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Saturday, September 1, 2007

कहानी शिबू सोरेन की-2

सोबरन मांझी का बेटा गुरुजी कैसे बना?


कहानी के पहले हिस्से में आपने जाना कि सोबरन मांझी ने किस तरह अन्याय के विरोध की कीमत अपनी जिंदगी देकर चुकाई और किस तरह एक दिन सूरज निकलने से पहले उनकी गरदन पर सूदखोरों की कुल्हाड़ी चल गई। हत्या उस वक्त हुई जब सोबरन मांझी पास के कस्बे में पढ़ रहे अपने दो बेटों के लिए चावल की बोरी लेकर जा रहे थे। उन दो बेटों में छोटे का नाम था शिबू। अब कहानी को आगे बढ़ाते हैं।

समय और इतिहास व्यक्तियों को लेकर अक्सर बेहद निर्मम होता है। लेकिन निर्मम होते वक्त इतिहास लेखक चुनता है किसके प्रति नरम होना है और किसके प्रति निर्मम और किसके प्रति बेहद ही निर्मम। इसलिए किसी व्यक्ति या घटना का मूल्यांकन सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं होता कि किस व्यक्ति या किस घटना का मूल्यांकन किया जा रहा है। बल्कि ये इस बात पर भी निर्भर है कि मूल्यांकन कौन कर रहा है। ये इस बात पर भी निर्भर होता है कि मूल्यांकन जिस समय किया जा रहा है, उस समय की प्रभावशाली धारा कौन सी है, और समाज में किसकी चलती है और किसकी कम चलती है और किसकी बिल्कुल नहीं चलती।

इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण भारत और पाकिस्तान में स्वतंत्रता आंदोलन पर किया गया इतिहास लेखन है। भारत की पाठ्यपुस्तकों में खलनायक बताए गए मुहम्मद अली जिन्ना सरहद पार पहुंचकर महानायक हो जाते हैं। वहीं पाकिस्तान की किताबों में हिंदू राष्ट्रवाद के अगुवा बताए गए मोहनदास करमचंद गांधी सीमा के इस पार आते ही राष्ट्रपिता बन जाते हैं। इस रोचक परिघटना का पूरा ब्यौरा जानने के लिए एनसीआरटी के मुखिया कृष्ण कुमार की किताब प्रिज्युडिस एंड प्राइड को देखिए। साथ ही देखिए अंग्रेजी राज के बारे में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की पाकिस्तान में छपी बर्क और कुरैशी की किताब (इंटरनेशनल ट्रेड फेयर में हर साल पाकिस्तानी किताबों का स्टाल लगता है, जहां आपको मिल जाएगी)। एक ही घटनाएं, ईश्वी सन, तारीख, स्थान, पात्र सभी कुछ एक। लेकिन घटनाओं का विवरण अलग। घटनाओं का चयन अलग। घटनाओं का महत्व अलग और नायक और खलनायक अलग। इसलिए हमारा सच आपका भी सच हो ये जरूरी नहीं है।

शिबू सोरेन पर इस सिरीज में हम इस पात्र को वहां से देखने की कोशिश करेंगे, जहां से उन्हें समय की मुख्यधारा या कहें प्रभावशाली धारा देखने को तैयार नहीं है। यहां हम ये साफ कर दें कि शिबू सोरेन का मूल्यांकन करते हुए ये लेख निर्मम भी होगा और उनके साथ इसलिए कोई रियायत नहीं बरतेगा कि वो समाज के कमजोर तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए हम ये याद रखने की कोशिश करेंगे कि किसी आदमी का मूल्यांकन एक खास कालखंड से तय नहीं होता और बुरा वही है जो एक खास मापदंड के हिसाब से गलत है। इसलिए हम अपराधियों की हिंसा, राजकीय हिंसा और क्रांतिकारियों की हिंसा को एक तराजू पर नहीं तोलते। यहां हम अपराध और दंड में दोस्तोवस्की के नायक के उस विचार से सीखने की कोशिश करेंगे जो मानता है कि समाज खास समय में खास तरीके से तय करता है कि अपराध क्या है और उसके लिए क्या दंड दिया जाना चाहिए।

बहरहाल शिबू सोरेन की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। शिबू सोरेन संथाल हैं। ये आदिवासी समुदाय झारखंड के अलावा, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बिहार में मौजूद है। इसका मुख्य काम खेती और वनोपज का संग्रह है। आदिवासियों में ये समुदाय अपने प्रतिरोध की परंपरा के कारण मशहूर रहा है। अंग्रेजों के शासन काल में सिद्धू और कान्हू संथाल विद्रोह की लंबी परंपरा रही है। सिधू और कान्हू के नेतृत्व हुए उस विद्रोह ने अंग्रेजों के लिए और झारखंड के जमींदारों के लिए काफी मुश्कलें खड़ी की थीं। मौजूदा समय में बाकी आदिवासी समुदायों की तरह ही संथालों को भी एक खास तरह के अलगाववाद का शिकार बनना पड़ रहा है। कुछ दशक पहले तक झारखंड के आदिवासियों में उत्पादन की मध्यकालीन पद्धितियां ही प्रचलित थी। उनमें गोत्र तो हैं पर जातियां नहीं। यानी कर्म का जन्म से कोई संबंध नहीं है, जैसा कि हिंदू धर्म में होता है। पैत्रिक संपत्ति का कोई संस्थागत रूप नहीं है और इस वजह से यौन संबंधों के बंधन भी रूढ़ नहीं हुए हैं। संपत्ति के संग्रह की प्रवृत्ति उनमें कमजोर है। इसलिए आपको आदवासी जमींदार नहीं मिलेंगे। इसे रोमांटिक तरीके से ना देखें, लेकिन ये सच है कि आदिवासियों में संपत्ति के आधार पर दूरी कम है। ऐसे ही आदवासी समाज से आने वाले शिबू सोरेन को जब मुख्यधारा अपनाती है तो चंद वर्षों में ही वो पैसा बनाने के लिए हर तरह के कुचक्र रचने लगते हैं।

ये सब कैसे हुआ और इससे पहले के कालखंड में कैसे थे शिबू, ये हम आपको आगे बताएंगे।

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