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Saturday, February 13, 2010

संत वेलंटाइन और महाराज मनु का मुकाबला

(अमर उजाला में ये लेख पढ़ने लिए क्लिक करें)

नफरत की बुनियाद पर कायम एक पूरी व्यवस्था प्यार के धक्कों के आगे चरमरा रही है। ये बदलते उत्पादन संबंधों, आधुनिकता और शहरीकरण का मिलाजुला असर है....

दिलीप मंडल

भारतीय समाज के लिए ये जश्न मनाने और ढोल-नगाड़ा बजाने की घड़ी है। रिपोर्ट आई है कि देश में ऐसी अंतर्जातीय शादियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिनमें दूल्हे या दूल्हन में से कोई एक दलित है। कुछ बात तो ये रिपोर्ट बता गई और कुछ बातें हम और आप अपने शहरों-महानगरों में देख रहे हैं। महानगरों में अंतर्जातीय शादियां अब लोगों को चौंकाती नहीं है। ये सही है कि ऐसा महानगरों और देश के विकसित अंचलों में ज्यादा हो रहा है, लेकिन शुभ शुरुआत कहीं से भी हो, शुभ तो है ही। विवाह संस्था ही दरअसल वो तोता है जिसमें जाति व्यवस्था की जान बसती है। विवाह संस्था के पुरातन स्वरूप में आ रही निर्णायक दिखती दरारों के अंदर अब बदलते समय की रोशनी झांकने लगी है। अलग अलग जातियों के बीच हो रही शादियां वर्णों की रक्त-शुद्धता की अवधारणा पर ऐसा वार है, जिसके आगे जाति व्यवस्था का टिक पाना संभव नहीं है। जाति व्यवस्था के लिए ये मुश्किल की घड़ी है। ये ऐसा समय है जब नफरत की एक पूरी स्थापित व्यवस्था प्यार के धक्कों के आगे चरमरा रही है।

दरअसल ये कभी न कभी होना ही था। इसमें देर सिर्फ इसलिए लगी कि भारत में औद्योगीकरण और शहरीकरण की रफ्तार कमजोर है। मुंबई और कोलकाता में जब कारखाने खुले तो कैंटीनों में साथ खाने का चलन शुरू हुआ और इस तरह रोटी ने जाति की सीमा लांघ ली। बसों में और ट्रेन-ट्राम आदि सार्वजनिक परिवहन के साधनों में साथ सफर करने, साथ बैठकर सिनेमा-थिएटर देखने, मेले-ठेलों-मॉल-बाजार में साथ घूमने आदि से छुआछूत के बंधन कमजोर पड़े। शहरों में रहने वाले ये हठ नहीं पाल सकते थे कि कोई छू गया तो नहाना होगा ना ही किसी के लिए ये संभव था कि पूरा हॉल बुक कराकर फिल्म देखे। तो इस तरह जो चीज हजारों साल में नहीं बदली वो दशकों में बदल गई।

इसके अलावा औद्योगीकरण ने कर्म और जाति के बंधनों को कमजोर कर दिया। भारत में जाति व्यवस्था सिर्फ ऊंच-नीच की यानी समाज में हायरार्की तय करने की व्यवस्था नहीं है। बल्कि जाति उत्पादन संबंधों और कर्मों को निर्धारित करने वाली व्यवस्था भी है। जाति व्यवस्था के तहत हर व्यक्ति की जन्म के साथ सिर्फ जाति तय नहीं होती, बल्कि उसका कर्म भी तय हो जाता है। भारत में हर जाति के साथ एक कर्म जुड़ा है। ऐसा लगभग दो हजार साल तक चला। तमाम सुधार आंदोलनों, भक्ति आंदोलनों और मुस्लिम और ईसाई शासन के झंझावातों को जाति की संस्था झेल गई। लेकिन ग्राम समाज से शहरी समाज में हो रहे संक्रमण और आधुनिकता ने वो कर दिखाया, जिसे बड़े-बड़े समाज सुधारक नहीं कर पाए थे।

आज शहरों में कोई ये नहीं कहेगा कि किसी जाति को कोई खास काम करना होगा। यहां तक कि शौचालय साफ करने के काम में भी सवर्ण जातियों के काफी लोग लगे हैं। सुलभ आंदोलन की बात करें,या सरकारी स्तर पर स्वीपर्स की नियुक्ति की या फिर फास्ट फूड ज्वायंट और मॉल्स की, सफाई के काम में अब सिर्फ दलित शायद ही कहीं हैं। देश में अब सबसे ज्यादा धन का सृजन सेवा क्षेत्र में हो रहा है और इस क्षेत्र में आने के लिए ब्राह्मणों से लेकर दलितों तक में बराबर की होड़ लगी है। सेवा शूद्रों का काम है, बोलने वाले अब हास्य के पात्र हैं। रिटेलिंग, बैंकिग, इंश्योरेंस से लेकर हेल्थकेयर और हॉस्पिटालिटी जैसे समाम सेक्टर में हर जाति समूह के लोग काम करते हैं।

जाति व्यवस्था मे एक के बाद एक दरारें लगातार आती गईं और अब इस पर निर्णायक प्रहार वहां हो रहा है, जिसकी शुद्धता के बिना जाति बच ही नहीं सकती। ये प्रहार विवाह संस्था के वर्णवादी स्वरूप पर हो रहा है। शहरों ने युवक-युवतियों के बीच संबंधों को नया स्तर प्रदान किया है। खासकर महिलाओं की आर्थिक आजादी ने उन्हें संबंधों के मामले में भी ज्यादा आजाद होने का अवसर दिया है। अलग अलग जाति के युवक युवतियों के लिए मिलने जुलने के अवसर भी अब पहले से काफी ज्यादा हैं। शिक्षा संस्थाओं से लेकर दफ्तरों और काम करने की तमाम जगहों से लेकर क्लब-पार्क और इंटरनेट तक अब प्रेम की नई-नई संभावनाएं प्रदान कर रहे हैं। जाति व्यवस्था को सख्ती से लागू करने वाली व्यवस्था भी शहरों में ढीली है।

अगर आप शहरों या महानगरों में रहते हैं तो शादी के ऐसे कार्ड आपके पास अक्सर पहुंच रहे होंगे,जिसमें शादी तय करने में परिवार या कुनबे की भूमिका नहीं होगी। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि आधुनिकता अनिवार्य रूप से जाति का ध्वंस कर रही है। इंटरनेट युग ने जहां मिलने जुलने और रिश्ते बनाने के अबाध मौके उपलब्ध कराए हैं वहीं शादी की साइट्स ने जातिवादी होने की हर सुविधा प्रदान की है। अमूमन हर मेट्रिमोनियल साइट आपको जाति के अनुसार वर और वधु छांटने की सुविधा देती है। यहां तक की वर्चुअल स्पेस में भी आप आप अपनी जाति और गोत्र तक के ग्रुप बना सकते हैं। ऑर्कूट से लेकर फेसबुक तक में जातियों के ग्रुप बन गए हैं जहां एक ही जाति के लोग वर्चुअल स्पेस में मिलते बतियाते हैं।

ये जाति की जीवनी शक्ति और वक्त के मुताबिक उसकी अनुकूलन क्षमता का एक और प्रमाण है। दरअसल शादी के मामले में जाति के ऊपर प्यार की निर्णायक जीत अभी नहीं हुई है। जाति संस्था लगभग दो हजार से अगर जिंदा है और फलफूल रही है तो इसकी यही वजह है कि उसमें इतना लोच है कि वो समय के मुताबिक खुद को ढाल ले। इस बार स्थिति इस मायने में अलग है कि जाति पर इस बार का हमला किसी सुधारक की इच्छा या उपदेश की वजह से नहीं हो रहा है। इस बार जो चीज बदल रही है वो है सामंती उत्पादन संबंध। जाति व्यवस्था की प्राणवायु सामंती उत्पादन संबंध ही है। अगर उत्पादन के रिश्ते बदल जाएंगे तो जाति नहीं बचेगी। भारत इस समय तेजी से बदल रहा है। सर्विस और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर ने खेती को पीछे छोड़ दिया है। देश की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में खेती का हिस्सा घटकर 18 फीसदी से भी कम रह गया है। इस बदलाव का असर समाज पर भी हो रहा है। आपके पास आने वाले शादी के कार्डों में दिख रहे नाम अगर बदल रहे हैं तो इसका रिश्ता बदलते उत्पादन संबंधों से भी हैं। हर जाति के लोग, अगर अपने लिए तय काम नहीं करेंगे, और जाति के बाहर शादियां होने लगेंगी तो फिर जाति व्यवस्था में बचेगा ही क्या?

क्या आप इस बदलते समय की आहट सुन पा रहे हैं?

5 comments:

अनुनाद सिंह said...

जाति सभी समाजों में रही है; सदा-सदा रही है; अब भी है। जरूरी नहीं कि इसे सब जगह और सब काल में 'जाति' से सम्बोधित किया जाता हो। आज भी यह सर्वत्र विराजमान है, पहचानने के लिये दृष्टि चाहिये।

jayanti jain said...

caste ism is blot on humanity

चंदन कुमार चौधरी said...

हमारे समाज में सिर्फ और सिर्फ दो जातियां ही है। अमीरी और गरीबी। बाकी सब छलावा है। हमारे गांवों में यह देखा गया है कि धनवान दलित के पास समाज के सभी जाति पहुंचती है। अगर कुछ बुराई है तो वह धन का असामान्य वितरण। यह अगर खत्म हो जाए तो मुझे लगता है कि जाति व्यवस्था भी टुटेगी। रही बात जाति कि तो आपने ही लिखा है कि यह पिछले दो हजार साल से जारी है। इस बीच में कई पीढ़ी बीत गई है उसमें अगर मंगलवार को आपके लिखी गई हस्तक्षेप के आंकड़े को देखें तो बहुत कम है। ऐसे में ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हां यह सही है कि कुछ नहीं से कुछ तो बेहतर है। जाति खत्म होने के लिए मानसिकता बदलना जरूरी है। आप अपने ही जान-पहचान में देखिए। जाति के विरोध में बोलने वाले तो मिल जाएंगे लेकिन वह समाज में खुद एक अगुवा खोजते हैं। शायद यह अगुवा काम कर जाए। और यह बात तो लोगों तक पहुंचनी भी चाहिए ही।

चंदन कुमार चौधरी said...

हमारे समाज में सिर्फ और सिर्फ दो जातियां ही है। अमीरी और गरीबी। बाकी सब छलावा है। हमारे गांवों में यह देखा गया है कि धनवान दलित के पास समाज के सभी जाति पहुंचती है। अगर कुछ बुराई है तो वह धन का असामान्य वितरण। यह अगर खत्म हो जाए तो मुझे लगता है कि जाति व्यवस्था भी टुटेगी। रही बात जाति कि तो आपने ही लिखा है कि यह पिछले दो हजार साल से जारी है। इस बीच में कई पीढ़ी बीत गई है उसमें अगर मंगलवार को आपके लिखी गई हस्तक्षेप के आंकड़े को देखें तो बहुत कम है। ऐसे में ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हां यह सही है कि कुछ नहीं से कुछ तो बेहतर है। जाति खत्म होने के लिए मानसिकता बदलना जरूरी है। आप अपने ही जान-पहचान में देखिए। जाति के विरोध में बोलने वाले तो मिल जाएंगे लेकिन वह समाज में खुद एक अगुवा खोजते हैं। शायद यह अगुवा काम कर जाए। और यह बात तो लोगों तक पहुंचनी भी चाहिए ही।

डॉ० डंडा लखनवी said...

nice

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