मालंच
वाम दल खुश हैं कि उन्हें मनमोहन सिंघ की अमेरिका परस्ती साबित करने का मौका मिल गया है. कॉंग्रेस खुश है कि परमाणु समझौते को मुद्दा बना कर वाम दलों का चीन मोह उजागर किया जा सकेगा. भाजपा खुश है कि राम मंदिर मुद्दे पर उसकी खोखली बातों से निराश हिंदुओं को फिर से अपने पीछे लामबंद करने का एक औजार राम सेतु मुद्दे के रूप मे मिल गया है. अब किसी को और कोई मुद्दा नही चाहिए.
मगर रेजेक्ट समूह के लिहाज से देखें तो इन् सबसे बड़ा मुद्दा है जिस पर किसी पार्टी का ध्यान नहीं है. मुद्दा यह है कि सरकार ने खेतिहर मजदूरों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक समिति का गठन किया था अर्जुन सेन गुप्ता समिति. इस समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि -
१) खेतिहर मजदूरों से आठ घंटे से ज्यादा काम ना लिया जाये.
२) ज्यादा काम लेने पर उनके लिए ओवर टाइम की व्यवस्था हो.
३) चार घंटे काम लेने के बाद उन्हें आधे घंटे का विश्राम दिया जाये.
मौजूदा संप्रग सरकार ने ये सभी सिफारिशें ठुकरा दीं हैं. उसका कहना है कि ये सिफारिशें व्यावहारिक नही हैं.
क्यों व्यावहारिक नही हैं, पता नही. कम से कम अखबारों को सरकार ने यह नही बताया है. लेकिन फिर भी हम समझ सकते हैं कि सरकार इन सिफारिशों को क्यों अव्यावहारिक मानती है. पहला और सबसे बड़ा कारण यह है कि इसका सीधा नुकसान सेलेक्ट समूह (यानी वह समूह जो श्रम खरीदता है) को होने वाला है. अगर खेतिहर मजदूरों को ओवर टाइम देने की व्यवस्था होगी तो उन बडे किसानो या ज़मींदारों को नुकसान होगा जो खेतहीन मजदूरों से न्यूनतम संभव मजदूरी पर अधिक से अधिक काम लेते हैं.
दूसरी बात यह कि अगर सरकार अपनी तरफ से ऐसा कोई प्रावधान करती है तो वह कथित मुक्त अर्थव्यवस्था के प्रावधानों का उल्लंघन होगा.
मुक्त अर्थव्यवस्था कहती है कि बाजार को खुला छोड दो. वह खुद वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य निर्धारित कर लेगा. चूंकि देश के श्रम बाजार मे खेतहीन मजदूरों की संख्या अधिक है और उनसे काम कराने वाले ज़मीन्दार गिने-चुने हैं, स्वाभाविक रूप से बाजार के नियम श्रम का मूल्य कम रखते हैं. गरजू होने के नाते मजदूर विश्राम या ओवर टाइम की सुविधा भी नही मांग सकते.
ऐसे मे अगर सरकार हस्तक्षेप करती है तो वह सेलेक्ट समूह को नाराज करेगी. यह खतरा वह बेमतलब नही उठाना चाहती. बेमतलब इसीलिये क्योकि दस करोड़ खेतिहर मजदूर भी अपनी इन सुविधाओं को लेकर सचेत नही है. ८५ करोड़ रेजेक्ट समूह (यानी वे तमाम लोग जो अपनी आजीविका के लिए किसी भी रूप मे और किसी भी कीमत पर अपना श्रम बेचने को मजबूर है.) का अन्य हिस्सा भी जो आम तौर पर अपने अधिकारों को लेकर संवेदनशील रहता है इस मुद्दे पर उदासीन है.
कारण शायद यह है कि उसे इस बात का एहसास नही कि खेतहीन मजदूरों की इस मांग से खुद उसका भविष्य भी जुड़ा है. अगर सरकार एक तरफ मजदूरी बढाती है तो वह इस तर्क का स्वीकार होगा कि इस देश के नागरिक बाजार मे बिकने वाले उत्पाद नही है कि उन्हें बाजार की शक्तियों के भरोसे छोड दिया जाये (वैसे बाजार को भी बाजारू ताकतों के भरोसे छोड़ना कितना ठीक है यह विचारणीय है).
साफ है कि यह मुद्दा रेजेक्ट और सेलेक्ट समूह के बीच सीधी जोर आजमाइश की स्थितियां बनाता है. सेलेक्ट समूह अपने हितों को लेकर अति संवेदनशील है और साम, दाम, दण्ड भेद - यानी सभी उपायों से अपने हितों की रक्षा को कृत संकल्प है. जबकि रेजेक्ट समूह अपने हितों के प्रति जागरूकता का कोई संकेत नही दे रहा, इसीलिये सरकार की पक्षधरता सेलेक्ट समूह की तरफ स्पष्ट है. यह स्थिति बदलेगी भी नही अगर रेजेक्ट समूह ऐसे ही सोया रहा.
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