जानिए सोबरन मांझी के बेटे को
क्या आप सोबरन मांझी को जानते हैं। सोबरन मांझी यानी मास्टर। सोबरन मांझी की 1957 में महाजनों ने हत्या करा दी थी। सोबरन मांझी पुराने अविभाजित बिहार के हजारीबाग जिले के नेमरा गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाते थे। पड़ोस के गांव हेडबरगा में कुछ सूदखोर रहते थे, जिनसे उनका झगड़ा चल रहा था। झगड़ा इसलिए था, क्योंकि हेडबरगा के साव परिवार के लोग आदिवासियों को बहला-फुसलाकर उनकी जमीन अपने नाम करवा रहे थे। इसके लिए वो आदिवासियों को शराब और जुए की लत में डुबो देने में जुटे थे। सोबरन मांझी ज्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे, लेकिन इस प्रपंच को समझते थे।
ऐसे ही एक मामले में जब गांव की एक विधवा सूद पर लिया गया पैसा नहीं लौटा पाई, तो साव परिवार और उनके गुंड़ों ने उस महिला के खेतों की फसल पर कब्जा करने की कोशिश की। इसे देखकर सोबरन मांझी से रहा नहीं गया और उन्होंने साव की पिटाई कर दी। बाद में जब एक और विधवा को डायन बताकर उसकी हत्या करवा दी गई और उसकी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की गई तो भी सोबरन मांझी से विरोध किया और साव के मंसूबे पूरे नहीं हुए। ऐसे ही तमाम कारण रहे होंगे, जिसकी वजह से सोबरन मांझी साव लोगों की आंखों में खटकने लगे थे। और एक रोज सुबह जब सोबरन मांझी पास के एक कस्बे में पढ़ रहे अपने दो बेटों को चावल पहुंचाने जा रहे थे, तो गुंड़ों ने कुल्हाड़ी से हमला कर उनका गला काट दिया।
उनकी लाश दामोदर की सहायक भेड़ा नदी के तट पर मिली। सोबरन मांझी अपने जिन दो बेटों के लिए बोरे में चावल ले जा रहे थे, उनमें से छोटे का नाम था शिबू। वही शिबू, जिसे दुनिया अब शिबू सोरेन के नाम से जानती है। शिबू सोरेन की कहानी 1957 की इस घटना से सीधे जुड़ी हुई है। शिबू सोरेन को आप जिन कारणों से जानते हैं, उनकी वजह किसी को भी इस नाम से नफरत हो सकती है। आपको आश्चर्च भी होता होगा और अफसोस भी कि इस देश की जनता कैसी भेड़ियाधसान है कि शिबू सोरेन जैसों को चुनाव जिताकर भेजती है। शिबू सोरेन अपने सेक्रेटरी शशिनाथ झा की हत्या के मामले में हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं। लेकिन उनपर ये आरोप साबित हो चुका है कि नरसिंह राव की सरकार को बचाने के लिए उन्होंने और झारखंड मुक्ति मोर्चा के तीन और सांसदों ने पैसे लिए।
अगर आप 1976 के बाद के शिबू सोरेन को ही जानते हैं तो शिबू सोरेन के पतन पर आपको न तो अफसोस होगा न आश्चर्य। शिबू सोरेन के पिछले दो दशक के राजनीतक जीवन का शीर्षक देना चाहें तो मेरा एक सुझाव है। उसे आप विराट विपरीत यात्रा कहें। प्रख्यात लेखक विलियम हिंटन ने चीन में उदारीकरण के बाद कृषि संबंधों के फिर से शोषण पर आधारित होते चले जाने पर जो किताब लिखी है, उसके बांग्ला अनुवाद का यही शीर्षक है। लेकिन चीन में डेंग के आने के बाद के समय को आप चीन का पूरा आधुनिक इतिहास नहीं कहेंगे। वैसे ही 1976 के बाद के शिबू सोरेन से आप इस शख्सियत का पूरा आकलन नहीं कर सकते।
मेरा मकसद शिबू सोरेन के पाप की धुलाई करने का नहीं है। वैसे इस पर बात आगे होगी। अभी तो बात हो रही है उस शिबू की जो सोबरन मांझी का बेटा है। उस सोबरन मांझी की, जिस पर 1957 की एक सर्द सुबह को पीछे से कुल्हाडी से वार किया गया, ताकि वो फिर उठ न सकें, शोषण के खिलाफ बोल न सकें। शिबू सोरेन का जीवन अगर उनका व्यक्तिगत मामला होता, तो कोई भी क्यों आंसू बहाता। एक आदमी ने गलत किया है, उसे सजा मिले या बरी हो जाए, इससे कितने लोगों को फर्क पड़ता है। शिबू सोरेन अगर सिर्फ हत्या या रिश्वतखोरी का मुकदमा झेल रहे होते, तो भी क्या फर्क पड़ता?
लेकिन वो दरअसल इससे भी बड़े एक अपराध के दोषी हैं। वो अपराध है अपार संभावनाओं से भरपूर झारखंड मुक्ति आंदोलन के विनाश का कारण बनने का। देश में आंतरिक उपनिवेशवाद के खिलाफ, आजादी के बाद का, ये सबसे बड़ा आंदोलन था। उत्पीड़ित जनता के इस आंदोलन का नेतृत्व करने का ऐतिहासिक दायित्व शिबू सोरने पर था। लेकिन वो इस आंदोलन के पतन का कारण बन गए। सोबरन मांझी के बेटे पर ये मुकदमा जनता की अदालत में है।
लेकिन क्या शिबू सोरेन हमेशा ऐसा ही थे। इस पर बात करेंगे आगे। ... आपसे अनुरोध है कि शिबू सोरेन से जुड़ी कोई सामग्री, लेख, दस्तावेज, फोटो, संस्मरण आपके पास है, तो मुझे बताएं।
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2 comments:
अरे यार, आपके यहां तो इतना सब छप गया। मैंने अभी तक देखा ही नहीं, मोहल्ला पर ही आपका कचरमकूट देखता रहा। शिबू सोरेन से अपनी लोकप्रियता संभाले नहीं बनी। उनके बाल-बच्चे और भी कुलनासी निकले। फिर भी उनकी पृष्ठभूमि को जानना एक जमीनी आंदोलन की विडंबना से परिचित होने जैसा है।
पूरा किस्सा बताने की कोशिश करेंगे चंदू जी। राज की कोई बात नहीं है, लेकिन पूरी बात एक साथ रखने की कोशिश होगी। समझने की कोशिश कर रहा हूं कि नायक और खलनायक एक ही आदमी कैसे बन जाता है। रोज आइए हमारे यहां।
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