर ही सोते थे. मेरा मित्र भी गर्मी की एक रात में छत पर सोया था और हेमा, जया और कृष्णा भी. आधी रात के बाद अचानक मेरे मित्र को एक "खास किस्म की बेचैनी" हुई और वह जया की बगल में जाकर सो गया और बेचैनी को शांत करने की प्रक्रिया शुरू कर दी, मित्र के अनुसार लड़की ने कोई प्रतिरोध नही किया.
तभी अचानक पता नही कहाँ से ठाकुर साहब छत पर चले आये. वैसे वो नीचे आँगन में ही सोते थे, पर शायद गर्मी से कुछ देर तक निजात पाने के लिए छत पर चले आये हों. खैर उन्होने देख लिया. मित्र की हालत खराब हो गई, उसे लगा अब तो ठाकुर साहब अपनी लाइसेंसी बंदूक से उसका काम तमाम कर देंगे.
एकाएक उसने अजीब सी हरकतें करनी शुरू कर दीं. अजीब सी आवाजें उसके गले से निकलने लगीं. सारे लोग जग गए, पता चला मित्र को भूत ने पकड़ लिया है. सब लोग हैरान- परेशान. ठाकुर साहब को लगा कि सचमुच लड़के को भूत ने पकड़ लिया है. भूत को भगाने के उपाय शुरू हो गए, लेकिन भूत नही भागा. बाद में मित्र के घर वाले वह मकान छोड़ कर दूसरी जगह चले गए और तीन-चार महीने बाद मित्र का भूत भाग गया. उस घटना के बाद भूत कभी उसके पास नही आया. अब मित्र की शादी हो गयी है और आजकल वह तथा उसकी पत्नी साथ मिलकर भूत-भूत खेलते हैं.
तीसरी घटना है मेरे मित्र कामेश की. ससुरे ने (सोलह साल की अवस्था में ) गांजे का भरपूर दम लगा लिया. उसको होने लगा नशा और साथ में यह डर भी कि आज तो घर वाले बड़ी कुटाई करेंगे. गांजे की महक दूर से ही पता चल जाती है. नशा तो था ही, लेकिन इतना होश बाकी था कि गांजा पीने के परिणामों के बारे में वह सोच सकता था और उस से बचने के उपायों के बारे में भी.
हमारे मोहल्ले में शंकर जी का एक मंदिर है, जिसके एक तरफ बडा चबूतरा बना है. वह आया और उस चबूतरे पर गिर गया और अनाप-शनाप बकने लगा. लोग इकट्ठे हो गए, मजमा लग गया. लोगों को लगा जिन्न ने पकड़ लिया है. घर वाले भी आ गए, ओझा-पंडित को बुलाकर झाड़-फूंक शुरू कर दी गई. तीन-चार दिन के बाद मित्र का नशा उतर गया और स्वाभाविक रूप से भूत भी. उसकी भी शादी हो गई है, बच्चे भी हैं. जीवन में बहुत कुछ बदल गया है. हाँ, गांजा पीने की आदत आज भी है, मगर अब जिन्न उसे नहीं पकड़ता है.
राजीव रंजन
एक पत्रकार मित्र हैं पूजा और उनका ब्लौग है तीन बिंदु. उन्होंने अपने ब्लौग पर एक पोस्ट डाली है, जिसमें एक खबर के हवाले से बताया गया है कि बिहार और झारखण्ड के कुछ इलाकों में ऐसे मेले लगते हैं जिनमें लोगों के भूत उतारे जाते हैं, खासकर औरतों के. पूजा ने इस पर सवाल उठाए हैं जो वाजिब भी हैं. उनका कहना है कि यह एक प्रकार का अत्याचार है, अंधविश्वासों की आड़ में औरतों का शोषण है.
भूत भगाने की इस निर्मम और गर्हित प्रक्रिया का मैं बहुत नजदीक से गवाह रहा हूँ. इस तरह का एक बडा मेला ( नवरात्रों में ) मेरे गाँव भुतहा खैरा से आधा किलोमीटर की दूरी पर लगता है. जगह का नाम है घिनऊ ब्रह्म. यह बिहार के रोहतास जिले के बिक्रमगंज अनुमंडल में स्थित है. यहाँ आसपास के इलाके की महिलायें और पुरुष आते हैं, जो "प्रेत बाधा से पीड़ित" होते हैं. वैसे ज्यादातर संख्या महिलाओं की ही होती है.
बडा वीभत्स दृश्य होता है. में जब भी गाँव जाता था, मेरी आजी ( दादी ) उन रास्तों पर चलने से मना करती थी, जिन पर "प्रेत बाधा से पीड़ित" लोगो के सामान फेकें हुए रहते थे. उन सामानों में रिबन, टिकुली ( बिंदी ), चूडियों के टुकडे और साज-सिंगार के अन्य सामान होते थे. मेरी आजी का मानना था कि उन सामानों को लांघने से उनमें के भूत- प्रेत मुझमें आ जायेंगे.
लिहाजा जब आजी मेरे साथ होती थी तो मुझे पगडण्डी छोड़ कर खेतों के बीच से आना पड़ता था, काफी ध्यानपूर्वक. लेकिन जब दादी साथ नही होती थी तो मैं उसके आदेश पर अमल नही करता था. कई बार जिज्ञासा के वशीभूत में उन चीजों को जान बूझकर लाँघ जाता था. मुझे आजतक किसी भूत ने नही पकडा.
लेकिन मैंने लोगो पर भूत चढ़ते देखा है. ऐसी तीन घटनाओं के बारे में मैं नजदीक से जानता हूँ. दो मेरे दोस्तों के बारे में हैं और एक पड़ोस की दीदी के बारे में. उनकी निजता का सम्मान करते हुए मैं काल्पनिक नामों के माध्यम से अपनी बात कह रहा हूँ. लेकिन, घटनाएं वास्तविक हैं.
मेरे पड़ोस में एक संगीता दीदी रहती थीं. जब उन्हें हिस्टीरिया के दौरे आते थे तो वे जोर-जोर से चिल्लाने लगती थीं, इधर-उधर भागने लगती थीं. उन्हें पकड़ने के लिए चार-चार लोगों को लगना पड़ता था. उनके घर के लोग यही समझते थे कि प्रेत का साया है. कई बार झाड़-फूँक भी कराई गई, कोई फायदा नही हुआ. आसपास के कुछ लोग दबी जुबान से कहते थे कि हिस्टीरिया है, लेकिन संगीता दीदी के घर वाले इसे उन्हें बदनाम करने की साजिश बता बात को सिरे से खारिज कर देते थे.
बाद में उनके एक रिश्तेदार दबाव देकर संगीता दीदी को डॉक्टर के पास ले गए, उनका इलाज हुआ और वे ठीक हो गयी. कुछ समय बाद उनकी शादी हो गई और वे अपने पति तथा बच्चों के साथ हैं. फिर उन्हें "प्रेत" ने नही पकडा. हालांकि पिछले पांच-सात सालों से मेरी उनसे मुलाकात नही हो पाई है, लेकिन इतना ज़रूर पता चला है कि वे पूरी तरह ठीक हैं.
दूसरी घटना मेरे एक मित्र अर्जुन से जुडी है. उसने खुद यह पूरी घटना विस्तार से मुझे बताई थी. उसका परिवार एक ठाकुर साहब के मकान में किराए पर रहता था. और भी किरायेदार थे. बडा तीन मंजिला घर था. ठाकुर साहब के पास एक लाइसेंसी बंदूक थी. उनकी तीन लड़किया थीं- हेमा, जया और कृष्णा . तीनों किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी थीं. बड़ी वाली (हेमा) मेरी क्लासमेट थी और उससे छोटी दोनों जुड़वा थीं. उस मकान में रहने वाले लोग गर्मी की रात में अमूमन छत पर ही सोते थे. मेरा मित्र भी गर्मी की एक रात में छत पर सोया था और हेमा, जया और कृष्णा भी. आधी रात के बाद अचानक मेरे मित्र को एक "खास किस्म की बेचैनी" हुई और वह जया की बगल में जाकर सो गया और बेचैनी को शांत करने की प्रक्रिया शुरू कर दी, मित्र के अनुसार लड़की ने कोई प्रतिरोध नही किया.
तभी अचानक पता नही कहाँ से ठाकुर साहब छत पर चले आये. वैसे वो नीचे आँगन में ही सोते थे, पर शायद गर्मी से कुछ देर तक निजात पाने के लिए छत पर चले आये हों. खैर उन्होने देख लिया. मित्र की हालत खराब हो गई, उसे लगा अब तो ठाकुर साहब अपनी लाइसेंसी बंदूक से उसका काम तमाम कर देंगे.
एकाएक उसने अजीब सी हरकतें करनी शुरू कर दीं. अजीब सी आवाजें उसके गले से निकलने लगीं. सारे लोग जग गए, पता चला मित्र को भूत ने पकड़ लिया है. सब लोग हैरान- परेशान. ठाकुर साहब को लगा कि सचमुच लड़के को भूत ने पकड़ लिया है. भूत को भगाने के उपाय शुरू हो गए, लेकिन भूत नही भागा. बाद में मित्र के घर वाले वह मकान छोड़ कर दूसरी जगह चले गए और तीन-चार महीने बाद मित्र का भूत भाग गया. उस घटना के बाद भूत कभी उसके पास नही आया. अब मित्र की शादी हो गयी है और आजकल वह तथा उसकी पत्नी साथ मिलकर भूत-भूत खेलते हैं.
तीसरी घटना है मेरे मित्र कामेश की. ससुरे ने (सोलह साल की अवस्था में ) गांजे का भरपूर दम लगा लिया. उसको होने लगा नशा और साथ में यह डर भी कि आज तो घर वाले बड़ी कुटाई करेंगे. गांजे की महक दूर से ही पता चल जाती है. नशा तो था ही, लेकिन इतना होश बाकी था कि गांजा पीने के परिणामों के बारे में वह सोच सकता था और उस से बचने के उपायों के बारे में भी.
हमारे मोहल्ले में शंकर जी का एक मंदिर है, जिसके एक तरफ बडा चबूतरा बना है. वह आया और उस चबूतरे पर गिर गया और अनाप-शनाप बकने लगा. लोग इकट्ठे हो गए, मजमा लग गया. लोगों को लगा जिन्न ने पकड़ लिया है. घर वाले भी आ गए, ओझा-पंडित को बुलाकर झाड़-फूंक शुरू कर दी गई. तीन-चार दिन के बाद मित्र का नशा उतर गया और स्वाभाविक रूप से भूत भी. उसकी भी शादी हो गई है, बच्चे भी हैं. जीवन में बहुत कुछ बदल गया है. हाँ, गांजा पीने की आदत आज भी है, मगर अब जिन्न उसे नहीं पकड़ता है.
Wednesday, April 16, 2008
छोटी सी कविता में लंबी कहानी
स्कॉटलैंड के डुंडी इलाके के एक छोटे से अस्पताल में एक बूढ़ी औरत की मौत हो गई। उसका कोई नाते-रिश्तेदार पास नहीं था। नर्सों ने जब उसके छोटे से झोले को खंगाला तो उन्हें एक कागज के टुकड़े पर लिखी यह कविता मिली। दिल को छू लेने वाली इन पंक्तियों की कई प्रतियां बनाकर अस्पताल में बांटी गई। बाद में नॉर्थ आयरलैंड एसोसिएशन ऑफ मेंटल हेल्थ की पत्रिका के क्रिसमस अंक में ये छपी। इस बुढ़िया ने समय की रेत पर निशान गहरे छोड़े हैं। इस गुमनाम महिला की वही कविता अब दुनियाभर में इंटरनेट के जरिए पढ़ी और सराही जा रही है।
An Old Lady's Poem
What do you see, nurses,
what do you see?
What are you thinking
when you're looking at me?
A crabby old woman,
not very wise,
Uncertain of habit,
with faraway eyes?
Who dribbles her food
and makes no reply
When you say in a loud voice,
"I do wish you'd try!"
Who seems not to notice
the things that you do,
And forever is losing a
stocking or shoe...
Who, resisting or not,
lets you do as you will,
With bathing and
feeding, the long day to fill...
Is that what you're thinking?
Is that what you see?
Then open your eyes, nurse:
you're not looking at me.
I'll tell you who I am
as I sit here so still,
As I do at your bidding,
as I eat at your will.
I'm a small child of ten...
with a father and mother,
Brothers and sisters,
who love one another.
A young girl of sixteen,
with wings on her feet,
Dreaming that soon now
a lover she'll meet.
A bride soon at twenty...
my heart gives a leap,
Remembering the vows
that I promised to keep.
At twenty-five now,
I have young of my own,
Who need me to guide,
and a secure happy home.
A woman of thirty,
my young now grown fast,
Bound to each other with
ties that should last.
At forty, my young sons
have grown and are gone,
But my husband's beside me
to see I don't mourn.
At fifty once more,
babies play round my knee,
Again we know children,
my loved one and me.
Dark days are upon me,
my husband is dead;
I look at the future,
I shudder with dread.
For my young are all rearing
young of their own,
And I think of the years
and the love that I've known.
I'm now an old woman...
and nature is cruel;
'Tis jest to make old age
look like a fool.
The body, it crumbles,
grace and vigor depart,
There is now a stone
where I once had a heart.
But inside this old carcass
a young girl still dwells,
And now and again
my battered heart swells.
I remember the joys,
I remember the pain,
And I'm loving and living
life over again.
I think of the years...
all too few, gone too fast,
And accept the stark fact
that nothing can last.
So open your eyes,
nurses, open and see,
Not a crabby old woman;
look closer...see ME!!
Friday, April 11, 2008
पत्रकार का दुधारू होना!
सौरभ के. स्वतंत्र
दुधारू पशुओं की फेहरिस्त काफी लम्बी है. चूंकि, मनुष्य भी पशु (सामाजिक) है. सो, उसका भी दुधारू होना लाजिमी है. हाँ, ये बात अलग है कि कोई उन्नत नस्ल का है और कोई बाँझ टाइप. चूंकि मैं एक पत्रकार हूँ. सो, पत्रकारों के दुधारू होने पर चर्चा करना मेरा कर्तव्य बनता है.
पत्रकार शब्द जब भी सुनने को मिलता है तो मुझे वह दुधारू गाय नजर आने लगती है, जो खाती तो है अपने बछड़े को दूध पिलाने के लिए . पर उसे दुह कोई और लेता है. बेचारी वह चाहकर भी कुछ नही कर पाती सिवाय हाथ-पांव पटकने के.
आजकल पत्रकार बंधुओ को भी गजब दुहा जा रहा है. एकदम रेलवे के माफिक. शायद यह सोंचकर कि उन्हें कम दुहेंगे तो अख़बार या चैनल बीमार पड़ सकते हैं. पत्रकारों के दुहने की बात थोड़ा विस्मय पैदा करती है. पर आजकल पत्रकार पैदा करने वाले इतने सारे केन्द्र खुल गए हैं. जहाँ से हजारो-हज़ार की संख्या में किसिम-किसिम के पत्रकार निकल रहे हैं. लिहाजा, स्थिति यह हो गई है कि हर चैनल और अख़बार के पास अनेकानेक विकल्प हो गए हैं. अगर, आप सही तरीके से दूध नही देते हैं तो समझिए आपकी छुट्टी तय है. मतलब आपको इस लाइन में जगह बनानी है तो अपने आप को खूब दुहवाइये . चाहे आप कितने भी बड़े ओहदे पर क्यो न पहुँच जाए आपके ऊपर भी कोई आपको दुहने वाला है.
एक माह पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के ऑडिटोरियम मे बैठा था. जहाँ पत्रकारिता की शिक्षा के मानकीकरण पर चर्चा हो रही थी. जिसमे अच्युतानंदजी, आनंद प्रधानजी, राहुल देवजी, आलोक मेहताजी जैसे वरिष्ठ हस्ताक्षर पत्रकारिता के भविष्य को लेकर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे. आलोक मेहता जी ने कहा कि इस दौर में संपादक के सत्ता का क्षरण हो रहा है. मैं काफी सोंच मे पड़ गया कि जब पत्रकारिता के शीर्ष पर बैठे लोग ऐसी बात करते हैं तो हमारी क्या बिसात.... हो सकता है संपादक भी अपने आप को दुहा हुआ महसूस करता हो.
हंस पत्रिका के एक मीडिया विशेषांक मे मैंने पढ़ा था कि संपादक को भी अपने ग्रुप चेयरमैन की बातें सुननी पड़ती हैं. उनके सवालो का जवाब देना पड़ता है. जैसे टीआरपी को... खबरों के एंगल को ले कर जवाबदेही ... ख़बर छूट जाने पर भी जवाब देना पड़ता है. वगैरह..वगैरह..
लिहाजा संपादक भी दुहा जाते हैं. और दबाव मे आकर अपने अंडर में काम करने वालो को उन्हें दुहना पड़ता है. अपने बॉस के मार्गदर्शन पर न चाहते हुए भी उन्हें चलना पड़ता है. और जूनियरों को दुहना पड़ता है. वही जूनियर न्यू कमर्स की दुहाई गुस्से मे आकर करते हैं..थोड़ा भी चूं..चा किया कि छुट्टी तय. सो, अपने आपको दुह्वाना ही अपनी नियति मन लेना श्रेयस्कर है.
लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोडे से पूछो जिसके मुंह में लगाम है. यह मैं नही कह रहा हूँ. बल्कि धूमिल ने कहा है. अब जब लगाम की बात आती है तो स्वतंत्र पत्रकार भाई लोग के मुह मे लगाम तो नही है. पर अगर शब्दों के बीच गिरे खून को पहचाने तो जाहिर हो जाएगा कि स्वतंत्र पत्रकार भी दुधारू जमात मे उन्नत नस्ल से सम्बन्ध रखते हैं. दरअसल, उनके अन्दर छपास का रोग होता है. सो, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में लेख दीजिये , नाम कमाइये , और भूखे सोयिये. यदि कही से सात-आठ माह में चेक आ भी जाए तो उसे लेखन सामग्री खरीदने मे लगा दीजिये , इंटरनेट व कंप्यूटर आदि के चार्ज भर दीजिये. और सूखी अंतडियों से निर्बाध लेख निकालिए. यदि नही निकालते हैं तो आप उन्नत किस्म के दुधारू पत्रकार नही हैं. पारिश्रमिक के लिए सम्पादकजी को फ़ोन घुमाइये तो एहसान फरामोशी का तमगा पाइए. मतलब स्वतंत्र पत्रकार का भी कमोबेश वही हालत है. पर अन्य पत्रकारों से थोड़ा इतर .
मैं जानता हूँ कि पत्रकारों को दुधारू पशु के रूप मे निरुपित करना कितने शूरमाओं को नागवार गुजरेगा..पर क्या करें..कलम है कि रूकती नही.
दुधारू पशुओं की फेहरिस्त काफी लम्बी है. चूंकि, मनुष्य भी पशु (सामाजिक) है. सो, उसका भी दुधारू होना लाजिमी है. हाँ, ये बात अलग है कि कोई उन्नत नस्ल का है और कोई बाँझ टाइप. चूंकि मैं एक पत्रकार हूँ. सो, पत्रकारों के दुधारू होने पर चर्चा करना मेरा कर्तव्य बनता है.
पत्रकार शब्द जब भी सुनने को मिलता है तो मुझे वह दुधारू गाय नजर आने लगती है, जो खाती तो है अपने बछड़े को दूध पिलाने के लिए . पर उसे दुह कोई और लेता है. बेचारी वह चाहकर भी कुछ नही कर पाती सिवाय हाथ-पांव पटकने के.
आजकल पत्रकार बंधुओ को भी गजब दुहा जा रहा है. एकदम रेलवे के माफिक. शायद यह सोंचकर कि उन्हें कम दुहेंगे तो अख़बार या चैनल बीमार पड़ सकते हैं. पत्रकारों के दुहने की बात थोड़ा विस्मय पैदा करती है. पर आजकल पत्रकार पैदा करने वाले इतने सारे केन्द्र खुल गए हैं. जहाँ से हजारो-हज़ार की संख्या में किसिम-किसिम के पत्रकार निकल रहे हैं. लिहाजा, स्थिति यह हो गई है कि हर चैनल और अख़बार के पास अनेकानेक विकल्प हो गए हैं. अगर, आप सही तरीके से दूध नही देते हैं तो समझिए आपकी छुट्टी तय है. मतलब आपको इस लाइन में जगह बनानी है तो अपने आप को खूब दुहवाइये . चाहे आप कितने भी बड़े ओहदे पर क्यो न पहुँच जाए आपके ऊपर भी कोई आपको दुहने वाला है.
एक माह पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के ऑडिटोरियम मे बैठा था. जहाँ पत्रकारिता की शिक्षा के मानकीकरण पर चर्चा हो रही थी. जिसमे अच्युतानंदजी, आनंद प्रधानजी, राहुल देवजी, आलोक मेहताजी जैसे वरिष्ठ हस्ताक्षर पत्रकारिता के भविष्य को लेकर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे. आलोक मेहता जी ने कहा कि इस दौर में संपादक के सत्ता का क्षरण हो रहा है. मैं काफी सोंच मे पड़ गया कि जब पत्रकारिता के शीर्ष पर बैठे लोग ऐसी बात करते हैं तो हमारी क्या बिसात.... हो सकता है संपादक भी अपने आप को दुहा हुआ महसूस करता हो.
हंस पत्रिका के एक मीडिया विशेषांक मे मैंने पढ़ा था कि संपादक को भी अपने ग्रुप चेयरमैन की बातें सुननी पड़ती हैं. उनके सवालो का जवाब देना पड़ता है. जैसे टीआरपी को... खबरों के एंगल को ले कर जवाबदेही ... ख़बर छूट जाने पर भी जवाब देना पड़ता है. वगैरह..वगैरह..
लिहाजा संपादक भी दुहा जाते हैं. और दबाव मे आकर अपने अंडर में काम करने वालो को उन्हें दुहना पड़ता है. अपने बॉस के मार्गदर्शन पर न चाहते हुए भी उन्हें चलना पड़ता है. और जूनियरों को दुहना पड़ता है. वही जूनियर न्यू कमर्स की दुहाई गुस्से मे आकर करते हैं..थोड़ा भी चूं..चा किया कि छुट्टी तय. सो, अपने आपको दुह्वाना ही अपनी नियति मन लेना श्रेयस्कर है.
लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोडे से पूछो जिसके मुंह में लगाम है. यह मैं नही कह रहा हूँ. बल्कि धूमिल ने कहा है. अब जब लगाम की बात आती है तो स्वतंत्र पत्रकार भाई लोग के मुह मे लगाम तो नही है. पर अगर शब्दों के बीच गिरे खून को पहचाने तो जाहिर हो जाएगा कि स्वतंत्र पत्रकार भी दुधारू जमात मे उन्नत नस्ल से सम्बन्ध रखते हैं. दरअसल, उनके अन्दर छपास का रोग होता है. सो, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में लेख दीजिये , नाम कमाइये , और भूखे सोयिये. यदि कही से सात-आठ माह में चेक आ भी जाए तो उसे लेखन सामग्री खरीदने मे लगा दीजिये , इंटरनेट व कंप्यूटर आदि के चार्ज भर दीजिये. और सूखी अंतडियों से निर्बाध लेख निकालिए. यदि नही निकालते हैं तो आप उन्नत किस्म के दुधारू पत्रकार नही हैं. पारिश्रमिक के लिए सम्पादकजी को फ़ोन घुमाइये तो एहसान फरामोशी का तमगा पाइए. मतलब स्वतंत्र पत्रकार का भी कमोबेश वही हालत है. पर अन्य पत्रकारों से थोड़ा इतर .
मैं जानता हूँ कि पत्रकारों को दुधारू पशु के रूप मे निरुपित करना कितने शूरमाओं को नागवार गुजरेगा..पर क्या करें..कलम है कि रूकती नही.
Wednesday, April 9, 2008
युद्ध के खिलाफ एक गीत
पत्रकारिता का नोबेल जाने वाला पुलित्ज़र पुरस्कार इस बार गायक-गीतकार बॉब डिलन को गैर-पत्रकारिता वर्ग के ' पत्र, नाटक, संगीत' खंड में दिया गया है। उनके सबसे ताजा, 2006 में जारी एलबम मॉडर्न टाइम्स को खासी लोकप्रियता मिली थी।
डिलन के गीतों को साहित्य माना जाए या नहीं, इस पर दुनिया को बहस करते रहने दीजिए। फिलहाल सुना रही हूं उनका यह मीठा गीत जो मैं बचपन से सुनती आई हूं। नीचे गीत के बोल भी दे रही हूं।
Blowin' In The Wind
How many roads must a man walk down
Before you call him a man?
Yes, 'n' how many seas must a white dove sail
Before she sleeps in the sand?
Yes, 'n' how many times must the cannon balls fly
Before they're forever banned?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.
How many years can a mountain exist
Before it's washed to the sea?
Yes, 'n' how many years can some people exist
Before they're allowed to be free?
Yes, 'n' how many times can a man turn his head,
Pretending he just doesn't see?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.
How many times must a man look up
Before he can see the sky?
Yes, 'n' how many ears must one man have
Before he can hear people cry?
Yes, 'n' how many deaths will it take till he knows
That too many people have died?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.
डिलन के गीतों को साहित्य माना जाए या नहीं, इस पर दुनिया को बहस करते रहने दीजिए। फिलहाल सुना रही हूं उनका यह मीठा गीत जो मैं बचपन से सुनती आई हूं। नीचे गीत के बोल भी दे रही हूं।
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Blowin' In The Wind
How many roads must a man walk down
Before you call him a man?
Yes, 'n' how many seas must a white dove sail
Before she sleeps in the sand?
Yes, 'n' how many times must the cannon balls fly
Before they're forever banned?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.
How many years can a mountain exist
Before it's washed to the sea?
Yes, 'n' how many years can some people exist
Before they're allowed to be free?
Yes, 'n' how many times can a man turn his head,
Pretending he just doesn't see?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.
How many times must a man look up
Before he can see the sky?
Yes, 'n' how many ears must one man have
Before he can hear people cry?
Yes, 'n' how many deaths will it take till he knows
That too many people have died?
The answer, my friend, is blowin' in the wind,
The answer is blowin' in the wind.
Sunday, April 6, 2008
जियो जिंदगी
आर. अनुराधा
बचपन में एक कहानी सुनी थी। बाजार में एक बच्चा रो रहा था कि उसके पास सुंदर जूते नहीं हैं। उसके पिता ने उसे एक आदमी के बारे में बताया जिसके पैर ही नहीं थे। कहानी की सीख यह थी कि आदमी के पास जो है उसकी कीमत समझे और उसमे खुश होने के कारण ढूंढे। हम कई ऐसी बीती हुई या आने वाली या अपने काबू के बाहर की बातों का स्यापा करते जिंदगी के वर्तमान अच्छे पल भी खो देते हैं। ऐसी कई चीजें हैं जो हम दूसरों के पास देखते है और अपने पास न होने का अफसोस लगातार करते रहते हैं। पड़ोसी की समृद्धि परेशान करती है? कितनों को घर ही नसीब नहीं। घर में बुजुर्गों की देखभाल सरदर्द का सबब है? उन्हें देखें जिनके मार्गदर्शन के लिए बड़ों की अंगुली ही नहीं। जिंदगी बोझ लगती है? लेकिन सोचें, है तो सही!
मौत को नजदीक से देखने के बाद ही जिंदा होने का अहसास होना शुरू होता है, जिंदगी के सही मायने और इसकी कीमत समझ में आने लगते हैं। मैंने भी एक बार जीवन के अंत को करीब से देखा था, ठीक 10 साल पहले। कैंसर के साथ अपनी पहली लड़ाई के दौरान एक बार मुझे लगा था कि शायद जिंदगी कमजोर पड़ रही है। उन हालात में, जिंदगी की डोर बस किसी तरह हाथ में कस कर पकड़े रहने की जद्दोजहद और जिद ने मुझे जीना सिखा दिया।
मेरे मामले में शुरुआत ही गलत हुई, जैसा कि हिंदुस्तान में कैंसर के मामलों में आम तौर पर होता है। जब बीमारी को लेकर पहली बार अस्पताल पहुंची तो ट्यूमर काफी विकसित अवस्था में था, स्टेजिंग के हिसाब से टी-4बी। लेकिन अच्छी बात यह थी कि बीमारी किसी महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंची थी।
इलाज तय हुआ- तीन सीइकिल कीमोथेरेपी ट्यूमर को छोटा करने और उसके आस-पास छितरी कैंसर कोशाओं को समेटने के लिए, उसके बाद सर्जरी और फिर तीन साइकिल कीमोथेरेपी शरीर में कहीं और छुपी बैठी कैंसर कोशिकाओं के पूरी तरह खात्मे के लिए। उसके बाद रेटियोथेरेपी भी- ट्यूमर की जगह पर किसी कैंसर कोशिका की संभावना को भी जला कर खत्म कर देने के लिए। यानी रत्ती भर भी कसर छोड़े बिना धुंआधार हमले हुए ट्यूमर पर। और आखिर उसे हार माननी पड़ी। लेकिन उस इलाज, खास तौर पर कीमोथेरेपी के मारक हमलों ने कमजोर बीमार कोशिकाओं के साथ-साथ नाजुक रक्त कणों को भी उसी तेजी से खत्म करना शुरू कर दिया।
यह समय था जब मुझे खांसी के साधारण संक्रमण से लड़ने के लिए भी सफेद रक्त कणों की पूरी फौज की जरूरत थी और उधर दवाइयों के असर से शरीर में सफेद रक्त कणों की संख्या 6,000 या 8000 के सामान्य स्तर से घटते-घटते चार सौ और उससे भी कम रह गई थी। और मुझे पता था कि कीमोथेरेपी के दौरान ऐसी स्थिति में साधारण खांसी का कीटाणु भी इंसान को आराम से पछाड़ सकता है।
उस समय खुद को किसी नए कीटाणु के हमले से बचाने के लिए खाना-पानी उबाल-पका कर लेने, खाने के पहले साबुन से हाथ धोने और बाद में ब्रश करने, बार-बार गरारे करने जैसे सरल उपायों से लेकर कड़ी एंटीबायोटिक दवाओं और सभी से दूर अकेले कमरे (आइसोलेशन) में 10 दिनों तक रहने और हवा में मौजूद कीटाणुओं को शरीर में जाने से रोकने के लिए नाक पर मास्क बांधे रहने जैसी हर कोशिश की। फिर भी रक्त कणों की संख्या गिरती ही गई। एक समय ऐसा आया जब लगा, मुट्ठी में रेत की तरह जिंदगी तेजी से फिसलती जा रही है और किसी भी समय खत्म हो जाएगी।
तब मुझे याद आए वो अच्छे दिन जो मैंने जिए थे, बिना उनकी अच्छाई का एहसास किए। वो सब लोग जिन्होंने मेरे लिए कुछ अच्छा किया था। यहां तक कि मैंने उन सबकी एक फेहरिस्त बना डाली और तय किया कि अगर जिंदगी बाकी रही तो उनका ऋण मैं किसी तरह उतारने की कोशिश जरूर करूंगी। हालांकि उस कठिन समय से उबरने में कुछ ही दिन लगे, लेकिन वह समय एक युग की तरह बीता। उन तीन-चीर दिनों में लगा कि सिर्फ जिंदा रहना भी एक नेमत है, जिंदगी चाहे जैसी भी हो। सिर्फ जीते रहना भी उतना सहज नहीं, जितना हम सोचते हैं।
उस दौरान मैं देख रही थी अपने स्वस्थ लगते शरीर को मौत के करीब पहुंचते, और नहीं जानती थी कि आगे क्या है। उस दौरान मैंने समझा कि जिंदा रहने का अर्थ सिर्फ जिए जाना नहीं है। हर दिन कीमती है और लौट के आने वाला नहीं है। और यह भी कि कोई दिन, कोई भी पल आखिरी हो सकता है और कल हमेशा नहीं आता।
अब बीते कल को पीछे छोड़ चुकी हूं, लेकिन उसके सबक आज भी मेरे सामने हैं। ठीक होने के बाद कोई औपचारिक संगठन बनाए बिना ही, कैंसर से लड़ कर जीत चुकी कुछ और महिलाओं के साथ या अकेले ही कैंसर जांच और जागरूकता शिविरों में शामिल होती हूं, अस्पतालों के कैंसर ओपीडी में अपने अनुभव और जानकारी वहां इलाज करा रहे मरीजों के साथ बांटती हूं, उनकी जिज्ञासाओं, आशंकाओं, उलझनों को दूर करने की कोशिश करती हूं तो लगता है जीवन सार्थक है। और अपने इन्हीं अनुभवों को ज्यादा-से ज्यादा लोगों से बांटने के मकसद से उन्हें पुस्तक रूप भी दे डाला- ऱाधाकृष्ण प्रकाशन (राजकमल) नई दिल्ली से छपी- ' इंद्रधनुष के पीछे-पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी '।
इलाज के उस 11 महीने लंबे दौर ने मुझे सिखाया कि खुद को पूरी तरह जानना, समझना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना जीने का पहला कदम है। अगर मैं अपने शरीर से परिचित होती, उसमें आ रहे बदलावों को पहले से देख-समझ पाती तो शायद बेहद शुरुआती दौर में ही बीमारी की पहचान हो सकती थी। और तब इलाज इतना लंबा, तकलीफदेह और खर्चीला नहीं होता।
अपने इस सबक को औरों तक पहुंचाने की कोशिश करती हूं। स्तनों को अपने हाथों से और आइने में देख कर खुद जांचने के सरल, मुफ्त लेकिन बेशकीमती तरीका महिलाओं को बताती हूं ताकि उन्हें भी वह सब न झेलना पड़े जो मुझे झेलना पड़ा। अफसोस की बात है कि हिंदुस्तान के अस्पतालों तक पहुंचने वाले कैंसर के चार में से तीन मामलों में बीमारी काफी विकसित अवस्था में होती है जिसका इलाज कठिन और कई बार असफल होता है। किसी बढ़ी हुई अवस्था के कैंसर की जानकारी पाकर हर बार सदमा लगता है कि क्यों नहीं इसकी तरफ पहले ध्यान दिया गया।
अफसोस इसलिए और बढ़ जाता है कि खास तौर पर महिलाएं अपनी तकलीफों को तब तक छुपाए रखती हैं, सहती रहती हैं, जब तक यह उनकी सहनशक्ति की सीमा के बाहर न हो जाए। (और सबसे खतरनाक बात यह है कि आम तौर पर कैंसर में दर्द सबसे आखिरी स्टेज पर ही होता है। यह बिल्ली की तरह दबे पांव आने वाली बीमारी है, और शरीर के किसी वाइटल अंग में पहुंचने के बाद उसके कामकाज में रुकावट डालती है, तब ही इसके होने का एहसास हो पाता है।) शायद यह सोच कर कि अपनी तकलीफों से दूसरों को क्यों परेशान किया जाए। जबकि बात इसके एकदम उलट है। परिवार की धुरी कहलाने वाली महिला अगर बीमार हो तो पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हो सकता है। इसलिए ज़ंग लगने के पहले से ही धुरी की सार-संभाल होती रहे तो जीवन आसान हो जाता है।
सभी जागरूक रहें अपने शरीर और सेहत के बारे में और बीमारयों के बारे में, ताकि जहां तक हो सके उन्हें दूर रखा जा सके या शुरुआत में ही पता लगाकर खत्म किया जा सके। जीने के और भी कुछ गुर हैं- शरीर और जिंदगी को थोड़ा और सक्रिय बनाने की कोशिश, कसरत और खान-पान की अच्छी आदतों के अलावा नफा-नुकसान का हिसाब किए बिना कभी-कभी किसी के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश। तभी हम भरपूर जी पाएंगे, सही मायनों में जिंदगी।
बचपन में एक कहानी सुनी थी। बाजार में एक बच्चा रो रहा था कि उसके पास सुंदर जूते नहीं हैं। उसके पिता ने उसे एक आदमी के बारे में बताया जिसके पैर ही नहीं थे। कहानी की सीख यह थी कि आदमी के पास जो है उसकी कीमत समझे और उसमे खुश होने के कारण ढूंढे। हम कई ऐसी बीती हुई या आने वाली या अपने काबू के बाहर की बातों का स्यापा करते जिंदगी के वर्तमान अच्छे पल भी खो देते हैं। ऐसी कई चीजें हैं जो हम दूसरों के पास देखते है और अपने पास न होने का अफसोस लगातार करते रहते हैं। पड़ोसी की समृद्धि परेशान करती है? कितनों को घर ही नसीब नहीं। घर में बुजुर्गों की देखभाल सरदर्द का सबब है? उन्हें देखें जिनके मार्गदर्शन के लिए बड़ों की अंगुली ही नहीं। जिंदगी बोझ लगती है? लेकिन सोचें, है तो सही!
मौत को नजदीक से देखने के बाद ही जिंदा होने का अहसास होना शुरू होता है, जिंदगी के सही मायने और इसकी कीमत समझ में आने लगते हैं। मैंने भी एक बार जीवन के अंत को करीब से देखा था, ठीक 10 साल पहले। कैंसर के साथ अपनी पहली लड़ाई के दौरान एक बार मुझे लगा था कि शायद जिंदगी कमजोर पड़ रही है। उन हालात में, जिंदगी की डोर बस किसी तरह हाथ में कस कर पकड़े रहने की जद्दोजहद और जिद ने मुझे जीना सिखा दिया।
मेरे मामले में शुरुआत ही गलत हुई, जैसा कि हिंदुस्तान में कैंसर के मामलों में आम तौर पर होता है। जब बीमारी को लेकर पहली बार अस्पताल पहुंची तो ट्यूमर काफी विकसित अवस्था में था, स्टेजिंग के हिसाब से टी-4बी। लेकिन अच्छी बात यह थी कि बीमारी किसी महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंची थी।
इलाज तय हुआ- तीन सीइकिल कीमोथेरेपी ट्यूमर को छोटा करने और उसके आस-पास छितरी कैंसर कोशाओं को समेटने के लिए, उसके बाद सर्जरी और फिर तीन साइकिल कीमोथेरेपी शरीर में कहीं और छुपी बैठी कैंसर कोशिकाओं के पूरी तरह खात्मे के लिए। उसके बाद रेटियोथेरेपी भी- ट्यूमर की जगह पर किसी कैंसर कोशिका की संभावना को भी जला कर खत्म कर देने के लिए। यानी रत्ती भर भी कसर छोड़े बिना धुंआधार हमले हुए ट्यूमर पर। और आखिर उसे हार माननी पड़ी। लेकिन उस इलाज, खास तौर पर कीमोथेरेपी के मारक हमलों ने कमजोर बीमार कोशिकाओं के साथ-साथ नाजुक रक्त कणों को भी उसी तेजी से खत्म करना शुरू कर दिया।
यह समय था जब मुझे खांसी के साधारण संक्रमण से लड़ने के लिए भी सफेद रक्त कणों की पूरी फौज की जरूरत थी और उधर दवाइयों के असर से शरीर में सफेद रक्त कणों की संख्या 6,000 या 8000 के सामान्य स्तर से घटते-घटते चार सौ और उससे भी कम रह गई थी। और मुझे पता था कि कीमोथेरेपी के दौरान ऐसी स्थिति में साधारण खांसी का कीटाणु भी इंसान को आराम से पछाड़ सकता है।
उस समय खुद को किसी नए कीटाणु के हमले से बचाने के लिए खाना-पानी उबाल-पका कर लेने, खाने के पहले साबुन से हाथ धोने और बाद में ब्रश करने, बार-बार गरारे करने जैसे सरल उपायों से लेकर कड़ी एंटीबायोटिक दवाओं और सभी से दूर अकेले कमरे (आइसोलेशन) में 10 दिनों तक रहने और हवा में मौजूद कीटाणुओं को शरीर में जाने से रोकने के लिए नाक पर मास्क बांधे रहने जैसी हर कोशिश की। फिर भी रक्त कणों की संख्या गिरती ही गई। एक समय ऐसा आया जब लगा, मुट्ठी में रेत की तरह जिंदगी तेजी से फिसलती जा रही है और किसी भी समय खत्म हो जाएगी।
तब मुझे याद आए वो अच्छे दिन जो मैंने जिए थे, बिना उनकी अच्छाई का एहसास किए। वो सब लोग जिन्होंने मेरे लिए कुछ अच्छा किया था। यहां तक कि मैंने उन सबकी एक फेहरिस्त बना डाली और तय किया कि अगर जिंदगी बाकी रही तो उनका ऋण मैं किसी तरह उतारने की कोशिश जरूर करूंगी। हालांकि उस कठिन समय से उबरने में कुछ ही दिन लगे, लेकिन वह समय एक युग की तरह बीता। उन तीन-चीर दिनों में लगा कि सिर्फ जिंदा रहना भी एक नेमत है, जिंदगी चाहे जैसी भी हो। सिर्फ जीते रहना भी उतना सहज नहीं, जितना हम सोचते हैं।
उस दौरान मैं देख रही थी अपने स्वस्थ लगते शरीर को मौत के करीब पहुंचते, और नहीं जानती थी कि आगे क्या है। उस दौरान मैंने समझा कि जिंदा रहने का अर्थ सिर्फ जिए जाना नहीं है। हर दिन कीमती है और लौट के आने वाला नहीं है। और यह भी कि कोई दिन, कोई भी पल आखिरी हो सकता है और कल हमेशा नहीं आता।
अब बीते कल को पीछे छोड़ चुकी हूं, लेकिन उसके सबक आज भी मेरे सामने हैं। ठीक होने के बाद कोई औपचारिक संगठन बनाए बिना ही, कैंसर से लड़ कर जीत चुकी कुछ और महिलाओं के साथ या अकेले ही कैंसर जांच और जागरूकता शिविरों में शामिल होती हूं, अस्पतालों के कैंसर ओपीडी में अपने अनुभव और जानकारी वहां इलाज करा रहे मरीजों के साथ बांटती हूं, उनकी जिज्ञासाओं, आशंकाओं, उलझनों को दूर करने की कोशिश करती हूं तो लगता है जीवन सार्थक है। और अपने इन्हीं अनुभवों को ज्यादा-से ज्यादा लोगों से बांटने के मकसद से उन्हें पुस्तक रूप भी दे डाला- ऱाधाकृष्ण प्रकाशन (राजकमल) नई दिल्ली से छपी- ' इंद्रधनुष के पीछे-पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी '।
इलाज के उस 11 महीने लंबे दौर ने मुझे सिखाया कि खुद को पूरी तरह जानना, समझना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना जीने का पहला कदम है। अगर मैं अपने शरीर से परिचित होती, उसमें आ रहे बदलावों को पहले से देख-समझ पाती तो शायद बेहद शुरुआती दौर में ही बीमारी की पहचान हो सकती थी। और तब इलाज इतना लंबा, तकलीफदेह और खर्चीला नहीं होता।
अपने इस सबक को औरों तक पहुंचाने की कोशिश करती हूं। स्तनों को अपने हाथों से और आइने में देख कर खुद जांचने के सरल, मुफ्त लेकिन बेशकीमती तरीका महिलाओं को बताती हूं ताकि उन्हें भी वह सब न झेलना पड़े जो मुझे झेलना पड़ा। अफसोस की बात है कि हिंदुस्तान के अस्पतालों तक पहुंचने वाले कैंसर के चार में से तीन मामलों में बीमारी काफी विकसित अवस्था में होती है जिसका इलाज कठिन और कई बार असफल होता है। किसी बढ़ी हुई अवस्था के कैंसर की जानकारी पाकर हर बार सदमा लगता है कि क्यों नहीं इसकी तरफ पहले ध्यान दिया गया।
अफसोस इसलिए और बढ़ जाता है कि खास तौर पर महिलाएं अपनी तकलीफों को तब तक छुपाए रखती हैं, सहती रहती हैं, जब तक यह उनकी सहनशक्ति की सीमा के बाहर न हो जाए। (और सबसे खतरनाक बात यह है कि आम तौर पर कैंसर में दर्द सबसे आखिरी स्टेज पर ही होता है। यह बिल्ली की तरह दबे पांव आने वाली बीमारी है, और शरीर के किसी वाइटल अंग में पहुंचने के बाद उसके कामकाज में रुकावट डालती है, तब ही इसके होने का एहसास हो पाता है।) शायद यह सोच कर कि अपनी तकलीफों से दूसरों को क्यों परेशान किया जाए। जबकि बात इसके एकदम उलट है। परिवार की धुरी कहलाने वाली महिला अगर बीमार हो तो पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हो सकता है। इसलिए ज़ंग लगने के पहले से ही धुरी की सार-संभाल होती रहे तो जीवन आसान हो जाता है।
सभी जागरूक रहें अपने शरीर और सेहत के बारे में और बीमारयों के बारे में, ताकि जहां तक हो सके उन्हें दूर रखा जा सके या शुरुआत में ही पता लगाकर खत्म किया जा सके। जीने के और भी कुछ गुर हैं- शरीर और जिंदगी को थोड़ा और सक्रिय बनाने की कोशिश, कसरत और खान-पान की अच्छी आदतों के अलावा नफा-नुकसान का हिसाब किए बिना कभी-कभी किसी के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश। तभी हम भरपूर जी पाएंगे, सही मायनों में जिंदगी।
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