राजीव रंजन
सुबह-सुबह
खपरे की दरारों से
घुस आती थी
सूरज की किरणें
रात को छन कर
गिरती थी चांदनी
इन्हीं दरारों से
लेट कर ताकता रहता था
इन्हीं दरारों को
सूरज मुझे जगाता था
चांदनी सुलाती थी
मगर अब यह सब
गुज़रे वक़्त की बात है
बंद हो गई हैं दरारें
राजधानी के कमरे में
ईंट, गिट्टी और सरिये से
नींद खुलती है अब
घड़ी के अलार्म से
आंख लगते-लगते
बीत जाता है
रात का तीसरा पहर
महत्वाकांक्षाओं की कीमत
चुकानी पडी है
सूरज, चांदनी और नींद से
1 comment:
sach hai. ham sab apnee mahatvakaankshaaon kee hee keemat chuka rahe hain. aur iss roop me chukaa rahe hain ki apnee hee prakriti se anjaane hote jaa rahe hain. magar kya mahatvakaankshayen hamari apnee prakriti ke anuroop naheen ho sakteen? kya inka sirf ek hee roop ho sakta hai jo hame khud se, apnee duniya se, apne chand-sitaron se door kar de?
puneet
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