दिलीप मंडल
कुल 88 में एक भी नहीं। ये आंकड़ा है देश की शीर्ष नौकरशाही में दलित अफसरों की मौजूदगी का। देश को चलाने वाली शीर्ष नौकरशाही यानी केंद्र सरकार में सेक्रेटरी पद पर नियुक्त अफसरों की संख्या के बारे में ये आंकड़ा केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण राज्य मंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने पिछले दिनों लोकसभा में पेश किया। उन्होंने लोकसभा को ये भी बताया कि केंद्र सरकार में एडिशनल सेक्रेटरी के 66 पदों में से सिर्फ एक पर दलित है जबकि ज्वांयट सेक्रेटरी के 249 पदों में से 13 पद दलित अफसरों के पास हैं। आदिवासी अफसरों की बात करें तो केंद्र सरकार में चार सेक्रेटरी, एक एडिशनल सेक्रेटरी और नौ ज्वायंट सेक्रेटरी आदिवासी हैं। यानी इस देश की शीर्ष नौकरशाही के 403 पदों में से सिर्फ 28 पद दलितों और आदिवासियों के पास हैं। दलितों और आदिवासियों को मिलाकर इस देश की लगभग चौथाई आबादी बनती है। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि शीर्ष नौकरशाही में इस आबादी की हिस्सेदारी सात फीसदी से भी कम है। सबसे ऊपर सेक्रेटरी पद पर तो दलितों की पूरी तरह गैरमौजूदगी बेहद चौंकाने वाली है।
भारतीय नौकरशाही में कुछ खास जातियों और समूहों का वर्चस्व हमेशा रहा है। साथ ही नौकरशाही में कुछ जाति और जाति समूहों की कम और लगभग गैरमौजूदगी भी सार्वजनिक तथ्य है। चौंकाने वाली बात सिर्फ ये है कि शीर्ष नौकरशाही में दलितों और आदिवासियों की लगभग गैरमौजूदगी आजादी से पहले से चले आ रहे आरक्षण के प्रावधान के बावजूद है। इन पदों पर ओबीसी और मुस्लिमों की कम मौजूदगी की बात अलग है और इसके कारण समझे जा सकते हैं। मुस्लिमों के लिए धर्म के आधार पर कभी भी आरक्षण नहीं रहा और ओबीसी आरक्षण लागू हुए अभी सिर्फ 16 साल हुए हैं और उसके बाद से आए ओबीसी अफसर अभी शीर्ष तक पहुंचने की वरीयता हासिल नहीं कर पाए हैं। लेकिन दलितों और आदिवासियों के साथ ऐसा क्यों है, जिन्हें आजादी के बाद से ही केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण हासिल हुआ। आजादी के फौरन बाद 21 सितंबर 1947 को खुली प्रतियोगिता के आधार पर केंद्र सरकार की नियुक्तियों में अनुसूचित जातियों के लिए 12.5 फीसदी आरक्षण का आदेश जारी किया गया। खुली प्रतियोगिता के अलावा दूसरी नियुक्तियों में आरक्षण का प्रतिशत 16.66 तय किया गया। संविधान लागू होने के बाद सितंबर 1950 में सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जनजातियों के लिए 5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। 1961 की जनगणना के आधार पर 1970 में आरक्षण का नया आधार तय हुआ और तब से ही केंद्र सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फीसदी आरक्षण है। हालांकि तब से कुल आबादी में दलितों और आदिवासियों का अनुपात बढ़ा है जो जनगणना में लगातार दर्ज हो रहा है। इसके हिसाब से आरक्षण का अनुपात ठीक करने की मांग लगातार हो रही है, जिसे लेकर सरकार अब तक खामोश है।
बहरहाल माना जाना चाहिए कि इस देश में दलितों और आदिवासियों के साथ कोई भेदभाव नहीं होता और संवैधानिक संस्था यूपीएससी संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही हर साल केंद्रीय सिविल सेवाओं के लिए प्रत्याशियों का चयन करती है। इसके तहत सिविल सर्विस के लिए चुने जाने वालों में कम से कम 22.5 फीसदी प्रत्याशी दलित और आदिवासी होंगे। कम से कम इसलिए क्योंकि इन समुदायों के जो लोग सामान्य मेरिट से चुनकर आते होंगे, उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर जनरल कटेगरी का माना जाना चाहिए। हालांकि इस नियम और इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को बरसों से तोड़ा जाता रहा है। इसके बावजूद नौकरशाही में प्रवेश के स्तर पर कम से कम 22.5 फीसदी दलित और आदिवासी होंगे। सिविल सर्विस के ही अफसर नौकरशाही के शिखर तक पहुंचते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यूपीएससी से चुने जाने और नौकरशाही के शिखर तक पहुंचने के रास्ते में दलित और आदिवासी अफसर बीच में कहां खो जाते हैं?
सबसे पहले देखते हैं कि इसकी सरकारी व्याख्या क्या है? सरकार का कहना है कि इन पदों पर नियुक्ति विभिन्न काडर से डेपुटेशन यानी प्रतिनियुक्ति के आधार पर होती है। इसलिए इन काडर में दलित और आदिवासी अफसरों का जो प्रतिशत है, वो जरूरी नहीं है कि इन पदों पर भी नजर आए। कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्री का ये भी कहना है कि केंद्र सरकार में सेक्रेटरी, एडिशनल सेक्रेटरी और ज्वायंट सेक्रेटरी के पद प्रमोशन के जरिए नहीं भरे जाते हैं। सिर्फ विदेश मंत्रालय के सेक्रेटरी का पद ही ऐसा है जिसे उसी काडर के अफसर से भरा जाता है। सरकार का स्पष्टीकरण ये है कि केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों में सेक्रेटरी, एडिशनल सेक्रेटरी और ज्वायंट सेक्रेटरी के पदों को भरने के लिए राज्य काडर समेत तमाम काडर के अफसरों का एक पैनल बनाया जाता है और उसी पैनल में आए अफसरों से इन पदों को भरा जाता है। सरकार ने साफ कर दिया है कि इन पदों पर रिजर्वेशन का कोई प्रावधान नहीं है लेकिन पैनल बनाते समय दलित और आदिवासी अफसरों को भी शामिल करने की कोशिश की जाती है और इसके लिए उन्हें जनरल अफसरों की तुलना में कम कड़े मानदंडों पर तौला जाता है।
सरकार के कहने का कुल मतलब ये है कि शीर्ष नौकरशाही में कौन आएगा और कौन नहीं इसके लिए एक व्यवस्था बनी हुई है और अगर इस व्यवस्था के तहत दलित और आदिवासी अफसर (जो कुल नौकरशाही का 22.5 फीसदी हैं) इन पदों के लिए पैनल में नहीं आ सकते हैं तो सरकार क्या कर सकती है। वो तो मानदंडों तक में ढील देती है लेकिन इससे ज्यादा वो क्या कर सकती है? ठीक ऐसा ही तर्क न्यायपालिका और रक्षा सेवाओं में वंचित समूहों की लगभग गैरमौजूदगी के लिए भी दिया जाता है। इस बारे में पूछे गए दर्जनों सवालों के जवाब में लोकसभा और राज्यसभा में यही कहा गया कि एक तो सरकार इन पदों पर जाति प्रतिनिधित्व का हिसाब नहीं रखती और दूसरी बात ये कि इन पदों पर नियुक्ति की एक प्रक्रिया का पालन होता है और उस प्रक्रिया के तहत ही कोई इन पदों पर चुनकर आ सकता है। यानी विशेष अवसर का सिद्धांत इन जगहों पर लागू नहीं होता।
हालांकि रक्षा सेवाओं में आरक्षण या विशेष अवसर की कभी मांग भी नहीं उठी है, इसलिए उन सेवाओं को फिलहाल इस विवाद से अलग रखा जा सकता है। उच्च न्यायपालिका में भी आरक्षण की मांग तो होती रही है, लेकिन संविधान और कायदे-कानून इस बारे में खामोश हैं और अब तक की सरकारों ने इस विषय पर चुप्पी साध रखी है। न्यायपालिका में दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय न्यायिक सेवा आयोग बनाने की मांग उठती रही है, लेकिन फिलहाल ये मामला ठंडे बस्ते में ही है। लेकिन नौकरशाही का मामला इनसे अलग है।
सरकार उच्च नौकरशाही में दलितों और आदिवासियों की बेहद कम मौजूदगी के लिए जो तर्क दे रही है उसकी समीक्षा की जानी चाहिए। हालांकि ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि सरकार ये स्वीकार करेगी कि इसकी वजह जातिगत भेदभाव है। लेकिन इसके अलावा इस आश्चर्यजनक घटना की और कोई सुसंगत व्याख्या नहीं हो सकती। एक और व्याख्या जो ऐसे मामलों में हमेशा सुनी जाती है वो मूलत: नस्लवादी है। ये व्य़ाख्या इस तरह की है कि दलित और आदिवासी अफसर आरक्षण की वजह से केंद्रीय सेवाओं में आ तो जाते हैं लेकिन मेरिट न होने या मेरिट कम होने की वजह से वो शिखर पर नहीं पहुंच पाते। जाहिर है इस तर्क के नस्लवादी स्वरूप की वजह से केंद्रीय मंत्री ने खुलकर ये बात लोकसभा में नहीं कही। लेकिन राजकाज और देश के संचालन में ऊंचे पदों पर वंचित समुदायों की कम उपस्थिति के पीछे अक्सर दबी जुबान में और कई बार खुलकर ये तर्क ये दिया जाता है कि मेरिट नहीं होने पर किसी को किसी खास पद पर कैसे बिठाया जा सकता है।
वैसे ये तर्क बेहद पुराना है। अंग्रेजी राज में ये तर्क तमाम भारतीयों के खिलाफ इस्तेमाल होता था। व्हाइटमैंस बर्डन की पूरी अवधारणा ही श्वेत लोगों की सर्वोच्चता और बाकी लोगों के प्रतिभाहीन-संस्कृतिहीन होने के आधार पर टिकी थी। लेकिन आजादी के बाद देश के ही कुछ खास समुदायों के खिलाफ इस तर्क का इस्तेमाल किया जाने लगा जो अब तक जारी है। ये एक खतरनाक सोच है और ये ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस वजह से आबादी के एक हिस्से का भारतीय लोकतंत्र से मोहभंग भी हो सकता है। इसी आशंका को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने संविधान में ही इस बात की व्यवस्था की है कि वंचित और पिछड़े समूहों को विशेष अवसर दिए जाएंगे। और ये बात ध्यान देने योग्य है कि विशेष अवसर के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए संविधान में कहीं भी इसका आधार ये नहीं है कुछ समुदायों में मेरिट की कमी है। विशेष अवसर का आधार शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन है और इसके कारण ऐतिहासिक हैं। खासकर दलितों के लिए आरक्षण तो सवर्णों और दलितों के बीच हुई एक संधि का नतीजा है जिसे देश पूना पैक्ट के नाम से जानता है।
वैज्ञानिक तौर पर भी इस बात को साबित नहीं किया जा सका है कि किसी भी मानव समूह में नस्ल या जाति केआधार पर कम या ज्यादा प्रतिभा होती है। 15वीं सदी तक जिन यूरोपीय लोगों को बाकी दुनिया बर्बर जानती थी, वोआज दुनिया के सबसे सभ्य और समृद्ध लोगों में हैं। दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण भी इस मामले में बेहद महत्वपूर्णहै जहां नस्लभेदी शासन खत्म होने के बाद अश्वेत प्रतिभा का जबर्दस्त विस्फोट दुनिया ने देखा। अमेरिका में भीअब शासन और जीवन के ज्यादातर अंगों में अश्वेत, हिस्पैनिक्स और एशियाई लोगों की हिस्सेदारी बढ़ रही है।मेरिट का सीधा संबंध अवसर मिलने या न मिलने से है। जब ये कहा जाता है कि किसी समुदाय में मेरिट वाले बच्चे ज्यादा हैं, तो इसका एक ही मतलब है कि उस समुदाय के बच्चों को शिक्षा और प्रगति करने के अवसर ज्यादा मिले। शहरों में जाकर बेहतर स्कूलों में दाखिला मिलते है एक बच्चा अचानक मेरिट वाला बन जाता है और गांवों के स्कूलों से आईआईटी, आईआईएम के लिए मेरिट का सृजन नहीं हो पाता है। ये सीधी सी बात जानते सभी हैं, लेकिन इसे मानने और लागू करने में भारतीय समाज की सदियों पुरानी मान्यताएं बाधा उत्पन्न करती हैं। यही बाधा दलित अफसरों को और दूसरे वंचित समुदायों के अफसरों को नौकरशाही के शिखर तक नहीं पहुंचने देती।
21वीं सदी के दूसरे दशक में जब भारतीय गणराज्य अपनी 60वीं सालगिरह मना रहा है, तब देश आकांक्षाओं के विस्फोट के दौर से भी गुजर रहा है। तमाम तरह की खामोश अस्मिताएं अब मुखर हो रही हैं। ऐसे समय में देश के सबसे बड़े कुछ समुदाय अगर ये महसूस करने लगें कि गणराज्य ने उन्हें छला है, उनके अवसर छीन लिए गए हैं तो ये अच्छी बात नहीं है। भारत सरकार के लिए ये सही नहीं है किनौकरशाही के शिखर पर वंचित समुदायों की बेहद कम मौजूदगी के लिए प्रक्रिया की आड़ ले। इस सवाल पर अबदेश में बहस होनी चाहिए कि ऐसा क्य़ों है और इसे कैसे सुधारा जा सकता है। ये समाज के भी हित में है और देश के हित में भी, कि कोई समुदाय ये न समझे कि वो छल का शिकार है।
4 comments:
दलित व आदिवासी अफसरों की ACR में उंची जाति का बबुआ कभी outstanding नहीं लिखता है (कोई अपवादस्वरूप एसी ग़लती कर दे तो क्या किया जा सकता है). सचिव बनने में यही पेंच है.
आपकी पोस्ट बहुत सुन्दर है!
यह चर्चा मंच में भी चर्चित है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/02/blog-post_5547.html
'ताडन के अधिकारी'
बकौल तुलसीदास :-
ढोर,गंवार,शूद्र,पशु ,नारी
ये सब ताडन के अधिकारी!
अधिकांश वंचित वर्ग के अफसरों को 'ताडन के अधिकारी' बनकर ही टाइम पास करना पड़ता है.नौकरी चलाने की चिंता (नौकरी चली गई तो क्या खायेंगे - जमा-पूँजी भी ज्यादा नहीं होती) ACR ठीक रखने की चिंता,जूनियर व सीनियरों का असहयोग उन्हें अजीब किस्म के प्राणी में तब्दील कर देता है. अलिनियेशन का शिकार इन अफसरों के बीच एकता की कमी है,जबकि ताकतवर (शोषक) वर्ग इनको सताने के मामले में तो एकजुट है.
very nice article! eye opener!
Post a Comment