सचिन समाचार पत्रिका सीनियर इंडिया से जुडे हैं. संवेदनशील हैं, मगर लिख कर कुछ कहने मे हिचकते हैं. यह किसी भी ब्लौग पर उनकी पहली पोस्ट है. उम्मीद है पाठक लिखने के ढंग से ज्यादा उनके विचारों पर गौर करेंगे. उम्मीद यह भी है कि सचिन अगली पोस्ट खुद लिख कर देंगे.
सचिन शर्मा
कम अवसरों को ज्यादा लोगों में बांटने के नये-नये नुस्खो मे सर खपाये रखने का सिलसिला कब तक चलेगा? अगर लोग ज्यादा हैं और रोटियां कम तो आप चाहे जाति के आधार पर बांटे या धर्म के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर बाँटें या भाषा के आधार पर, लिंग के आधार पर बाँटें या प्रतिभा के आधार पर - नतीजा एक ही निकलता है कि कुछ लोग रोटी पायेंगे और कुछ को भूखे पेट सोना पड़ेगा.
फिर भी सारे विद्वान् इसी मगजमारी मे अपनी पूरी ऊर्जा झोंके रहते हैं कि आखिर कौन सा आधार सर्वाधिक उपयुक्त है और क्यों? जन समूह भी इस खेल मे शामिल हो जाते हैं. वे बेचारे ज्यादा कुछ नही सोचते. जिस विद्वान् के बताये आधार मे उन्हें अपने लिए रोटी पाने की सबसे ज्यादा संभावना दिखती है, उसी आधार की वकालत वे जोरदार शब्दों मे करने लगते हैं. रोटी पाना उनके लिए इतना जरूरी है कि वे अलग आधार की वकालत करने वालो से भिड जाने उनके साथ मार-पीट करने मे भी नहीं हिचकते.
क्या बहस को आधार से सीधे रोटी तक नही खींचा जा सकता? आखिर हम यह मान कर ही क्यों शुरू करते हैं कि सबको रोटी नही मिल सकती? सबके लिए नौकरी का इन्तजाम नही किया जा सकता. हर नौकरी मे परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी करने लायक तनख्वाह सुनिश्चित नही की जा सकती. हम क्यों यह सब माने बैठे हैं?
और चूंकि हम यह सब मान बैठे हैं इसीलिए शुरू होने से पहले ही हमारे विमर्श का दायरा इतना सीमित हो जाता है कि उससे नया कुछ न निकलना तय रहता है.
हम कहते हैं आरक्षण सिर्फ आर्थिक दिक्कतें दूर करने के लिए नही चाहिए. आरक्षण अहम् स्थानों पर भागीदारी बढाने के लिए चाहिए. हम यह भूल जाते हैं इन कथित 'अहम्' स्थानों पर प्रतिनिधित्व इसीलिए चाहिए ताकि संसाधनों के बंटवारे मे उस खास समुदाय को हिस्सा कुछ ज्यादा मिले.
मीणा समुदाय को आरक्षण मिल तो नौकरियों मे उसकी भागीदारी बढ़ गयी. उस समुदाय के बच्चों के लिए लाइब्रेरी ज्यादा खुल गयी. वे पढ़ने लगे. नौकरियों मे उनका प्रवेश आसान हो गया. अब गुर्जर समुदाय को लग रहा है कि अगर उसे भी आरक्षण की उतनी ही मजबूत बैसाखी मिल जाये तो अहम् स्थानों पर उसका प्रवेश भी आसान हो जायेगा. बात घूम-फिर कर फिर संसाधनों के बंटवारे पर ही आ जाती है.
क्या ये सभी लोग मिल कर सबको रोटी सबको काम की मांग नही मनवा सकते?
सब लोग मिल कर तो सब कुछ कर सकते हैं. सब कुछ. लेकिन सब लोग मिलें कैसे?
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