-दिलीप मंडल
एक प्याली चाय-पत्ती ज्यादा, दूध और चीनी कम। तो लगी शर्त। अब मेरी समझ बता दूं। मेरे हिसाब से चुनाव जल्द होंगे। अगले साल की पहली छमाही में। यानी सरकार का कार्यकाल पूरा करने से एक साल पहले। अब मेरे आकलन के पीछे के राजनीतिक ज्ञान/अज्ञान का जायजा लीजिए। वैसे पॉलिटिकल रिपोर्टिंग छूटे कई साल हो गए हैं। सो, परदे के पीछे के कई खेल अब आसानी से मालूम नहीं होते। लेकिन आपके पैसे की चाय पीने का लालच है, इसलिए हार के खतरे के बावजूद जीत की पूरी उम्मीद के साथ शर्त लगा रहा हूं।
-लेफ्ट पार्टियां वास्तविक अर्थों में विपक्ष की भूमिका में आ गई हैँ। अगला चुनाव वो विपक्षी की तरह लड़ना चाहती हैं। ये कुछ वैसा ही है, जैसे कि वाल्मीकि के केस में हुआ था। वाल्मीकि ने जब अपने परिवार वालों से पूछा था कि अपराध कर्म करके मैं तुम सबको पाल रहा हूं। क्या तुम सब मेरे पाप में हिस्सा बंटाओगे। जवाब आप सब जानते हैं। उनके पाप में हिस्सा बंटाने को कोई तैयार नहीं हुआ। उसी तरह लगभग सवा तीन साल तक सरकार की मलाई खाने के बाद अब लेफ्ट पार्टियां कह रही हैं कि सरकार के पाप में उनका हिस्सा नहीं है।
इसलिए तय मानिए कि लेफ्ट पार्टियां इस सरकार से अब गईं या तब गईं। लेफ्ट के बाहर आने के बाद सरकार अल्पमत में हो जाएगी।
-दूसरी बात ये कि ये सरकार अपने कार्यकाल में ढेर सारी अलोकप्रियता बटोर चुकी है। इस सरकार के संगी-साथी भी अब सरकार से कटने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे कांग्रेस आखिरी दिन तक सरकार चलाते रहने की कोशिश करेगी।
-कांग्रेस के विधानसभा चुनावों में हारने का सिलसिला थमता नजर नहीं आता। अगली खेप के विधानसभा चुनाव में भी उसके लिए किसी अच्छी खबर की उम्मीद नहीं है। इन नतीजों के आने के बाद सरकार शायद ही चल पाएगी। सरकार के संगी साथी भी दरअसल इन चुनावों के नतीजों का ही इंतजार कर रहे हैं। उसके बाद सरकार में भगदड़ मच सकती है।
तो अब देखने की बात है कि चाय के तीन रुपए आप देते हैं या मैं। लगी शर्त?
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Friday, September 7, 2007
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1 comment:
ये शर्त आप किसी नेता से मत लगा लेना। पता चला कि सिर्फ शर्त जीतने के लिए ही सरकार गिर गयी या चल गयी।
दीप्ति।
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