-गोहाना से लौटकर दिलीप मंडल
लारा अगर दलित न होता तो शायद मारा ना जाता। अगर लारा विनम्र दीन-हीन गरीब दलित होता तो भी शायद मारा न जाता। लारा तब भी शायद न मारा जाता अगर वो पुलिस से डरने वाला दलित होता। अगर लारा गोहाना के दलितों का हीरो न होता तो भी शायद उसकी जान बच जाती। कुल मिलाकर लारा अगर लारा न होता तो शायद वो जिंदा होता। प्रभावशाली लोगों की नजरों में लारा में कई ऐब थे, इसलिए उसे मरना पड़ा। हरियाणा में सोनीपत जिले के गोहाना के वाल्मीकियों ने सिर उठाकर चलने की गलती की थी। उन्हें सबक तो सिखाया ही जाना था। इसलिए लारा मारा गया।
राकेश उर्फ लारा की 27 अगस्त को भीड़भाड़ भरे बाजार के पास गोलियों से भूनकर हत्या कर दी गई। उस समय वो अकेला था। लेकिन उसकी मौत का शोक सामूहिक था। लेकिन उसकी मौत के बाद उसके गम में गोहाना ही नहीं आसपास के कई गावों और जिलों के लोग शरीक हुए। शोक इस बात का कि जातीय उत्पीड़न के खिलाफ उठी एक आवाज असमय चुप करा दी गई। इस शोक में एक दिन हरियाणा बंद रहा। तीन दिनों तक गोहाना के बाजार नहीं खुले। तब से लेकर गोहाना के समता चौक पर लगातार धरना चल रहा है। धरने पर जवान, बूढ़े, बच्चें और औरतें सभी शामिल होती हैं।
पचास हजार की आबादी वाले गोहाना कस्बे में वाल्मीकि बस्ती छोटी सी है। लगभग 150 घरों की। लेकिन इस बस्ती की खास बात ये है कि दलितों के बारे में आम धारणा को ये गलत साबित करने वाली बस्ती है। गोहाना वैसे भी पढ़े-लिखे लोगों का कस्बा है। यहां की साक्षरता दर 67 फीसदी है जो राष्ट्रीय औसत 59 फीसदी से ज्यादा है। गोहाना की इस वाल्मीकि बस्ती में ज्यादातर लोग पढ़े-लिखे हैं। यहां के हर परिवार में कोई न कोई सदस्य सरकारी नौकरी में है। लारा के ही परिवार को लें तो उसके पिता सरकारी नौकरी से हाल ही में रिटायर हुए हैं। उसकी बहन म्युनसिपैलिटी में नौकरी करती हैं। भाई ड्राइवर है और लारा खुद ठेकेदारी करता था। गोहाना की वाल्मीकि बस्ती दलितों के बारे में आम छवि से उलट है। वहां साफ सुथरी गलियां हैं, अच्छे दलान हैं। खुद लारा का घर किसी शहरी उच्च मध्यवर्गीय घरों को टक्कर देता है। उस घर की फ्लोर मार्बल की है और दीवारों पर बेहतरीन रंग रोगन है। बढ़िया सोफा सेट से लेकर सारे साजोसामान उस घर में मौजूद हैं। इस बस्ती के लगभग सारे बच्चे स्कूल जाते हैं और नौजवानों के हाथों में आपको महंगे मोबाइल दिख जाएंगे। बस्ती में मोटरसाइकिल से लेकर कार तक हैं।
लारा की हत्या का दिन यानी 27 अगस्त, 2007 खास है। इससे ठीक दो साल पहले यानी 27 अगस्त 2005 को गोहाना में एक सवर्ण युवक बलजीत सिंह की दलित युवकों ने झगड़े के दौरान हत्या कर दी थी। झगड़ा इस बात का था कि सवर्ण युवकों ने फोटो पहचान पत्र बनाने पहुंची दलित महिलाओं के अपशब्द कहे थे, जिसे लेकर बात बढ़ गई। इसी दौरान किसी ने बलजीत को चाकू मार दिया। पुलिस ने फौरन कार्रवाई करते हुए कई दर्जन वाल्मीकि युवकों को गिरफ्तार कर लिया। इसमें से 12 लोग अब तक जेल में हैं। लारा भी इस मामले में अभियुक्त था, लेकिन सीबीआई की जांच में वो बरी हो गया। वैसे बलजीत की हत्या की एक खास समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। उनकी पंचायत हुई और फिर एक बड़ी भीड़ ने गोहाना की दलित बस्ती पर कहर बरपा कर दिया। 50 से ज्यादा घरों को आग लगा दी गई और सारे कीमती सामान या तो तोड़ दिए गए या फिर लूट लिए गए। इस घटना की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हुई और मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। वैसे दलितों के घर जलाए जाने के मामले में सारे लोग जमानत पर छूट चुके हैं और मामला कहीं पहुंचा नहीं है।
बलजीत की हत्याकांड की दूसरी बरसी के दिन लारा की हत्या को वाल्मीकि समुदाय अलग थलग घटना के तौर पर देखने को तैयार नहीं है। उनका कहना है कि इससे पहले वाल्मीकि बस्ती में एक मंदिर बनाने को लेकर हुए विवाद में एक डीएसपी की भीड़ ने पिटाई कर दी थी। उस समय से ही पुलिस का रुख वाल्मीकि समुदाय के खिलाफ था। पुलिस को लेकर दलितों में अविश्वास इस कदर है कि राज्य सरकार को उनकी मांग मानते हुए इलाके में सीआरपीएफ की तैनाती करनी पड़ी। दलितों को पुलिस से कई शिकायतें है। उनका कहना है कि गोली लगने के बाद पुलिस लारा को लेकर अस्पताल नहीं गई बल्कि बिरादरी वालों को ही ये जिम्मा उठाना पड़ा। लारा को लेकर रोहतक के अस्पताल पहुंचे युवकों को पुलिस ने वहीं गिरफ्तार कर लिया। अगले दिन पुलिस पोस्टमार्टम के बाद लाश छोड़ने लारा के घर तक नहीं पहुंची बल्कि लाश को एक गाड़ी में लावारिश छोड़कर चली गई। दलितों की ये भी शिकायत है कि पुलिस लारा हत्याकांड के दोषियों तक नहीं पहुंचना चाहती और सीबीआई जांच की घोषणा के बाद भी ये दावा कर रही है कि मामला सुलझा लिया गया है।
दरअसल सोनीपत के एसपी ने ये बयान जारी किया है कि लारा की हत्या हफ्तावसूली को लेकर हुए झगड़े की वजह से हुई है और इस मामले को दो दोषियों को पकड़कर मामला सुलझा लिया गया है। दरअसल अब पुलिस और प्रशासन की सारी कोशिश इस मामले को अपराध और कानून-व्यवस्था के मामले के तौर पर देखने की है। घटना के पीछे के सामाजिक संदर्भ का सामना करना प्रशासन से लेकर राज्य सरकार तक के लिए असहज है। क्योंकि ऐसा करने से समाज के दबंग लोगों के साथ प्रशासन की साठगांठ के किस्से खुल सकते हैँ।
हरियाणा में 19.4 फीसदी आबादी दलितों की है। यानी हर पांचवां हरियाणवी दलित है। लेकिन पुराने पंजाब, जिससे काटकर हरियाणा को अलग किया गया है, में अंग्रेजों के समय बने एक कानून की वजह से दलितों की खेतीबारी में बुरी हालत है। पंजाब लैंड एलिनिएशन एक्ट, 1900 के तहत गैर किसान जातियों को खेत खरीदने का अधिकार नहीं था। ये कानून 1951 तक बना रहा। पंजाब की खास जातियों की स्वामिभक्ति हासिल करने के लिए बनाए गए कानून का सबसे बुरा असर दलितों पर पड़ा और नतीजा ये हुआ कि पंजाब और हरियाणा के ज्यादातर दलितों के पास खेत नहीं हैँ। 1991 की जनगणना के मुताबिक हरियाणा के 81 फीसदी दलितों के पास आधे एकड़ से कम जमीन है। लेकिन ध्यान देने की बात है कि जिन दलितों ने गांव छोड़ दिया उनकी हालत बेहतर है। गांवों में लगभग आधे दलित गरीबी रेखा से नीचे हैं जबकि शहरों में 23 फीसदी दलित ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। शहरों में आने के बाद शिक्षा के अवसर बढ़ने और सरकारी नौकरियों में हिस्सा मिलने से दलितों की हालत बेहतर हो रही है। लेकिन दलितों की हालत में सुधार से सदियों से चला आ रहा सामाजिक संतुलन बदल रहा है।
पुराना सामाजिक ढांचा इस बदलाव को मान नहीं पा रहा है। इसलिए लारा को मरना पड़ा और इस तरह की ये आखिरी घटना है, ऐसा दावा करने की हालत में आज कोई नहीं है। लेकिन ऐसी हत्याओं से समाज में हो रहा बदलाव रुक जाएगा, इसका भ्रम भी शायद ही किसी को होगा।
1 comment:
हकीकत की तह तक जाती शानदार रिपोर्ट। लोग पढ़ नहीं रहे हैं, या पढ़कर चुप हैं?
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