प्रणव प्रियदर्शी
अविनाश जी के मोहल्ले मे आज कल महिलाओं पर बड़ी अच्छी बहस चल रही है. इस बार भी बहस शुरू कराने का श्रेय दिलीप मंडल को ही जाता है. जिन पाठकों ने वह बहस नहीं देखी है, उनकी जानकारी के लिए यहाँ इतना बता देना ठीक रहेगा कि दिलीप का लेख 'देख ले..आंखो मे आँखें डाल देख ले' मीडिया मे महिलाओं की बढती भागेदारी पर केंद्रित था.
उसके जवाब मे जो लेख आये उनसे कई नए सवाल उठे. मनीश जीं की टिप्पणी पर हमारी सहकर्मी पूजा प्रसाद भी उद्वेलित हुयी.
उन्होने जो जवाब भेजा उस पर मनीश की जवाबी टिप्पणी भी आयी उसका शीर्षक था 'बात को समझने की कोशिश कीजिये पूजा जी.' फिर दिलीप का पूजा के नाम ख़त आ गया जिसका शीर्षक था 'पूजा, मत समझना'. इसके बाद जो टिप्पणी आयी वह थी अमित आनंद की. उनकी टिप्पणी का शीर्षक था 'गम्भीर विषयों पर बहस करना सीखिए'.
इन टिप्पणियों से गुजरना अलग अनुभव है, लेकिन ये शीर्षक भी बहुत कुछ बता जाते हैं। यहां इस पूरी बहस को फिर से प्रस्तुत करना संभव नही, लेकिन अपने नज़रिये से इसके कुछ महत्वपूर्ण, प्रासंगिक हिस्सों पर दोबारा दृष्टि डाली जायेगी.
पूजा ने मनीश की टिप्पणी पर अपना पक्ष तार्किक ढंग से रखा. अलग संदर्भ मे मनीश की बातें सही थीं, लेकिन उनके कहने के अंदाज मे जो समझाने का भाव था वह यह संकेत दे रहा था कि पूजा को उनके तथ्यों और तर्को की वजह से नही बल्कि इसीलिये उनकी बात मान लेनी चाहिए कयोंकि वे कह रहे हैं. अमूमन जब भी 'जानकार' लोग हमे 'समझाने' लगते हैं तो ऐसा ही होता है. इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हुये दिलीप ने कहा पूजा तुम मत समझना. और हो सके तो 'कम समझदार लोगों' का एक मोर्चा बनाना. (रेजेक्ट माल ऐसे ही 'कम समझदार लोगों' का मंच बनने की कोशिश कर रहा है.)
समझदारों के खतरे का एक उदाहरण मोहल्ले की इस बहस मे भी इस रूप मे सामने आया कि जो सज्जन गम्भीर मुद्दों पर बहस का सलीका सिखाने को सबसे अधिक बेकरार थे उनकी टिप्पणी मे सबसे अधिक दोहराव और उलझनें थीं.बहराहाल , इस बहस पर रेजेक्ट समूह (यानी वे लोग जो अपनी आजीविका के लिए अपना श्रम बेचने को मजबूर हैं) के नज़रिये से विचार करें तो कुछ नए सवाल सामने आते हैं.
आइये ऐसे ही कुछ अनछुए पहलुओं को छूने की कोशिश करें.पूजा प्रसाद को ही लेते हैं. जब वे मोहल्ले से गुज़र रहीं थीं उससे ठीक पहले रेजेक्ट माल पर गोहाना मे दलित युवक की हत्या का विश्लेषण देख चुकी थी. उस पर भी अपनी प्रतिक्रिया देना चाहती थीं. मगर, जब मोहल्ले पर महिलाओं वाली बहस देखी तो सोचा कि पहले इस पर टिप्पणी देनी चाहिए.
गौर करने की बात है पूजा महिला हैं और दलित पृष्ठभूमि की भी हैं. उनकी कई और पहचान है. वे एक हिंदू हैं. वे भारतीय नागरिक भी हैं. वे एक पत्रकार है. वे रेजेक्ट समूह की सदस्य भी हैं. गोहाना वाली बहस के बदले महिला वाली बहस पर टिप्पणी करने के उनके फैसले से इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि वे दलित होने से पहले एक महिला हैं. लेकिन सवाल यह है कि इन तमाम पहचानों मे से उनकी किस पहचान को संबोधित किया जाना चाहिए.
यह सवाल उठाना इसलिये जरूरी है कि ये अलग-अलग पहचाने या अलग-अलग चेतनाएं परस्पर विरोधी हैं. एक चेतना मज़बूत होती है तो दूसरी कमजोर पडने लगती है. इसीलिये राजनीतिक विचारों संगठनों मे घोषित-अघोषित संघर्ष मुद्दों को लेकर भी चलता रहता है.
याद कीजिये मंडल कमीशन के जरिये वी पी सिंह ने दलित चेतना को उभारने का काम किया था. अगर वह मुद्दा पूरी तरह चल जाता तो देश भर के मतदाता अगडे और पिछड़े के रूप मे गोलबंद हो जाते. नतीजा यह निकलता कि भाजपा को अपनी दूकान बंद करनी पड़ती. इसीलिये आडवानी ने सरकार की चिन्ता छोड तत्काल राम रथयात्रा शुरू कर हिंदू चेतना को उभारने का जवाबी प्रयास किया.
जहां (उदाहरण बिहार) दलित चेतना उभरी वहाँ भाजपा की स्थिति कमजोर हुयी और जहाँ हिंदू चेतना उभरी वहाँ दलित राजनीति पिछड़ गयी. पूजा या पूजा जैसी अथवा जैसे किसी भी व्यक्ति की किस चेतना को उभरने का प्रयास हमें करना चाहिए इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि हमारा मकसद क्या है.
रेजेक्ट समूह के नज़रिये से देखें तो दूसरी कोई भी पहचान उसे इस समूह से दूर करेगी. उदहारण के लिए अगर देश के नागरिक की बात करें तो उसमे रेजेक्ट और सेलेक्ट (श्रम खरीदने वाले) दोनो समूह के लोग साथ खडे नज़र आते हैं और उन्हें अलग करने वाली रेखा धुंधली पडती है.आख़िरी सवाल यह कि आखिर रेजेक्ट समूह पर ही इतना जोर क्यों? एक बड़ा कारण यह है कि बाकी सारी पहचाने भावनात्मक हैं जबकि रेजेक्ट समूह की पहचान रोटी, कपडा, मकान जैसी ठोस बुनियादी ज़रूरतों से जुडी है.
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1 comment:
मित्र आप की चिन्ताएं सही लग रही हैं.. पर पूरा पढ़ नहीं सका.. गम्भीर विषयों पर लम्बे लेख को कैसे छोटे-छोटे पैरा में तोड़-तोड़ कर अन्तर्जाल पर विचरने वाले के लिए सुगम बनाया जाय इसे आप अनामदास से सीखें.. शुभकामनाएं..
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