पूजा प्रसाद युवा पत्रकार हैं. उनकी कविता 'क्यों करें संहार उस तलवार से जो तुमने बनाईं' आपने देखी. अब हम उस कविता के संदर्भ मे लिखी उन्हीं की टिप्पणी दे रहे हैं. कविता पहले की है, टिप्पणी हाल की. कविता असामान्य परिस्थितियों की उपज थी. टिप्पणी उसे हमारी - आपकी जिन्दगी से जोड़ती है.
हाल मे आरक्षण के दिनों का अनुभव दोबारा सामने आया. ज्यादा क्रूड, ज्यादा सघन और ज्यादा प्रत्यक्ष रूप में. हालांकि उसका कोई व्यक्तिगत कोण नहीं था, वह किसी भी रूप मे वह मेरी तरफ केंद्रित नही था, फिर भी अन्दर तक झकझोरने वाला साबित हुआ. उस दिन उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम टीवी पर दिखाए जा रहे थे. शाम होते-होते तय हो गया कि बहुजन समाज पार्टी जीत रही है और मायावती मुख्यमंत्री बनने वाली हैं.
इस बीच एक साथी पत्रकार ने सम्पादकीय विभाग में कदम रखा. चॅनल की ब्रेकिंग न्यूज़ देखते ही जो पानी की बोतल उसने उठायी थी, उसे वापस मेज पर पटक दिया, यह कहते हुये कि मूड ख़राब हो गया सारा. अब एक चमारन हम पर राज करेगी. मेरा परिवार इसके नीचे रहेगा. (वह उत्तर प्रदेश से है, परिवार वहीं है.). घर मे झाड़ू लगाने वाली की तो ऐश हो जायेगी. उसके भी तेवर बदल जायेंगे. कल तक हम इन भंगी-चमारों को दाल-दाना देते थे अब हमे देंगे क्या? अब तो हम सब भी चमार ही बन जायेंगे. ओह ये क्या हो रह है इस देश की राजनीती मे... उसका बोलना नही रुका. वह बाँध के छोडे हुये पानी की तरह तेज उफान के साथ बोले चला जा रह था. तब तक जब कि उससे अधिक ऊंची आवाज में उसे टोक कर यह नही बता दिया गया कि आप जो हैं वही रहते हैं.
यों बदलना संभव होता तो आज कोई दलित ना होता. सत्ता दलितों के पास आज तक तो नहीं ही रही है. ऊंची जातियों के राजनेता जो सर्वोच्च पद पर रहे उनके नीचे रहते तो पूरा देश ही सवर्ण हो गया होता. तो बात दरअसल यह है कि आरक्षण अगर बरसों से दबाये जा रहे या दबे रह गए लोगों को आगे बढ़ने मे मदद के लिए एक संविधान प्रदत्त हाथ है कि आओ, इसे थाम लो और आकाश के किन्हीं टुकड़ों पर अपना नाम लिख सकते हो तो लिख लो. सच पूछें तो आरक्षण से कुछ नुक़सान भी हुये हैं. मुझे लगता है कि जातिवाद और छुआछूत को समाज की इकाई यानी मनुष्य के मन से हटाया जाना बहुत जरूरी है. मगर जहाँ आरक्षण की बात चलती है, पढा- लिखा जागरूक तबका भी मुँह बिचका देता है कि फिर मारने आ गए हमारा हक. तो दलित आकाश के कुछ टुकड़े भले ही हासिल कर लें समाज उन्हें अपनी इच्छा से इस ज़मीन पर समान हक नही दे रह है...
ऐसे मे आरक्षण की मूल अवधारणा जो भी हो, मुझे अक्सर निराश करती है. क्योंकी बहुत अधिक ज़रूरत मन से इस भेद को मिटाने की है. मन से स्वीकारने की है, मन से अपने ही जैसा मानने की है. मुझे उन दलितों से भी शिक़ायत है जो खुद को ब्राह्मण बनाने की क्रिया में लग चुके हैं. वे मीडिया मे नौकरी पाने या बनाए रखने के लिए खुद का दलित होना प्रकट नही करते. वे हर कोण से खुद को ग़ैर दलित साबित करने की जुगत लगाते हैं और मौका पडने पर दलित विरोधी बयान भी देने से नही चूकते. वे अपने होने को कैसे नकार देते हैं पता नहीं. वे कैसे अपने वजूद पर शर्मिंदा रहते हुये पूरा जीवन काट देते हैं, पता नहीं.
ऐसे मे आरक्षण की मूल अवधारणा जो भी हो, मुझे अक्सर निराश करती है. क्योंकि बहुत अधिक ज़रूरत मन से इस भेद को मिटाने की है. मन से स्वीकारने की है, मन से अपने ही जैसा मानने की है.मुझे उन दलितों से भी शिक़ायत है जो खुद को ब्रह्मण बनने की क्रिया में लग चुके हैं. वे मीडिया मे नौकरी पाने या बनाए रखने के लिए खुद का दलित होना प्रकट नही करते. वे हर कोण से खुद को ग़ैर दलित साबित करने की जुगत लगाते हैं और मौका पडने पर दलित विरोधी बयान भी देने से नही चूकते. वे अपने होने को कैसे नकार देते हैं पता नहीं. वे कैसे अपने वजूद पर शर्मिंदा रहते हुये पूरा जीवन काट देते हैं, पता नहीं.
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