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समय और इतिहास व्यक्तियों को लेकर अक्सर बेहद निर्मम होता है। लेकिन निर्मम होते वक्त इतिहास लेखक चुनता है किसके प्रति नरम होना है और किसके प्रति निर्मम और किसके प्रति बेहद ही निर्मम। इसलिए किसी व्यक्ति या घटना का मूल्यांकन सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं होता कि किस व्यक्ति या किस घटना का मूल्यांकन किया जा रहा है। बल्कि ये इस बात पर भी निर्भर है कि मूल्यांकन कौन कर रहा है। ये इस बात पर भी निर्भर होता है कि मूल्यांकन जिस समय किया जा रहा है, उस समय की प्रभावशाली धारा कौन सी है, और समाज में किसकी चलती है और किसकी कम चलती है और किसकी बिल्कुल नहीं चलती।
इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण भारत और पाकिस्तान में स्वतंत्रता आंदोलन पर किया गया इतिहास लेखन है। भारत की पाठ्यपुस्तकों में खलनायक बताए गए
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बहरहाल शिबू सोरेन की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। शिबू सोरेन संथाल हैं। ये आदिवासी समुदाय झारखंड के अलावा, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बिहार में मौजूद है। इसका मुख्य काम खेती और वनोपज का संग्रह है। आदिवासियों में ये समुदाय अपने प्रतिरोध की परंपरा के कारण मशहूर रहा है। अंग्रेजों के शासन काल में सिद्धू और कान्हू संथाल विद्रोह की लंबी परंपरा रही है। सिधू और कान्हू के नेतृत्व हुए उस विद्रोह ने अंग्रेजों के लिए और झारखंड के जमींदारों के लिए काफी मुश्कलें खड़ी की थीं। मौजूदा समय में बाकी आदिवासी समुदायों की तरह ही संथालों को भी एक खास तरह के अलगाववाद का शिकार बनना पड़ रहा है। कुछ दशक पहले तक झारखंड के आदिवासियों में उत्पादन की मध्यकालीन पद्धितियां ही प्रचलित थी। उनमें गोत्र तो हैं पर जातियां नहीं। यानी कर्म का जन्म से कोई संबंध नहीं है, जैसा कि हिंदू धर्म में होता है। पैत्रिक संपत्ति का कोई संस्थागत रूप नहीं है और इस वजह से यौन संबंधों के बंधन भी रूढ़ नहीं हुए हैं। संपत्ति के संग्रह की प्रवृत्ति उनमें कमजोर है। इसलिए आपको आदवासी जमींदार नहीं मिलेंगे। इसे रोमांटिक तरीके से ना देखें, लेकिन ये सच है कि आदिवासियों में संपत्ति के आधार पर दूरी कम है। ऐसे ही आदवासी समाज से आने वाले शिबू सोरेन को जब मुख्यधारा अपनाती है तो चंद वर्षों में ही वो पैसा बनाने के लिए हर तरह के कुचक्र रचने लगते हैं।
ये सब कैसे हुआ और इससे पहले के कालखंड में कैसे थे शिबू, ये हम आपको आगे बताएंगे।
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