Friday, August 31, 2007
कहानी शिबू सोरेन की-1
क्या आप सोबरन मांझी को जानते हैं। सोबरन मांझी यानी मास्टर। सोबरन मांझी की 1957 में महाजनों ने हत्या करा दी थी। सोबरन मांझी पुराने अविभाजित बिहार के हजारीबाग जिले के नेमरा गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाते थे। पड़ोस के गांव हेडबरगा में कुछ सूदखोर रहते थे, जिनसे उनका झगड़ा चल रहा था। झगड़ा इसलिए था, क्योंकि हेडबरगा के साव परिवार के लोग आदिवासियों को बहला-फुसलाकर उनकी जमीन अपने नाम करवा रहे थे। इसके लिए वो आदिवासियों को शराब और जुए की लत में डुबो देने में जुटे थे। सोबरन मांझी ज्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे, लेकिन इस प्रपंच को समझते थे।
ऐसे ही एक मामले में जब गांव की एक विधवा सूद पर लिया गया पैसा नहीं लौटा पाई, तो साव परिवार और उनके गुंड़ों ने उस महिला के खेतों की फसल पर कब्जा करने की कोशिश की। इसे देखकर सोबरन मांझी से रहा नहीं गया और उन्होंने साव की पिटाई कर दी। बाद में जब एक और विधवा को डायन बताकर उसकी हत्या करवा दी गई और उसकी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की गई तो भी सोबरन मांझी से विरोध किया और साव के मंसूबे पूरे नहीं हुए। ऐसे ही तमाम कारण रहे होंगे, जिसकी वजह से सोबरन मांझी साव लोगों की आंखों में खटकने लगे थे। और एक रोज सुबह जब सोबरन मांझी पास के एक कस्बे में पढ़ रहे अपने दो बेटों को चावल पहुंचाने जा रहे थे, तो गुंड़ों ने कुल्हाड़ी से हमला कर उनका गला काट दिया।
उनकी लाश दामोदर की सहायक भेड़ा नदी के तट पर मिली। सोबरन मांझी अपने जिन दो बेटों के लिए बोरे में चावल ले जा रहे थे, उनमें से छोटे का नाम था शिबू। वही शिबू, जिसे दुनिया अब शिबू सोरेन के नाम से जानती है। शिबू सोरेन की कहानी 1957 की इस घटना से सीधे जुड़ी हुई है। शिबू सोरेन को आप जिन कारणों से जानते हैं, उनकी वजह किसी को भी इस नाम से नफरत हो सकती है। आपको आश्चर्च भी होता होगा और अफसोस भी कि इस देश की जनता कैसी भेड़ियाधसान है कि शिबू सोरेन जैसों को चुनाव जिताकर भेजती है। शिबू सोरेन अपने सेक्रेटरी शशिनाथ झा की हत्या के मामले में हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं। लेकिन उनपर ये आरोप साबित हो चुका है कि नरसिंह राव की सरकार को बचाने के लिए उन्होंने और झारखंड मुक्ति मोर्चा के तीन और सांसदों ने पैसे लिए।
अगर आप 1976 के बाद के शिबू सोरेन को ही जानते हैं तो शिबू सोरेन के पतन पर आपको न तो अफसोस होगा न आश्चर्य। शिबू सोरेन के पिछले दो दशक के राजनीतक जीवन का शीर्षक देना चाहें तो मेरा एक सुझाव है। उसे आप विराट विपरीत यात्रा कहें। प्रख्यात लेखक विलियम हिंटन ने चीन में उदारीकरण के बाद कृषि संबंधों के फिर से शोषण पर आधारित होते चले जाने पर जो किताब लिखी है, उसके बांग्ला अनुवाद का यही शीर्षक है। लेकिन चीन में डेंग के आने के बाद के समय को आप चीन का पूरा आधुनिक इतिहास नहीं कहेंगे। वैसे ही 1976 के बाद के शिबू सोरेन से आप इस शख्सियत का पूरा आकलन नहीं कर सकते।
मेरा मकसद शिबू सोरेन के पाप की धुलाई करने का नहीं है। वैसे इस पर बात आगे होगी। अभी तो बात हो रही है उस शिबू की जो सोबरन मांझी का बेटा है। उस सोबरन मांझी की, जिस पर 1957 की एक सर्द सुबह को पीछे से कुल्हाडी से वार किया गया, ताकि वो फिर उठ न सकें, शोषण के खिलाफ बोल न सकें। शिबू सोरेन का जीवन अगर उनका व्यक्तिगत मामला होता, तो कोई भी क्यों आंसू बहाता। एक आदमी ने गलत किया है, उसे सजा मिले या बरी हो जाए, इससे कितने लोगों को फर्क पड़ता है। शिबू सोरेन अगर सिर्फ हत्या या रिश्वतखोरी का मुकदमा झेल रहे होते, तो भी क्या फर्क पड़ता?
लेकिन वो दरअसल इससे भी बड़े एक अपराध के दोषी हैं। वो अपराध है अपार संभावनाओं से भरपूर झारखंड मुक्ति आंदोलन के विनाश का कारण बनने का। देश में आंतरिक उपनिवेशवाद के खिलाफ, आजादी के बाद का, ये सबसे बड़ा आंदोलन था। उत्पीड़ित जनता के इस आंदोलन का नेतृत्व करने का ऐतिहासिक दायित्व शिबू सोरने पर था। लेकिन वो इस आंदोलन के पतन का कारण बन गए। सोबरन मांझी के बेटे पर ये मुकदमा जनता की अदालत में है।
लेकिन क्या शिबू सोरेन हमेशा ऐसा ही थे। इस पर बात करेंगे आगे। ... आपसे अनुरोध है कि शिबू सोरेन से जुड़ी कोई सामग्री, लेख, दस्तावेज, फोटो, संस्मरण आपके पास है, तो मुझे बताएं।
Thursday, August 30, 2007
क्या आप हमारी मदद करेंगे
Tuesday, August 28, 2007
कॉमरेड का कान और सोशल जस्टिस
कान बड़ा है या सोशल जस्टिस? और क्या अगर कॉमरेड के कान में तकलीफ न होती तो भी एम्स में दलित और पिछड़े छात्रों के साथ इतना अन्याय हो रहा होता। शायद हां। क्योंकि जब कॉमरेड के कान में तकलीफ नहीं थी तब भी कॉमरेड की एक जाति थी। बहरहाल पहले पहले तो हम आपको इस बात की जानकारी दे देते हैं कि एम्स में हो क्या रहा है।
एम्स देश में सामाजिक अन्याय की प्रयोगशाला है। वैसे तो ये संस्थान केंद्र सरकार के पैसे से चलता है (वही सरकार जिसका वादा और दावा है कि वो सामाजिक न्याय करती है)। लेकिन इस संस्थान में या तो सरकार की चलती नहीं है या फिर सरकार चलाने वाले इस संस्थान को एक ऐसे टापू के तौर पर देखना चाहते हैं, जहां नीची जाति वाले न भर जाएं। इसमें दूसरी बात के सच होने की संभावना ज्यादा है क्योंकि ये मानना आसान नहीं है कि भारत की महान सरकार कुछ करना चाहे और उसी के पैसे से चलने वाला एक संस्थान उसे लागू न करे।
एम्स में इस साल सीनियर रेजिडेंट की 106 पोस्ट एडवर्टाइज हुईं। इनमें से 49.5 फीसदी यानी 52 सीटें एससी, एसटी और पिछड़ी जातियों के लिए रिजर्व है। रिटेन एक्जाम में इन कैटेगरी के 76 कैंडिडेट पास हुए। ऐसे में रिजर्व कैटेगरी के 52 कैंडिडेट का सेलेक्शन मुश्किल नहीं था। लेकिन मुश्किल हुई। क्योंकि इस साल से एम्स ने एक ऐसा सिस्टम लागू कर दिया है जिसके तहत सेलेक्शन में आधे नंबर रिटेन एक्जाम के और आधे नंबर डिपार्टमेंटल एसेसमेंट के हैं।
SELECTION PROCEDURE :
a) A written Examination based on MCQs in the subject concerned (total marks 100) will be conducted for eligible Candidate on 23.12.2006 (Saturday) in Delhi only. The exact time and place will be intimated in due course of time through admit card.
b) The result of the written examination will be displayed on the notice board of the Examination Section at AIIMS on 26.12.2006.
c) Candidates who get 50% marks or more in the written examination will be eligible for consideration for the departmental assessment. The departmental assessment will be held on 27th and 28th Dec 2006.
d) The departmental assessment will carry 100 marks to be based on clinical evaluation/laboratory testing/detailed viva. The result e.g. departmental assessment will be displayed on the notice board of Examination Section on 29.12.2006.
e) The combined (written MCQs test as well as department assessment marks) merit list will be prepared for the final selection.
इस नियम का इस्तेमाल करते हुए रिजर्व कैटेगरी के 76 में से 50 कैंडिडेट फेल कर दिए गए और नौकरी मिली सिर्फ 26 को। बाकी बचे पदों पर चूंकी रिजर्व कटेगरी के "योग्य" कैंडिडेट नहीं मिले, इसलिए उन पोस्ट पर जनरल कैटेगरी के योग्य माने गए कैंडिडेट को चुन लिया गया। इस मामले की जांच के लिए स्वास्थ्य मंत्री अंबुमनि रामदास ने स्वास्थ्य सचिव की अध्यक्षता में जो कमेटी बनाई, वो समय पर अपनी रिपोर्ट तक नहीं दे सकी है।
एम्स में सोशल जस्टिस की धज्जियां उड़ाने के ऐसे दर्जनों मामले हैं। रिजर्व कटेगरी के एक छात्र अजय सिंह को फाइनल ईयर में फेल कर दिया गया। जबकि पहले लगातार उन्होंने अच्छा परफॉर्म किया था। परीक्षा का रिजल्ट घोषित होने से पहले ही अजय सिंह फेल हो गए के पोस्टर इंस्टिट्यूट में चिपका दिए गए। बार बार कोशिशों के बावजूद और कई सांसदों के पत्र लिखने के बावजूद अजय सिंह की कॉपी दोबारा नहीं जांची गई। इसी तरह एम्स के रेडियोथेरपी डिपार्टमेंट में एक सीनियर रेजिडेंट को बिना कारण बताए हटा दिया गया। रिजर्व कटेगरी के इस डॉक्टर को हटाने की वजह भी नहीं बताई गई।
एम्स में सोशल जस्टिस की धज्जियां उड़ते पिछले साल पूरे देश ने देखा। हाईकोर्ट के आदेश का खुला उल्लंघन करते हुए पिछले साल कोटा विरोधी छात्रों ने एम्स कैंपस में लाउड स्पीकर लगाकर जोरदार हंगामा किया। 16 दिनों तक एम्स बंद रहा और मरीजों को वार्ड से निकालकर दूसरे हॉस्पिटल में ले जाना पड़ा। इस दौरान केंद्र सरकार कोर्ट के आदेश पर अमल करने की जगह आंदोलनकारियों के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठकें करती रही। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एम्स ने उन आंदोलनकारियों को उन दिनों का वेतन भी दे दिया जब वो अदालत के आदेश को तोड़कर एम्स के अंदर उत्पात मचा रहे थे। एम्स के हॉस्टल में एससी एसटी छात्रों के साथ बुरे बर्ताव की खबरें लगातार आती रही हैं।
कांग्रेस पार्टी अपने मूल स्वरूप और ऐतिहासिक भूमिका में सवर्ण वर्चस्व का प्रतिनिधित्व करती रही है। इसलिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के ऐसे आचरण पर आप गुस्सा कर सकते हैं लेकिन किसी के आश्चर्यचकित होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन एम्स के मामले में सीपीएम और सीपीआई के कॉमरेडों के कदम क्यों सामाजिक न्याय की उल्टी दिशा में चल रहे हैं? अगर आपको ये बात चौंकाती है तो आप निहायत भोले हैं। सामाजिक न्याय और जाति के सवाल पर सीपीएम और सीपीआई की उलझन उतनी ही पुरानी है, जितनी कि ये पार्टियां।
और एम्स के मामले में तो कान का भी मामला है। दरअसल ये कान सीपीएम पोलिट ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी का है, जिसका इलाज एम्स में हुआ था। वैसे तो अपने कान का इलाज कोई कहीं भी करा सकता है, लेकिन जब कान येचुरी का हो, तो मामला इतना साधारण नहीं रहता। येचुरी साहब के इलाज के लिए एम्स के डायरेक्टर पी वेणुगोपाल ने वो कमरा खोल दिया, जो सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए होता है। साथ ही एम्स में कान का इलाज मेन हॉस्पिटल में होता है। लेकिन येचुरी साहब को प्रधानमंत्री वाला वीवीआईपी कमरा देना था, इसलिए उनका इलाज कार्डियोथोरासिक एंड न्यूरोसाइंसेस (CN) सेंटर में हुआ। एम्स में किस किस लेफ्ट नेता ने अपना इलाज कराया है, इस पर शोध होना चाहिए और उनमें से कितने का वीआईपी ट्रींटमेंट वेणुगोपाल ने कराया है इसपर खास तौर पर फोकस होना चाहिए। और आखिर में आपको हम छोड़ जाते हैं सीपीएम के इस वक्तव्य के साथ-- रिजर्वेशन को लेकर हंगामे के दौरान सीपीएम पोलिट ब्यूरो ने सिर्फ यही एक स्टेटमेंट जारी किया। और ये स्टेटमेंट तब आया जब अंबुमनि रामदॉस ने पी वेणुगोपाल को हटा दिया था। इस वक्तव्य में रिजर्वेशन के पक्ष में भी कुछ कहा गया है ताकि पार्टी की कांख ढकी रहे।
July 6, 2006
Press Statement
The Polit Bureau of the Communist Party of India (Marxist) has issued the following statement:
On AIIMS Developments
The developments concerning the All India Institute of Medical Sciences are a matter for concern as it is a premier institution for medical services and research in the country. The affairs in the institution have reached a stage where the governing board has adopted a resolution for the removal of the Director. This is an unfortunate development which does not bode well for the autonomy and the integrity of the AIIMS.
In the recent period, the AIIMS had become the centre for the anti-reservation movement on the issue of introduction of OBC quotas The attitude of the authority running the institute did not keep in mind the fact that the reservation for SCs, STs and OBCs are a constitutional provision and that a Central Government institution in particular, has to conform to the Constitution.
The strike by doctors in AIIMS and other hospitals on the issue has put thousands of patients to hardship. Mindful of the difficulties faced by the people, the doctors should call off the strike and register their protest by other means. The Polit Bureau urges the government to intervene to amicably settle the issue.
Sunday, August 26, 2007
अपनी ही टिप्पणी
हाल मे आरक्षण के दिनों का अनुभव दोबारा सामने आया. ज्यादा क्रूड, ज्यादा सघन और ज्यादा प्रत्यक्ष रूप में. हालांकि उसका कोई व्यक्तिगत कोण नहीं था, वह किसी भी रूप मे वह मेरी तरफ केंद्रित नही था, फिर भी अन्दर तक झकझोरने वाला साबित हुआ. उस दिन उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम टीवी पर दिखाए जा रहे थे. शाम होते-होते तय हो गया कि बहुजन समाज पार्टी जीत रही है और मायावती मुख्यमंत्री बनने वाली हैं.
इस बीच एक साथी पत्रकार ने सम्पादकीय विभाग में कदम रखा. चॅनल की ब्रेकिंग न्यूज़ देखते ही जो पानी की बोतल उसने उठायी थी, उसे वापस मेज पर पटक दिया, यह कहते हुये कि मूड ख़राब हो गया सारा. अब एक चमारन हम पर राज करेगी. मेरा परिवार इसके नीचे रहेगा. (वह उत्तर प्रदेश से है, परिवार वहीं है.). घर मे झाड़ू लगाने वाली की तो ऐश हो जायेगी. उसके भी तेवर बदल जायेंगे. कल तक हम इन भंगी-चमारों को दाल-दाना देते थे अब हमे देंगे क्या? अब तो हम सब भी चमार ही बन जायेंगे. ओह ये क्या हो रह है इस देश की राजनीती मे... उसका बोलना नही रुका. वह बाँध के छोडे हुये पानी की तरह तेज उफान के साथ बोले चला जा रह था. तब तक जब कि उससे अधिक ऊंची आवाज में उसे टोक कर यह नही बता दिया गया कि आप जो हैं वही रहते हैं.
यों बदलना संभव होता तो आज कोई दलित ना होता. सत्ता दलितों के पास आज तक तो नहीं ही रही है. ऊंची जातियों के राजनेता जो सर्वोच्च पद पर रहे उनके नीचे रहते तो पूरा देश ही सवर्ण हो गया होता. तो बात दरअसल यह है कि आरक्षण अगर बरसों से दबाये जा रहे या दबे रह गए लोगों को आगे बढ़ने मे मदद के लिए एक संविधान प्रदत्त हाथ है कि आओ, इसे थाम लो और आकाश के किन्हीं टुकड़ों पर अपना नाम लिख सकते हो तो लिख लो. सच पूछें तो आरक्षण से कुछ नुक़सान भी हुये हैं. मुझे लगता है कि जातिवाद और छुआछूत को समाज की इकाई यानी मनुष्य के मन से हटाया जाना बहुत जरूरी है. मगर जहाँ आरक्षण की बात चलती है, पढा- लिखा जागरूक तबका भी मुँह बिचका देता है कि फिर मारने आ गए हमारा हक. तो दलित आकाश के कुछ टुकड़े भले ही हासिल कर लें समाज उन्हें अपनी इच्छा से इस ज़मीन पर समान हक नही दे रह है...
ऐसे मे आरक्षण की मूल अवधारणा जो भी हो, मुझे अक्सर निराश करती है. क्योंकी बहुत अधिक ज़रूरत मन से इस भेद को मिटाने की है. मन से स्वीकारने की है, मन से अपने ही जैसा मानने की है. मुझे उन दलितों से भी शिक़ायत है जो खुद को ब्राह्मण बनाने की क्रिया में लग चुके हैं. वे मीडिया मे नौकरी पाने या बनाए रखने के लिए खुद का दलित होना प्रकट नही करते. वे हर कोण से खुद को ग़ैर दलित साबित करने की जुगत लगाते हैं और मौका पडने पर दलित विरोधी बयान भी देने से नही चूकते. वे अपने होने को कैसे नकार देते हैं पता नहीं. वे कैसे अपने वजूद पर शर्मिंदा रहते हुये पूरा जीवन काट देते हैं, पता नहीं.
ऐसे मे आरक्षण की मूल अवधारणा जो भी हो, मुझे अक्सर निराश करती है. क्योंकि बहुत अधिक ज़रूरत मन से इस भेद को मिटाने की है. मन से स्वीकारने की है, मन से अपने ही जैसा मानने की है.मुझे उन दलितों से भी शिक़ायत है जो खुद को ब्रह्मण बनने की क्रिया में लग चुके हैं. वे मीडिया मे नौकरी पाने या बनाए रखने के लिए खुद का दलित होना प्रकट नही करते. वे हर कोण से खुद को ग़ैर दलित साबित करने की जुगत लगाते हैं और मौका पडने पर दलित विरोधी बयान भी देने से नही चूकते. वे अपने होने को कैसे नकार देते हैं पता नहीं. वे कैसे अपने वजूद पर शर्मिंदा रहते हुये पूरा जीवन काट देते हैं, पता नहीं.
Wednesday, August 22, 2007
क्यों करें संहार उस तलवार से जो तुमने बनाई...
जब आरक्षण का हंगामा मचा हुआ था..लगता था मेरे आस पास सब कुछ- हर दोस्त, हर दुश्मन, हर संबंध- सब गड्मड् हो कर केवल दो हिस्सों में बंट गया है...एक जो हर हाल में आरक्षण विरोधी है और दूसरा जो हर हाल में आरक्षण हासिल कर लेना चाहता है। तब लगा ये...
लोक है परलोक मेरा
शिष्टता है फूहड़ता,
है समय के साथ चलना
शूद्रता, नीरवता।
अपनी कहानी हम कहेंगे
नौटंकी, बिदेशिया या नाचा।
कोई क्यों करे संहार उस तलवार से
जो तुमने बनाई।
हम करेंगे लेखनी से वार
यही है वीरता।
क्यों बनें पंडित कि-
जनेऊ तो नहीं पर ज्ञान
छाती पर अटा हुआ सा,
हम बनेंगे
हम रहेंगे
चमार कि-
ज्ञान रविदास के चमड़े में भी बहता।
अरे ओ यादव, लोध, जाटव, डाड्डिया
गोल मेज, कांटे-छूरियां,
रेशम जो तूने भर पाया,
साथ 'बैसाखी' रही तभी तो
यह सब रुचिकर पाया।
लेकिन जो पाया क्यों पाया
और जो पाया वो क्या भर पाया..
जड़ को खो दें, उससे पहले
जा जंगल 'गड़रिए' से लकड़ी ला,
ताकि जो विस्मृत जीवन में
मृत्यु पर याद रहे
दलित होने का दंश क्यों
जड़ पर अपनी मान रहे।---
Saturday, August 18, 2007
रिजेक्ट माल क्या और क्यों
"तुम्हें अप टु द मार्क होना पड़ेगा।" यह वाक्य हमारे लिए नया नहीं है। हमने, आपने और हम जैसे करोड़ों लोगों ने पता नही कितनी बार यह वाक्य सुना है। कभी उपदेश के रूप में तो कभी सलाह के रूप में, कभी नसीहत के रूप में तो कभी चेतावनी के रूप में। हर जगह, हर कुर्सी पर कोई न कोई बैठा है और हाथ में एक पेंसिल लिए टिक या क्रॉस मार्क किए जा रहा है कि कौन योग्य है, कौन नहीं।माफ कीजिए, योग्य तो बिरला नसीब वाला ही होता है, ये कुर्सी पर बैठे लोग प्रायः यही तय करते रहते हैं कि कौन किस वजह से और किन मायनों में अयोग्य है।
कौन जाति की वजह से अयोग्य है और कौन प्रांत की वजह से। किसकी भाषा में गड़बड़ है और किसका पहनावा दकियानूसी।कौन अपनी सांस्कृतिक पहचान को लेकर जरूरत से ज्यादा सतर्क है तो कौन अपने धार्मिक संस्कार छोड़ने को तैयार नहीं।किसे अपने विचारों से जरूरत से ज्यादा मोह है तो कौन समय के साथ आगे बढ़ना नहीं जानता।कौन....
यह सूची खत्म होने वाली नहीं। कहने का मतलब यह कि किसी न किसी वजह से, किसी न किसी आधार पर हमारी चीजें, हमारी बातें और हम रिजेक्ट कर दिए जाते हैं। वे बेचारे भी क्या करें! जब अवसर कम हैं और इच्छुक ज्यादा । तो किसी न किसी आधार पर अधिसंख्य लोगों को रिजेक्ट करना ही पड़ेगा। और आप धर्म के आधार पर फैसला करें या जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर फैसला करें या क्षेत्र के आधार पर, आर्थिक स्थिति के आधार पर फैसला करें याप्रतिभा, जी हां प्रतिभा के आधार पर- नतीजा एक ही आना है, अधिकतर लोग छंट जाएंगे।
हालांकि खुद को या अपने लोगों को ‘सेलेक्टेड’ की श्रेणी में लाने की इच्छा से इन आधारों में से किसी खास को अपनाने का दबाव समाज के अलग-अलग हिस्सों से आता रहता है(संदर्भ- मुस्लिम आरक्षण की मांग, गुर्जरों के लिए आरक्षण की मांग, महिला आरक्षण की मांग, भूमिपुत्रों के साथ न्याय का शिवसेना का आग्रह आदि), मगर प्रगतिशील विचारों के दबाव में ऐसे तमाम आधार अपना प्रभाव खोते जा रहे हैं। एकमात्र आधार जो आज भी अपनी विश्वसनीयता बनाए हुए है, वह है प्रतिभा या योग्यता।इसलिए दुनिया भर में इसी आधार पर ज्यादा से ज्यादा लोग रिजेक्ट किए जा रहे हैं। यह जानते हुए भी कि भिन्न-भिन्न सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों में पलने, बढ़ने के नाते हमारी प्रतिभा भी अलग-अलग रूपों में प्रकट होगी, वे अपने मुताबिक प्रतिभा नापने का एक पैमाना रख लेते हैं और उससे इतर तमाम प्रतिभाओं को रिजेक्ट कर देते हैं। सैटेलाइट टीवी वाले संपन्न घर में पले बच्चे और भूमिहीन खेत मजदूर के बच्चे - दोनों के लिए वे एक ही सवाल तय करते हैं कि पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की बेटी का नाम बताएं। फिर जवाब के आधार पर पहले बच्चे को योग्य और दूसरे को अयोग्य घोषित कर देते हैं। इस बात की ओर ध्यान देने की जहमत नहीं उठाते कि अगर सिर्फ सवाल बदलकर यह कर दिया जाए कि धान की बोआई के समय पौधे का कितना हिस्सा मिट्टी में और कितना पानी में होना चाहिए तो दूसरा बच्चा योग्य और पहला अयोग्य साबित हो जाएगा।
इस स्थिति की ही वजह से समाज के विशिष्ट तबके के लोग सामने वालों को किसी न किसी आधार पर रिजेक्ट करने के आदी से हो जाते हैं। यही आदत विशिष्ट बनने के इच्छुक तबके में भी आ जाती है। नतीजा यह होता है कि कुर्सी पर बैठा हर व्यक्ति सामने आने वाली चीजों को खारिज करता नजर आता है। कभी अमिताभ बच्चन की आवाज़ खारिज हो जाती है तो कभी विशाल भारद्वाज की फिल्म (संदर्भ- ‘मकड़ी’ को सई परांजपे ने बकवास करार दिया था)।लेकिन मुद्दा इन अपवाद स्वरूप रिजेक्शन झेलने के बाद विशिष्ट बन चुके लोगों का नहीं, जिनका सचमुच रिजेक्ट करने लायक माल भी अब सिर आंखों पर लिया जाता है। बात उनकी हो रही है जो लगातार रिजेक्ट होते रहे या कभी सिलेक्ट-कभी रिजेक्ट होते-होते हाशिये पर ही रह गए।
यह ब्लॉग ‘रिजेक्ट माल’ मंच है ऐसे ही लोगों का, ऐसे ही लोगों के लिए और ऐसे ही लोगों के द्वारा। इसलिए हमने तय किया है कि जब तक अनिवार्य न हो, हम किसी सामग्री को रिजेक्ट नहीं करेंगे। न भाषा की स्तरीयता के आधार पर, न धर्म और संस्कृति के मानदंडों के आधार पर और न ही वैचारिक असहमति के कारण। हालांकि इसका मतलब यह भी नहीं कि हम ऊलजलूल चीजें छापेंगे। बस, किसी न किसी रूप में वह चीज हमारी चेतना को आगे बढ़ाने वाली, संवेदना को छूने वाली होनी चाहिए।फिर हम किसी दूसरे मानदंड को स्वीकार नहीं करेंगे।
कुछ लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि हाशिए पर पहुंचा दिए गए या पहुंचाए जा रहे लोगों की बात इंटरनेट जैसे मंच से करने का क्या तुक? सीधा जवाब यह है कि मौजूदा हालात में सबसे सहज और सुलभ माध्यम यही मिला। सच है कि हममें से कुछ लोग खुद को कामयाब या विशिष्ट श्रेणी का मानने लग जाते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि अगर हमारे पास आजीविका के लिए अपना श्रम बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है तो हम भी बेबस लोगों की उसी श्रेणी के हैं । हमारी समस्याएं, हमारे मुद्दे, हमारी चुनौतयां और हमारे हित सब साझा हैं। कहने की जरूरत नहीं, इंटरनेट तक पहुंच रखने वाली बिरादरी का भी ज्यादातर हिस्सा आजीविका के लिए श्रम बेचने वालों का ही है।
तो आइए हम ‘रिजेक्ट माल’ पर अपने दर्दो-ग़म बांट कर कम करें, खुशियों को साझा कर उन्हें दोगुना करें और मिल कर चुनौतयों का सामना करने की रणनीति भी बनाएं।
Sunday, August 12, 2007
असहिष्णुता हर रंग में गलत है
He drank heavily in his prime and still enjoys a nightly whiskey or two at 74. India's leader takes painkillers for his knees (which were replaced due to arthritis) and has trouble with his bladder, liver and his one remaining kidney.
A taste for fried food and fatty sweets plays havoc with his cholesterol. He takes a three-hour snooze every afternoon on doctor's orders and is given to interminable silences, indecipherable ramblings and, not infrequently, falling asleep in meetings.
Atal Behari Vajpayee, then, would be an unusual candidate to control a nuclear arsenal. But for four years the Indian Prime Minister's grandfatherly hands have held the subcontinent back from tumbling into war. Despite the fact that he heads the pro-Hindu Bharatiya Janata Party (BJP), a constituency stuffed with extremists, Vajpayee has ambitiously pursued peace with neighbor and rival Pakistan, even traveling to the Pakistani cultural capital of Lahore in 1999, vainly hoping to bury the bloody animus of the past and start an era of good feelings.
With 1 million soldiers facing each other at high alert on the India-Pakistan border, those days seem long ago. At the same dangerous time, Vajpayee's stewardship is looking less and less comforting. The frail bachelor seems shaky and lost, less an aging sage than an ordinary old man. He forgets names, even of longtime colleague and current Foreign Minister Jaswant Singh, and during several recent meetings he appeared confused and inattentive. After a meeting with a Western Foreign Minister, his appearance was described by one attending diplomat as "half dead." At a rare press conference last month in Srinagar, the Prime Minister tottered to the podium?Indian TV crews are asked to film him from the waist up to avoid showing his shuffling gait?to find he had trouble understanding questions, repeatedly relying on whispered prompts from Home Minister Lal Krishna Advani. Even then Vajpayee stumbled over his replies. "He is very alert when he is functional," says one BJP worker. "But there are very few hours like that." Adds one Western diplomat: "We have a lot of conversations about his health. Some of his mannerisms come down to his personal style. But some of it is definitely spacey stuff."
While no one questions that key decisions on national security and foreign policy are still made by Vajpayee, the focus is now turning to the two men behind the throne: Vajpayee's low-key National Security Adviser Brajesh Mishra, and Vajpayee's hard-line BJP colleague of 50 years, 72-year-old Advani. The consensus among observers and diplomats is that the hawkish Advani is preparing to succeed Vajpayee at the next national elections due by late 2004. "There is no doubt he is the Prime Minister in waiting," remarks a diplomat.
In the meantime, Vajpayee has undergone a sudden conversion from peacemaker to warmonger?primarily in response to political pressures. This year's standoff on the border shows the dovish Prime Minister has accepted the argument that war?or the threat of it?works. In comments that set off alarm bells around the world, Vajpayee last month spoke twice of an impending "decisive battle" against India's "enemy." Although he has repeatedly said that he does not want war, the Prime Minister has sound strategic reasons for ratcheting up the rhetoric. Since Sept. 11, he has found the international community more sympathetic to the idea of India waging its own war on terror against jihadis in the contended state of Jammu and Kashmir, where many of them have been inserted by Pakistan. And it plays well for India to keep the pot boiling: New Delhi can claim a victim's solidarity with the U.S., avoid addressing the awkward issue of its heavy-handed rule in Muslim-dominated Kashmir?and just possibly get Pakistan President Pervez Musharraf to actually shut down the jihadi industry on his territory, ending what India calls a "proxy war."
Last week, Musharraf told visiting U.S Deputy Secretary of State Richard Armitage that he was going to put a permanent end to terrorist incursions into India. Vajpayee's government promised in turn some de-escalation measures, though a withdrawal of troops from the border has been ruled out. The big risk, however, is that no matter what Musharraf does, there are enough jihadis already in Kashmir to keep hammering India with suicide bombs and death squads. Four people were killed by terrorists Friday night in Kashmir, even as heavy shelling continued at the frontier and an unmanned Indian spy plane was shot down by the Pakistani air force. Any small spark can still push Vajpayee to deploy his soldiers in some punitive counterattack on Pakistan, which can lead to full-scale war.
Meanwhile, Vajpayee's colleagues carp that he's still not being hawkish enough. "Any Prime Minister that takes action against Pakistan will sweep the elections, but Vajpayee is reluctant and that will definitely damage the BJP," complains BJP hard-liner B.P. Singhal. "As the Prime Minister, for him, national interest is above party interest."
Tellingly, Vajpayee was forced to give up his moderate stance and attend to his party in response to a domestic disaster, not an international crisis. On Feb. 27, a group of Muslims firebombed a train in the western state of Gujarat murdering 58 Hindus. The reprisals against Muslims in Gujarat were fierce, unpoliced, and went on for weeks, killing some 2,000 according to human rights groups. (The official death toll, widely disbelieved, is half this.) On April 4, Vajpayee reacted with revulsion, urging Hindu rioters to rediscover "a sense of unity and brotherhood." Asked the published poet: "Burning alive men, women and children? Are we human or not? Or has a demon taken over us?" His office briefed newspapers on the likely candidates to replace Gujarat state leader Narendra Modi, a member of the BJP who was accused of complicity in the violence, or at least, ineptness in containing it. But scarcely a week later, on April 12, Vajpayee changed his tune. Nothing more was said about sacking Modi. And speaking to an audience in Goa, Vajpayee shocked the country by declaring: "These days militancy in the name of Islam leaves no room for tolerance. Wherever such Muslims live, they tend not to live in coexistence ... they want to spread their faith by resorting to terror and threats."
In the subcontinental context, that kind of statement is a license for the killings to continue. According to diplomatic sources, the burden of the crisis made Vajpayee unwell. Adds Vinod Mehta, editor-in-chief of the Indian weekly Outlook magazine, Advani and his supporters used the illness to gather the party's hard-line core and read him the riot act. "The party basically gave him no room to maneuver," says Mehta. "He knew he could have lost his job and he had neither the spirit nor the physical strength to fight back. So he just gave up his moderate stance and fell in line. Now he's just a party mascot, a puppet of the hard-liners."
With an enfeebled Vajpayee at the helm, the prospect of war with Pakistan becomes more real. "Advani would really like to finish this proxy war, and perhaps do a bit more," says one diplomat. India has none of the checks and balances designed during the cold war to prevent a nuclear launch in anger. (Although India's military is comfortingly professional, nonpolitical and obedient to civilian control. The country's nukes are controlled by government scientists, and deployment orders come from the Prime Minister's office alone.) For his part, Advani denies any undue influence, or even the tag of "hawk"?although, characteristically, he describes communal violence under the BJP as "minimal," even after the shame of Gujarat. But asked about the possibility of attacking across the Line of Control in Kashmir, Advani answers that in his view India is already facing an "undeclared war" from the militants. His list of conditions that Musharraf must meet before peace talks can begin is lengthy. "As long as this undeclared war, this training, arming, financing of jihadis, and this infiltration and terrorism and sabotage continues," he says, "then any dialogue will be meaningless." And he hints that the international community has given tacit approval for action. "One major change in the last 10 days has been that the U.S., Britain and other coalition members have said publicly and forcefully that Pakistan should stop cross-border terrorism," he says. "Our Prime Minister took really radical initiatives in the past. There's no question of that now"?in other words, of actively looking for peace. An Indian army source adds that unless India detects that promised shift in militant activity and capability in the next five weeks, the military expects an order to attack.
The body on the other end of the seesaw is Mishra, a 70-year-old career civil servant and diplomat, who functions as the equivalent of a White House chief of staff. The fact that Mishra has survived countless calls for his removal?he's accused of wielding influence beyond his position?is testament to his pivotal role, diplomats say. Mishra is considered to be the brains behind the peace overtures of the past. His influence with Vajpayee these days waxes when the two men get away from the capital and the rest of the BJP. At a regional security conference in the Kazakh capital of Almaty last week, the Prime Minister made a rare and unexpected conciliatory gesture when he proposed joint Indian-Pakistani patrols along the Line of Control to ensure an end to infiltration. All week Mishra was briefing India's national newspapers that the government had decided to tone down the rhetoric. And significantly, when Vajpayee returned to Delhi on Wednesday night, Mishra stayed behind for further talks. But, warns Outlook editor Mehta, Mishra is just an appointed government servant, however close he is to the boss. "Mishra's influence is directly proportional to Vajpayee's position. He has no party base. When Vajpayee goes down, Mishra goes with him."
Observers say that the BJP is hoping to use Vajpayee through the next general elections, but no further. The party currently rules in a coalition, with Vajpayee as the glue that holds it together. If it manages to win an absolute majority, it won't need him any longer. The Prime Minister has largely accepted this gradual decline. His great ambition on gaining office was to do for India-Pakistan relations what Nixon did for China and the U.S.: only a right-winger, went the argument, could take the country into a peace deal with the archenemy. And this Vajpayee wanted to do, to secure a place in the history books. Friends say this ambition is now dead.
Much of the Prime Minister's energy is now devoted to the business of weight rather than weighty affairs of state. His staff coaxes the reluctant old man onto a treadmill for 10 minutes every day and encourages him to take short walks. His "family"?longtime companion Rajkumari Kaul, who suffered a heart attack in March, and her daughter Namita?ensures he is served only boiled vegetables and rice. But Vajpayee still insists on an evening drink or two. In the family cottage in the Himalayan foothills, says an aide, nothing can keep him away from deep-fried trout. "He promises to stick to his diet with doubled rigidity once he leaves," says an aide, "but the trout he must have." On a long flight abroad, Vajpayee compared his menu with other members of the government party. "He was terribly upset when he discovered he had been singled out for special treatment," says the aide, "and tried to browbeat the in-flight staff into serving him the general meal, which was spicier." Meanwhile, tension seems set to continue between India and Pakistan. But as Vajpayee's ability to steer a moderate course diminishes, he's spending the twilight of his political life where he wants to be?out to lunch.
?With reporting by Meenakshi Ganguly and Sankarshan Thakur/New Delhi
पूर्वाग्रह
किसी भी तरह के क्षेत्रीय और जातीय पूर्वाग्रह से नफरत है। खासकर बिहार का होने की वजह से मुझे उस वक्त बहुत बुरा लगता है जब मैं बिहारियों को बेवजह प्रताड़ित और तिरस्कृत होते हुए देखता हूं। अभी कल की ही बात है। दिल्ली में ब्लूलाइन बस से कहीं जा रहा था। दो सीट आगे बैठा एक व्यक्ति एक मित्र के साथ बैठा उससे बातें कर रहा था। हावभाव और वेशभूषा से भी उसका बिहारीपन झलक रहा था। अचानक उसने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा, " अरे भाई दिल्ली में भी वही हाल है। थोड़ा सा पानी परा नहीं कि देखो कितना पानी जम गया है सड़क पर।" और सबके चेहरों पर मुस्कान तैर गई। बगल में बैठे सज्जन की बुदबुदाहट मेरे कानों तक पहुंच गई, " कोई जगह खाली नहीं बची इन बिहारियों से।"
कुछ ही दिन पहले ऑफिस में विजिटिंग कार्ड बनवाने की बात हो रही थी। संपादकजी भी थे। कलर पर बात खत्म हुई ही थी कि युवा संवाददाता राजेश ठाकुर बोल उठा, "सर विजिटिंग कार्ड तो हिंदी में ही होना चाहिए। हम हिंदी अखबार में काम करते हैं और विजिटिंग कार्ड अंग्रेजी में हो, ऐसा क्यों?"
संपादकजी मुस्कुराए। बोले, "राजेश जी ये पूरा देश बिहार नहीं है। अब आप बिहारी मानसिकता से निकलिए। अंग्रेजी को लेकर कॉम्प्लेक्स बहुत पुरानी बात हो गई है।" और कमरे में मौजूद सभी लोग हंस पड़े। मैंने देखा कि किस तरह राजेश का चेहरा सकपका गया।
यह ऑटो वाला भी तो बिहारी ही दिख रहा है। पूरे तीन बार थूक चुका है। मेरे ऑटो में बैठने के बाद भी पूरे 45 सेकेंड लिए उसने। जो खैनी बना रहा था, उसे साफ करके मुंह में डालने के बाद ही ऑटो स्टार्ट किया उसने। खैर, कहीं एक्सिडेंट नहीं किया। सही सलात घर तो पहुंचा। वरना दिल्ली में क्या भरोसा, कब कौन सी बस कुचल दे।
कॉलबेल सुन छह साल की बिटिया ने दरवाजा खोला और बिना कुछ कहे सुने वापस जाकर टीवी देखने लगी। उसका प्रिय कार्टून कार्यक्रम आ रहा था। उसे पता था कि ये मेरे आने का समय है। अभी बैठ कर ठीक से सुस्ता भी नहीं पाया था कि बिजली चली गई। बेटी के मुंह से निकला, "अरे यार बिजली चला गया।" और मैं उबल पड़ा, "ऐ पिंकी, क्या बोलती हो तुम। बिजली चली गई नहीं बोल सकती हो। लाइन कट गया। सबको ये बताना जरूरी है कि हम बिहार के हैं।" बच्ची सकपकाई हुई थी और पत्नी हैरानी से मेरी ओर देख रही थी।
Saturday, August 11, 2007
जवाब
मैंने कई तरह से पूछा
इस उम्मीद में कि शायद
जवाब कुछ अलग मिले
मगर, हर बार
अलग-अलग तरीकों से
वही जवाब आया।
मैंने सवाल बदल दिया
पर, जवाब वही रहा।
दरअसल, जवाब सवालों पर नहीं,
जवाब देने वालों पर निर्भर करते है।
-राजीव रंजन
Monday, August 6, 2007
जीवन
रिश्ते ऐसे जिनकी डोर जन्म-जन्मांतर तक जाये
मकसद ऐसा कि जिंदगी अमरता का पर्याय बन जाए
जीवन ऐसा कि हम ही नहीं ये दुनिया निहाल हो जाए
-प्रणव प्रियदर्शी
Sunday, August 5, 2007
दीया
माटी का दीया
बहुत छोटा और भंगुर
मैं संसार के अंधकार को
हटाने का
दावा नहीं करता।
लेकिन
जब तुम्हारे घर में
अंधेरा हो,
तब मुझे जलाना
रात भर जलकर मैं
धीरे धीरे चुक जाऊंगा,
और
तब तक तुम
एक उजली सुबह
जरूर पा जाओगे।
(03.09.1986, जबलपुर)
रोइए जार जार क्यूं?
या किसी को रोने की आदत हो गई है
हाय, सब कुछ कितना खराब हो गया! हम ये कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं! खबरों का हमने तमाशा बना दिया! आखिर टीवी न्यूज चैनल कितनी गंदगी दिखाएंगे। टीवी न्यूज चैनलों ने भूत प्रेतों में जान डाल दी है। मटुकनाथ ना होते, राखी सावंत ना होती तो टीवी चैनलों का क्या होता! गंभीर पत्रकारिता की तो मौत हो गई है! अच्छी पत्रकारिता का दौर कब लौटेगा!
टेलीविजन न्यूज के स्टैंडर्ड को लेकर हाल के वर्षों में ऐसा चिरंतन रूदन आपको लगातर सुनाई देगा। ये रोना पीटना बुद्धिजीवी कहे जाने वाले भी कर रहे हैं और टीवी पत्रकारों का एक हिस्सा भी अपने पीठ पर कोड़े मारकर खुद को लहूलुहान कर रहा। देश के हर चैनल के न्यूजरूम में ये बात सुनाई देगी कि अच्छी पत्रकारिता या कहें पत्रकारिता की मौत हो गई है।
पत्रकारिता में कुछ बदल तो गया है। जैसी पत्रकारिता अब होती है, वैसे पहले नहीं होती थी। लेकिन ये कहना तथ्यों से परे है कि कभी पत्रकारिता का कोई स्वर्ण युग था या कि पहले कोई महान पत्रकारिता हुआ करती थी। यहां तक कि आजादी से पहले के गणेश शंकर विद्यार्थी या पराड़कर युग की जिस पत्रकारिता की वाह वाह के बारे में पत्रकारिता सिखाने वाले इंस्टिट्यूट पढ़ाते हैं, उस दौर का मुख्य स्वर पुरातन, पोंगापंथी, संस्कारी, सनातनी, जातिवादी, चापलूसी और चाटुकारिता ही थी। यकीन ना हो तो नेशनल आर्काइव जाएं और देख लें। श्रीमंतो के आगे सिर झुकाती उस चारण पत्रकारिता की तुलना में तो आज की पत्रकारिता आपको कई गुणा बेहतर लगेगी। आजादी से पहले पत्रकारिता की एक क्रांतिकारी धारा थी, जो समय के हिसाब से सक्षम और प्रभावशाली थी, लेकिन वो उस समय की पत्रकारिता की मुख्यधारा नहीं थी। नेशनल आर्काइव या किसी भी पुराने अखबार के आजादी के बाद के रूमानी दिनों के अखबार ही पलट लें, आपकी ये धारणा मिट जाएगी कि उन दिनों भी कोई महान पत्रकारिता हुई थी।
और अगर बात टीवी न्यूज की हो रही है तो हमारे पिछले मॉडल क्या हैं। क्या आज आपको दूरदर्शनी पत्रकारिता चाहिए। राजीव गांधी और नरसिंह राव के लंबे भाषण लाइव देखकर क्या आप तालियां बजा पाएंगे। आज जब देश के हर हिस्से में असंतोष बढ़ रहा है, तो देश के सूचना और प्रसारण मंत्री देश के चैनल प्रमुखों को बुलाकर हिंसा की तस्वीरें कम दिखाने को कहते हैं। लेकिन टीआरपी के लिए दौड़ रहे चैनल के सामने उनकी बात सुनने का रास्ता ही नहीं है। इसलिए अगर पुलिस कहीं लाठी भांजती है, या गोली चलाती है, और उसके एक्साइटिंग विजुअल हैं तो कोई भी चैनल उसे नहीं दिखाने का जोखिम नहीं लेगा। लेकिन 20 साल पहले क्या ये संभव था। उस समय दूरदर्शन के अधिकारी एक तो सरकारी हिंसा के दृश्य दिखाते ही नहीं और अगर मंत्री के निर्देश के बावजूद कोई ऐसा करता तो उसकी नौकरी चली जाती।
दूरदर्शन के सेंसर के बावजूद अपने समय से आगे की पत्रकारिता अगर किसी ने की थी, तो उनमें मुझे सुरेंद्र प्रताप सिंह का नाम याद आता है। जिन्होंने गणेश के दूध पीने के अफवाह की धज्जियां उड़ाकर ये दिखा दिया था कि अफवाह का खंडन भी पॉप हो सकता है, दर्शक जुटा सकता है, लोगों की स्मृति में वर्षों बाद तक जिंदा रह सकता है। ये सबक उन लोगों के लिए भी है जो पॉप होने के लिए कई तरह के शॉर्ट कट अपना रहे हैं। पुराने एसपी ने नए जमाने के पत्रकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन एसपी जितने मॉडर्न थे, उस समय की पत्रकारिता उतनी मॉडर्न नहीं थी। इसलिए एसपी अकेले चले और समय के शिलालेख पर कुछ बेहद गहरे निशान छोड़ गए। वरना हमारे पेशे में कौन किसे याद करता है?
बहरहाल हमें एसपी को याद करते हुए नए जमाने की पत्रकारिता का जश्न मनाना चाहिए। और ये सोचना चाहिए कि पुराना इसलिए नहीं बचा क्योंकि वो बचे रहने के काबिल ही नहीं था। आखिर मीनाकुमारी और गीताबाली जैसी आदर्श भारतीय नारियों वाली फिल्में भी तो अब नहीं बनती। असंस्कारी कहे जाने दृश्यों से परहेज अब किसी हीरोइन को नहीं है। एश्वर्या रॉय, प्रियंका चोपड़ा से लेकर बिपाशा बासु, मल्लिका शेहरावत और राखी सावंत नए बिंदास जमाने को अगर सिंबॉलाइज कर रही हैं तो टीवी न्यूज चैनल घूंघट के पर्दे में रहने वाली मूर्तियां कहां से लाए। और फिर साड़ी की जगह जींस और मीनी स्कर्ट और शॉर्ट पेंट तो सिर्फ परदे पर नहीं, हमारे आपके जीवन में भी आ गया है। और इसमें आखिर रोने धोने की क्या बात हो गई। पुरुषों ने भी तो धोती और अंगवस्त्रम पहनना छोड़ दिया है। महिलाएं तो इस बात के लिए नहीं रोतीं।
बहरहाल आज की पत्रकारिता पर रोने वालों को ऐसा करने का पूरा हक है। लेकिन उन्हें कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिनकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
- मौजूदा समय में टीवी चैनल का कैमरा देश में मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों का सबसे तगड़ा पहरेदार है। मानवाधिकार आयोग तो इसके सामने कुछ भी नहीं है। अंबिकापुर में थानेदार अगर भीड़ पर लाठियां बरसाता है और कैमरा वहां है, तो उसकी नौकरी जा सकती है। आगरा में कोर्ट कंपाउंड में दलित युवक की पिटाई के समय कैमरा मौजूद है तो दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई होने के आसार अधिक हैं। अगर कैमरा सक्रिय है तो बच्चों के पांव में बेड़ी डालने वाले मास्टर की नौकरी जा सकती है। अगर नंदीग्राम में टीवी कैमरा नहीं होता तो सीपीएम को शायद इतनी शर्म ना आ रही होती। होंडा मोटर्स के मजदूरों की निर्मम पिटाई करने वाला एसपी क्या आज से पंद्रह साल पहले सस्पेंड हो सकता था।
- अभी की टीवी पत्रकारिता न्यूज स्पेस में सुसंस्कृत, कुलीन, भद्रलोक, इलीट, सनातन और ब्राह्मणवादी विचारों के अंत की शुरुआत है। नई पत्रकारिता में सहारनपुर का दलित छात्र राजेश भी नायक होगा क्योंकि वो ऐसे अंदाज में अंग्रेजी बोलता है, जैसे कि अमेरिकी बोलते हैं। नया नायक या खलनायक कौन होगा, ये कुछ लोगों के तय करने से तय नहीं होगा। इसे दर्शकों का लोकतंत्र तय करेगा। नई नायिका राखी सावंत हैं, नया हीरो हीमेश रेशमिया है, नायिका रोहतक की मल्लिका हैं, नायक रांची का महेंद्र सिंह धोनी और सूरत की मस्जिद में खेलते कूदते बड़ा हुआ पठान है या फिर कोलकाता पुलिस का कॉन्स्टेबल प्रशांत तमांग है और फिर हमारे मटुकनाथ हैं। और दर्शक जब जिसे चाहेगा उसकी छुट्टी कर देगा और सबसे प्रभावशाली लोग मुंह ताकते रह जाएंगे।
-ये पत्रकारिता का बहुलवाद है, ये पत्रकारिता का लोकतंत्र है। ये दर्शकों को च्वाइस दे रहा है, ये रिजेक्ट करने की आजादी दे रहा है। आपके पास गंदा देखने की स्वतंत्रता है, लेकिन अच्छा देखने की भी च्वाइस है। आप चुन लीजिए। आप रिजेक्ट कर दीजिए। ये द्वंद तो चिरंतन है। लेकिन पंद्रह साल पहले आप क्या करते। किसी मंत्री का लंबा और उबाऊ भाषण जब दूरदर्शन से आ रहा होता, तो आप आखिर क्या कर लेते। इसलिए खुश रहिए और रोना बंद कीजिए कि आप 2007 में जी रहे हैं और इस समय की पत्रकारिता कर रहे हैं।
-एक आखिरी बात। पुराने दौर में नियुक्तियों में जिस तरह का चेलावाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद था, वो अब चल नहीं सकता। जो संपादक ऐसा करेगा, वो खुद भी बर्बाद होगा और अपने प्रोडक्ट को भी बर्बाद कर देगा। एक ब्राह्मण या कायस्थ संपादक अगर किसी ब्राह्मण या कायस्थ को नौकरी देना चाहे भी तो उसे काबिल ब्राह्मण या कायस्थ ढूंढना होगा। बाजार उसे एक हद से ज्यादा जातिवादी होने की इजाजत नहीं देगा। इसकी प्रक्रिया चल पड़ी है और न्यूजरूम में हमें आने वाले दिनों में भारतीय समाज की विविधता ज्यादा प्रभावशाली ढंग से नजर आएगी।